तुम्हे लगता है
तुम्हे लगता है
बड़े सवेरे
चिड़िया गीत गाकर
शायद खुश हो रही है
तुम्हे क्या पता
वह इस बहाने
अपना कोई दुखड़ा रो रही है।
तुम्हे लगता है
भरी दोपहरी में
पेड़ के नीचे
छाया
शायद आराम से लेटी है
तुम्हे क्या पता
वह सूरज के डर से वहाँ छिपी बैठी है।
तुम्हे लगता है
आधी रात को पूनम
चांदनी में नहा नहाकर शायद
बाली हो रही है
तुम्हे क्या पता
इसी दुख में अमावस
साँवली हो रही है।
अब तलक हम देखते रहे हैं
दूसरों को अपनी नजर से।
क्यों न हम अब उन्हें देखे
अपनी नजर से।
तुम्हारा प्यार
मोर पंखी आँख में
दुबका हुआ
शिशु सा तुम्हारा प्यार
कुछ ऐसा हठीला हो गया है
दृष्टि का आँचल पकड़कर
मचलता है
बून्द बन कर उछलता है
फर्श गीला हो गया है
तर्क से
कटता कहाँ
बस, झेलता है
दूब के मानिन्द
दिन दिन फैलता है
कुछ गँठीला
कुछ कँटीला
हो गया प्यार
कुछ ऐसा हठीला हो गया है।
शब्द ब्रह्म
शब्द
सम्पत्ति है,
पूँजी है
उसे व्यर्थ मत जाने दो
चार की जगह दो को
अपनी बात सुनाने दो
जहाँ एक भी ज्यादा लगे
वहाँ
आधे से काम लो
जहाँ आधा भी ज्यादा लगे
वहाँ
उसके आधे पर विराम लगे
और फिर
संकेतों की भाषा
समझने दो लोगों को
फिर
मौन की परिभाषा
समझने दो लोगों को
ज्यों ज्यों तुम्हारा मौन
मुखर होता जाएगा
त्यों त्यों तुम्हारा शब्द
प्रखर होता जाएगा
शब्द ब्रह्म है जो मौन से प्राप्त होता है
मौन में जीता है
और मौन में ही समाप्त होता है।
बांसुरी
टूट जाएगी तुम्हारी सांस री!
ओंठ पर रख लो हमारी बांसुरी।
सात स्वर नव द्वार पर पहरा लगाए,
रात काजल आंख में गहरा लगाए।
तर्जनी की बांह को धीरे पकड़ना,
पोर में उसके चुभी है फांस री!
ओंठ पर…
दोपहर तक स्वयं जलते पांव जाकर,
लौट आई धूप सबके गांव जाकर।
अब कन्हैया का पता कैसे लगेगा?
कंस जैसे उग रहे है कांस री!
ओंठ पर…
बह रहा सावन इधर भादव उधर से,
कुंज में आएं भला माधव किधर से?
घट नहीं पनघट नहीं, घूंघट नहीं है,
आंसुओं से जल गए हैं बांस री!
व्यर्थ हो गया
दृष्टि नहीं तो दर्पण का सुख व्यर्थ हो गया।
कृष्ण नहीं तो मधुबन का सुख व्यर्थ हो गया।
कौन पी गया कुंभज बन कर खारा सागर?
