कुछ सुख बचे हैं
यह क्या, भन्ते !
बोधिवृक्ष को खोज रहे तुम
महानगर में
यों यह सच है
बोधिवृक्ष की चर्चा थी कल
सभागार में
रक्त बहा है
इधर रात भर नदी-धार में
घायल पड़ा हुआ है
अंतिम-बचा कबूतर पूजाघर में
सड़क-दर-सड़क
भटक रहे तुम
लोग चकित हैं
सधे हुए जो अस्त्र-शस्त्र
वे अभिमंत्रित हैं
उस कोने में
बच्चे बैठे भूखे-प्यासे/डूबे डर में
वही तो नहीं बोधिवृक्ष
जो ठूँठ खड़ा है
उस पर ही तो
महाअसुर का नाम जड़ा है
उसके नीचे
जलसे होंगे नरमेधों के
इस पतझर में
बक्सों में यादें
बक्सों में बन्द हैं यादें
हर कपडा़ एक याद है
जिसे तुम्हारे हाथों ने तह किया था
धोबी ने धोते समय इनको रगडा़ था
पीटा था
मैल कट गया पर ये न कटीं
यह और अन्दर चलीं गईं
हम ने निर्मम होकर इन्हें उतार दिया
इन्होंने कुछ नहीं कहा
पर हर बार
ये हमारा कुछ अंश ले गईं
जिसे हम जान न सके
त्वचा से इनका जो सम्बन्ध है वह रक्त तक है
रक्त का सारा उबाल इन्होंने सहा है
इन्हें खोलकर देखो
इन में हमारे ख़ून की ख़ुशबू ज़रूर होगी
अभी ये मौन हैं
पर इन की एक एक परत में जो मन छिपा है
वह हमारे जाने के बाद बोलेगा
यादें आदमी के बीत जाने के बाद ही बोलती हैं
बक्सों में बन्द रहने दो इन्हें
जब पूरी फ़ुर्सत हो तब देखना
इन का वार्तालाप बडा़ ईष्यालु है
कुछ और नहीं करने देगा
और नपुंसक हुई हवाएं
और नपुंसक हुई हवाएँ
चलती हैं, बदलाव नहीं लातीं।
अंधे गलियारों में फिरतीं
खूब गूँजती हैं,
किसी अपाहिज हुए देव को
वहीं पूजती हैं,
पगडंडी पर
राजमहल के मंत्र बावरे अब भी ये गातीं।
फ़र्क नहीं पड़ता है कोई
इनके आने से,
बाज़ नहीं आते राजा
झुनझुना बजाने से,
नाजुक कलियाँ
महलसरा में हैं कुचली जातीं।
जंगली और हवाओं का
रिश्ता भी टूट चुका,
झंडा पुरखों के देवालय का है
रात फुंका,
राख उसी की
बस्ती भर में अब ये बरसातीं।
घोड़े ही घोड़े हैं
घोड़े ही घोड़े हैं
दौड़ रहे बेलगाम घोड़े हैं सड़कों पर
घोड़े ये आदिम हैं
सदियों से
ऐसे-ही दौड़ रहे
थकें नहीं थमें नहीं
यह कैसा पागलपन
कौन कहे
वैसे भी खतरे थोड़े हैं सड़कों पर
घोड़े ही घोड़े हैं
बिजली है पांवों में
बादल-से
उड़ते उनके अयाल
दूर कहीं झरने में
ऐड़ लगा
जल गाता है ख़याल
वही राग झरनों ने मोड़े हैं सड़कों पर
घोड़े ही घोड़े हैं।
कथा एक –
कहते हैं किरणों ने
रूप धरा घोड़ों का
बार-बार
मिलन हुआ था
उनके जोड़ों का
वही रूप किरणों ने छोड़े हैं सड़कों पर
घोड़े ही घोड़े हैं।
बच्चों की नाव में
आओ
चलें यात्रा पर
बच्चों की जादू की नाव में
नाव यह
बनाई है बच्चों ने
भोली मुस्कानों से
चिड़ियों के पंखों से
सीपी से
लहरों की तानों से
रेती पर
बालू के घर बने
टापू पर खेल रहे हैं बच्चे छाँव में
बच्चों की डोंगी में
परियाँ हैं
सूरज है – चांद है
हिरनों के छौने हैं
जंगल है
शेरों की मांद है
नाचेंगे
मिलकर ये सारे ही
पहुंचेगी डोंगी जब सपनों के गाँव में
वहाँ मिलेंगे हमको
लोग खड़े
इंद्रधनुष के पुल पर
नाव घाट लगते-ही
हमें लगेगा जैसे
आ पहुंचे अपने घर
वहीं
ढ़ाई आखर के मेले हैं
हम-तुम खो जाएँगे उसी ठाँव में।
ऋतु जलसे की
ऋतु जलसे की
महानगर में
नदी-किनारे जंगल काँपा
पिछली बार कटे थे महुआ
अबकी जामुन की बारी है
पगडंडी पर
राजा जी के आने की सब तैयारी है
आगे बडे मुसाहिब
उनने
जंगल का हर कोना नापा
बेल चढी है जो बरगद पर
आडे आती है वह रथ के
हर झाडी काटी जायेगी
दोनों ओर उगी जो पथ के
आते हैं हर बरस
शाह जी
नदी सिराने महापुजापा
उधर मडैया जो जोगी की
उसमें रानी रात बसेंगी
वनदेवी का सत लेकर वे
अपना कायाकल्प करेंगी
महलों में
बज रहे बधावे
जंगल ने डर कर मुँह ढाँपा।
आगे चल कर
आगे चल कर
इसी गली में
सिद्धनाथ मंदिर है, भाई
पहले यहाँ नहीं थी
ये सारी दूकानें
दिखती थी मंदिर की चोटी
सीधे इसी सडक से, मानें
अम्मा ने
इस मंदिर में ही
पिथरी थी हर साल चढाई
जोत आरती की दिपती थी
सडक-पार तक
हाथ जोडते थे उसको तब
इक्के पर जाते सवार भी
घर से ही
हमको देती थी
बमभोले की टेर सुनाई
हम छोटे थे
मंदिर से था सीधा नाता
मंदिर के पीछे थे चौकी –
गार्गी पहलवान का हाता
अब अपने
छज्जे से, भाई
कुछ भी देता नहीं दिखाई।
चमत्कारी सुबह यह
हाँ, चमत्कारी
सुबह यह
वर्ष की पहली किरण का मंत्र लाई
रात पिछवाड़े ढली
आगे खड़े सोनल उजाले
साँस भी तो दे रही है
नए सपनों के हवाले
धूप ने भी लो
सुनहले
कामवाली मखमली
जाजम बिछाई
वक़्त ने ली एक करवट और
मौसम हुआ कोंपल
उधर दिन संतूर की धुन
इधर वंशी झील का जल
और चिड़ियों की
चहक ने
चीड़वन की छाँव में
नौबत बिठाई
काश ! यह सपना हमारा
हो सभी का –
दिन धुले हों
आँख जलसाघर बने
हर ओर दरवाज़े खुले हों
आरती की धुन
नमाज़ी की पुकारें साथ दोनों
दें सुनाई
बैठी छज्जे पर चिडया
बैठी छज्जे पर चिड़या
जाने किसको
टेर रही है
बैठी छज्जे पर चिड़या
हमने बहुत बार देखा
उसको आते-जाते घर में
उड़ती फिरती —
पता नहीं कितनी ताक़त
उसके पर में
तिनके-तिनके
धूप हवा में
बिखराती दिन-भर चिड़या
यह चिड़या सूरज की बेटी
इसके पंख सुनहले हैं
जोत उन्हीं की
जिससे दमके
सारे महल-दुमहले हैं
मंदिर में
आरती जगाती
रोज सुबह आकर चिड़या
चमक रहे हीरे-पन्ने
चिड़या की उजली आँखों में
रात हुए
है यही दमकती
आम-नीम की शाखों में
आधी-रात
चन्द्रमा उगता
होती इच्छाघर चिड़या।
पीपल का पात हिला
पीपल का पात हिला
उससे ही पता चला
अभी सृष्टि ज़िन्दा है
शाहों ने मरण रचा
बस्तियाँ मसान हुईं
सुभ-शाम-दुपहर औ’ रातें
बेजान हुईं
कहीं कोई फूल खिला
उससे ही पता चला
अभी सृष्टि ज़िन्दा है
शहज़ादों का खेला
गाँव-गली रख हुए
सारे ही आसमान
अंधियारा पाख हुए
एक दीया जला मिला
उससे ही प्ता चला
अभी सृष्टि ज़िन्दा है
नाव नदी में डूबी
रेती पर नाग दिखे
संतों की बानी का
कौन भला हाल लिखे
रंभा रही कपिला
उससे ही पता चला
अभी सृष्टि ज़िन्दा है।
इस गली के आख़िर में
इसी गली के
आख़िर में है
एक लखौरी ईंटों का घर
किस पुरखे ने था बनवाया
दादी को भी पता नहीं है
बसा रहा
अब उजड़ रहा है
इसमें इसकी ख़ता नहीं है
एक-एक कर
लड़के सारे
निकल गए हैं इससे बाहर
बड़के की नौकरी बड़ी थी
उसे मिली कोठी सरकारी
पता नहीं कितने सेठों ने
उसकी है आरती उतारी
नदी-पार की
कालोनी में
कोठी बनी नई है सुंदर
मँझले-छुटके ने भी
देखादेखी
बाहर फ्लैट ले लिए
दादी-बाबा हैं जब तक
तब तक ही
घर में जलेंगे दिये
पीपल है
आंगन में
उस पर भी रहता है अब तो पतझर ।
खोज-खोज हारे हम
खोज-खोज हारे हम
पता नहीं
कहाँ गई अम्मा की चिट्ठी
अम्मा ने उसमें ही
ख़बर लिखी थी घर की
‘टूटी है छत अगले कमरे की
सीढ़ी भी पोखर की
‘हुई ब्याह-लायक है
अब तो जानो
बड़के की बिट्टी
‘बाबू जी बुढ़ा गए
याद नहीं रहता है कुछ भी
खेत कौन जोते अब
रहता बीमार चतुर्भुज भी
‘गाँव के मज़ूर गए
बड़ी सड़क की ख़ातिर
तोड़ रहे गिट्टी’।
बच्चों के लिए हुई
अम्मा की चिट्ठी इतिहास हि
किंतु हमें लगती वह
बचपन की मीठी बू-बास है
चिट्ठी की महक
हमें याद है
जैसे हो सोंधी खेतों की मिट्टी ।
अपराधी देव हुए
अपराधी देव हुए
ऎसे में क्या करें मंदिर की घंटियाँ
उनको तो बजना है
बजती हैं
कई बार
आपा भी तजती हैं
धूप मरी भोर-हुए
कैसे फिर धीर धरें मंदिर की घंटियाँ
भक्तों की श्रद्धा वे
झेल रहीं
आंगन में अप्सराएँ
खेल रहीं
उनके संग राजा भी
देख-देख उन्हें तरें मंदिर की घंटियाँ
एक नहीं
कई लोग भूखे हैं
आँखों के कोये तक
रूखे हैं
दर्द सभी के इतने
किस-किस की पीर हरें मंदिर की घंटियाँ ।
गीत तुम्हारा
गीत तुम्हारा
यह है झुलसी धरती का
सुनें भद्रजन
कुछ सूरज की तपन
और कुछ आँच हमारी भी सिरजी है
आग कोख में है सागर की
बूँद-बूँद कर हमने पी है
किस्सा
हरबुझी साँसों की परती का
सुनें भद्रजन
कथन किसी का
सुलग रहे सब धीमी-धीमी एक आँच में
हमें दिखीं कल लपटें उठती
जलसाघर के नए नाच में
ज़िक्र गीत में
बुझे दिये की बत्ती का
सुनें भद्रजन
लोग जला कर कल्पवृक्ष को
अंगारे चुन कर लाए हैं
जले-ढहे पूजाघर के ही
अब सबके घर में साये हैं
कहीं नहीं
एहसास किसी को ग़लती का
सुनें भद्रजन
ज़रा सुनो तो
ज़रा सुनो तो
घर-घर में अब गीत हमारे
गूँज रहे हैं !
यहाँ चिता पर हम लेटे
हैं धुआँ हो रहे
और देह के कष्ट हमारे
सभी खो रहे
पार मृत्यु के
हम जीवन की नई पहेली
बूझ रहे हैं !
मंत्र रचे थे
हमने धरती के सुहाग के
जो साँसों में दहती हर पल
उसी आग के
उन्हीं अनूठे
मंत्रों से सब नए सूर्य को
पूज रहे हैं !
अंतिम गीत हमारा यह
रह गया अधूरा
हाँ, कल लौटेंगे हम
इसको करने पूरा
काल द्वीप पर
नए-नए सुर-ताल हमें अब
सूझ रहे हैं !
मेघ सेज पर
कल सपने में
नदी-पार के जंगल आए!
जंगल में थीं हँसती फिरतीं
वन कन्याएँ
साँस-साँस में उनके थीं
ऋतु की कविताएँ
वन के भीतर
खुली चाँदनी के थे साए
वहीं रात भर
इंद्रधनुष ने रंग बिखेरा
तुमने भी कनखी से हम पर
जादू फेरा
हाँ, सजनी
कल मेघ सेज पर भी थे छाए!
हम-तुम दोनों
नदी किनारे घूमे जी भर
बच्चे हमको दिखे बनाते
बालू के घर
हमने भी
आकाश-कुसुम थे वहीं खिलाए!
बरगद ठूँठ हुआ
बरगद अपने आँगन में था
कल वह ठूँठ हुआ
उसकी जड़ को
पता नही कब दीमक चाट गई
अमरबेल लडकों ने रोपी
घर में नई-नई
पुरखों ने पाला-पोसा था
अंधा हुआ सुआ
सगुन-चिरइया का जोड़ा
बरगद पर रहता था
तब यह बरगद
रामराज की गाथा कहता था
इसके साये देते थे
सपनों की हमें दुआ
परिक्रमा करते थे इसकी
सूरज-चाँद सभी
हमें न व्यापी इसके रहते
विपदा कोई कभी
‘वटसावित्री’ पर किसको
पूजेंगी बड़ी बुआ
टेसू के फूलों वाले दिन
दिन
टेसू के फूलों वाले कब आएँगे
पता नहीं
दरस-परस की
नहीं रही अब अपने बस की
इच्छाएँ भी हुईं अपाहिज
आम-गुलमोहर
चैती-आल्हा कब गाएँगे
पता नहीं
आबोहवा धरा की बदली
बेमौसम होते हैं पतझर
जो पलाश-वन में रहते थे
महानगर में हैं वे बेघर
महाहाट से
सपने साहू कब लाएँगे
पता नहीं
वृन्दावनवासी देवा भी
बैठे भौंचक सिंधु-किनारे
आने वाले पोत वहीं हैं
जिनसे बरसेंगे अंगारे
बरखा के
शीतल-जल मेघा कब छाएँगे
पता नहीं
वानप्रस्थी ये हवाएँ
सुनो, साधो !
वानप्रस्थी ये हवाएँ- कहाँ जाएँ
वन नहीं हैं !
दूर तक सड़कें-इमारत
शोर है बस
धुएँ के बादल घिरे
हर ओर नीरस
सुनो, साधो !
इस नगर में सिर्फ़ हैं अंधी गुफ़ाएँ
वन नहीं हैं !
एक कोने में खड़ी हैं
ये ठगी-सी
बावरे दिन
वक्त है गदहा-पचीसी
सुनो साधो !
जल रही है झील- झुलसी हैं दिशाएँ
वन नहीं हैं !
सोचती ये
कहाँ नंदन-वन पुराने
उत्सवी आकाश
चिड़ियों के ठिकाने
सुनो, साधो !
क्यों अपाहिज हो रही हैं ये हवाएँ
वन नहीं हैं !
शपथ तुम्हारी
शपथ तुम्हारी
हाँ, नदिया- पहाड़ जंगल
है शपथ तुम्हारी !
मरने नहीं उसे देंगे हम
जो तुमने है सौंपी थाती
यानी सपने, ढाई आख़र
औ’ दीये की जलती बाती
होने कभी नहीं
देंगे हम
अपने पोखर का जल खारी !
संग तुम्हारे हमने पूजे
इस धरती के सभी देवता
ग्रह-तारा-आकाश-हवाएँ
भेजा सबको रोज़ नेवता
तुलसीचौरे की
बटिया की
हमने है आरती उतारी !
नागफनी के काँटे बीने
और चुने आकाश-कुसुम भी
हमने सिरजे धूप-चाँदनी
बेमौसम के रचे धुँध भी
सारी दुनिया के
नाकों पर
गई हमारी विरुद उचारी !
सुनो सागर
वक़्त बीता
आँख जब बहती नदी थी
दूसरों के दर्द को
महसूस करने की सदी थी
चाँद भी तब था नहीं हरदम
अधेरे पाख में
सुनो सागर!
नेह करुणा की नदी वह
अभी पिछले दिनों सूखी
चल रही थीं बहुत पहले से
हवाएँ तेज़ रुखी
मर चुकी हैं कोपलें भी आख़िरी
इस शाख में
सुनो सागर!
बूँद भर जल ही बहुत
जो आँख को सागर करेगा
मेंह बन कर वही
सूखी हुई नदियों को भरेगा
प्राण फूटेगा उसी क्षण चिता की
इस राख में
सुनो सागर!
हम नए हैं
हम नए हैं
नए थे भी
नए आगे भी रहेंगे
यह हमारा गीत होना
सुनो समयातीत होना है
बन सदाशिव
ज़हर से अमृत बिलोना है
कल दहे थे
दह रहे हैं
कंठ आगे भी दहेंगे
सूर्य के संग यात्रा में
आज या कल नहीं होता
गीत का क्षण है अजन्मा
वह कभी भी नहीं खोता
बह रहे थे
कल बहे थे
जल हमेशा ही बहेंगे
सत्य वह है
जो रहा सुंदर हमेशा
वह नहीं जिसके सदा ही
बीतने का अंदेशा
कल कहा था
कह रहे हैं
यही कल भी हम कहेंगे।
हाँ सुकन्या
हाँ, सुकन्या!
यह नदी में बाढ़-सी तुम
कहाँ उमड़ी जा रही हो
उधर बड़का हाट –
उसमें तुम बिलाओगी
राजपथ पर
रोज़ ठोकर खाओगी
हाँ, सुकन्या!
वहाँ जा कर भूल जाओगी
गीत यह जो गा रही हो
अरी परबतिया!
यही पर्वत तुम्हारा है ठिकाना
यहीं से जन्मी
इसी में तुम समाना
हाँ, सुकन्या!
दूर के ढोल/सुन कर जिन्हें
तुम भरमा रही हो
इधर देखो
यही आश्रम है तुम्हारा
जिसे पूरखों ने
तपस्या से सँवारा
हाँ, सुकन्या!
सुख मिलेगा यहीं सारा
खोजती तुम जिसे अब तक आ रही हो
दिन वसंत के
दिन वसंत के
और तुम्हारी हँसी फागुनी
दोनों ने है मंतर मारा
चारों और हवाएँ झूमी
हम बौराये
तोता दिखा हवा में उड़ता
हरियल पंखों को फैलाये
वंशी गूँजी
लगता ऋतु को टेर रहा है
सडक-पार बैठा बंजारा
पीतबरन तितली
गुलाब पर रह-रह डोली
देख उसे
चंपा की डाली पर आ बैठी
पिडुकी बोली
‘कहो सखी
क्या भर लेगी तू अभी-अभी
खुशबू से अपना भंडारा
धूप वसंती साँसों की है
कथा कह रही
आओ, हम-तुम मिलकर बाँचें
गाथा जो है रही अनकही
कनखी-कनखी
तुमने ही तो फिर सिरजा है
सजनी, इच्छावृक्ष कुँआरा
कहो गीतों से
कहो गीतों से
कि वे सन्यास ले लें
बेतुका है यह समय
वे लय-तुकों की बात करते
नेह का दीपक जलाते
उसे आंगन-घाट धरते
देखते वे नहीं
घर में चढ़ीं कितनी अमरबेलें
कभी वंशीधुन
कभी वे शंख का हैं नाद जीते
किसी भोले देवता के संग
युग का जहर पीते
चाहिये उनको
कि वे भी छल-कपट के खेल खेलें
याद करते रामजी के राज की वे
शाह अबके सभी अंधे
संत-बानी साधते वे
शब्द अब तो हुए धंधे
नियति उनकी
वे समय के अनर्गल संवाद झेलें
धूप-बीज बोये थे
पुरखों ने
कल ही तो धूप-बीज बोये थे
फले नहीं
बंजर थी माटी कुछ
कुछ हमसे चूक हुई
कुहुक सगुनपाखी की
जाने कब हूक हुई
फागुन में
घर में हैं रितुपाखी आये भी
हमसे वे पले नहीं
जहरीली बरखा में भीगे
आकाश मिले
राख रहे बरसाते
शाहों के नए किले
सिक्के जो
रामराज के युग के
इस अंधे युग में वे चले नहीं
हिमगिरि से सागर तक
सबने पत खोई है
मन्दिर की देवी भी
बार-बार रोई है
हमने ही
मोड़े थे रुख कल तूफानों के
अब वे हौसले नहीं
गीत-मन्त्र
सुनो, बन्धु
यह गीत-मन्त्र है
इसे जपो पूरे मन से
इसमें भेद छिपा है
तुलसी औ’ कबिरा की बानी का
जिक्र हुआ है इसमें
गंगा-कावेरी के पानी का
इसमें माटी-गंध
भरी है
जानो रामखिलावन से
रामखिलावन है हलवाहा
गाता इसे बीज-बोते
उसका बोया जो भी खाते
उनके काज सुफल होते
लय इसकी सीखी
पुरखों ने
जलपाखी के कूजन से
वन्शीधुन के औ’ अजान के
इसमें सुर हैं मिले-जुले
हमने जपा इसे जब-जब भी
मन के सभी कपाट खुले
आखर-आखर
इसके उपजे
नेह-बसे घर-आंगन से
सिकुड़ गए दिन
ठंडक से
सिकुड़ गए दिन
हवा हुई शरारती – चुभो रही पिन
रंग सभी धूप के
हो गए धुआँ
मन के फैलाव सभी
हो गये कुआँ
कितनी हैं यात्राएँ – साँस रही गिन
सूनी पगडंडी पर
भाग रहे पाँव
क्षितिजों के पार बसे
सूरज के गाँव
आँखों में – सन्नाटों के हैं पल-छिन
बाँह में जमाव-बिंदु
पलकों में बर्फ
उँगलियाँ हैं बाँच रहीं
काँटों के हर्फ
धुंधों के खेत खड़ीं – किरणें कमसिन
कोहरा है मैदान में
कोहरा है मैदान में
उड़कर आये इधर कबूतर
बैठे रोशनदान में
रहे खोजते वे सूरज को
सुबह-सुबह
पाला लटका हुआ पेड़ से
जगह-जगह
कोहरा है मैदान में
दिन चुस्की ले रहा चाय की
नुक्कड़ की दूकान में
आग तापते कुछ साये
दिख रहे उधर
घने धुंध में, लगता
तैर रहे हैं घर
कोहरा है मैदान में
एक-एक कर टपक रहे
चंपा के पत्ते लॉन में
कोहरे में सब कुछ
तिलिस्म-सा लगता है
पिंजरे में तोता भी
सोता-जगता है
कोहरा है मैदान में
डूबी हैं सारी आकृतियाँ
जैसे गहरे ध्यान में
सब कुछ डूबा है कोहरे में
सब कुछ डूबा है कोहरे में
यानी
जंगल, झील, हवाएँ – अँधियारा भी
अभी दिखी थी
अभी हुई ओझल पगडंडी
कहीं नहीं दिख रही
बड़े मन्दिर की झंडी
यहीं पास में था
मस्जिद का बूढ़ा गुंबद
उसके दीये का आखिर-दम उजियारा भी
लुकाछिपी का जादू-सा
हर ओर हो गया
अभी इधर से दिखता बच्चा
किधर खो गया
अरे, छिप गया
किसी अलौकिक गहरी घाटी में जाकर
उगता तारा भी
उस कोने से झरने की
आहट आती है
वहीं भैरवी राग
सुबह छिपकर गाती है
दिखता सब कुछ सपने जैसा
यानी बस्ती
दूर पहाड़ी पर छज्जू का चौबारा भी
शांत जंगल है
राह सूनी
शांत जंगल है
हवा भी चुप खड़ी है
मौन है आकाश
झरने धुंध की चादर लपेटे
झील पर सुख से बिरछ
परछाइयों को लिए लेटे
पास के
बाजार में भी
नहीं कोई हड़बड़ी है
सो रहे हैं बर्फ के नीचे
अभी मधुमास के दिन
मुँह-ढँके छिपकर कहीं
बैठी अकेली धूप कमसिन
इधर पिछली
रात की
बीमार परछाईं पड़ी है
जप रहा है रोशनी के मंत्र
पर्वत का शिखर वह
सूर्यरथ का बावरा घोड़ा
सिहरता उधर रह-रह
पास के इस
पेड़ की भी
आखिरी पत्ती झड़ी है
रात-भर हम
रात-भर हम
रहे सूरज के भरोसे
सुबह तो वह आयेगा ही
पर सुबह ने ठगी की
वह धुंध ओढ़े हुए आई
बावरे आकाश ने भी
बर्फ की चादर बिछाई
और हम
बैठे रहे इस बात में ही
धूप का देवा कभी मुस्काएगा ही
ओस की बूँदें जमी हैं
पत्तियों पर
घास पर भी
रहा गुमसुम-मौन जंगल
और सूना देवघर भी
सोचते हम –
गाँव का बूढ़ा भिखारी
अभी कबिरा का भजन तो गाएगा ही
घोसले में दुबककर
बैठा हुआ है सगुनपाखी
नदी भी थिर दे रही
अंधे समय की मूक साखी
याद आई
दुआ हमको पूर्वजों की
कभी तो यह समय भी कट जाएगा ही
दस्तकें हैं दे रहीं भीगी हवाएँ
द्वार खोलो
दस्तकें हैं दे रहीं भीगी हवाएँ
अभी जो बौछार आई
लिख गई वह मेह-पाती
उधर देखो कौंध बिजुरी की
हुई आकाश-बाती
दमक में उसकी
छिपी हैं किसी बिछुड़न की व्यथाएँ
नागचंपा हँस रहा है
खूब जी भर वह नहाया
किसी मछुए ने उमगकर
रागबरखा अभी गाया
घाट पर बैठा
भिखारी दे रहा सबको दुआएँ
पाँत बगुलों की
अभी जो गई उड़कर
उसे दिखता दूर से
जलभरा पोखर
उसी पोखर में
नहाकर आईं हैं सारी दिशाएँ
आयने में झुर्रियों के अक्स हैं, हम क्या करें
आयने में झुर्रियों के अक्स हैं, हम क्या करें
उम्र-भर के दर्द दिल पर नक्श हैं, हम क्या करें
क्या बताएँ- हम हुए किस्सा पुराने वक़्त के
शहर में तो अज़नबी सब शख़्स हैं, हम क्या करें
साल पहले मरे अपने दोस्त रामादीन थे
रात पिछली मरे अल्लाबख़्श हैं, हम क्या करें
कहीं होते रोज़ जलसे- कहीं अंधी रात है
और नंगे हो रहे अब रक़्स हैं, हम क्या करें
फेन साबुन का नदी पर- ताल पर भी झाग है
इन दिनों परियाँ लगातीं लक्स हैं, हम क्या करें
ज़िंदगी के मायने हम पूछते
ज़िंदगी के मायने हम पूछते
प्रश्न ऐसे, लोग हैं कम पूछते
काश, लड़की की, उधर जो है खड़ी
आँख क्यों हो रही है नम, पूछते
संत होते तो उन्हीं से आज हम
क्यों जला कल रात आश्रम, पूछते
ग़र हमें मिलता शहर लखनऊ तो
गोमती क्यों हुई बेदम, पूछते
साधु असली अगर होते, तभी तो
क्यों अपावन हुआ संगम, पूछते
जनम-ज़िंदगी हाट-लाट से परे रहे वे
जनम-ज़िंदगी हाट-लाट से परे रहे वे
युग खोटा यह- इसमें भी हैं खरे रहे वे
समझ न पाये दुर्योधन की राजसभा को
भीतर अपने रामराज को धरे रहे वे
संत नहीं थे, फिर भी धूप सभी को बाँटी
सहज नेह से अपने मन को भरे रहे वे
नहीं सजावट बने किसी के नंदनवन के
वे बरगद थे, पतझर में भी हरे रहे वे
अपने जीवट से उनने यह स्वर्ग बनाया
नहीं किसी के भी, साधो, आसरे रहे वे
आँसुओं की कथा यह फिर-फिर कहेगा
आँसुओं की कथा यह फिर-फिर कहेगा
हाँ, हमारा गीत यह ज़िंदा रहेगा
दर्द की मीनार के क़िस्से सुनाता
तेज़ झोंके भी हवा के यह सहेगा
सुनो, इसने दुक्ख की तासीर देखी
वक़्त के तूफ़ान के सँग भी बहेगा
पत्तियों का शोर सुनते हो, पता है
गीत कहता – रात-भर जंगल दहेगा
जो हुआ, उसकी ख़बर देता रहा है
और जो होगा, उसे भी यह कहेगा
पगडंडियों की बात (कवि का कथ्य)
पगडंडियाँ कई किसिम की हैं, जो खो गई हैं । ये पगडंडियाँ हैं उन खुरदुरे स्नेहिल रिश्तों की, जो आदमी से आदमी को एक आत्मीय पुलक से जोड़ती हैं; ये पगडंडियाँ उस आन्तरिकता की हैं जो कविता बनती है । अंदर जो स्वाभाविक लय की एक सोंधी प्यास होती है, वही काव्य को महकाती है । ये पगडंडियाँ उस घनिष्ठ पारस्परिकता की हैं, जो हमारी अस्मिता की सही पहचान है । इस संकलन की कविताओं में इन सभी पगडंडियों को लौटने का आग्रह है । कम से इनका अभीष्ट तो यही है ।
ये सभी रचनाएँ आज से लगभग डेढ़ दशक पूर्व रची गईं । गीत की प्रत्यक्ष-परोक्ष निरन्तरता के बीच कुछ मनस्थितियाँ अतुकांत लयात्मकता की भी रहीं हैं, जिनसे ही इन कविताओं का जन्म हुआ । संकलन के अंत में सम्मिलित दोनों लंबी इतिवृत्तात्मक रचनाओं को सृष्टि एक आंतरिक भावावेश में हुई । अशोक के कलिंग-विजय के प्रसंग को किसी व्याख्या की दरकार नहीं है और न ही उसी भाँति पौराणिक कच-देवयानी आख्यान को । ये दोनों रचनाएँ एक ही समय की हैं । परमपूज्य स्व० पं. सोहनलाल द्विवेदी की ‘उर्वशी’ और ‘वासवदत्ता’ जैसी कालजयी रचनाओं को ईस्वी सन १९७३ के पूर्वार्ध में उनके श्रीमुख से सुनने के बाद मन में जो एक प्रवाहमयी लय का विस्तार हुआ, उसी से इन रचनाओं का विस्फोट हुआ । कविता में छंद की सार्थकता को पूरी तरह स्वीकारते हुए भी मुझे लगता रहा है कि छंद के अनुशासन से कभी-कभी मुक्ति-कामना निरर्थक या निंदनीय नहीं है । शर्त एक ही है कि वह स्वाभाविक हो और छंदानुशासन से ही उपजे । पहले छंद हो, तभी उससे मुक्ति की बात हो सकती है । इन रचनाओं में भी मन की लयात्मकता सर्वत्र उपस्थित है, चाहे इनमें छंद के पारंपरिक अनुशासन से अलग होने की इच्छा रही है । छंदानुशासन से मुक्ति की यह यात्रा कहाँ तक सही दिशा में रही, इसका निर्णय तो सुधी पाठक ही करेंगे ।
क्षितिज ३१० अरबन एस्टेट- २
हिसार -१२५००५
– कुमार रवीन्द्र
लौटा दो पगडंडियाँ.
कहाँ ले गए, मित्र !
हमारी पगडंडियों को कहाँ ले गए
जिन पर चलने के
हमारे पैर आदी थे ।
उन पगडंडियों में
हमारे पुरखों की छाप थी
वे आत्मीय थीं हमारी
सदियों की उस चाल ने
कभी कोई ग़लती नहीं की थी
उन्हें पता था
हमारे देश की मिट्टी
किस चाल के लायक है ।
माना कि
पगडंडियाँ सँकरी थीं
जिन पर तुम्हारे जुलूस नहीं चल सकते थे
माना कि
उन पर गर्दो-गुबार थी
जिससे तुम्हारे उजले तन मैले होते थे
माना कि
तुम्हारे बड़प्पन के अनुरूप नहीं थीं वे
माना कि
उनमें वह सब था
जिसे तुम आज पिछड़ापन कहते हो ।
पर मेरे भाई !
वे कितनी अपनी थीं
तुम्हें क्या पता –
क्योंकि तुम्हारे पैमाने दूसरे हैं ।
उन पगडंडियों पर चलते
हमारे पाँव मैले होते थे
मन नहीं
उनका सँकरापन
पिछड़ापन
हमें खोलता था
बढ़ाता था
डराता नहीं
सदियों से चलती रहीं थीं वे
बहुत कुछ देखा था उन्होंने
चाहतीं तो वे ऐसा कर सकतीं थीं ।
इतनी अनुभवी
इतनी ऐतिहासिक
पगडंडियों को तुम कहाँ ले गए, हमारे भाग्य-विधाता !
संग्रहालयों में रखने से
समय इतिहास नहीं बनते
न ही काल-पात्र में उन्हें गाड़ने से
उन्हें पगडंडियों से गुज़रना पड़ता है
इसके लिए ।
यह लंबी-चौड़ी चमचमाती सड़क
यह विस्तृत राजमार्ग
जो पगडंडी के स्थान पर
तुमने हमें दिए
और जिन पर रोज़ निकलते
तुम्हारे जुलूस कभी थकते नहीं
हमारे नही हो सकते
क्योंकि उन पर हमारी पहचानी
धूल नहीं है ।
हमारे पैर इन पर चलते थरथराते हैं ।
इतनी गहमागहमी के वे आदी नहीं हैं ।
ये अजनबी हैं
पराई हैं हमारे पैरों के लिए ।
गरीब के पाँव गलती नहीं करते
पहचानने में ।
लौटा दो हमें वह धूल
जो हमें ताकत देती थी
हमारी पगडंडियाँ फिर से
हमारे पाँव-तले बिछा दो
ताकि हम ज़िंदा रह सकें
तुम्हारे दिए ढँग से नहीं
बल्कि अपने ढँग से ।
तुमहारी इन फिसलनभरी सड़कों पर
हमारी ज़वानी के
फिसल जाने का बड़ा डर है
और एक बार फिसल जाने पर
उन पर सँभलना तो नामुमकिन ही है ।
हमारी पगडंडियाँ
ऐसे मौकों पर थाम लेतीं थीं हमारे पाँव
और गिरने पर भी
ऐसे सँभालतीं थीं
जैसे पैबन्दों भरा माँ का प्यारा आँचल ।
करारी हार के क्षणों में भी
उन्होंने हमें जीने दिया था
हमारी अपनी शर्तों पर
पूरे सम्मान और विश्वास के साथ ।
प्रतिबिम्ब की खोज में
आज फिर मैं सागर के सामने खड़ा हूँ
कल इसी जगह
मैं अपना प्रतिबिम्ब छोड़ गया था
मैं उसे खोजने आया हूँ ।
अनंत जलधाराओं के द्वीपों से
सदियों पूर्ण के अनगिनत प्रतिबिम्ब
खिलखिलाकर मुझे छेड़ते हैं –
पगले कौन-सा प्रतिबिम्ब तुम्हारा है
यह या वह या और कोई ।
कोई भी प्रतिबिम्ब एक-सा नहीं है ।
प्रतिबिम्ब प्रतिबिम्ब में प्रतिबिम्बित होते-होते
अनंत बिम्ब बन गए हैं
जिनकी कोई अलग पहचान नहीं है |
मैं उन सभी को जोड़ना चाहता हूँ
जो मेरी पहचान थे ।
पर …
यह अनंत बिम्ब
मेरे उन सभी बिम्बों का प्रारूप है
जिन्हें मैं अलग-अलग जीता रहा
और कभी भी पहचान न सका ।
जन्मों के इस संगम पर खड़ा
आज भी मैं उन्हें पहचान नहीं पा रहा हूँ ।
समय की लहरों में डूबते-उतराते
मेरे अनेक बिम्ब
मेरे आँखों में उग आये हैं ।
अपनी पहचान जताने के लिए
वे मेरी अस्थियों और चिताओं की
गवाही लाये हैं – कैसी विडंबना है ।
अपनी हथेली की क्रोड़ में उग आए
इस क्षण के प्रतिबिम्ब की अंजलि
जल में छोड़ते हुए मैं सोचता हूँ
शायद यही मेरी पहचान है
पर दूसरे ही क्षण
अंजलि में एक अज़नबी
खिलखिलाने लगता है
मेरी स्वयं की पहचान उस एक क्षण में स्तंभित
सागर की उस अथाह गरिमा में बह जाती है
जिसने मेरी
अनंत साँसें लहरों के अर्घ्य में समर्पित की हैं ।
रश्मियों के अनेकानेक बिम्ब
मेरी जिज्ञासा का समर्थन करते हैं —
कल सूर्य भी इसी जगह
अपनी छाया छोडकर गया था ।
क्षितिजों तक फैली हुई थी उसकी काया
पर आज वह उसे कहीं नहीं मिली ।
ऊपर-ही-ऊपर
लहरों के आलिंगन में
कल का सूर्य सदियों पूर्व चला गया है ।
मुझे लगता है
मेरी स्मृतियाँ उसी सूर्य की हैं
जो लहरों के संग बह गया है ।
कितनी रश्मियाँ
कल मैंने सूर्य के संग बिखेरी थीं –
वे सारी रश्मियाँ आज बिम्ब-प्रतिबिम्ब बन
अनंत द्वीपों के द्वार पर खड़ी हैं
और उन सभी में
रल अनंत जिज्ञासा मुस्करा रही है
जो मेरी भी हो सकती है –
शायद … वह मेरी ही है ।
वहीं लौटना होगा
तुम भी कुछ नहीं हो
और मैं भी कुछ नहीं हूँ
आओ
हम एक-दूसरे के कुछ न होने को छुएँ
और कुछ होने की इच्छा से दूर हो लें ।
हमारे कुछ होने के पार भी
बहुत कुछ है
जिसे जाना जा सकता है –
चीज़ों को अर्थों के बँधन से बाँधना ज़रूरी तो नहीं,
हर बात का अर्थ होता भी नहीं है
फिर भी वह होती है ।
आओ, हम उस बात को छुएँ
चीज़ों को छुएँ
उनके अर्थ की तलाश में उन्हें न खो दें ।
बहुत दूर जाते हुए
पाँव के नीचे क्या है
यह जानना ज़रूरी नहीं है ।
दूर के मत्स्य-बेध अक्सर अधूरे होते हैं ।
एक पगडंडी को पहचान लेने से
दूर की सड़क
अर्थहीन हो जाती है ।
आओ, हम उस अर्थहीनता को छुएँ
और जो हैं वही हो लें ।
अपने से बाहर का कुछ
हमारी सोई नज़रों को पकड़ता है –
हम जानते हैं मरीचिका के सारे अर्थ
किन्तु
आकाश होने की धुन में
ज़मीन हम छोड़ जाते हैं
वही जिससे हम उगे हैं ।
और फिर लौटने का समय आ जाता है
कुछ नहीं होने का ।
आओ, अपनी थरथराती उँगलियों से
हम एक-दूसरे को जानें –
उस मिट्टी को
जिसमें हम उगे हैं ।
पैरों के नीचे ही हमारी जड़ें हैं –
वहीं लौटना होगा ।
मैं ही हूँगा
जब-जब आकाश में सूर्य होगा
मैं भी हूँगा ।
धरती जब-जब रोशनी के पैमाने से
जीवन को नापेगी
मुझे ही नापेगी ।
पगडंडियों पर
पाँवों के लगातार बढ़ते चिह्न
मेरी ही यात्रा को लिखेंगे;
जब-जब रात अकेली बैठेगी
मेरी ही बात होगी;
साँसों के सारे संस्मरण मेरे ही होंगे;
धूप-खिली सुबह
या सुलगती साँझ
जब-जब अवतार लेगी
मेरा ही लेंगी ।
उँगलियों में पथरीला सन्नाटा सँभाले
जब-जब दोपहर होगी
मैं ही हूँगा ।
कवच और कुण्डल की चर्चा के बीच
जब कभी
जीवन का थका-हारा रथ उठाने में
भुजाएँ असमर्थ होंगी
वे मेरी ही गवाही देंगी;
जब-जब वे टूटेंगी
मेरा ही हठ टूटेगा;
जब कभी मणियों के द्वीप खुलेंगे
और लहरें फुँकारेंगी
सागर में डूबती-उतराती अस्थियों के उस पल में
मेरा ही संवाद होगा ।
जलती-बुझती चट्टानों पर
धैर्य की परीक्षा देतीं आस्थाएँ
मेरा ही नाम लेंगी –
मैं हर बार ऐसे ही उगूँगा –
डूबूँगा भी
जैसे रोज़ डूबता है ‘आज’ ।
मृत्यु की प्रतीक्षा कोई सौजन्य नहीं है मेरा –
ऐसा ही हर बार हुआ है
सभी के साथ –
वे समापन के क्षण भी मेरे ही थे ।
आहट पर चौंकने की बारी मेरी ही है
और अनाहूत बार-बार आने की बात भी
मेरी ही है ।
सलवटों में यादें
सलवटों में लेटी हैं यादें
गुमसुम चुपचाप ।
सन्नाटा एक शब्द है
जो दीवारें बोलतीं हैं –
चरों और मौसम की लकीरें खिंचीं हैं
बिना किसी आकृति के;
उँगलियाँ थक रही हैं सलवटों को सँभालते ।
बिस्तर की सलवटों में
लेटी हैं यादें
बेहद उदास ।
एक-एक सलवट में
छिपी है देह की गरमाहट
उस आग की तरह
जो पानी के नीचे मौन सुलगती है |
आँखों में भर गयी है प्यास
बहुत ही हताश ।
सलवटों में लेटे हैं सपने
दूर छूट गये सपने
जुगनू से दमकते सपने ।
जहाँ तुम्हारी बाँह थी
वहीँ पर बैठी है एक निहायत ही नाज़ुक याद ।
झरोखे से झाँकती धूप का यह टुकड़ा
तुम्हारी शोख आँख-सा चमक रहा है ।
यहीं सलवटों में लेटी हैं
तुम्हारी हँसी
चूड़ियों की खनक
और पायल की झंकार –
वह जो लेटी है सूरज की छोटी-सी पंक्ति
कुछ नहीं तुम्हारी उजली खिलखिलाहट है –
तुम्हारे दाँतों की धुली कतार ।
तुम्हारी साँस के झोंके
उठ रहे हैं वहाँ से
जहाँ तकिये पर तुम्हारा सिर था –
मेरी बाँह भी तो वहीँ थी ।
उँगलियों से
तुम्हारी करवटों को टटोलता
मैं यादों के एकांत में डूब रहा हूँ
बिखर रहा हूँ सलवटों में बार-बार ।
यम के द्वार पर
यम के द्वार पर नचिकेता का प्रश्न –
मैं कौन हूँ
आज भी जीवित है ।
शरीर का पिता कोई भी हो
आत्मा का पिता कौन है
इसका उत्तर केवल मृत्यु के पास है –
मृत्यु का पथ ही जीवन का भी पथ है |
साँस जब तक मृत्यु के तट पर खड़ी नहीं होती
और जीवन के वरदानों से ऊपर नहीं उठती
तब तक
अपने को जानना संभव नहीं होता ।
हम किस उम्र में नचिकेता होते हैं
यह महत्त्वपूर्ण है
( वैसे मृत्यु की तलाश में हे साँस होती है
और यह कहना कठिन है
कौन-सी साँस उसे पा लेगी )
क्योंकि जिज्ञासा उम्र से नहीं
समय से होती है ।
जो साँस नचिकेता होती है
वह अछूती ही होती है
फिर भी उम्र ही निश्चित करती है
कि यम का उत्तर बूझने के लिए
हमारे पास कितना समय है –
वरना जिज्ञासा का कोई अर्थ नहीं होता ।
पर्वत के पार भी
पर्वत के पार भी लोग हैं
जैसे इस ओर हैं ।
वे पूछते हैं जैसे हम पूछते हैं रोज़
घाटी की हथेली में काँपता नया चाँद
भोर के पार कहाँ जाता है ।
साँझ के कफ़न में लिपटा
एक कोई क्षण
चोटी पर चढ़कर देखता है
आकाश को ठहरा हुआ
किंतु नीचे के लोग मानते नहीं –
अपनी आँखों के घेरे में सिमटा
मृत्यु का क्षण वे कैसे नकार दें ।
पच्छिम की ओर जातीं सारी गतिविधियाँ
कितनी मौन हैं
कितनी निरुत्तर
जो डूब गये हैं उनके देश में
बस कुछ ठहरी हुई ध्वनियाँ हैं ।
अंकित सीमाओं के पार की मरुभूमि में
घटनाएँ दिशाहीन हैं ।
नये चाँद की कटार ने
पिछले सब बंधन काट दिए हैं ।
सब कुछ समाप्त हो चुका है –
बस एक विस्तार शेष है ।
मत लो हाथों में हाथ
मत लो हाथों में हाथ
जब तक कोई संकेत न हो तुम्हारे पास
देने के लिए ।
मुर्दा हाथों को मिलाकर
तुम क्या कहना चाहते हो
मैं समझ नहीं पाता ।
कब तक स्पर्शों की लाश
सिकुड़ी हुई त्वचाओं को
सहलाते रहोगे इसी तरह, मेरे बन्धु
वासन्ती इन्द्रधनुष को
अपनी मुट्ठी में बंद करने की तुम्हारी कोशिश
नाकाम ही रहेगी
यदि सूरज की छुवन को
तुम कमरों में बंद करत रहोगे ।
हथेली की शिराओं में
जो दानव-रक्त प्रवाहित है
उसकी यक्ष-संज्ञाओं को जगाओ
कि आदिम स्पर्श की भाषा का पुनर्जन्म हो
और
हाथ से हाथ तक
पुलक के एक पुल का निर्माण हो सके
जिसे छूने से
हम टूटें नहीं – जुड़ें
और भर जाएँ एक-दूसरे से ।
आँख की खोज
तुमने सोचा है कभी
आँख क्या है
आओ, अपनी यादों की नदी के साथ चलकर
हम खोजें
आँख क्या है ।
नदी-किनारे बैठे
उस क्षण की मुझे याद है
जब हम उठने लगे थे
और दिन-भर की आँख ने जो कुछ देखा था
वह दूर के पहाड़ के नीचे बैठ गया था –
हमारे उठने और उसके बैठने का क्षण एक ही था ।
आँख वही क्षण है
जो वहाँ ठिठका रह गया था
अप्रतिभ और अवसन्न ।
वह जो लंबी यात्रा
सड़क के इस छोर से शुरू होकर
न जाने कहाँ तक जा रही है
वह भी एक आँख है –
टूटे खण्डहरों के बीच उसका पँख फड़फड़ाना
मैंने अक्सर सुना है ।
बहुत देर तक बिछे
रात के ऐलान को तुम देख रहे हो
जब सूरज के सारे पल जुगनू होकर
आकाश में उड़ने लगते हैं
साँय-साँय करते पेड़ों के बीच गुज़रता
वह भय भी तुमने देखा होगा
जिससे घोंसलों की नींद चौंक जाती है
वह ऐलान
वह भय
यही आँख है –
उसे रात के चेहरे पर अक्सर जागते मैंने देखा है |
यादों की नदी के किनारे
आँख की तमाम परिभाषाएँ हमें मिलेंगी
जिनकी पहचान इतनी पुरानी हो गई है
कि लगता ही नहीं ये अपनी भी हैं –
कुचले हुए दूब के पल ऐसे ही हो जाते हैं |
किन्तु
हमारा अन्वेषण
इस नदी के किनारे की यह खोज
बहुत अकेली होगी ।
तुम्हारे चारों ओर ताज़ा यादों की भीड़ है
और हमारा साथ नामुमकिन है –
मैं अकेला ही खोजूँगा आँख क्या है ।
कितनी बार मेरे प्रभु
कितनी बार
तुम आए, मेरे प्रभु !