अश्रु नहीं तो बिरहन का सुख व्यर्थ हो गया।
ऑंगन में हो तरह-तरह के खेल-खिलौने,
हास्य नहीं तो बचपन का सुख व्यर्थ हो गया।
भले रात में कण-कण करके मोती बरसें,
भोर नहीं तो शबनम का सुख व्यर्थ हो गया।
गीत बना लो, गुनगुन कर लो, सुर में गा लो,
ताल नहीं तो सरगम का सुख व्यर्थ हो गया।
चंदा की छांव पड़ी
चंदा की छांव पड़ी सागर के मन में,
शायद मुख देखा है तुमने दर्पण में।
ओठों के ओर-छोर टेसू का पहरा,
ऊषा के चेहरे का रंग हुआ गहरा।
चुम्बन से डोल रहे माधव मधुबन में,
शायद मुख चूमा है तुमने बचपन में।
अंगड़ाई लील गई आंखों के तारे,
अंगिया के बन्ध खुले बगिया के द्वारे।
मौसम बौराया है मन में, उपवन में,
शायद मद घोला है तुमने चितवन में।
प्राणों के पोखर में सपनों के साये,
सपनों में अपने भी हो गए पराये।
पीड़ा की फांस उगी सांसों के वन में,
शायद छल बोया है तुमने धड़कन में।
आकाशी झील के किनारे
आकाशी झील के किनारे
परदेशी झील के किनारे
पंखों कों चोंच में समेटे
बैठे बदराए बनपांखी।
सतरंगी गदराई छत से
बूंद-बूंद बिखरी मधुमाखी।
निकले पड़े छोड़ घर-दुवारे
कारे कजरारे बनजारे
कहां? आकाशी झील के किनारे
टूट गए धूप के खिलौने,
निमिया की छाया के नीचे।
अंकुर दो पत्तों को थामे,
सोया है पलकों को मीचे।
डूब गए चांद ओ’ सितारे
तैर गए किरण के इशारे
कहां? आकाशी झील के किनारे
उठे-गिरे आंचल में गुमसुम
दुबक रही बिजली की हंसुली।
अलकों की चौखट को थामे
सिसक रही माथे की टिकुली।
रुकें भला कब तक जलधारे
काजर की कोर के सहारे
कहां? आकाशी झील के किनारे
तन के तट पर
तन के तट पर मिले हम कई बार, पर –
द्वार मन का अभी तक खुला ही नहीं।
डूबकर गल गए हैं हिमालय, मगर –
जल के सीने पे इक बुलबुला ही नहीं।
जिंदगी की बिछी सर्प-सी धार पर
अश्रु के साथ ही कहकहे बह गए।
ओंठ ऐसे सिये शर्म की डोर से,
बोल दो थे, मगर अनकहे रह गए।
सैर करके चमन की मिला क्या हमें?
रंग कलियों का अब तक घुला ही नहीं।
चंदनी छन्द बो कर निरे कागजी
किस को कविता की खुशबू मिली आज तक?
इस दुनिया की रंगीन गलियों तले
बेवंफाई की बदबू मिली आज तक।
लाख तारों के बदले भरी उम्र में
मेरा मन का महाजन तुला ही नहीं।
मर्मरी जिस्म को गर्म सांसें मिली,
पर धड़कता हुआ दिल कहां खो गया?
चांद-सा चेहरा झिलमिलाया, मगर-
गाल का खुशनुमा तिल कहां खो गया?
आंख की राह सावन बहे उम्र भर,
दाग चुनरी का अब तक धुला ही नहीं।
बिरजू भैया
ईश्वर के अवतार हुए हैं, बिरजू भैया,
पर कितने लाचार हुए हैं, बिरजू भैया।
होरी के सिरहाने कोरी रात बिताई,
फिर चाहे बीमार हुए हैं, बिरजू भैया।
धनिया की विधवा लड़की का ब्याह कराने,
खेत बेचकर ख्वार हुए हैं, बिरजू भैया।
सुख-दु:ख में सब लोगों के हमराही बनकर,
एक बड़ा परिवार हुए हैं, बिरजू भैया।
ब्राह्मण-क्षत्रि-वैश्य-शूद्र से ऊपर उठकर,
मानव के आकार हुए हैं, बिरजू भैया।
मां-बहनें तो ठीक, गाय-बछिया रोए तो
करूणा की जलधार हुए हैं, बिरजू भैया।
होली और दिवाली हो या ईद-मुहर्रम,
घर-घर के त्यौहार हुए हैं, बिरजू भैया।
बालक, बूढ़े ओ’ जवान के दिल में सोई,
जीवन की ललकार हुए हैं, बिरजू भैया।
पर चुनाव में खड़े हुए जब इसी गांव से,
कुछ बदले आसार हुए हैं, बिरजू भैया।
जब चुनाव में जीत गए तो काम भूलकर,
केवल जय-जयकार हुए हैं, बिरजू भैया।
अब सुनते हैं – दिल्ली की संसद में जाकर
मिली-जुली सरकार हुए हैं, बिरजू भैया।
सरकारी शिष्टाचारों में ऐसे डूबे,
पूरे भ्रष्टाचार हुए हैं, बिरजू भैया।
कल कविता थे, कारीगर थे ओ’ किसान थे,
किन्तु आज कलदार हुए हैं, बिरजू भैया।
‘सत्ता तो उपहार नहीं, उपहास हो गई’
कहने को लाचार हुए हैं, बिरजू भैया।
किन्तु कौन सुनता सत्ता के गलियारे में?
शब्द यहां बेकार हुए हैं, बिरजू भैया।
मन की गांठ
मन की गांठ नहीं खुलती है गुरूडम के गलियारे में,
उसे खोलना है तो आओ अन्तर के उजियारे में।
तीन गुणों को सांप समझकर अब तक भाग रहे थे तुम,
दीपक एक जलाया होता चेतन के चौबारे में।
माया के परदे में छिपकर सबको नाच नचाता जो,
नहीं मिलेगा वह मंदिर में, मस्जिद में, गुरूद्वारे में।
हीरे, मोती, जरतारे में नहीं लगेगा मन मेरा,
वह तो भैया, डूब गया है मीरा के इकतारे में।
जीवन डूब रहा पश्चिम में, मौत झांकती पूरब से,
कब तक सोया पड़ा रहेगा मूरख, इस भिनसारे में?