और हर बार मैंने तुम्हें नकार दिया ।
न तुम्हारे आने की कोई सीमा थी
और न मेरे नकारने की ।
कितने-कितने रूप तुमने धरे
कि मैं पहचान लूँ
कि तुम आसपास ही हो
किन्तु …
तुम्हारा धैर्य
और मेरे अंधेपन
दोनों ही अद्वितीय थे ।
तुम आए
वसंत के पहले-पहले एकांत बनकर –
सूरज की रश्मियों में
उस दिन
जो धुला-धुला दुलार था
वह तुम ही तो थे ।
तमने छुआ तुलसी के नए अंकुर को
तुलसीदल हरे हो गए;
जड़ों में समां गए तुम तुलसी के
एक नये पर्व की पहचान बनकर;
गुलाब की क्यारियों में तुम
हवा की मस्ती बन घूमे
गंधों को बार-बार छुआ
उन्हें छेड़ा
मैंने गुलाब का लाजभरा टहकना देखा;
उसका सुरभित यौवन
उसका अचरज-सा सौन्दर्य
मेरी आँखों में समाया
किन्तु उसमें तुम्हें पहचान न सका, मेरे प्रभु !
तोडकर अपने बटन-होल में लगाते समय
गुलाब का थरथराना
मेरी उँगलियों ने जाना
किन्तु वह तुम थे यह मैं न जान सका ।
तुम्हारा धैर्य अप्रतिम था ।
तुम फिर आए
कनखियों के मादक संकेत बनकर
सुनहरे कोहरे से मन को लपेटती
इच्छाओं की सुगबुग में
तुम्हारी ही आहट थी
मैं न जान सका
और जिस क्षण मेरी बाँहों ने
कमल-वन पर घिरे
मेघों के गुदगुदे विस्तार को बाँधा
साँसों ने कमल-पंखुरियों के परिमल को
अधैर्य से बार-बार खोजा
और मेरी आप्यायित जिज्ञासा
अतृप्ति के जंगलों में डूबी
उस क्षण भी मैं न जान सका
ये सारे स्थल तुम्हारे ही थे ।
बार-बार तुमसे भेंट होने के वे क्षण
अपने में डूबे
तुम्हें न जान सके, मेरे प्रभु !
आज
पतझर से घिरी वनखंडी के
सूने आवेश में थरथर काँपती इस देह में
तुम्हारा फिर अवतरण होगा
यह भी मैं कहाँ जान पाया था ।
उड़ती-झरती पत्तियों को विदा करती
शाखाओं की उँगलियों में
जो वेदना
चिताओं के धुएँ-सी उड़ती धूल में
जो अतृप्त याचना
आज भी है
वह क्या तुम्हीं हो
यह प्रश्न करते मुझे लाज नहीं आती
क्योंकि मेरी आँखों की
मेरी साँसों की जो थकी-थकी भाषा
तुम्हें परिभाषित करना चाहती है
उसका विश्वास नहीं रह गया है, मेरे प्रभु !
तुम्हारी भाषाएँ अनेक हैं, मेरे प्रभु !
और मेरी जिज्ञासाएँ हर बार वही ।
आज भी
तुलसीचौरे पर जले दीये की लौ में,
गुलाब के गन्धमादन से उठते
मादक प्रश्नों के ज्वार में,
आँखों से आँखों तक बहती
सपनों की स्रोतस्विनी में,
वनों में गूँजते एकाकी पवनों में,
बर्फीली शिलाओं की गोद में फैले
सूर्य के आगमनों अथवा प्रस्थानों में
बार-बार तुम आते हो
और मैं तुम्हें नकारते
लज्जित नहीं होता –
ऐसा ही है मेरा-तुम्हारा संबंध, मेरे प्रभु !
काँपती लौ का सुर
मैं एक टूटे क्षण की दहलीज पर खड़ा
उस मकान को देख रहा हूँ
जो मेरा घर था ।
समय ने कितना बदल दिया है इसे ।
पीछे मुड़ने की गुंजाइश नहीं है
वरना मैं इस मकान के बचपन में
रहना चाहता हूँ ।
इसके बचपन और यौवन को बीतते मैंने देखा है –
क्षण-क्षण एक-दूसरे के बगलगीर होते गए
और मैं पहचान भी नहीं पाया
ये मुझे बिता चले हैं ।
तूने कभी वह रोशनी देखी है
जो अँधेरे के लिहाफ़ ओढ़ काँपती है –
वही रोशनी इस मकान में है;
काँपती लौ का आख़िरी सुर
इसके गलियारों में गूँजता है
जो रोशनी को
मौत का पैगाम देता है ।
मैं दहलीज़ पर खड़ा हूँ
इसलिए देख पा रहा हूँ
मेरा मकान ढह रहा है –
इसी नींव पर नई रोशनी का घर बनेगा ।
हाँफ़ती मंज़िलों का मकान
तुमने देखा है क्या
हाँफ़ती मंज़िलों का मकान
जिसकी दहलीज़ पर खड़ा
बचपन मुस्करा रहा है ?
सदियों के चरवाहे
उस चौराहे तक आए
जहाँ से इस मकान को देखा जा सकता है –
उनकी बाँसुरी के सुर
बचपन ने सुने और मुस्करा दिया;
रोशनी के पैगंबरों ने
चाँद या सूरज से
मकान को बार-बार छुआ
कि इसकी खिड़कियों में हलचल हो;
सफ़ेद बालों वाले मौसम के साथ
बार-बार आईं
जंगल की आवाज़ें
कि रातें अकेली न हों
और हाँफ़ते पाँव थमें ।
बचपन ने
इस सारी बदलती थकान को देखा
और मुस्करा दिया ।
परियों की कहानियाँ लिए
पोपले मुँह वाले बौने
और रात-भर चलने वाले नाच
जिन आँखों ने देखे हैं,
वही इस मकान को देखती हैं
और इसकी चौख़ट पर खड़े
मुस्कराते बचपन को भी ।
अब मकान की शहतीरें काँप रहीं हैं;
इसके जंग-लगे दरवाज़ों में
दम नहीं है
कि वे रोक सकें हवा के निर्मम झोंकों को ।
अनुभवी आँगन का तुलसीचौरा
उजड़ा-उदास
कितना पुराना है;
उस पर रखा वह दीया
आज का नहीं बुझा है;
दूधिया सरोवर से जो कमल लाया गया था
उसकी गंध किसी ताख़े में
मुरझाई पड़ी है;
कुएँ की टूटी-फूटी जगत पर
अकेला पूजा का पंचपात
धूल-मिट्टी की परतें गिन रहा है;
शंख का मुँह सूख गया है ।
एक उजड़ी छावनी-सा यह पल
देख रहा है
डूबती साँझ के दूसरे सिरे पर टिकी
बूढ़ी चाँदनी को |
यादों की पगडंडी पर
तोतले मुँह के निरर्थक प्रश्न चलकर आए हैं
मकान की दहलीज़ पर खड़े हो मुस्कराने ।
बचपन की मुस्कान
तलाश रही है रोशनी के सुर
जिन्हें यहीं खड़े होकर उसने सुना था ।
सफ़ेद बालों वाले मौसम ने
बचपन को छू लिया है
और मुस्कान
दीये की आखिरी लौ-सी जल रही है ।
पेड़ों के मुहाने पर
आओ,
हम पेड़ों के मुहाने पर
खड़े होकर देखें
कि घटनाएँ क्या हैं –
आँखों की बज़ाय हवा के रुख से देखें
कि जिन्हें हम साँसें कहते हैं
वे क्या हैं ।
क्यों न तने से
टहनियों से पूछा जाए
कि जिसे हम जन्म कहते हैं
वह क्या है
क्योंकि अभी-अभी उन पर
कोंपलों ने साँस ली है ।
जड़ों से, आओ, पूछ लें
कि मृत्यु किसे कहा जाए
क्योंकि अभी-अभी
ऊपर की फुनगी से टूटकर गिरा
सूखा पीला पत्ता
बिल्कुल उनके पास पड़ा है ।
ज़िन्दगी के तमाम प्रश्न
और उनका उत्तर देने की हमारी कोशिश
इन पेड़ों के सहारे छोड़ दी जाए
तो कैसा रहे |
हवा के झोंकों को अगर हम सौंप दें
अपने सारे प्रश्न
तो क्या उत्तर आसान न हो जाएँगे
और वे उत्तर
क्या वैसे ही अधूरे होंगे
जैसे अक्सर हमारे रहे हैं ।
आओ,
पानी से पूछ देखें
वह कहाँ जाता है ।
उसकी यात्रा पर्वत से सागर तक है
या सागर से पर्वत तक
यह जानने के लिए
साथ-साथ चलकर देखें
वह कहाँ जाता है
या हम कहाँ जाएँगे ।
घटनाओं के क्रम में बाँधकर
साँसों को गिनना
हमारी अपनी मज़बूरी हो सकती है –
इसके लिए घटनाएँ दोषी नहीं हैं
क्योंकि उन्हें पेड़ों ने
हवा ने
जल ने भी जिया है
बिना उनसे बँधे ।
किसी शोर के तट पर
यात्राएँ चल रही हैं
चलती जा रही हैं
बीतने का नाम नहीं लेतीं यात्राएँ ।
साँसों के मस्तूल से बँधी
मेरी हर इच्छा
लहरों के पार खड़े किसी द्वीप की
आवाज़ों से भर रही है ।
एक सम्मोहक-उत्तेजक लय
एक अनवरत बहता नाद
मुझे
मेरी इच्छा को
मेरे सारे अस्तित्त्व को
अपनी बाँहों में भर रहे हैं ।
किन्तु यात्राएँ चल रही हैं
चलती जा रही हैं |
काश ! वे थोड़ी देर ठहरतीं
इस बहते संगीत के तट पर ।
पहचाने सन्दर्भों के नाविक
ले जा रहे हैं
यादों की ओर
मेरे अस्तित्त्व की नाव को;
किन्तु अनजाने द्वीप से
एक धुन मुझे बुला रही है –
बड़ी हठी है वह धुन ।
थोड़ी देर के लिए ठहर गए हैं
पल और निमेष;
यादें बीत गईं हैं;
सन्दर्भ और संबंध ठिठक गए हैं
और मेरे खून की सारी पगडंडियाँ
एक दैवी थरथराहट से काँप रही हैं;
सारे अनुभव कान बनकर सुन रहे हैं
और अनजाने द्वीप की धुन
बह रही है
बहती ही जा रही है ।
काश ! साँसों के मस्तूल से बँधी यात्रा
थम सकती- रुक सकती
थोड़ी देर के लिए ।
किन्तु नहीं
यात्राएँ रूकती नहीं हैं
चलती ही जाती हैं –
बीतती हैं पर रूकती नहीं हैं
और द्वीप की आवाज़ें
सूनी हो जाती हैं थककर
किसी शोर के तट पर
रोज़ इसी तरह ।
फूल को तोड़ो नहीं
फूल को तोड़ो नहीं
फूल को शाख़ से जुड़ा रहने दो ।
गंध की साँस लेती टहनियों के हाथों में
जो यह खिला फूल है
वह जीवन की एक ऋचा है
जिसे पेड़ गाते हैं –
पेड़ों की इस ऋचा को
गंधों के सामगान को
पेड़ पर ही रहने दो ।
तुम्हारे गुलदस्ते में
तुम्हारे बटन-होल में
वह राग का प्रवाह नहीं है
जिससे उगते सूरज का अनुष्टुप छंद बनता है ।
वहाँ सजाते समय
तुम्हारी उँगलियों में
एक स्वार्थ है
एक लोभ है
जिससे ऋचाएँ और छंद
यानी साँसों का अनवरत बहाव
टूटने लगते हैं ।
तुम अपने साथ
अपने नाड़ी-प्रवाह के साथ
इसे जोड़ नहीं पाओगे
क्योंकि तुमने
गुलदस्ते और बटन-होल के मोह में
अपने को जीवन के
शाश्वत-सनातन सामगान से
अलग रखा है ।
मोह की स्थितियों से
छंद बनते नहीं हैं
बिगड़ते हैं ।
फूल को शाख़ पर ही रहने दो –
वहीँ उसे खिलने और मरने दो;
वहाँ फूल मरकर भी नहीं मरता
क्योंकि झरते समय
टहनियों पर वह अपना बीज छोड़ जाता है ।
गंध का वह बीज
किसी अगले पेड़ का जन्म बनता है ।
तुम्हारे तोड़ लेने से
वह गंधों का भविष्य
वह नया जन्म
सदा के लिए मर जाता है –
हाँ, तुम्हारी ललचाई उँगलियों में
मृत्यु की छुवनें हैं
जन्म की नहीं ।
फूल को तोड़ो नहीं
फूल को शाख़ से जुड़ा रहने दो ।
हर चेहरे के पीछे
हर चेहरे के पीछे
एक परिचय है
और हर आँख के पीछे एक चिन्तन ।
वह जो बच्चा
कौतूहल से मुझे देख रहा है
मेरी परिभाषाओं से अनभिज्ञ
मेरी साफ़ पैंट को
अपनी गंदी उँगलियों से छूकर
जानना चाहता है
कि मैं कौन हूँ । अपना परिचय देती
उसकी जिज्ञासु दृष्टि का उत्तर
मेरे पास नहीं है –
उसका चिन्तन भोर का है
और मेरा उत्तर साँझ का ।
कनखियों से देखती उसकी माँ का
आकर्षण मुझे छूता है –
मैं बँधना चाहता हूँ उस दृष्टि से-
जानना चाहता हूँ
उस देह का इतिहास क्या है ।
किन्तु उस चेहरे के पीछे
केवल एक सपाट आशंका है ।
उसकी आँख ने मेरी जिज्ञासा देख ली है
और वह अजनबी हो गई है एकाएक ।
अस्वीकार की वह स्थिति
अपरिचय की दीवार हो गई है ।
वहीँ
एक सदियों पुराना चेहरा भी है ।
वही दृष्टि जो
तूफानों को झेलने से बनती है
मुझे तिरस्कार से घूर रही है
बेशर्मी से भी |
यह चेहरा कभी नहीं मरता
यह दृष्टि कभी नहीं बुझती ।
बुझी चिता-सी यह दृष्टि
पीढ़ी-दर-पीढ़ी ऐसी ही रही है –
इसमें प्रश्न नहीं हैं
आशंकाएँ नहीं हैं
उत्तर-ही-उत्तर हैं
समय के-उम्र के –
सभी स्थितियों के एक ही उत्तर ।
मैं इस दृष्टि से हतप्रभ हो रहा हूँ ।
सामने विंडस्क्रीन पर अँधेरा है
और उस पर चिपका चेहरा
हर यात्रा पर मुझे दिखा है इसी तरह ।
तट आज भी
नदी कहीं चली गई है
केवल तट रह गए हैं ।
दो टूटी जाँघों-से
अलग-अलग पड़े तट
और उनके बीच सूखे रेत की कंकाल-यात्रा
उन मछलियों की याद में डूबे हैं
जो नदी के साथ
किसी और तट पर चली गई हैं ।
ये तट
यादों के कगार पर खड़े हैं –
भुलाने की कोशिश कर रहे हैं
मछलियों के नितांत अपने सन्दर्भ
किन्तु लहरें जो संवाद
इनकी गोद में छोड़ गई हैं
वे भूलने नहीं देते ।
उँगलियों से लहरों ने जो गीत
इन तटों पर लिखे थे
वे नहीं गए हैं
हालाँकि नदी चली गई है
और तट अकेले रह गए हैं ।
इन तटों पर खड़े
पेड़ों की टहनियों से
आज भी लटकी हैं वे झंकारें
जिन्हें नदी और तट ने मिलकर बजाया था ।
रोशनी के कंगूरे पर खड़े
ये तट
उन झंकारों को सुन रहे है स्तब्ध ।
दूर से आते नदी के स्वर
इन तिरस्कृत तटों से टकराते हैं
और वे हो जाते हैं
एकदम नीरव – नितांत मौन
कि उन ध्वनियों के भुलावे में आकर
अपने अंदर बहते प्रवाह को छू सकें ।
इन तटों पर सूखी आकृतियाँ
केवल आँख का छल हैं –
इनके अंदर
लहरें आज भी जीवित हैं
और छू रहे हैं
बार-बार उनकी टूटी जाँघों को
वे स्पर्श
जो इन्हें जोड़ते हैं ।
नदी कहीं चली गई है
किन्तु तट आज भी जीवित हैं ।
कहियत भिन्न न भिन्न / भाग 1
पूर्व कथन
युग-युग से
सदियों से
होती है रामकथा।
वाल्मीकि, कालिदास, तुलसी ने
कही कथा अवतारी राम की
और कई कवियों ने –
अमर हुए
धन्य हुए
‘उत्तररामचरित’ रचा भावुक भवभूति ने –
राम हुए मानव फिर।
घर-घर में रची-बसी रामकथा –
गाथा आदर्शों की
शाश्वत मर्यादा की
उन मानव मूल्यों की
जो सारे युग के हैं
सारी मानवता के।
बसे हुए राम हैं जन-मन में
जन-जन के उन अन्तर्द्वीपों में
जहाँ ज्योति जलती है अन्तरंग
सूर्योदय ही रहता है अनंत।
मन में फिर खिलते हैं
सूर्य-कमल –
होता है दूर घना अंधकार
रोज़ नये प्रश्न वहाँ उगते हैं
और धूप होती है।
ऐसा ही है प्रसंग
राम के एकाकी जीवन का –
उस गहरे एकांत का
जिसमें पीड़ाएँ हैं
और घने अन्तर्द्वन्द्व।
दृश्य यों उभरता है –
दृश्य – एक
[अयोध्या का राजभवन। राम का निजी कक्ष। अर्द्धरात्रि। कक्ष के बाह्य अन्तराल में राम खड़े हैं चुपचाप, विचारमग्न ]
राम –
(आत्मालाप) यह कैसा सूनापन
कैसा एकांत है।
अंधकार गहरा है
बाहर भी, अन्दर भी
गाढ़ा यह अँधियारा
अब मेरी साँसों का सम्बल है।
उमड़ रहीं कैसी ये स्मृतियाँ हैं –
आकृतियाँ
जैसे हों सपनों की छायाएँ।
दूर कहीं सूर्योदय की झिलमिल –
उसमें ये आकृतियाँ खेल रहीं
और यहाँ परछाईं उनकी ही दिखती है।
कैसी यह माया है।
सीते! हे वल्लभे !
दूर किसी छवियों की घाटी में
मंद-मंद मुसकातीं
तुम जादू रचती हो आज भी।
अंधी है गुफा एक
जिसमें मैं सदियों से बैठा हूँ
एकाकी प्रियाहीन।
निर्मम है -निष्ठुर है मेरा एकांत यह।
यात्राएँ करता मन दिशाहीन
अंदर-ही-अंदर
[नेपथ्य में लवकुश के रामायण-पाठ का स्वर उभरता है – साथ में पारदर्शिका, जिसमें आकृतियाँ उभरती-मिटती हैं]
लवकुश – कथा यह श्रीराम की …
जयति-जय श्रीराम-लक्ष्मण-जानकी।
ताड़का-वध
मख-समापन
यात्रा मिथिला नगर की ओर
मार्ग में आश्रम दिखा जनशून्य –
शिला होकर रह रही थी वहाँ
ऋषिपत्नी अहल्या
शापभ्रष्टा –
उसे तारा
मुक्ति दी उस शिलापन से।
नये युग की आस्था का
है अलौकिक क्रांति का अध्याय यह तो …
राम तब राजा नही थे।
[पारदर्शिका में गौतम ऋषि के आश्रम में शिला हुई अहल्या के राम के स्पर्श से पुनः प्राण पाने का, प्रतिष्ठित होने का प्रसंग मूक छवियों में उभरता है। राम का विचार-स्वर फिर उभरता है]
राम (आत्मालाप) – हाँ, अहल्या …
वह समय ही और था …
साधारण होने का वह था वरदान-पर्व।
महलों से बाहर जो
खुला-खुला जीवन है
अनुभव ने उसके दी
मुझको थी नई दृष्टि –
जुड़ने की
धरती से
धरती के सारे संवादों से।
मिली नई ऊर्जा थी;
उससे ही तोड़ सका था मैं
पथरीली धरती वह
जिसमें तुम मूर्छित थीं पड़ी हुईं –
वर्षों की वह मूर्च्छा
और शिला होने का शाप वह
क्षण भर में टूटे थे।
वह था स्पर्श एक नई क्रांति-दृष्टि का।
एक नया युग उससे जन्मा था :
अनुभव वह राम का जन-जन का अनुभव था
और …
उसी ऊर्जा से भरा हुआ
जानकी-स्वयंबर में पहुँचा था मैं।
(लवकुश क कथा-गायन का स्वर फिर उभरता है )
लवकुश – मिथिलानगरी का धनुर्यज्ञ वह
अद्भुत था।
शिवचाप अलैकिक
उस सत्ता का था प्रतीक
जो थी अजेय।
उससे था बँधा भविष्य
धरा की पुत्री का –
भंजन उसका आवश्यक था।
राजा सीरध्वज जनक प्रजा के पोषक थे –
थे कृषक स्वयं।
कृषि-यज्ञ भूमि से उपजी थी कन्या अमोल
थी शस्यभूमि-पुत्री सीता
राजा की प्रिय पोषित बेटी।
थे राम स्वयं भी यज्ञपुत्र …
[पारदर्शिका में मिथिलानगरी में आयोजित सीता-स्वयंबर एवं धनुर्यज्ञ के दृश्य उभरते हैं]
सारी धरती की सत्ताएँ –
पुरुषार्थ और बल-गौरव सब –
अगणित योद्धा आये समर्थ –
शिवधनुष रहा फिर भी अविजित।
राजा सीरध्वज हुए विकल –
भूमिजा रहेगी बिन-ब्याही –
शिवधनुष हुआ इसका बंधन।
फिर राम उठे जीवनी-शक्ति से भरे हुए –
फिर हुआ अचानक चमत्कार –
मानव की
आस्था के आगे
दैवी सत्ता हो गई क्षीण –
दो खण्ड हुआ शिवचाप और …
सीता बंधन से हुई मुक्त।
वह भूमिसुता का मुक्तिपर्व
प्रेरक प्रसंग।
[पारदर्शिका में सीता राम के गले में वरमाला डालती दिखाई देती हैं – स्वस्तिवाचन एवं शंखध्वनि के साथ पारदर्शिका धुँधली पड़ जाती है। लवकुश का गायन भी डूब जाता है। राम का विचार-स्वर फिर उठता है]
राम (आत्मालाप) – मुक्तिपर्व वह मेरा भी था ..
धरती की पुत्री से वह अभिन्न भाव
मुझे जोड़ गया और अधिक
जन-जन से –
सत्ता हो गई क्षीण।
साधारण होने की इच्छा बलवती हुई;
और फिर हुआ सुयोग –
सत्ता से दूर कटे
वन के वे प्रारम्भिक वर्ष
सुखकर थे।
सीता थी साथ
और लक्ष्मण भी –
साथी मिला -नेह मिला
हमको वनपुत्रों का।
कैसा था अद्भुत वह संस्कार –
अनुरागी होकर भी वीतराग होने का।
वह अरण्यवास अब लगता है सपने-सा।
अब तो है सत्य यही एकाकी जीवन –
सत्ता से बँधा हुआ
महलों में बंदी मन –
प्रियाहीन साँसों की यह बोझिल यात्रा ही
अब मेरी नियति हुई।
सीते! मैं क्या करूँ ?
तुम बिन ये संध्याएँ बार-बार होती हैं –
निष्ठुर है सूर्योदय
आकुल सूर्यास्त भी
और घनी रातों के अंधकार।
नित्यसखी मेरी तुम …
क्यों निष्ठुर शिला हुईं –
और मुझे छोड़ गईं यों
एकाकी निर्मम एकान्त में –
है असह्य …
हा सीते …
[अर्धमूर्च्छित अवस्था में राम वहीँ पड़ी आसन्दी पर निढाल हो जाते हैं]
कहियत भिन्न न भिन्न / भाग 2
दृश्य – दो
[वही कक्ष – उसके अंदर के अन्तराल में सीता की स्वर्ण-प्रतिमा। उसके सम्मुख बैठे राम आत्मालाप में व्यस्त]
राम (आत्मालाप)- बार-बार जागृति है
और वही है … निर्मम चेतना
साँसों की प्रियाहीन।
रक्त में, शिराओं में बसी हुई आकुल उत्तेजना
कब होगी शांत, हाय !
एक ओर सारी स्थितियाँ ये
निष्चेतन क्रियाहीन
वैसी ही जैसी यह प्रतिमा है –
संज्ञाशून्य
और इधर तड़पन यह –
रोज़ विवश जीने की यातना।
सीते! हा सीते !
तुम कहाँ गयीं ?
ऋषियों की तपोभूमि, यज्ञभूमि …
नैमिष का वह अरण्य…
मुझको भी कर गये अरण्य, हाय !
लौटा हूँ मैं असार-निराधार
अभिशापित-निस्सहाय।
कैसा था यज्ञ, हाय !
मेरी जो शक्ति थी, ऊर्जा थी, प्राण थी
समां गयी धरती में
हाय ! यही …
केवल शव शेष रहा
और …
इसे लेकर मैं
भटक रहा बूढ़ी संज्ञाओं के घेरे में।
[राम की इस आंतरिक अकुलाहट में कक्ष के अवकाश में नैमिषारण्य की यज्ञभूमि का दृश्य उभरता है। यज्ञभूमि में सभाभवन। राम बीच में एक आसन पर बैठे हैं। पास के आसनों पर भरत-लक्ष्मण-शत्रुघ्न, गुरु वशिष्ठ और तीनों माताएँ आसीन हैं। एक ओर ऋषि वाल्मीकि और उनका ऋषिकुल आसीन है। उनके साथ लवकुश हाथ में वीणा लिये मुनिकुमारों के वेश में खड़े हैं। चारों ओर राज्य-सभासद और प्रजाजन बैठे-खड़े हैं। बीच के अन्तराल में तपस्विनी वेश में सीता नतमस्तक खड़ी हैं। वाल्मीकि राम को सम्बोधित करते हैं]
वाल्मीकि – बोलो श्रीराम !
सीता की शुद्धि का प्रमाण तुम्हें चाहिए
अब भी क्या ?
मुझको जो सत्य मिला
ऋत के अन्वेषण से
अपने उस ज्योतिर्मय अनुभव से कहता हूँ
सीता है परम शुद्ध –
धरती की बेटी यह धरती सी है पवित्र
सीता अपवित्र कभी होती है, बोलो राम !
तुम तो हो स्वयं ज्ञान के स्वरूप –
अपना मन देखो तुम
क्या कहता ?
सीता को स्वीकारो, देता आदेश मैं।
[राम मौन रहते हैं। गुरु वशिष्ठ उन्हें मौन देखकर कहते हैं]
वशिष्ठ – राम, मौन क्यों हो तुम ?
ऋषिवर की वाणी में सत्य बोलता है
स्वीकार करो –
वाल्मीकि आश्रम में जनमे ये लवकुश
पुत्र हैं तुम्हारे ही।
सीता की शुद्धि हुई स्वतः प्रमाणित यों।
लोक के प्रवाद का प्रश्न जहाँ तक रहता
होंगे हम सब साक्षी।
सीता को स्वीकारो
है अभिन्न यह तुमसे।
[राम की मुखाकृति में भावों का आन्दोलन होता है। उससे उबरकर वे बोलते हैं]
राम – मुनिश्रेष्ठ ! गुरुवर !
आप दोनों ही परमपूज्य
दोनों का मुझ पर अधिकार है।
आपकी अवज्ञा करे राम
नहीं संभव है।
किन्तु …
तर्क नहीं करता मैं आपसे
नम्र है निवेदन बस।
व्यक्ति राम के निर्णय का है यह प्रश्न नहीं –
राजा से ऊपर भी होती है मर्यादा।
ऋषियों की, शास्त्रों की वाणी
है अगम्य
मन्दबुद्धि राम उसे क्या समझे ?
मन का विश्लेषण है बड़ा कठिन –
उसका भी क्या कहूँ ?
जग-प्रवाद माना अब मौन हुआ
और शायद आगे भी शांत रहे
किन्तु प्रश्न यह है मर्यादा का –
सत्ता की अपनी मर्यादा का।
सत्ता की वाणी की
राजा के वचनों की अपनी मर्यादा है।
जनता का उसमें विश्वास हो
यह भी आवश्यक है –
मेरा तो सत्य यही मर्यादा।
क्षमा करें गुरुजन
मैं क्या करूँ ?
है पवित्र जानकी – परम शुद्ध
किन्तु लोक भी उसे स्वीकारे
और वह पूजित हो जन-जन में
यह भी आवश्यक है।
सत्त्व रहे उसका
और…
हो रक्षा मेरी भी वाणी की
ऐसा कुछ हो जाए।
अब उसके हाथों में मेरी मर्यादा है
उसकी भी है अपनी मर्यादा।
मैंने अन्याय किया उसके प्रति
निर्णय अब उसका हो।
[ दृश्य धुँधला जाता है। राम के आत्मालाप का स्वर फिर उभरता है]
राम (आत्मालाप) – यों…
निर्णय सीता पर छोड़ हुआ मैं न्यायी –
होकर तटस्थ
मैंने सोचा हो गया न्याय।
जो थी अभिन्न
उससे ही मैं हो गया अलग।
निर्मम था मैं
सीता थी व्याकुल-मर्माहत।
[दृश्य फिर उभर आता है। सीता आहत दृष्टि से राम की ओर देखती हैं। फिर धरती पर अपनी अश्रुपूरित दृष्टि टिकाए बोलती हैं]
सीता – कैसी अस्पृश्य हुई मैं !
राजा की वाणी है
यह मेरे राम की नहीं –
पहले मैं त्याज्य थी
अब हूँ मैं अस्वीकृत
कैसे यह मन मेरा जीवित है ?
अब भी यह ह्रदय नहीं फटता है
मैं धरती-पुत्री हूँ
निराधार मुझको है शेष रहा
माँ का ही बस आश्रय।
किसकी मैं साक्षी दूँ ?
मन में जो युग-युग से पलता है नेह-भाव
उसकी क्या ?
वह है स्वीकार नहीं राजा को – लोक को
मेरी मर्यादा तो पहले ही खंडित है।
देव नहीं साक्षी हो पायेंगे –
वे सारे हैं तटस्थ
मर्यादित राजा-से
लोक-लाज, नियम सभी हैं विरुद्ध
अब तो दें साक्षी माँ धरती ही –
यदि मन से और वचन-कर्मों से
चिन्तन से, देह से
भावों से, रक्त की शिराओं से
सारी इच्छाओं से
हर पल चेष्टाओं से
मैं हूँ बस राम की
तो धरती माँ आकर
मुझको स्वीकार करें
… … ..
अस्वीकृत होते जो
उनका है आश्रय यह धरती की गोद ही।
माँ मेरी …
लौटा लो मुझको अब अपने उस गर्भ में
जहाँ व्यथा पलती है ममतामयि
और जो सिरजती है प्राणों को।
शिला हुआ मन मेरा
शिला करो मेरी यह देह भी …
[सभागृह का वह भाग भीषण गड़गड़ाहट के साथ फट जाता है, जहाँ सीता खड़ीं थीं। एक अग्नि-ज्वाल सा उठता है। उसमें एक पारदर्शी आकृति उभरती हैं, जो सीता को बाँहों में समेट लेती है। सीता की आकृति भी पारदर्शी होकर उसी आकृति में समां जाती है। दृश्य एकाएक धुँधला जाता है। राम का आत्मालाप फिर जगता है]
राम (आत्मालाप) – स्तम्भित और ठगा
देखता रहा था मैं
प्रिया का समाना वह धरती में
कैसी थी मूढ़ता !
उस क्षण ही राम मरा –
शेष रहा राजा बस।
यों था सम्पन्न हुआ अश्वमेध यज्ञ वह
पूर्णाहुति बनी प्रिया –
आहुति हो गया राम।
लौटा ले मातृहीन बेटों को
और स्वर्ण-सीता को।
तबसे यह साँसों का क्रम है
खण्डहर में घूम रही शापित आत्माओं सा।
सूर्योदय कबका है डूब चुका –
शेष बचा है गहरा अन्धकार
और घनी मूर्च्छाएँ ….
[फिर मूर्च्छित हो जाते हैं]
कहियत भिन्न न भिन्न / भाग 3
दृश्य – तीन
[वही रात्रि -वही कक्ष। राम अर्द्धमूर्च्छित अवस्था में शैया पर लेटे हैं। अन्तर्कक्ष से आकृतियाँ और छवियाँ उभरती हैं, एक-एककर राम के चारों ओर नृत्य करती हैं, उनके अन्तर्मन में प्रवेश कर स्वप्न एवं दृश्य बनती हैं। पहले मारीच की प्रेताकृति आती है – स्वर्णमृग के रूप में। मारीच लुभानेवाली चेष्टाएँ करता है ]
मारीच – ‘हा लक्ष्मण … हा सीते…’
कहो राम !
कैसा था अभिनय वह मेरा ?
छली गयी सीता थी मेरे इसी रूप से
और इसी स्वर से भी।
सत्य और छल की हैं आकृतियाँ अलग नहीं
दोनों में अन्तर भी अधिक नहीं।
मैं तो था राक्षस
छल-छद्मों से भरा हुआ
पर तुम तो थे प्रभु और थे परात्पर भी
फिर भी क्यों छले गये मेरे इस भ्रम से तुम ?
राम, स्वर्ण होने का मेरा वह आग्रह
शारीरिक वह समृद्धि
नकली थे – नष्ट हुए।
मैं भी था मुक्त हुआ सारे आवरणों से।
तुम सच में प्रभु थे तब।
किन्तु …
वह अलौकिकता …
स्वर्णिम आकारों से वीतराग होने की वह क्षमता
जो मुझको पूज्य थी
हाय, अब कहाँ गयी ?
होते ही राजा तुम
सोने के उस छल से ग्रस्त हुए –
कैसा सम्मोहन यह !
सोने की प्रतिमा में सीता को खोज रहे –
कितने दयनीय हुए तुम।
क्या कहूँ ?
मेरा छल जीत गया
सत्य हुआ मेरा भ्रम, हाय राम !
[मारीच की आकृति कहते-कहते विलीन हो जाती है। उसी धुँधलेपन से रावण की महाकार छायाकृति निकलती है। रावण के चेहरे पर, आँखों में व्यंग्यभरी मुसकान है]
रावण – कहो राम, कैसे हो ?
यह क्या हो गया तुम्हें ?
मूर्च्छा में डूबे हो –
कैसा आश्चर्य यह !
शासन की गरिमा से भरे हुए
कैसा आश्चर्य रचा है तुमने सत्ता का –
कहती है प्रजा वही करते हो।
… … …
जानकी दिखाई नहीं देती है –
छोड़ गयी तुमको क्या ?
दोष मुझे मत देना –
मैंने तो हरा नहीं उसे।
[व्यंग्यभरा अट्टहास करता है। राम उद्विग्न-व्यग्र होते हैं]
अच्छा, यह सीता है कक्ष में …
कैसी आकर्षक है अब भी !
सोने की प्रतिमा-सी लगती है –
अरे, यह तो है उसकी प्रतिमा ही।
[फिर हँसता है]
सोने की लंका थी मेरी
और मैं भी था उद्भट सम्राट
किन्तु …
सीता थी रही वहाँ प्राणवान और सजग।
सोने की शिला यहाँ क्यों हुई ?
समझा …
राजा हो… सोने का सम्मोहन हुआ तुम्हें
इसीलिए सीता को सोने की शिला किया।
अद्भुत है तुम्हारा स्पर्श, भाई।
शिला प्राणवान हुई और हुई ऋषि-पत्नी –
करके विपरीत क्रिया
पत्नी को सोने की शिला किया।
सच, तुम हो पुरुषोत्तम।
यदि तुमको सोने का इतना ही मोह था
मुझसे कह देते
सीता के बदले में सोने की लंका मैं दे देता।
[एक दीर्घ उच्छ्वास भरता है]
अहह राम !
दुर्लभ थी जानकी
और मुझे विद्युत् की किरणों-सी दहती थी।
मन मेरा प्रेमी था दुर्लभ हर वस्तु का।
हरण किया था उसका मोहग्रस्त होकर ही –
किन्तु …
वह समर्पित थी तुमको ही एकनिष्ठ –
पूरी तरह।
मेरा सब पौरुष … सारी प्रभुताएँ –
मेरी समृद्धि सभी
सारे आकर्षण, सम्मोहन वे
जिससे थीं मन्त्रमुग्ध खिंची चली आतीं
सब देव, असुर, नाग, यक्ष कन्याएँ –
वह सारा व्यर्थ गया।
क्रोध मुझे आता था
भक्ति भी उपजती थी उसके प्रति।
और फिर आये थे राम तुम।
देख तुम्हें जाना था मैंने …
तुम दोनों हो अभिन्न
उपजा संदेह था अपने प्रति –
था पहली बार लगा मुझको
प्रीति है अलौकिक और दुर्लभ कमनीय भी।
काश, मुझे मिल पाती …
जीवन यह व्यर्थ गया प्रीति बिन।
मन ही मन मैंने आसीसा था
तुम .. दोनों को –
श्रद्धा से भरे हुए वे क्षण
मुझको थे पूजनीय।
[फिर एक दीर्घ निश्वास लेता है। राम के चेहरे पर गहरी व्यथा अंकित है]
[विह्वल स्वर में] किन्तु राम, तुमने यह क्या किया –
सीता को त्याग दिया।
कैसे तुम कर पाए यह कुकृत्य –
तुम दोनों थे अभिन्न।
बोलो तो …
इतना उद्योग किया –
हाँ, अलंघ्य सागर पर बाँध सेतु
मुझ अजेय रावण को मारा था
क्या केवल …
अपनी अहं-तुष्टि हेतु ?