बदले भला कहाँ
बदले भला कहाँ सेहालात इस शहर के।।
वादे तुम्हारे सारे आँसू हुए मगर के।।
ऐसी पड़ी डकैती, चौपट हुई है खेती
केवल बची है रेती पैंदी में इस नहर के ।
घी-दूथ आसमाँ पर, पानीगया रसातल
बस, सामने हमारा प्याले बचे जहर के।
डूबी हमारी कश्ती, टूटी हमारी नावें
बहना पड़ेगा सबको अब साथ में लहर के।
सब जल गए हैं पत्ते, फल-फूल बिक चुके हैं
मौसम भला करे क्या इस बाग में ठहर के।
तूफान क्या उठ बस, ज्वालामुखी फटा है
संकेत हो रहे हैं, सब आखरी प्रहर के।
क्या भाषा औरत है?
कागज के बिस्तर पर
किसी कलमधारी के सामने
भाषा
तीन तरह से
अपने कपड़े उतारती है।
जब भाषा
एक वैश्या की तरह
अपने कपड़े उतारती है
तो
यार को
वासना की भट्टी में
झौंककर
उसका सारा रस कस चूस लेती है
और
किसी नाली के घिनोने कीचड़ में
एक छिलके की तरह
सड़ने को फैंक देती है।
उस समय कलम धारी
कविता नहीं करता
कय करता है
गंदगी करता है।
ऐसी कविता उसे धन नहीं देती
यश नहीं देती
हाँ चौराहों पर चर्चित करती है।
वह
कविता इश्तहार और झण्डा बना देती है
और
कवि को
लोफर और गुण्डा बना देती है।
जब भाषा
एक पत्नी की तरह
अपने कपड़े उतारती है
तो
अपनी अस्मिता पति को सौंप कर
उसके अस्तित्व को अपने भीतर
बीज की तरह उतार लेती है
और अंकुर की तरह पैदा करती है
पीढ़ियों तक फूल देती है,
फल देती है,
अगली फसल के लिए बीज देती है
उस समय कलम धारी
दोनों हाथों से बही चौपड़े लिखता है
और टकसाल उगलता है
ऐसी कविता उसे यश नहीं देती
हर्ष भी नहीं देती
हाँ खूब धन देती है।
वह
कविता को धंधा और व्यापार बना देती है,
और कवि को
सेठ साहूकार बना देती है।
लेकिन
जब भाषा
माँ की तरह कपड़े उतारती है
तो नाली में पड़े अपने बेटे को
सीने से लगाती है,
चूमती है, दुलारती है,
सजाती है, सँवारती है।
अपना मीठा अस्तित्व पिलाकर
मुर्दे में भी ममता उतारती है।
उस समय माँ
नंगी होकर भी
नंगी नजर नहीं आती
बेटा नंगा होकर भी
नंगा नहीं दीखता।
उस समय
वह कविता नहीं लिखता
कविता उसे लिखती है
ऐसी कविता उसे धन नहीं देती
साधन नहीं देती
हाँ, धन्य कर देती है।
शाश्वत यश से कवि की
झोली भर देती है
वह
कविता को ऋचा का मंन्त्र बना देती है
और
कवि को
ऋषि की तरह स्वतन्त्र बना देती है।
भाषा सचमुच औरत है
अब तुम चाहे उससे
व्यभिचार करो
चाहे दुलार करो
भाषा औरत है
अब तुम चाहे उसे
गाली की तरह सुनो सुनाओ
चाहे चेक की तरह भुनाओ
चाहे मन्त्र की तरह गुनो गुनगुनाओ
भाषा औरत है।
धूमिल साँझ
मैंने तो सोचा था – चलकर पा लूँगा मंज़िल की सीमा
इतनी लंबी राह कि थक कर चूर हो गया चलते-चलते।
अपनी गली भली लगती थी
और भले थे सब नर-नारी
लेकिन चौराहे पर देखा – कई पंथ थे, कई पुजारी।
जिस से पूछो, वही बताता
जीवन की नूतन परिभाषा
शब्दों की छाया में जैसे-तैसे सारी उम्र गुज़ारी।
मैंने तो सोचा था जलकर
पा लूँगा सूरज की किरणें,
इतनी काली रात कि जग से दूर हो गया जलते-जलते।
कितनी बूढ़ी साथ हमारी,
किंतु साधना बीते पल की।
नन्हीं चोंच डुबाकर लेत थाह महासागर के जल की।
मरघट के सिरहाने बैठे
स्वप्न देखते हैं पनघट के।
वर्षों का सामान जमा है, लेकिन ख़बर नहीं है पल की।
मैंने तो सोचा-गलकर
पा लूँगा निर्झर का आँचल,
इतनी निष्ठुर धार की मैं भी क्रूर हो गया गलते-गलते।
उठा बाल सूरज-सा मेरा,
हाथ पूर्व के स्वर्ण शिखर से।
केसर से घुल गया अंधेरा, कंकर-कंकर गए निखर-से।
लेकिन संध्या ने मुसका कर
कहा कान में कुछ पश्चिम के
टूट गए सब इंद्रधनुष तरकस के शर सब गए बिखर-से।
मैंने तो सोचा था – ढलकर
पा लूँगा विश्राम ज़रा-सा
इतनी धूमिल साँझ कि मैं भी धूल हो गया ढलते-ढलते।
यादों की गंध
शब्दों का कद कितना छोटा है
फिर भी वे
नाप रहे कब से वेदांत।
झरता है बादल से नीला आकाश
पेड़ों की अंजुरी से
रिसती है धूप
सूरज की भाषा को कौन पढ़े?