ब्राह्मण के पूरे-के-पूरे कुल की हत्या का
पाप लिया सिर पर था
क्या केवल सीता को यों कलंक देने को ?
इतनी हत्याएँ…
इतना वह नर-संहार किसलिए ?
मात्र इक बहाना थी सीता क्या ?
मुझको थी वन्दनीय जानकी –
रहने उसे देते मेरे पास ही।
नहीं राम, जनरंजन
मात्र इक छलावा है।
यदि मैंने भोग को बनाया था अंतिम सत्य
तो तुमने निर्मम त्याग को।
दोनों हैं अर्द्धसत्य और आत्मघाती भी।
और प्रजा …
रहती है आदिम ,,, संस्कारहीन।
[जोरों से हँसता है]
हा-हा-हा …
धन्य राम !
हो गये परात्पर तुम –
मर्यादापुरुषोत्तम
किन्तु कटे धरती से
हाँ, उसकी बेटी से
और अब मूर्च्छाओं में डूबे
रचते एकांत नये
हा-हा-हा …
कैसी मर्यादा यह अपरिमेय-अन्तहीन !
[हँसते हुए रावण की प्रेताकृति विलुप्त हो जाती है। उसके अट्टहास की गूँज थोड़ी देर तक कक्ष के अन्तराल में टकराती रहती है। राम अत्यंत विचलित-उद्वेलित लगते हैं। अन्तर्कक्ष से कटे सिर को हाथ में पकड़े शूद्र तपस्वी शम्बूक की रुण्ड-छायाकृति आगे आती है]
शम्बूक – ईश्वर… प्रभु होने की इच्छा …!
राम, यही मेरा अपराध हुआ।
तुम थे प्रभु जन्म से
किन्तु मैं जन्मना था अन्त्यज …
पाना था चाहा…
एक अंश छोटा-सा प्रभुता का
जिसके तुम पूर्णपुरुष।
किन्तु मुझे दण्ड मिला मृत्यु का।
कैसा था न्याय यह
हाँ, राजा राम का।
मात्र जन्म ही है क्या
जीवन का चरम बिंदु – अंतिम आधार वही ?
हाँ सीता भी तो
अज्ञातकुलशीला थी –
धरती की पुत्री थी
किन्तु उसे मिले जनक
और फिर तुम भी तो …
अपनाया उसको था तुमने आकाश बन।
किन्तु वह …
तुम्हारा अपनाना भी …
मिथ्या हुआ।
मुझसे भी अधिक हुई अपमानित जानकी।
वह जो वीर्यशुल्का थी – वीर-प्रसू
उसका यों तिरस्कार …
सत्ता का आग्रह क्या अँधा ही होता है ?
राम !
यह प्रजा …
जिसकी इच्छा से तुम चले
अब भी है वैसी ही –
संकुचित-अपाहिज-अज्ञानी – अनुदार भी।
बस प्रभु ही आश्रय हैं इसके।
प्रभुता को पूजती –
चलते तुम इसकी अंधी इच्छाओं से।
राजा तुम हुए – दृष्टि खो बैठे –
सीता का त्याग किया
हत्या की मेरी फिर।
अस्वीकृति, हाय ! सिर्फ अस्वीकृति …
कैसा यह राजधर्म !
[एक खिन्न मुस्कान के साथ]
राम !
यह अलौकिक होने का आग्रह…
होता है ऐसा ही…
[कहते-कहते वह भी अन्तराल में धुँधला जाता है। राम अर्द्धजाग्रत होते हैं। उनके चेहरे पर विचलन का भाव साफ़ दिखाई देता है]
राम (आत्मालाप) – हाय ! प्रश्न…
केवल प्रश्न…
मन मेरा अंतरीप हो गया
जिस पर हैं चट्टानें-ही-चट्टानें
नोकीली-धारदार –
घायल यात्राएं हैं बार-बार वहीँ-वहीँ।
बर्फीले पर्वत की चोटी पर बैठा हूँ
एकाकी –
जल-प्लावन होता है दभी ओर-
अन्धकार बढ़ता ही जा रहा –
युगों-पूर्व सूर्योदय वन में जो देखा था
बिला गया जाने किस अंधकूप घाटी में
और ये अनास्था की आकृतियाँ
घेर रही हैं मुझको –
क्या करूँ ?
क्षण-क्षण यह कालचक्र
तोड़ रहा है मुझको –
घूम रहा, कुचल रहा है निष्ठुर यह
मेरी आस्थाओं को
सारी ही मृदुल-मधुर दैवी संज्ञाओं को।
काश, शिला हो पाता
या…
फिर हो पाता एक बार फिर से साधारण मैं।
कहता शम्बूक सही –
निष्ठुर है और क्रूर हृदयहीन
प्रभु होने का आग्रह।
काश !…
वही होता जो कहता दशग्रीव है –
जीवित तो रहती फिर सीता।
किन्तु… कालचक्र नहीं पीछे है मुड़ पाता।
प्रभु हो या कोई भी
सारे असमर्थ हैं।
आस्थाएँ सत्ता से जुड़कर
हो जातीं दीन-हीन हास्यास्पद
या… होतीं वे कपटी स्वर्णमृग।
सीते ! हा सीते !
यह सच है
मैं अन्यायी-ढोंगी हूँ –
रावण ने साधू बन तुम्हें ठगा –
मैंने प्रभु होकर भी वही किया –
ठगा तुम्हें प्रभुता से, न्याय से।
प्रेमी था …
किन्तु बना राजा मैं
और तुम्हें त्याग कर सोचता रहा
यही श्रेष्ठ राजधर्म है।
और अंत में …
हाय ! विवश किया
करो आत्महत्या तुम।
कैसी मर्यादा यह – कैसा आदर्श यह !
अब मैं हास्यास्पद हूँ।
हँसते हैं वे भी अब मुझ पर
जो पशु थे
या थे फिर दम्भी और धूर्त-चतुर।
मैं भी तो उन-सा ही …
नहीं…नहीं…उनसे भी गर्हित हूँ।
उनके अन्याय से प्रताड़ित थे अन्य लोग
मैंने अन्याय किया है तुमसे
जो नितांत अपनी थीं।
दम्भ यह, दुराग्रह यह प्रभुता का
क्षम्य नहीं …
दुष्कर अपराध है दण्डनीय।
कहते सब मुझको सर्वज्ञ हैं –
मैं भी था ऐसा ही सोचता।
किन्तु आज रावण ने दिखा दिया
कितना अल्पज्ञ मैं।
कहता शम्बूक सही
मैंने बस अस्वीकृति को ही स्वीकारा है
जीवन भर
और वही अस्वीकृति
अब मेरा बन्धन है।
क्या करूँ हाय …
सीते ! मैं क्या करूँ ?
मार्ग नहीं दिखता है एकाकी, जानकी !
आओ, तुम लौट आओ …
वैदेही ! … …
[कहते-कहते आत्म-विह्वल हो संज्ञाशून्य हो जाते हैं]
कहियत भिन्न न भिन्न / भाग 4
दृश्य – चार
[वही कक्ष -वही रात्रि। कुछ समय उपरान्त राम अर्द्ध-सुप्तावस्था में शैया पर लेटे हैं। अन्तर्कक्ष में स्थित सीता की मूर्ति में अचानक हलचल होती है। उसमें से एक-एककर छायाकृतियाँ बाहर आती हैं। राम के स्वप्न से एकाकार हो जाती हैं। पहली आकृति अहल्या की है]
अहल्या – राघव !
यह कैसी निश्चेतना
कैसी यह मूर्च्छा है ?
संशय का स्वर यह …
और यह पलायन… किससे …?
यह कैसा छल … बोलो !
साक्षी हूँ मैं तो
उसी नये सूरज की
आस्था की उन पहली किरणों की
जिनमें था
जीवन का अप्रतिम उल्लास अमल
और नये युग की थी
व्यापक उद्घोषणा।
शब्द आज भी मेरी साँसों में गूँज रहे।
राघव वे शब्द नहीं
हैं वे तो ऋचामन्त्र युग के परिवर्तन के।
तुमने था कहा –
‘सूर्य हूँ मैं वह
जिसका स्पर्श तोड़ दे जड़ता –
सारी वह वर्षों की जकड़न
जिसमें तुम बंदी हो ऋषिपत्नी।
उठो…अहिल्ये उठो…
मेरा आदेश यह
तुम हो अपवित्र नहीं।’
कैसी तब बिजुरी-सी कड़की थी।
और…
मेरी उस पाषाणी देह में प्राण लौट आये थे।
राम, वही आस्था है आज भी
युग का सत्य।
भूल गये तब तुमने
मुझसे था क्या कहा –
‘नारी की देह है अलौकिक –
होती अपवित्र नहीं ;
मन का ही कलुष पाप होता है’
और उन्हीं वचनों की आस्था से
अब तक मैं जीवित हूँ।
तुम तो थे युगपुरुष
और थे नियंता स्वीकारों के।
सीता का अस्वीकार….
विस्मित हूँ मैं अब भी –
तुमने कैसे किया !
राम, मैं अहल्या थी
तुमने दी गति मुझको –
जीवन-आधार दिया …
होता विश्वास नहीं
सीता हो गयी शिला
और तुम …
हो गये कुलिश-कठोर
अपनी ही प्रिया के प्रति –
तुमने था कहा कभी, याद तुम्हें ?
‘ममता-अनुराग ही बस शाश्वत सत्य है’
और आज …
नहीं राम, यह सब है सत्य नहीं
केवल दुःस्वप्न है।
जागो राम… जागो !
[राम अर्द्धनिद्रा में बड़बड़ाते हैं और अहल्या की आकृति उनके स्वप्न में विलीन हो जाती है]
राम-(अर्द्धमूर्च्छा में)
सब कुछ है स्वप्नवत –
आस्था भी…अनास्था भी
प्रश्न यहीं पर ठहरा …
उत्तर… है कोई नहीं
[अंतर्कक्ष से शबरी की आकृति निकलती है, राम के निकट पहुँचकर उनका माथा सहलाते हुए कहती है]
शबरी – मेरे प्रभु !
तुम त्राता, तुम ही उद्धारक हो।
तुम हो सर्वशक्तिमान
शाश्वत सर्वज्ञ हो।
जागो प्रभु, मूर्च्छा यह ठीक नहीं
ऋषियों से मैंने यह जाना था
प्रभु होते मूर्च्छित जब
सृष्टि प्रलय होती है।
शबरी थी … मैं थी कुलहीन…
किन्तु …
ऋषियों की सेवा में रहकर मैं सिद्ध हुई;
वे सब तो चले गये ब्रह्मलोक
और मैं अकेली ही
शेष रही उस मतंगवन में
रात-दिन प्रतीक्षा में
आएँगे मेरे प्रभु।
और… फिर आये तुम।
जाति-बाह्य शबरी के हाथों से बेर खाये –
वह मेरी जूठन भी तुमने स्वीकार की
तुम थे अवतार-पुरुष;
तुम हो अवतार-पुरुष …
छलो नहीं अपने को इस तरह।
घटना शम्बूक की अनास्था की घटना है –
तप का था दम्भ उसे,
प्रभु कैसे होता वह –
तप तो मन के विकार-दम्भों के
जलने की प्रक्रिया है।
तुमने दी मुक्ति उसे उस तप से
जिससे वह दम्भों का पोषण था कर रहा।
इसीलिए था उसका दुष्प्रभाव –
ब्राह्मण के बेटे की अकालमृत्यु।
जागो प्रभु…जागो …
[शबरी की आकृति भी राम के स्वप्न में विलीन हो जाती है। राम फिर मूर्च्छा में बड़बड़ाते हैं]
राम (अर्द्धमूर्च्छा में)-
दुष्प्रभाव दम्भों का
या …
मेरी मर्यादा का…
दोनों हैं एक ही…
अन्तर है कोई नहीं –
प्रभु की हो क्रीड़ा या मानव की साधना,
दोनों का है प्रभाव है एक ही –
दोनों हतभाग्य हैं।
[सीता की स्वर्ण-प्रतिमा से शूर्पणखा की छायाकृति निकलती है। वह लुभावने हाव-भाव, चेष्टाएँ करती है। राम के चेहरे पर जुगुप्सा और आतंक का मिला-जुला भाव उभरता है। शूर्पणखा उनके चारों ओर मादक काम-नृत्य करती है। फिर हँसते हुए उन्हें सम्बोधित करती है]
शूर्पणखा – वाह राम !
अब भी हो दर्शनीय
जैसे तुम पहले थे।
वैसा ही रूप
वही देह की गठन अब भी,
सम्मोहन -आकर्षण वही, राम !
यह कैसा जादू है !
हाँ, थोडा अन्तर है –
तुम लगते हो किंचित थके हुए और भ्रमित,
थोड़े दयनीय भी।
पर…
मैं अब भी प्रस्तुत हूँ;
तुम भी निर्बाध हुए।
जीवन है स्वप्नवत क्षणभंगुर –
आओ, हम उसका पूरा आनन्द लें।
जब तक हैं ये शिराएँ तपने को सुख से
तब तक ही जीवन है।
बहतीं हैं अन्दर जो धाराएँ
आतुर उत्ताप की
वही सत्य।
आओ, देव-दुर्लभ आनन्द लें।
सीता थी साधारण…
मामूली कृषिभूमि कन्या थी।
सत्ता के संग नहीं चल पायी।
तुमने निष्काषित कर सीता को ठीक किया –
कैसा वह मोह था
जिससे तुम बँधे रहे सीता से।
अब भी सम्मोहन वह ज़िन्दा है,
देता है व्यथा तुम्हें।
वह तो अब छाया है मृत्यु की;
उससे मत बँधे रहो।
अपने को मुक्त करो निष्फल मर्यादा से।
सुन्दर है
कितना कमनीय है जीवन यह –
देहों का आकर्षण !
आओ, जियो मेरे साथ
जीवन के सुख सारे।
जागो…प्रिय ! जागो !…
[राम की आँखें काँपकर खुल जाती हैं। भय और आतंक उनके चेहरे पर अंकित है]
राम(आत्मालाप) -<b>
यह कैसा भीषण दुःस्वप्न था –
मन में क्या यह विकार जीवित था ?
सीते ! मैं पतित हुआ …
और हुआ दण्डनीय।
लगता है भय मुझको अपनी मूर्च्छाओं से।
साध्वी अहल्या और शबरी की आकृतियाँ
थीं मेरे मन का ही प्रक्षेपण –
आयीं थीं आस्था बन।
रावण, मारीच और तापस शम्बूक भी
मेरी पहचानी आकृतियाँ हैं
और कहीं जीवित हैं मुझमें।
किन्तु … यह शूर्पणखा …
हाय ! मुझको धिक्कार है।
सीते ! मैं अपराधी …
वंचक हूँ –
कैसी यह विकृति है मन की।
सोचो तो
जीवन भर मैं था यों छला गया
अपने ही आप से।
सोचता रहा – मन में कोई विकार हैं नहीं;
मैं केवल सीता का;
यह भी भ्रम ही निकला।
रघुवंशी मर्यादा …
मेरी सब नीति-प्रीति…
मिथ्या हो गयी सभी –
कैसी यम-यातना !
सीते ! दो मुक्ति मुझे पापी इस जीवन से।
मैं हूँ हत्यारा उस निष्ठां का
जिसमें तुम जीवित थीं।
अब क्या है शेष बचा ?
धिक् ! धिक् ! यह राम नहीं जीने के योग्य रहा।
<b>[भावातिरेक में राम फिर मूर्च्छित हो जाते हैं]
कहियत भिन्न न भिन्न / भाग 5
दृश्य – पाँच
[राम शैया पर मूर्च्छित पड़े हैं। ब्राह्म मुहूर्त्त हो रहा है। सीता की प्रतिमा से एक तेज प्रकाश-पुंज निकल रहा है। प्रतिमा एक जीवित आकार ले लेती है। मंद-मंद वीणा का स्वर उभरता है – नूपुरों की मोहक रुनुक-झुनक सुनाई देती है। चारों ओर दैवी पुष्पों की सुगंध फ़ैल जाती है। सीता अपने सम्पूर्ण दैवी सौन्दर्य के साथ प्रकट हो जाती हैं। वे राम के मस्तक को गोद में लेकर उन्हें प्यार करती हैं – मधुर-मधुर वाणी में बोलती हैं]
सीता – राघव ! रघुनन्दन !
प्रिय मेरे राम !
यों मत आत्म-विह्वल हो;
आत्म-ग्लानि से भरकर
अपने को क्षीण मत करो
शूर्पणखा, जिसे देख विचलित हो तुम इतने
मेरी ही सृष्टि थी –
मेरा ही रूप थी।
लीला यह सृष्टि की
सिर्फ क्या तुम्हारी है …
मैं भी तो हूँ लीला रच सकती –
संगिनी तुम्हारी हूँ
माया हूँ राम की …
व्यापी हूँ राम को।
छोटा-सा खेल किया
और तुम व्यथित हुए हो इतना।
[हँसती है। उस मन्द स्मित और दैवी हँसी से वातावरण का सारा तनाव छँट जाता है। राम के चेहरे पर भी मुसकान उभर आती है]
शूर्पणखा भी तो है नारी ही,
मुग्धा भी।
काम और वासना
जीवन के आवश्यक अंग हैं;
देह भी अलौकिक है
और कहीं सत्य भी।
शूर्पणखा का आग्रह देह का था
वह भी अभूतपूर्व –
संतुलित नहीं था …
इसीलिए अनुचित था।
उसका वह देहराग मुझमें भी –
मानवी हूँ मैं …
धरती से उपजी हूँ
इस नाते शूर्पणखा मुझमें भी जीवित है।
विस्मित क्यों होते हो राम यों ?
अपनी इस लीला में सब कुछ है सम्मिलित –
राक्षस भी देव भी;
आत्मा भी देह भी –
है न रघुवंशमणि !
शूर्पणखा भी तो आई थी बनकर प्रेमिका ही –
मेरी सहधर्मा थी –
नारी के हम दोनों दो पहलू हैं अलग-अलग
किन्तु कहीं एक भी …
पूरक हैं आपस में –
मुझको है प्रिय यह भी –
दोनों स्वीकार्य हों।
मेरा ही अर्द्धभाग आया बन शूर्पणखा
और तुम …
कातर मोहग्रस्त हुए।
प्रतिकृति से डरो नहीं –
वह तो थी प्रति-सीता
राम का विलोम ज्यों रावण है
वैसे ही सीता का है विलोम शूर्पणखा –
दोनों ही सत्य हैं
और हैं उपस्थित हर व्यक्ति में;
हममें भी।
[राम मुस्कराते हैं। मन्द स्मिति के साथ सीता कहती हैं]
बोलो रघुनन्दन !
आँखे खोलो !
यह जो तुम देख रहे
स्वप्न नहीं सत्य है।
[राम आँख खोलकर सीता को मन्त्रमुग्ध निहारते हैं]
इस तरह निरीह हुए, राम, तुम
त्रस्त हुए स्वयं
और मुझको भी त्रस्त किया;
हम दोनों हैं अभिन्न
फिर यह सन्ताप क्यों ?
[राम सीता को आलिंगन बद्ध करते हुए कहते हैं]
राम- सच में…
हाँ, सीते !
सच में यह तुम हो।
आयीं तुम लौट, प्रिये ! सचमुच ही।
कैसे दुःस्वप्नों ने घेरा था
तुम बिन यह राम रहा प्राणहीन;
सीता बिन राम तो निरर्थक है – सत्त्वहीन।
सीता हो साथ तभी राम नाम सार्थक है।
आओ प्रिये !
हम दोनों चलते हैं वन को फिर –
कैसे थे सम्मोहक दिन वे वनवास के।
कैसी थीं अपनी क्रीड़ाएँ –
कोमल और सरल-चित्त अनुरागी।
याद तुम्हें…
उस दिन…मन्दाकिनी के तट पर
हमने जब बालू पर
नाम लिखे थे अपने साथ-साथ
तभी लहर आयी थी
और घुल गये थे मौन
अक्षर वे संग-संग…
और हम
बच्चों की भाँति रहे थे हँसते
और फिर…
बाद में हँसे थे यह सोचकर
कैसे हम मूर्ख हैं
बालू पर बना रहे थे अपने स्वप्न-महल।
हँसना वह अनायास बिना-बात
सम्भव अब नहीं रहा
आओ, चलें !
[सीता और राम दोनों साथ-साथ हंसते हैं]
सीता – हाँ, राघव !
सचमुच वे दिन थे अनुराग भरे –
स्वर्गिक भी।
यौवन की क्रीड़ाएँ ऐसी ही होती हैं
भोली…
और अनायास।
नटखट थे तुम भी तो –
कई बार वन में
छिप जाते थे पेड़ों के झुरमुट में
और मैं…बावरी
खोज-खोज तुम्हें हार जाती थी,
पास-पास घूम-घूम लौट-लौट जाती थी
और तुम…
पीछे ही खड़े-खड़े मुस्काते रहते थे
और फिर…
पूरी तरह व्याकुल कर…
अकस्मात पीछे से बाँहों में घेरकर…
और मैं झगड़ती थी
बच्चों-सी खीझकर।
सच राघव, वे थे अति सुन्दर दिन।
राम – सीते !
याद तुम्हें वह दिन क्या
जब जयंत आया था सूने में
और तुम्हें पाकर एकाकी…
सीता (भय-मिश्रित स्वर में)-
नहीं राम… नहीं…नहीं…
ऐसी घटनाओं की याद मत दिलाओ अब।
उत्पाती राक्षस या देवों की
कमी नहीं जीवन में
चाहे हम कहीं रहें।
राम – हाँ, सीते !
यह सच है।
वन से हम लौटे थे गरिमा से भरे हुए
उत्कंठित…
अपनी इस नगरी में…
किन्तु यहाँ क्या मिला ?
स्वप्न हुए भंग सभी
और हम हुए… अलग।
कैसी थी दुरभिसन्धि सत्ता की
मैं भी हो गया क्रूर राक्षस था।
सीते… …!
हम लौट नहीं पाएँगे क्या… हाय !
अपने उन अनुरागी सपनों में
[राम का स्वर फिर विह्वल हो जाता है। क्षणार्ध के बाद वे फिर पूर्व-सन्दर्भों की याद करते हुए कहते हैं]
सोचो तो, जानकी …
कल की सी बात अभी लगती है –
याद मुझे
वह पहली दृष्टि-मिलन की वेला।
वाटिका-सरोवर के पास…
गौरी के मन्दिर में
सखियों संग तुम जाती थीं
और मैं…
करता था पुष्प-चयन,
तभी मिली थीं आँखें
और लगा था
जैसे तुम नितान्त अपनी हो।
वह क्षण…
सीता – राघव ! हाँ, राघव…!
वह क्षण ही तो हुआ मुझे सम्मोहक –
किंचित उत्पीड़क भी,
जब तक शिव-चाप रहा बाधक-सा।
मेरा सौभाग्य था
कोई नहीं साध सका उसे
और…
फिर गौरी का वर ही फलीभूत हुआ।
तुमने किस लाघव से
दुर्दम उस चाप को उठाया था
और फिर… पल भर में
हाय ! वह पल भर था मुझको यम-यातना …
खण्डित था चाप पड़ा धरती पर।
सीता के गर्व का
अलौकिक वह पहला क्षण
अब भी है लगता बहुमूल्य मुझे
राम हुए थे मेरे
उस क्षण में।
राम – हाँ, सीते…!
और उसी क्षण में
सीता भी राम की हुई थी।
सच में… अमूल्य वह क्षण तो
पूरे…जीवन की निधि है।
और वह… पाणि-परस पहला –
मीठी रसधारा वह राशि-राशि
अब भी है बहती
रग-रग में… रक्त की शिराओं में
लय बनकर
सुख बनकर
आदिम स्पर्श वह प्राणों का दाता है
आज भी।
किन्तु प्रिये !
वे सब हैं सुधियों के अन्तरीप।
सूर्योदय के वे पहचाने क्षण
कब के हैं बीत चुके।
और आज …
पर… सीते !
यह क्षण भी अपना है साथ-साथ –
लगता है पिछले उस आदिम क्षण का ही
विस्तार है।
आओ, इसे बाँध लें
अपने इस अनुरागी बन्धन में।
[एकाएक स्वर में दैवी आवेश आ जाता है]
समय-चक्र !
हे यम के कालचक्र !
टू रुक जा…
देता आदेश तुझे राम है।
होती हो… हो जाये सृष्टि-प्रलय
शेष रहे केवल यह क्षण।
सीता – नहीं राम !
शाश्वतता शुभ की भी श्रेय नहीं।
घूम रहा कालचक्र
परिवर्तन होता है – यही नियम।
सोचो तो
शाश्वत सूर्योदय भी क्या होगा श्रेयस्कर ?
अंधकार जीवन की नियति नहीं
किन्तु…
वहीं सूर्योदय की इच्छा पलती है
और… इसीलिए राम…
अँधियारे में जीना होता अनिवार्य है।
राम, सुनो
यह लीला अवतारी
जिसमें हम दोनों हैं मुख्य पात्र
अब हो समाप्त यहीं।
हर पीढ़ी का होता अपना है एक सत्य
किन्तु वही सत्य जब
टिककर बैठ जाता है
हो जाता बोझ है –
त्याज्य सर्प-केंचुल सा।
हमने जो सत्य जिया
आवश्यक नहीं वही …
सत्य हो लवकुश का।
राम तुम परात्पर हो… प्रभु हो… नियन्ता हो
और मैं हूँ वह आदिशक्ति
जिससे तुम रचते सृष्टि-लीला यह।
बार-बार हम दोनों आते हैं धरती पर –
मानव बन
मानव की पीड़ा के भोक्ता बन –
संस्कार करते हैं अपनी इस सृष्टि का।
आये थे जैसे हम सहज भाव
किसी यज्ञ-आहुति से
वैसे ही जायेंगे।
मैं उपजी धरती से –
मूल तत्त्व और भाव धरती का;
तुम हो स्वयं यज्ञपुरुष –
वरुणपुत्र –
हवि से थे प्रकट हुए क्षीर बन
अंश-सहित।
सृष्टि इस जन्म की –
हेतु भी समाप्त हुआ –
अब इसे समेटो, प्रिय !
कालरात्रि बीत रही राम यह –
देखो है आ रही
नई सूर्य-रश्मि लिये
विमल प्रभाती भी।
दिन यह जो आया है
होगा यह और अधिक उत्पीड़क।
इसकी उत्तेजना मानव बन सहन करो।
साधारण हो जाओ
भोगो ये पीड़ाएँ
और…
लीलाधाम लौट चलो।
साधारण होना ही होता है ईश्वरत्व।
[गवाक्ष से उषा की लालिमा कक्ष में दिखाई देती है। तभी उस एकान्त को भंग करती शंख और घण्टों की ध्वनि उठती है, स्वस्ति-वाचन गूँजता है। सारा वातावरण चन्दन और अगरु-गन्ध से भर जाता है। सीता की आकृति पारदर्शी हो राम की देह में समा जाती है। अंतर्कक्ष में में सीता की स्वर्ण-प्रतिमा खण्ड-खण्ड हो बिखर जाती है। राम के मन में सीता के अंतिम शब्द गूँज बनकर बार-बार घूमते हैं]
साधारण होना ही होता है… ईश्वरत्व।
हाँ, राम !
साधारण होना ही…
होता है… ईश्वरत्व
ईश्वरत्व…ईश्वरत्व…
[‘ईश्वरत्व’ शब्द कक्ष की छत से टकराकर, दीवारों से टकरा-टकरा कर और अन्त में वातायन से एक मन्त्रध्वनि बनकर बिखर-बिखर जाता है – दूर तक आक्षितिज फैलता जाता है]
कहियत भिन्न न भिन्न / भाग 6
दृश्य-छह
उत्तर-कथन – फिर दिन आया –
आकाश सूर्य हो गया -तपा
आस्थाएँ पीड़ित हुईं
किन्तु वे रहीं शान्त।
अंधे भविष्य की दिनचर्या भी हुई मौन…
मानव का निश्चय हुआ सजग
आग्रह सारे हो गये क्लान्त
हो गयीं शिथिल सब इच्छाएँ।
अद्भुत घटनाएँ हुईं –
सभी पीड़ाओं की –
पर मौन शान्त मन उनसे अस्थिर हुआ नहीं।
हो गयी दृष्टि निरपेक्ष सहज।
काया-मन से भी परे सूक्ष्म
जो तत्त्व-प्राण
वह देख रहा होकर तटस्थ
सम्बन्धों की दिनचर्या को।
हो गयीं कूर्म मन की गतियाँ –
हट गये क्षितिज
विस्तार हुआ अपलक अनन्त संज्ञाओं का।
दिन बीता
किरणें दूब रहीं सरयू-जल में
हैं राम खड़े वातायन में
सम्पूर्ण मौन –
चलती अन्दर है मौन क्रिया आस्थाओं की –
होता है वार्तालाप जानकी-संग …
हर पल।
[राम अन्धकार से घिरे उस मौन संलाप को सहज प्रसन्न मुद्रा में सुन रहे हैं – सीता की छायाकृति से संलाप कर रहे हैं]
राम – हाँ, सीते !
दिन यह था सच में ही अद्भुत पीड़ाओं का।
और उन्हें जीकर मैं
साधारण हो गया पूर्ववत।
सारा ही आडम्बर – अहंकार
प्रभुता का
सड़े हुए लुगड़े सा झड़ गया।
कितना हो गया सहज सूर्योदय होना अब।
समय-चक्र पूरा है घूम चुका
और थकी स्मृतियाँ
देखो, अब कैसी हैं शान्त पड़ीं –
भोले जल-शिशुओं सी।
किन्तु…
कैसा दुर्धर्ष-हठी
था अशान्त जल-प्लावन
जिसमें मैं डूबा था।
लौट गया आकर वह
आदिम सूर्यास्तों का अहंकार –
कैसा था आकुल वह चक्रवात!
गूँज कहीं दूर
किसी गहरे अवकाश में
अब भी है काँप रही।
हाँ, सीते !
यह दिन था मर्मान्तक कष्टों का।
सीता – राम मुझे ज्ञात है –
आये थे कालपुरुष…
मृत्यु-दूत…
[पारदर्शिका में दृश्य उभरता है। अयोध्या के सभा-भवन में राम का अन्तर्कक्ष। राम गहरे मौन में डूबे बैठे हैं। लक्ष्मण भी पास बैठे हैं। राम एकाएक कहते हैं]
राम – हाँ, लक्ष्मण !
कल सीता आयी थी रात में।
मेरा विश्वास करो…
स्वप्न में नहीं – सचमुच ही।
[लक्ष्मण कुछ कहें, इससे पूर्व ही प्रतिहारी आकर सन्देश देता है]
प्रतिहारी – क्षमा करें, देव !
एक विप्रवर द्वार पर उपस्थित हैं।
राम – लक्ष्मण !
तुम स्वयं जाओ
सादर ले आओ उन्हें।
[लक्ष्मण जाते हैं। कुछ क्षणों में ही एक विप्रवेशधारी व्यक्ति को पूरे सम्मान के साथ लेकर आते हैं]
ब्राह्मण – राघव ! एकान्त मुझे चाहिए…
पूरा एकान्त
जब तक मैं रहूँ यहाँ
कोई भी नहीं आये… ऐसा आदेश दें।
राम – जाओ सौमित्र !
रहो द्वार पर उपस्थित
स्वयं प्रहरी बन
और…
[राम की बात काटकर ब्राह्मण बोलता है]
ब्राह्मण – जो भी व्यक्ति आएगा…
अन्दर इस कक्ष में
जब तक हम वर्तारत
मृत्युदण्ड का होगा भागी वह।
रघुपति का ऐसा आदेश है।
[लक्ष्मण बाहर जाते हैं। राम और ब्राह्मण में, जो वास्तव में कालपुरुष हैं, वार्तालाप चलता है। नेपथ्य में ऋषि दुर्वासा का भयंकर रोषपूर्ण स्वर सुनाई देता है]
दुर्वासा – दुर्विनीत लक्ष्मण !
तू… रोक रहा है… मुझको।
दुर्मति, तुझे ज्ञात नहीं
ब्रह्मा या विष्णु या महेश भी
रोक नहीं सकते हैं मेरी गति।
है अबाध मेरा हर ओर गमन।
कैसा है राम यह !
कैसी है उसकी यह मर्यादा !
मेरा भी तिरस्कार –
स्वागत को स्वयं नहीं आया वह
और… अब
रोक रहा तू मुझे जाने से।
राजा का विरुद यही
कोई भी व्यक्ति उसे मिल सकता जब चाहे।
पूरी इस नगरी को ध्वस्त अभी करता हूँ –
प्रजा सहित राजा यह दण्डनीय।
[पारदर्शिका ओझल हो जाती है। राम कहते हैं]
राम – वैदेही…!
और फिर …
लक्ष्मण स्वयं आये थे कक्ष में
उत्पीड़क वह प्रसंग –
लक्ष्मण को मृत्यु-दण्ड…
गुरुवर की आज्ञा से
त्यागा था मैंने सौमित्र को
और…
उसी क्षण जाकर सरयू-तीर
लक्ष्मण ने त्याग दिए प्राण थे
और मैं हुआ था…
स्वजनघाती फिर।
सीता – हाँ, राघव !
लक्ष्मण को पहले ही जाना था।
जीवन भर पाला था दास्य भाव ही उसने –
उसके बिन
कैसे वह जीवित रह पाता।
उसने थीं झेलीं वे सारी पीड़ाएँ
जो हमने भोगी थीं –
उनके अतिरिक्त भी।
जीवन भर रहा था अभिन्न हम दोनों से।
उग्र रूप वह था रुद्रावतार –
याद मुझे…
आये थे परशुराम…
और फिर…
जब था वनवास मिला
और जब आये थे भरत भाई चित्रकूट…
पंचवटी में मैंने भी की थी, हाँ
उससे वंचना…
कैसा वह तड़पा था –
वह प्रसंग असहनीय !
लक्ष्मण अनुरागी था –
मेरा प्रिय देवर था…
राम – हाँ, सीते !
लक्ष्मण तो था मेरा अन्तर्मन –
मुझमें जो उग्र प्रश्न उगते थे
उनका था साक्षी वह।
शेष-तुल्य
वह ही आधार था अपने इस जीवन का
सीता – राम ! चलो, लौट चलो !
राम – हाँ, सीते !
अब तो है चलना ही –
सरयू है टेर रही।
[अंधकार गहरा जाता है। वातायन से दिखती सरयू के जल में हलचल होती है। एक मधुर संगीत-ध्वनि आती है। नदी में आवाहन-मन्त्र गूँजते हैं]
आवाहन-स्वर –
आओ राम…
जल हो लो –
जल ही है मूल तत्त्व सृष्टि का
जल ही संयोजन है
जल ही है संकुचन
जल से ही जीवन है
जल से ही मृत्यु है
जल ही है सूर्य और जल ही है कालरात्रि
जल से ही सृष्टि उदित होती है
जल में ही होती है वह विलीन
जल में ही शयन
और लीलाकमल जल में ही
जल ही है आत्म-तत्त्व
जल ही है विश्वरूप
आओ राम !…
आओ राम !… आओ राम !
[एक निरन्तर प्रवहमान स्वर-वलय बनता है। राम की आकृति उससे घिरकर स्वर-उर्मियों में समा जाती है। मंगल-ध्वनि गूँजती है]
उत्तर-गान – लीलायुग पूरा हुआ एक –
अवतार-पुरुष ने जलसमाधि ली सरयू में।
ईश्वर के मानव होने का
संकल्प हुआ यों पूर्णकाम –
धरती की आस्था हुई सजग।
युगपुरुष राम ने
सूर्योदय का मन्त्र रचा –
वह मन्त्र हुआ संकल्प नयी आस्थाओं का
युग-युग तक जिससे
स्वप्नशील होगा मानव।
यह सिया-राम की पुण्यकथा –
आदर्शों की…
मर्यादा की गौरवगाथा;
मानव-पीड़ा का
उससे उपजी आस्था का यह सामवेद
युग-युग कल्याणी होगा।
जब-जब मानव के मन में
दुविधा उपजेगी
जब-जब सूर्यास्त हवाओं में गहराएगा
जब-जब विषाद की लहरें
मन को तोड़ेंगी
जब-जब होगा विश्वास त्रस्त
आसुरी शक्तियाँ
जब-जब भी होंगी सचेष्ट
जब-जब मायामृग लौटेंगे
जब-जब धरती बंजर होगी – अकुलायेगी
जब-जब भी होंगे शिला प्राण
तब-तब …
यह कथा मुखर होगी –
फिर से होगा अवतार
सूर्य के सपनों का।
दृश्य : एक
[वन से स्वर की गूँज उठती है। फिर वह गूँज शब्द बनती है – समूहगान हो जाती है]
समूहगान: सूर्योदय से पहले का
गहरा अंधकार
सूना वन-प्रान्तर महाकार
जैसे रहस्य की
आकृति हो
या घना हो गया हो विचार।
हर ओर
हवाएँ चलती हैं
या रूकती हैं –
उनमें है स्थिर
कुछ सपनों का स्वीकार
और वन बजता है
वीणा के तारों-सा रह-रह :
सरगम
अतीत की यादों-सा
या फिर
भविष्य की किसी कल्पना-सा मंथर;
वन में वह चुपके-चुपके पलता है –
साँवली हवाओं के मन में
उजली-उजली मांसलता है।
जा रहे दूर अब हैं विलाप –
कुत्तों की ध्वनि
या बीच-बीच में ‘हुआ-हुआ’ करते
अतुकान्त श्रृंगालों की पुकार।
उग रहा
महत्त्वाकांक्षा-सा
सूर्योदय का मोहक कलरव
पर अभी
पड़ा है अंधकार –
आवरण अँधेरे का ओढ़े जग रही धरा।
विस्मय का क्षण –
आकृतियाँ जब अस्पष्ट पड़ीं
यह किसके पाँवों का सुर बजता नीरव में
जैसे हो कोई देता ठेका तबले पर
या मन में पलते असन्तोष-चिन्ताओं-सा।
जंगल का अपना प्रान्त छोड़
ये कहाँ जा रहे पाँव –
कौन-सी राह
कहाँ मंजिल इनकी
धरती के किन अवकाशों को
छूने का इनका है आग्रह?
[एक आकृति वन के घने भाग से निकलकर एक ग्राम के निकट आ पहुँची है। आकृति का चेहरा-मोहरा अभी स्पष्ट नहीं है, किन्तु देह और चाल-ढाल से शक्ति का आभास होता है। दूर कुछ खेत दिखाई देते हैं। उनके पार गाँव आकार ले रहा है। पगडंडी पर चलती हुई आकृति इधर-उधर देखती है, ठिठकती है जैसे कुछ विचार कर रही हो]
विचार-स्वर: सूर्योदय का आभास
हवा में फिर से है।
कितने जंगल
कितनी सीमाएँ लाँघी हैं इतने दिन में
है याद नहीं –
यात्रा है लम्बी होती गयी
विचारों-सी।
ये पाँव नहीं हैं
घावों की संज्ञाएँ हैं;
सन्तोष मुझे
मैं दूर छोड़ आया अपनी सीमाओं को।
दुष्कर अलंघ्य यह दूरी
मेरी मित्र बने,
कर पार जिसे
आ नहीं पाएँगे पिता-बन्धु;
मन को मसोसकर रह जाएँगे,
सोचेंगे कि
एकलव्य हो गया शेष;
कुछ शोक मना
अन्त्येष्टि करेंगे वे मेरी –
उनकी पीड़ा इस नये जन्म की पोषक हो।
सीमित अतीत को छोड़
खोजता मैं भविष्य –
आकाश-धरा के पार नये आलोकों को।
यह सूर्योदय
मेरे जीवन की ज्योति बने।
यह रात अनोखी
जिसने मुझे पुकारा था –
मेरे सपनों की संधि-स्थल
हो रही शेष –
आकार ग्रहण करता मैदानों का प्रदेश।
मेरी इच्छाओं-सा लम्बा-चौड़ा
यह हरी धरा का सुखी पाट
मेरे पाँवों के नीचे है
मेरे मन-सी
कलकल करती
यह नदी जहाँ तक जाती है
मेरी यात्रा की बने वही सीमा-रेखा।
कुछ लोग इधर ही आते हैं
उनसे पूछूँ
मेरा गन्तव्य अभी है कितनी दूर और।
[सूर्योदय की पहली आभा सभी ओर बिखरती है। आकार एक सुनहरे रूपाभ से भर जाते हैं। एक किरण एकलव्य के चेहरे पर पड़ती है। श्याम वर्ण का नवयुवक है वह। कन्धे पर धनुष-तरकश लटकाये है। माते पर बालों को बाँधती हुई एक नीले रंग की पट्टी, जिसमें कुछ पंख खुंसे हैं। कमर में एक छुरा पटके से बँधा है। नंगे पाँव। सारा शरीर जैसे लोहे के तारों से बना हुआ सुडौल-सबल, जैसे पके ताँबे में दहला हुआ। गाँव के व्यक्तियों के निकट पहुँचने पर वह उनसे पूछता है]
एकलव्य: भद्रजनों !
यह ग्राम कौन-सा
और कौन-सा यह प्रदेश;
यह नदी कौन-सी
और कहाँ तक जाती है;
है कितनी दूर हस्तिनापुर?