सूर्यमुखी
उपवन में दिखता एकांत।
लोकगीत ओढ़े शरमाते हैं खेत,
तारों से
गुपचुप बतियाते खलिहान
मौसम के कानों में पहनाकर बात
लौटा है
परदेसी प्रांत।
कासों के वन में हैं यादों की गंध,
घाटी में
गर्भवती ध्वनियों के गाँव
जोहड़ में फेंक मरी मछली को
काँटे में फाँस रहा
तट का विश्रांत।
सुबह के हाथ अपनी शाम
ज़िंदगी की राह चलते थक गया हूँ,
साँस को कुछ मौत का विश्राम दे दूँ।
मैं ज़रा भी राह का हामी नहीं था,
खूब भरमाया तुम्हीं ने दे सहारा।
जब कभी भी कंटकों में डगमगाया,
आस-झाडू से तुम्हीं ने पथ बुहारा।
डेढ़ गज़ मरघट ज़रा तुम साफ़ कर दो,
मैं कफ़न औ’ लकड़ियों के दाम दे दूँ।
उम्र की कुछ चाह भी मुझको नहीं थी,
सुन नहीं पाया किसी कहते जवानी।
हाँ, रुदन की महफ़िलें तो बहुत देखीं,
आँख की मैं सुन चुका भीगी कहानी।
तुम हृदय की प्यालियाँ कुछ थाम लेना,
मैं अधर को आँसुओं के जाम दे दूँ।
मौत ने कुछ कफ़न बाँटे बस्तियों में,
कुछ चिता से लकड़ियाँ मैं खींच लूँगा।
ज़िंदगी में मिल न पाई दो गज़ी भी,
आज कुछ लज्जा-वसन से तन ढकूँगा।
तुम ज़रा-सा वक्त का शीशा दिखाना,
हडि्डयों को कुछ सुनहरा नाम दे दूँ।
सोचता हूँ फिर चिता यदि जल न पाई,
दूर पहले सिसकते अरमान कर दूँ।
मरघटों का शून्य आकर अधजला दिल
छीन लेगा, इसलिए मैं दान कर दूँ।
तुम ज़रा गंगाजली का मुँह झुकाना,
मैं सुबह के हाथ अपनी शाम दे दूँ।
पत्तों का खेल
तरह-तरह के पत्ते लाकर आओ, खेलें खेल!
मैं पीपल का कोमल-कोमल
चिकना-चिकना पत्ता लाऊँ!
और बनाऊँ उसका बाजा,
पीं-पी पीं-पीं उसे बजाऊँ!
मेरे पीछे तुम सब चलना, बन जाएगी रेल!
लाऊँ मैं बरगद का पत्ता,
उतना मोटा जितना गत्ता!
इस पत्ते का पत्र बनाकर,
भेजूँगा सीधे कलकत्ता!
बरगद के पत्ते की चिट्ठी ले जाएगी मेल!
अहा, नीम की पत्ती भाई,
अरे कभी क्या तुमने खाई!
इसकी टहनी दाँतुन बनती
और छाल से बने दवाई!
इसी नीम के फल से निकले कड़वा-कड़वा तेल!
अरे, आम का पत्ता अच्छा,
लगता ज्यों तोते का बच्चा!
इसी डाल पर आम लगा है,
मगर अभी तो है वह कच्चा!
माली से बिन पूछे तोड़ा तो जाओगे जेल!