मेरा गन्तव्य वही नगरी।
[लोग गौर से उसे देखते हैं। उनमें से एक व्यक्ति, जो एकलव्य का समायु लगता है, उसे सम्बोधित करता है]
युवक: यह कुरुप्रदेश का गुरुग्राम
है गंगा का यह तट-प्रदेश
थोड़ी ही दूर यहाँ से है हस्तिनापुरी।
कौरव-गुरुओं का यही क्षेत्र –
है कृपाचार्य की जन्मभूमि।
उस पार नदी के वह आश्रम उनका ही है।
वह श्वेत पताका
उस आश्रम की शोभा है।
नगरी से पहले
हैं रहते गुरुवर द्रोण –
हैं वही सिखाते राजकुमारों को
अस्त्रों-शस्त्रों का संचालन।
उनके आश्रम पर
ध्वजा गेरुआ फहराती –
उसके आगे ही…
राजमहल के कंगूरे…
[इसके पहले कि वह वाचाल युवक और आगे बोले, एकलव्य नदी-तट को ओर तेजी से भाग पड़ता है। तट पर पहुँचते ही नदी में कूद पड़ता है। सब चकित उसे देखते रह जाते हैं]
दृश्य : दो
[द्रोण का आश्रम। उससे थोड़ी दूर पर पथ के निकट एक वृक्ष की ओट में खड़ा मन्त्रमुग्ध एकलव्य। पृष्ठभूमि में हस्तिनापुर के गवाक्ष और कंगूरे सूर्य-किरणों में नहाए अपनी स्वर्णिम आभा बिखेर रहे हैं। एकलव्य टकटकी बाँधे उस गेरुए ध्वज को भक्तिभाव से निहार रहा है, जिस पर आचार्य द्रोण का मृगचर्म पर रखे कमंडल के साथ धनुष-बाण का चिह्न अंकित है। गहरी भाव-तरंगों में डूब-उतरा रहा है वह ]
विचार-स्वर
मैं हूँ आज खड़ा।
यह द्वीप मनोरथ का
मेरी इच्छाओं का
उजला-उजला –
लगता है जैसे मेरे पुण्यों का विहान।
असमंजस की वह काली रात समाप्त हुई
जब बार-बार मैं भटका था
सन्देहों में –
यह पूर्णकाम होने की बेला है अनुपम।
है याद मुझे
वर्षों पहले
आचार्यश्रेष्ठ जब आये थे …
[एक स्मृति-चित्र पारदर्शिका में उभरता है – पर्वत की एक उपत्यका। घने जंगल से ढँके ढाल। रक पतली-सी पहाड़ी नदी तेज गति से बह रही है। कुछ झोंपड़ों के अलावा आसपास कोई बस्ती नहीं है। एक पहाड़ी पर एक गढ़ीनुमा मकान बना है। पहाड़ी पर से उतरते हुए दो पुरुष और एक नवकिशोर। एक पुरुष गौर वर्ण का दीर्घकाय है – सिर पर जटाएँ और शरीर पर यज्ञोपवीत – मृगचर्म सीने पर बँधा हुआ – नीचे श्वेत धोती – कंधे पर तरकश – हाथ में लम्बा धनुष। तपस्या का तेज श्मश्रुपूर्ण चेहरे पर झलक रहा है। दूसरा पुरुष श्यामवर्ण सुगठित शरीर का। मँझोले कद का। घुटने तक का एक अधोवस्त्र पहने है। कमर में एक बड़ा छुरा और हाथ में एक भाला। सिर पर एक पट्टी बँधी है, जिसमें कुछ पंख खुसे हैं। किशोर भी एक छोटी-सी कमान हाथ में पकड़े है। पीठ पर एक छोटा तरकश। सिर पर मोरपंख लगाये है। उसकी मुद्रा उत्साहभरी है। गौर पुरुष को वह श्रद्धा से देख रहा है। श्याम पुरुष गौर पुरुष की बात को पूरे सम्मान और कुछ झिझक के साथ सुन रहा है ]
गौर पुरुष: भीलराज !
मैं चाहूँगा कि एकलव्य
इस घाटी से बाहर निकले।
बाँधो मत इसको
अपनी इन सीमाओं में –
बनने दो इसको प्रश्न अभी।
कालान्तर में
जब दूर-दूर के देशों का अनुभव लेकर
यह उत्तर बनकर आएगा
तब तुमको मेरी बात समझ में आएगी।
मैं देख रहा इसका भविष्य –
दक्षिणावर्त का
यह त्राता होगा समर्थ।
श्याम पुरुष: भगवन !
समर्थ हैं आप
किन्तु …
हम तो हैं बर्बर भील –
हमारी दृष्टि नहीं जा पाती है
अपनी इस पर्वत-गुहा पार।
हम हैं वनपुत्र
हमारी सीमा निश्चित है।
आदेश हमें है नहीं
कि हम पर्वत छोड़ें –
हम तो उद्गम हैं नदियों के –
मैदान हमारे लिए घोर वर्जित प्रदेश।
फिर …
ज्ञात आपको
हमें मानते हैं अन्त्यज
उत्तर भारत के आर्य लोग।
वे बली-वीर-उद्धत-समर्थ –
हम संकोचों से घिरे हुए असमर्थ लोग।
यह एकलव्य है सरल
बालमन है अबोध –
इसकी इच्छाओं को सीमित ही रहने दें।
हैं आप स्वयं इतने उदार –
अपने परिचित।
पर सभी नहीं सह पायेंगे
इस बालक का सीमोल्लंघन –
दंडित होगा यह
और तिरस्कृत-अपमानित –
हो जायेंगी इसकी इच्छाएँ
एक दुखी अपराध-बोध।
गौर पुरुष: मैं भारद्वाज का पुत्र द्रोण हूँ कहता यह –
यह जाति-भेद
यह द्वेष नहीं हैं सच्चाई –
इनकी सीमाएँ झूठी है
इनके बंधन हैं अर्थहीन –
जो वीर नहीं
वे ही इनसे सकुचाते हैं।
है नहीं कोई अंतर –
मानव हैं सारे एक
यही है सिर्फ सत्य –
सूर्योदय की है जाति न होती कोई भी;
मैं एकलव्य को उगे सूर्य-सा कर दूँगा।
क्षत्रिय का लक्षण
सिर्फ़ वीरता होती है –
वह ही है उसका संस्कार।
जो हैं समर्थ
वे सभी सूर्यकुल के ही हैं-
सामर्थ्य बनेगा वही तुम्हारा वीर पुत्र।
आतिथ्य तुम्हारा मुझे मिला परिवार सहित
जो इतने दिन
उसने मुझको है दिया एक विश्वास नया –
आभारी हूँ।
मैं वही आस्था लिये हस्तिनापुर जाता –
हैं कृपाचार्य, मेरी पत्नी के बन्धु वहाँ
पर…
मैं खोजूँगा स्वयं भूमिका अपनी शुभ।
कुछ दिनों बाद संदेश तुम्हें मैं भेजूँगा
तब एकलव्य को मेरे पास भेज देना।
[बात करते-करते वे लोग घाटी के सिरे पर आ गये हैं। पहाड़ों के बीच में एक सँकरा रास्ता दीखता है, जिससे थोड़ी दूर पर एक शकट खड़ा दिखाई देता है, जिसमें द्रोण-पत्नी कृपी एक छह-सात वर्ष के बालक के साथ बैठी हैं। पास ही अस्त्र-शस्त्र, पुस्तकें और मृगचर्म रखे हें। फलों से भरे कई टोकरे भी रखे हैं। निकट पहुँचकर भीलराज और एकलव्य कृपी को प्रणाम करते हैं। आचार्य के पैरों को छूता है एकलव्य, रुँधे कंठ से कहता है]
एकलव्य: गुरुवर!
मुझको आदेश करें।
जब तक न आपका मुझे मिले सन्देश
करूँ क्या…
होने को उपयुक्त पात्र।
द्रोण: अभ्यास
सतत अभ्यास
और अभ्यास और…
हाँ, यही सिद्धि का परम मन्त्र।
[पारदर्शिका धुँधली पड़ जाती है। एकलव्य का विचार-स्वर फिर उठता है]
विचार-स्वर: हो गयी प्रतीक्षा कुछ दिन की
वह लम्बी ही –
दिन बीते
महीने बीते
और वर्ष बीते।
सन्देश नहीं आया पर गुरुवर का कोई।
असहाय हुआ मैं … उद्वेलित
उद्विग्न बड़ा।
[एक और पारदर्शिका उभरती है। एक टीले पर नवयुवा हुआ एकलव्य सिर झुकाए बैठा है। चिंतित-उद्विग्न-विचारों में खोया हुआ]
विचार-स्वर: हो गये आज हैं सात वर्ष
पर नहीं कोई सन्देश मिला है गुरुवर का –
क्या भूल गये वे सच मुझको?
कहते हैं पिता –
महानगरी हस्तिनापुरी है दूर बहुत;
वे कभी वहाँ पर गये नहीं
पर सुनते हैं –
सब हो जाते हैं अन्य वहाँ जाकर।
वे दुख से समझाते हैं मुझको कई बार
हैं व्यर्थ महत्त्वाकांक्षी मेरे सब सपने
जो गुरुवर ने थे दिये मुझे
वर्षों पहले।
अक्सर वे दोहराते हैं वचन पूर्वजों के –
‘हम हैं वनपुत्र
हमारी सीमा निश्चित है।
आदेश हमें हैं नहीं
कि हम पर्वत छोड़ें;
अपने बांधव हैं पशु-पक्षी – हिसक पशु भी;
इस जंगल के हम पार नहीं जा सकते हैं;
मैदान हमारे लिए घोर वर्जित प्रदेश।’
पर मैं क्या करूँ –
हृदय मेरा उत्कंठित है;
मेरी बाँहों में पलता है उत्सुक अब भी
गुरु का अंतिम आदेश-मन्त्र –
“अभ्यास, सतत अभ्यास और अभ्यास और”।
है जाप किया इन बाँहों से मैंने इसका।
पर यही नियति है क्या मेरी?
क्या सिद्धि नहीं मिल पायेगी
मेरी इस सतत साधना को?
यह छोटी-सी घाटी
ये घोर घने जंगल
ये पर्वत ही
क्या क्षितिज बनेंगे मेरी पुण्य साधना के?
मैं पार न कर पाऊँगा
इनको क्या जीवन भर?
वह नया अर्थ जो धनुष-बाण ने मुझे दिया
रह जायेगा क्या अर्थहीन…
असमर्थ यहीं?
पर नहीं…
महत्त्वाकांक्षा मुझको टेर रही
हस्तिनापुरी- मेरा गन्तव्य – बुलाती है।
मैं जाऊँगा…
सारी सीमाएँ लाँघ
वहाँ अब जाऊँगा।
हो आज रात
मेरे निश्चय का सूर्योदय,
जंगल यह सीमाहीन मित्र मेरे मन का –
मैं खोजूँगा
इसमें ही अपने सपनों को;
हाँ, पार जाऊँगा इसके भी।
[पारदर्शिका धुँधली पड़ जाती है। एकलव्य फिर वर्तमान में आ जाता है]
यह आश्रम मेरा तीर्थ
आज मेरे सम्मुख;
यह पुण्यभूमि –
मेरे मन का स्वीकार अमल-
मेरा भविष्य होगा सुन्दर।
यह धर्मक्षेत्र
जिसमें परिभाषा मुझे मिलेगी
सपनों की।
हो चुकी दोपहर है अब तो –
विश्राम-काल।
है आश्रम शान्त
मौन हैं सारे पशु-पक्षी
गरमी से व्याकुल सभी, लग रहा, सोते हैं।
कुछ धूप ढले
तब आश्रम में मैं जाऊँगा;
तब तक यह वट का वृक्ष बने मेरा आश्रय –
यह मेरे सपनों का प्रतीक।
[सोचते-सोचते वृक्ष की शाखा से टिके-टिके सो जाता है]
दृश्य : तीन
[दृश्य वही। साँझ होने में थोड़ी देर है। एकलव्य की तन्द्रा टूटती है। देखता है रथ चले आ रहे हैं। उनमें से कौरव और पाण्डव कुमार उतरते हैं। सभी किशोर एवं नवयुवा होने की विभिन्न स्थितियों में। सभी पाण्डव एक ही रथ में आये हैं। एकलव्य का ध्यान भीम और अर्जुन की ओर विशेष रूप से जाता है। भीम बात-बात पर जोर-जोर से हँसता है। उसका अट्टहास और असाधारण रूप से लम्बा-चौड़ा बलिष्ठ शरीर एकलव्य को बरबस खींचता है। अर्जुन भीम की अपेक्षा कोमल लगता है। चेहरे की रेखाएँ भी कोमल। नाकनक्श का तीखापन और अन्य राजकुमारों से अलग साँवला रंग एकाएक ध्यान खींचते हैं। दोनों किशोरों की मुखाकृति में एक विशेष तेज और आत्म-विश्वास झलकता है। सभी राजकुमार अन्दर चले जाते हैं। अर्जुन और भीम उसी वृक्ष के निकट खड़े होकर वार्तालाप करते हैं, जिस पर एकलव्य बैठा हुआ है]
अर्जुन: नहीं, भाई
यह उचित नहीं है,
भूल न जाएगा दुर्योधन हास्य आपके।
आप बली हैं और श्रेष्ठ भी
किन्तु …
कुटिल है दुर्योधन,
छल-छद्म करेगा –
सावधान हमको रहना है।
सत्ता उसके हाथों में है –
धर्मराज तो हैं युवराज सिर्फ़ कहने को…
हमें न देना उसे चाहिए कोई अवसर।
भीम (हँसता हुआ): अर्जुन !
तू डरपोक बड़ा है –
हँसने तक से तू डरता है।
ये कौरव हैं मूर्ख-नपुंसक –
इनसे भय खाने की कोई बात नहीं है।
ये कौरव डरते हैं मुझसे।
(कहकर जोर से हँसता है)
अर्जुन: याद नहीं क्या, भाई
आपको वर्षों पहले
दुर्योधन ने ज़हर खिलाकर
गहरे जल में फेंक दिया था –
देव-कृपा थी …
[भीम के अट्टहास में अर्जुन के शब्द खो जाते हैं। बात करते-करते भीम स्नेह से अर्जुन को बाँहों में समेटता आश्रम के अन्दर खींच ले जाता है। एकलव्य इन दोनों भाइयों के स्नेह से अभिभूत होता है। फिर वह भी पेड़ से उतरकर आश्रम में प्रवेश करता है। आश्रम के प्रांगण में उसके पहुँचते ही कई कौरव कुमार उसे घेर लेते हैं। कोई उसके सिर में लगे पंखों को खींचता है तो कोई उसके चिकोटी काटकर हँसता है। तभी दुर्योधन वहाँ आ जाता है। बलिष्ठ देह का किशोर। चेहरे पर क्रूरता और कुटिलता का भाव। एकलव्य को देखकर वह कठोर स्वर में बोलता है]
दुर्योधन: कौन है तू ?
जानता है क्या नहीं
यह आश्रम गुरु द्रोण का है
और वर्जित है प्रवेश यहाँ आम प्रजाओं का?
[रक्षक को आवाज़ देता है। एक रक्षक भागता हुआ आता है। दुर्योधन उससे आदेशात्मक स्वर में कहता है]
यह अनार्य कैसे घुस आया
इस आश्रम में ?
क्या करते रहते हो तुम सब ?
सूर्योदय के पहले ही तुम दंडित होगे –
इस वन-पशु को शीघ्र निकालो –
भेजो वन में।
[रक्षक बल-प्रयोग से एकलव्य को निकालने का उद्यम करता है। एकलव्य लौह-स्तम्भ सा जमकर खड़ा हो जाता है। दुर्योधन रक्षक से क्ष का प्रयोग करने को कहता है। तभी आचार्य द्रोण प्रवेश करते हैं। वैसी ही काया, पर प्रौढ़ हो गये हैं। दृश्य को देखकर ऊँचे स्वर में बोलते हैं]
द्रोण: ठहरो रक्षक!
यह आश्रम है –
कशाघात की दंड-व्यवस्था
राजभवन की –
आश्रम का आदर्श उसे स्वीकार न करता।
बेटे दुर्योधन !
अपने मन को तुम रोको –
शस्त्र-ज्ञान के साथ
शास्त्र का संयम सीखो।
[एकलव्य आचार्य के चरणों में नमन कर अपना परिचय देता है]
एकलव्य: देव, मैं हूँ एकलव्य
अरण्यवासी।
भीलराज हिरण्यधनु का पुत्र हूँ मैं।
कई वर्षों पूर्व
आते आप जब थे हस्तिनापुर ओर
मार्ग में तब आपने
मुझ पर अनुग्रह था किया।
स्वप्न जो मुझको दिया था आपने
वही लेकर आज आया हूँ यहाँ मैं –
अब कृतार्थ करें, प्रभु, शिष्यत्व देकर।
[द्रोणाचार्य गौर से एकलव्य को देखते हैं। इस नवयुवक में उन्हें वह भील बालक दिखाई दे जाता है, जिसे उन्होंने वर्षों पूर्व शिष्यत्व का वचन दिया था। किन्तु अब परिस्थितियाँ बदल चुकी हैं। वे विचार-मग्न हो जाते हैं]
द्रोण: (स्वगत) है वही मुखाकृति
वही तेज पहले जैसा
इसके नयनों में कैसी बिजली कौंध रही-
इसकी सामर्थ्य भुजाओं में उलसी पड़ती-
इसकी साँसों में दृढ निश्चय
परिखा-सा बाँध रहा सारे उद्देश्यों को।
मैं देख रहा इसका भविष्य –
मेरा निर्देशन पाकर यह
निश्चय ही होगा सर्वजयी-
पाण्डव-कौरव सब होंगे इसके पराधीन –
यह अपराजेय…
दिशाओं का स्वामी होगा।
मेरा गुरुत्व
इसे सार्थक होगा अवश्य
पर कुरुसत्ता का क्या होगा ?
मैं वचनबद्ध हूँ उसे प्रतिष्ठित करने को।
वह द्रोण नहीं मैं
जिसने सपना देखा था
आदर्श व्यवस्था का
जिसमें हो
वर्ण-जाति से परे मनुज का नव- उद्भव
सब हों जाग्रत
सब हों समर्थ
हो सही प्रतिष्ठा मानव के सच्चे गुण की।
वह द्रोण
असीमित सूर्योदय का सपना था
पर अस्त हुआ।
यह द्रोण सिर्फ़ है परछाईं उस सपने की।
अपनी सीमाओं में सिमटा
यह मानव के उत्थान-पर्व का
नहीं पुरोधा बन पाएगा।
कुरुसत्ता मुझ पर आश्रित है
मैं कुरुसत्ता पर आश्रित हूँ –
हूँ पराधीन
बंदी अपने ही स्वार्थों में।
स्वीकार न कर पाऊँगा उन आदर्शों को
जिनका यह युवक…
स्वप्न बनकर आया –
है अस्वीकार द्रोण का अब केवल परिचय।
पराधीन सपनों का अंत यही होता है।
[एकलव्य को सम्बोधित करते हैं]
हे भीलपुत्र!
मेरा शिष्यत्व अलौकिक है
हाँ, दुर्लभ है।
है धनुर्वेद दुर्गम-अलभ्य
हर जाति नहीं अधिकारी होती है इसकी
क्षत्रिय से इतर जातियों को इसका निषेध।
सीमाएँ निश्चित हैं सबकी।
तू है वनपुत्र
और जंगल तेरा प्रदेश –
तू उसे छोड़कर व्यर्थ यहाँ तक आया है।
है वर्ण-जाति से बँधा हुआ सारा समाज –
मेरे हैं सारे शिष्य सूर्य-चन्द्रवंशी
तू अन्धकार का पुत्र
देख अपनी काया।
[एकलव्य कुछ कहना चाहता है। उसके चेहरे पर निराशा पुती हुई है। आँखों में आँसू उमड़ रहे हैं। अपमान और अस्वीकार से वह बुरी तरह आहत हुआ है। द्रोण क्षणार्ध के लिए विचलित होते हैं, पर अपने को रोककर और अधिक क्रूर हो जाते हैं]
द्रोण: भीलों के है लिये नहीं यह युद्ध-शास्त्र
है शूरों का…
सभ्यों का…
यह अधिकार सिर्फ़।
तू है असभ्य…
वन का प्राणी
यह पावन विद्या तुझे नहीं दी जा सकती –
मर्यादा के विपरीत मूर्ख तेरा आग्रह।
[कहते हुए द्रोण स्वयं से पराजित-से वहां से तेजीसे प्रस्थान कर जाते हैं। अब तक साँझ ढल चुकी है। दुर्योधन आदि सभी कुमार गुरू के साथ ही चले जाते हैं। आहत एकलव्य अकेला निराश-हताश आकाश में गहराते अँधियारे में एक-एक कर उगते तारों को देखता रह जाता है। दूर से एकलव्य के पिता का स्वर गूँजता आता है]
स्वर: हम हैं वनपुत्र
हमारी सीमाएँ निश्चित
आदेश हमें है नहीं…
कि हम पर्वत छोड़ें…
मैदान हमारे लिए घोर वर्जित प्रदेश
जंगल के पार मिलेंगे केवल तिरस्कार।
हम हैं अरण्य-जन
यही हमारी मर्यादा…
[स्वर रात के बढ़ते अन्धकार में गूँजता जाता है – एकलव्य के चारों ओर एक ध्वनि-वलय बनता है। एकलव्य उस स्वर-चक्र से घिरा डगमग पगों से आश्रम से निकलकर घने अँधेरे में विलीन हो जाता है। उसका विचार-स्वर गूँजता है]
विचार-स्वर: जंगल ही मेरा श्रेय…
वही मेरा आश्रय –
यह तिरस्कार मेरे जीवन का सम्बल हो।
जीवन का सम्बल हो
सम्बल हो
हाँ, सम्बल हो…
दृश्य : चार
समूहगान: हैं अन्धकार –
सूर्योदय का गहरा विचार
पलता है सभी दिशाओं के मन में
सोयी वनराजि स्वप्न में भी अकुलाती है।
यह सनसन की आवाज़
चीरती मौन शान्ति –
है बींध रहा यह कौन हवाओं को आतुर –
यह तीर अचानक किस दाड़िम के दानों को
बिखराकर
सूर्योदय का छल रचता अनूप?
हिलते तारे –
भय काँप रहा मानो सजीव।
पत्ते-पत्ते पर चिह्न शौर्य के हैं अंकित।
यह किस धनु की टंकार
टँगी है पेड़ों पर?
यह कौन कर रहा संस्कार शाखाओं का
वाणों से अपने बींध-बींध?
आहट किससे भयभीत भागती है चुपचुप?
यह इन्द्रजाल किसने टाँगा आकाशों में?
लगता है जैसे तूणीर दिशाएँ हैं सारी-
वाणों से सब अवकाश भरे।
लो हटा अचानक तिमिर-जाल –
वाणों को लिया समेट किसी ने जादू से।
फिर ऊगा हवा में मन्द
मन्त्र का स्वर पुनीत –
सूरज ने अपने नेत्र खोल देखा वन को –
अंकित चिह्नों से सुमन-राशियाँ फूट पड़ीं –
किरणों ने देखा वाणों के अभ्यासी को
नतमस्तक अरुणोदय होते।
[हस्तिनापुर के निकट के वन-प्रदेश के बीच एक खुला स्थान। ऊँचे-ऊँचे पेड़ों से झरती किरणों में नहाता दृश्य। एक ओर एक मौलश्री के वृक्ष के नीचे टहनियों और पत्तों से बनी एक छोटी-सी कुटिया है। निकट ही एक जल का सोता मन्द-मन्द बह रहा है। सोते के एक ओर एक टीले के शीर्ष पर एक मूर्ति स्थापित है। मूर्ति के सामने एक युवक नमन कर रहा है। मन्त्रोच्चार के साथ पुष्पांजलि अर्पित करता है]
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः।।
[युवक निकट पड़े धनुष को उठाकर मूर्ति के चरणों में रखता है। धनुष की प्रत्यन्चा में हलकी-सी ध्वनि होती है। युवक के चेहरे पर मुसकान आती है। वह धनुष को उठाकर खड़ा हो जाता है। युवक एकलव्य है। मूर्ति की मुखाकृति आचार्य द्रोण से मिलती है। युवा एकलव्य विचारमग्न हो जाता है]
विचार-स्वर: फिर वर्षों का व्यवधान
किन्तु मैं आप्तकाम।
स्वीकार किया मुझको गुरु ने कैसा छल से।
अस्वीकृति का क्षण ही
मुझको स्वीकार हुआ –
हो गया वही मुझको सम्बल।
दे दिया मन्त्र मुझको
मेरे अभ्यासों का –
‘तू अन्धकार का पुत्र’ –
वही हो गया पाठ –
मेरी दीक्षा का सूर्योदय।
मैं जाप उसी का करके आज समर्थ हुआ।
वैसे लगता है अन्धकार निष्क्रिय-निरीह
पर उसमें पलती क्रियाशीलता की आस्था –
हो गयी वही आस्था जीवन-सन्देश नया।
है मर्म प्राण का मुझे मिला
इसमें अपना –
है उसी प्राण से मेरा मन उल्लसित आज।
मैं हूँ कृतज्ञ !
गुरुवर ने मेरी साँसों में है वास किया –
यह मूर्ति उसी का बाह्य रूप।
मुझको हर पल शिक्षा दी है –
मेरी बाँहों को थाम-थाम
मेरे प्राणों में लक्ष्य-बेध का प्रण भरकर –
मेरी मुट्ठी में रक्त बने
मेरी साँसों में बने लक्ष्य –
हर पल मेरे विश्वासों के संग रहे।
रह निराकार
मेरी सामर्थ्यों को पोसा।
नित देते रहे अर्थ मेरे इन वाणों को –
हो गया सिद्ध यह धनुष…
उन्हीं के जादू से।
हर तीर आज मेरा समर्थ
अब व्यर्थ न कोई जिज्ञासाएँ हैं मेरी –
सब गुरुवर की अनुकम्पा है।
[सूर्य अब तक ऊपर चढ़ आया है। गरमी कुछ बढ़ने लगी है। मूर्ति के चेहरे पर सीधी किरणें पड़ती हैं। भ्रम होता है जैसे मूर्ति के नयन खुलते हैं और वह मुस्कराती है। एकलव्य जल्दी से कुटी में जाकर वहाँ से पत्तों का बना हुआ एक छत्र लेकर आता है। उसे प्रतिमा के सिर पर एक लम्बी डाल के सहारे से टिका देता है। मुस्कराते हुए मूर्ति को सम्बोधित करता है]
एकलव्य: गुरुवर!
श्रमित हुए होंगे
विश्राम करें –
मेरा अभ्यास आपके श्रम का है कारण
चुना किन्तु आपने ही मुझे शिष्य रूप में –
मेरे अन्याय-धृष्टताएँ भी सहन करें।
[मूर्ति के चरण चाँपता है। भुजाओं पर मालिश करता है। एकलव्य इन्हीं सब क्रियाओं में मग्न है, तभी कुत्तों के जोर-जोर से भौंकने का स्वर आता है। उसी समय एक मृग-शावक भागता हुआ प्रवेश करता है। एकलव्य के पास आकर उससे सट जाता है। थर-थर काँप रहा है वह। एकलव्य उसे सहलाता है, दुलराता है। भयभीत मृग किन्तु काँपता ही जाता है। एकलव्य मूर्ति को सम्बोधित करता है]
एकलव्य: देखा गुरुवर!
भय का है कैसा यह समाज।
मानव के शस्त्र हुए कितने अपराधी हैं।
हर ओर घोर हिंसा का स्वर-
रक्षक ये शस्त्र हुए भक्षक हैं जीवों के।
जंगल इन भोले पशुओं का आवास क्षेत्र –
इनका आखेट करे मानव
यह अनुचित है।
मृग-शावक, मेरे बन्धु!
सुरक्षित है अब तू –
आचार्य द्रोण का यह आश्रम
तेरी रक्षा में है समर्थ।
इसकी सीमा में आ सकता आतंक नहीं।
[तभी एक ओर खुली दिशा से भौंकते हुए कुत्तों का प्रवेश। वे एकलव्य की गोद में मृग को देखकर उस ओर लपकते हैं। पलक झपकते ही एकलव्य अपने धनुष को उठाता है, तीर फेंकता है, जो बढ़ते हुए कुत्तों को बिना खरोंच लगाए उनके नखों पर प्रहार करते हैं। कुत्ते कुछ पल के लिए ठिठकते हैं। इसी बीच एकलव्य तीर फेंककर कुत्तों के मुँह भर देता है। कुत्तों को चोट जरा भी नहीं आती है, पर वे निष्क्रिय और असमर्थ हो जाते हैं। वे पीछे मुड़कर भागना चाहते हैं, किन्तु एकलव्य उनके चारों ओर वाणों का व्यूह बना देता है। तभी कौरव और पाण्डव राजकुमार प्रवेश करते हैं। उनमें युधिष्ठिर नहीं हैं। भीम और दुर्योधन सबसे आगे हैं। उनके पीछे अर्जुन और दु:शासन और अन्य कई राजकुमार – सभी विस्मय से कुत्तों की दुर्दशा देखते रह जाते हैं। केवल अर्जुन बोलते हैं]
अर्जुन :(स्वगत) विस्मय अतीव!
अद्भुत कौशल!
निश्चय ही सिद्धि अलौकिक है।
यह धनुर्वेद के कौशल का ऐसा प्रयोग
आचार्य सिर्फ़ कर सकते हैं।
हैं वाण किन्तु आघात नहीं –
आश्चर्यजनक!
यह युवक कौन?
(प्रकट में) ये छद्मवेश में आप कौन हैं, बन्धु?
चातुर्य आपका अतुलनीय –
हूँ चकित, धनुर्धर
मैं इस अतिशय कौशल से।
हैं देवपुत्र या सिद्धपुरुष?
मेरे विस्मय का उत्तर दें।
एकलव्य: मैं एकलव्य हूँ, भीलपुत्र
आचार्य द्रोण का शिष्य
तुम्हारा गुरुभाई।
विस्मित मत हो पाण्डव-कुमार।
यह चमत्कार गुरुवर का है।
सब कुछ सम्भव है करना उनकी शिक्षा से।
वे देवोपरि हैं परमपूज्य।
[भीम हँसता है, हँसते हुए कहता है]
भीम: अर्जुन, अपने आचार्य बड़े ही अद्भुत हैं।
तू चरण चाँपता रहा
सिद्धि मिल गयी इसे –
तू अभ्यासों में जुटा रहा
हो गया सिद्ध यह भीलपुत्र।
सच, चमत्कार करते हैं गुरुवर कई बार –
अद्भुत वे अपने छल में भी।
[अट्टहास करता है। उसकी हँसी वेगवती झरनों की भाँति सारे वन-प्रदेश में गूँजती है। एकलव्य मन्त्रमुग्ध इस मस्त युवक को ताकता रह जाता है। फिर उसका ध्यान अर्जुन के हतप्रभ चेहरे की ओर जाता है। वह अर्जुन के प्रति ममत्व से भर उठता है, कहता है]
एकलव्य: मेरी है स्पर्धा नहीं तुम्हारे संग, मित्र।
तुम हो कुलीन
मैं कुलविहीन –
तुम राजपुत्र, मैं हूँ अन्त्यज –
मत करो ईर्ष्या, मित्र!
मुझे स्वीकार करो –
जैसा भी हूँ, मानव तो हूँ।
[कहते हुए वह वाणों के व्यूह को एक ही वां से भंग कर देता है। कुत्ते मुक्त ही मुड़कर भागते हैं। सभी कौरव और पाण्डव कुमार भी एक-एककर वहाँ से चले जाते हैं। अर्जुन क्षणार्ध के लिए रुकते हैं। चेहरे पर असमंजस और चिंता का भाव है। एकलव्य की ओर देखते हैं। फिर वे भी मुँह मोड़कर चल देते हैं। एकलव्य दूर तक अर्जुन की ओझल होती हुई आकृति को देखता रहता है। उसके मन में विचार उठते हैं]
विचार-स्वर: मैं भीलपुत्र,
इसलिए पराक्रम मेरा
सारा शौर्य व्यर्थ।
अस्वीकृति मेरे जीवन का पर्याय हुई।
मैं सखा नहीं बन सकता हूँ क्यों अर्जुन का?
[इसी बीच दुर्योधन पुनः प्रवेश करता है, कुटिल और चतुर दृष्टि से इधर-उधर देखता है। एकलव्य उसे देखकर चौंकता है, मृगशावक भी फिर से थर-थर काँपने लगता है। दुर्योधन कुटिल मुस्कान के साथ एकलव्य को सम्बोधित करता है]
दुर्योधन: हे एकलव्य!
मैं दुर्योधन,धृतराष्ट्र-पुत्र
कुरुसत्ता का असली स्वामी।
हूँ देने आया तुम्हें तुम्हारा उचित स्थान।
तुम वीर-शिरोमणि भीलराज
मैं वीरों का आश्रयदाता
तुम मेरे सेनाध्यक्ष बनो
मेरी सत्ता के दृढ़ अनन्य स्तम्भ बनो।
मैं भोगूँगा कुरुलक्ष्मी को
तुम भी होगे उसके मेरे सँग सहभोगी।
मेरे शासन को फैलाओ इस धरती पर
मैं तुम्हें सुरक्षित कर दूँगा
जीवन-भर को।
तुम अर्जुन से थे माँग रहे भिक्षा –
वह भिक्षुक क्या दे पायेगा?
मैं देता तुमको सत्ता का सम्पूर्ण भोग।
आओ, मेरे सँग, मित्र
और भोगो सुख को।
तुम नहीं जानते
ये पाण्डव हैं बड़े दुष्ट –
जारज सन्तानें देवों की
ये नाममात्र को पाण्डव हैं।
कुरुकुल की सत्ता पर असली हक़ मेरा है।
कुन्ती के छल से ये जनमे
हैं बड़े छली।
मेरा अधिकार छीनने का उद्यम इनका।
मैं इन्हें न दूँगा
एक सुई की नोक बराबर भी धरती।
यदि तुम दो मेरा साथ
पाण्डवों के विरुद्ध
तो कुरुसत्ता के निष्कंटक भोक्ता होंगे हम, एकलव्य।
ये पाण्डव भिक्षा माँगेंगे
सेवक होंगे
हम होंगे इन सबके स्वामी।
[दुर्योधन का अतिरिक्त उत्साह एवं गर्वोक्तिपूर्ण वक्तव्य एकलव्य को भयभीत करता है। क्षणार्ध के लिए वह दुर्योधन के इस प्रस्ताव से सम्मोहित भी होता है, किन्तु उसे इस कुटिल राजकुमार द्वारा दिया कशाघात का अनुभव याद आ जाता है। वह पूरी तरह स्वस्थ एवं शान्त स्वर में उत्तर देता है]
एकलव्य: नहीं…नहीं….
कुरुराजपुत्र!
नहीं सम्भव है यह –
तुम राजपुत्र, मैं भीलपुत्र
तुम हो शासक- मैं शासित हूँ।
प्रस्ताव तुम्हारा है दयालु
आभारी हूँ।
पर मैं अनार्य- तुम आर्यश्रेष्ठ
यह साथ नहीं निभ पायेगा –
हम दोनों ही होंगे अपयश के भागी ही।
पाण्डव हैं मेरे मित्र नहीं
पर वैरी भी तो नहीं।
उनको छलकर मैं पातक का भागी हूँगा।
इस कुरुसत्ता की राजनीति में
भाग नहीं ले पाऊँगा मैं, क्षमा करें।
[कहते हुए एकलव्य मृगशावक को गोद में लिये कुटी की ओर चल देता है। दुर्योधन उसे टुकुर-टुकुर देखता रह जाता है। फिर झटके से तिरस्कार भाव से ‘हुँह’ करता हुआ वहाँ से चला जाता है। एकलव्य का विचार-स्वर उठता है]
विचार-स्वर: हतभाग्य, हाय!
इतने वर्षों के बाद मिला स्वीकार मुझे
मैं उसे नहीं कर पाया अंगीकार।
छल-छद्मों की यह राजनीति ही
मेरे हिस्से में आयी…
आह, मैं हतभागी!
जिनसे चाहा स्वीकार
उन्होंने दुत्कारा
सत्ता की यह स्वीकृति
हुई नहीं स्वीकार मुझे।
क्या करूँ…
हठी जीवन का क्रम
क्या मुझको केवल छल से ही अपनाएगा ?
हे वनदेवो!
मुझको दो साहस
सहन करूँ
अपमान और अन्याय सभी।
हम हैं वनपुत्र
हमारी हैं पहचान वृक्ष
सीमाएँ जिनकी निश्चित हैं
पर सीमाहीन हवा में
जिनका है प्रसार।
काया से सीमित
किन्तु गंध से हैं असीम
पीड़ा सहते हैं पतझर की
मानव के अन्यायों को भी।
अब वही पूर्वज
मुझको दें आशीष
बनूँ मैं
उनकी वल्कल-सा सहिष्णु –
सह सारे आतप-वर्षाएँ अन्यायों के
मैं गंध भरूँ सबके मन में।
पीड़ाएँ सब हों मेरी
सबका अनुदार प्रयोजन मुझसे सधे
किन्तु…
मैं स्वयं प्रयोजन बनूँ
सभी के सुख का ही।
[कुटी के ऊपर छाये मौलश्री के वृक्ष से फूल झरते हैं। हवा के झोंको में स्वस्ति-वाचन गूँजता है]
स्वस्ति-वचन: मंगलमय हो पथ
वत्स, तुम्हारे इस प्रण का –
संकल्प तुम्हारा अनुपम है।
तुम सूर्योदय बन
सबके मन में गंध भरो
सूर्यास्तों की पीड़ाएँ हम तुमको देंगे।
यह पीड़ाओं का मार्ग चुना जो तुमने है
मानवता का उद्धार
उसी से सम्भव है।
हर्षित भविष्य की यही भूमिका होती है।
हैं नहीं तुम्हारी शक्ति शस्त्र –
मन का संकल्प
तुम्हारी है वास्तविक शक्ति:
वह सदा बढ़े!
शाश्वत बलिदानों का संकल्प तुम्हारा हो।
[आवाज़ दूर तक गूँजती चली जाती है। एकलव्य के मन में गूँज भर जाती है उस स्वस्तिवाचन की। उसके चेहरे पर एक स्वर्गिक आभा छा जाती है। सामने द्रोण की मूर्ति पर उसकी दृष्टि जाती है। वह नमन की मुद्रा में मूर्ति के सामने झुक जाता है]
दृश्य : पाँच
[दृश्य वही। दो दिन उपरांत। सायं से कुछ समय पहले। द्रोण की मूर्ति के सम्मुख झुक हुआ एकलव्य। दृश्य स्थिर चित्रवत। वन से समूहगान का स्वर उठता है]
समूहगान: यह दिन
अभिशप्त अँगूठे का
खंडित आस्थाओं का
यह दिन कठोर कर्मों का
यह दिन उदार होने का
यह दिन
अपूर्ण सपनों की पीड़ाओं का
यह दिन अद्भुत घटनाओं का।
होंगे जब नंगे सत्य
वही दिन है यह
अनहोन होंगे कृत्य
वही दिन है यह।
यह क्षण वह
जब पीड़ाओं की जय होगी
हारेंगी वे
पर वास्तव में जीतेंगी
सूर्यास्तों की पीठिका अनोखी होगी
जिस पर सूर्योदय होंगे
किरणें होंगी।
आते अनुभवी क्षितिज हैं
अपराधी-से
प्राराम्भों में इतियों के संवादों-से
यह कुटिल क्षणों का दिन
जब पूरा होगा
मानवता का व्यक्तित्त्व अधूरा होगा –
पर वही बनेगा पृष्ठभूमि
आगत का
स्वप्निल जिज्ञासाओं के स्वागत का।
है अद्भुत यह क्षण
दुःख की मीमांसा का –
जब तन हताश होंगे
पर मन जीतेंगे।
यह एकलव्य अंतिम सूर्यास्त बनेगा
शाश्वत सूर्योदय के भविष्य वह देगा\
[अंतिम पंक्ति थोड़ी देर तक गूँजती रहती है, फिर शान्त हो जाती है। वही मृगशावक तेजी से भागता हुआ आता है। उसके साथ ही निकट आते हुए पाँवों की आहट भी। समूहगान का स्वर फिर उठता है]
समूहगान: यह गूँज
हवाओं में
बढ़ते आतंकों की
या नीड़ों में सिमटे
आशंकित पंखों की –
हैं उसी सूर्य की
जो बलिदान माँगता है।
[यह पंक्ति भी गूँजती है। एकलव्य मृगशावक के आने से सचेत हो चुका है। वह भी पांवों की आहट सुनता है। लगता है जैसे पहचानने का यत्न कर रहा हो। उसके मुँह पर अपार शान्ति का भाव है, एक पवित्र आभा है। उसकी आँखों में सात्त्विक सौहार्द्र और तेज है। पहले कुछ सैनिक और सेवक प्रवेश करते हैं। उनके पीछे कौरव-पाण्डव कुमारों से घिरे गुरु द्रोणाचार्य प्रवेश करते हैं। एकलव्य गुरु द्रोण के स्वागत के लिए कुटी से आगे बढ़ आता है। थोड़ी दूर पर ही धरती पर लेटकर साष्टांग दंडवत करता है। आचार्य उसे देखते हैं, मर्माहत होते हैं। एकलव्य भागकर कुटी में जाता है। आचार्य के चरणों में पुष्प बिखेरकर फिर नमन करता है। आचार्य आश्रम की स्वच्छता और शान्ति से प्रभावित दिखते हैं। एक आदर्श ऋषिपीठ की-सी व्यवस्था एवं पावनता से वे अभिभूत लगते हैं। एकलव्य उन्हें नमन करते हुए कहता है]
एकलव्य: मैं धन्य हुआ!
गुरुवर हैं स्वयं पधारे –
कैसा सौभाग्य अचानक है यह अनाहूत।
आभारी हूँ, प्रभु!
कृपा आपकी पाकर यह।
है पूर्णकाम यह एकलव्य –
आकार लिया
मेरे पुण्यों ने स्वयं आज।
मुझको मस्तक पर
चरणधूलि रखने दें, प्रभु!
[द्रोण के चरणों के पास की धूल मुट्ठी में भरकर मस्तक पर चढ़ाता है। भाव-विभोर होकर बार-बार वन्दना करता है। एकलव्य के इस रूप को देखकर द्रोण भी भावों के प्रवाह में बहने लगते हैं]
द्रोण(स्वगत): यह भील धन्य!
है आस्था इसकी धन्य
और इसका धीरज!
यह है पवित्र यज्ञभूमि-सा।
जलती है पावन अग्नि हृदय में
इसके जो
इसके मुख पर यह कान्ति
उसी की फैली है –
ऋषिपुत्रों-सा यह दमक रहा।
यह आश्रम कैसा है पवित्र!
है परम शान्ति –
पत्ते-पत्ते से स्नेह झर रहा हो जैसे।
यह युवा द्रोण की
मधुर कल्पना-सा सुन्दर
परिवेश अनोखा जैसे कोई देवलोक।
यह एक शिष्य पाकर ही द्रोण सुखी होता।
पर नहीं…
नियति को था स्वीकार और कुछ ही।
बेटे की आर्त्त पुकार
दूध के लिए
द्रोण सह नहीं सका।
हो गया सदा को कुरुसत्ता से वह बन्धित।
आदर्शों की हत्या कर दी
बन गया अर्थ का दास
बेच दीं आस्थाएँ
मन घुटा…
किन्तु तन विवश रहा।
इस एकलव्य को अस्वीकारा था मैंने।
यह बन मन का स्वीकार
खड़ा मेरे सम्मुख –
मेरी आस्था-मेरे सपनों का शुद्ध रूप।
यह क्षण मेरे निर्णय का है।
मन मेरा इसके प्रति ममत्व से भरा हुआ
स्वीकार हो रहा है
इस sundar सपने का
पर तन…
कुरुसत्ता से बन्धित
भयभीत और आतंकित है –
असमंजस की कैसी यह है स्थिति।
[कौरवों और पाण्डवों की ओर दृष्टि डालते हैं – सभी के चेहरे लटके हुए। अर्जुन का चेहरा बिलकुल बुझा हुआ। इन दो दिनों में लगता है थक गया, ढल गया है वह। द्रोण दुविधा में कभी पैरों में प्रणत एकलव्य को देखते हैं, कभी अर्जुन की निष्प्रभ आकृति को। उनका विचार चलता रहता है]
पर अब यह ऊहापोह व्यर्थ है –
निर्णय मेरा है नहीं
देह का है मेरी।
वर्षों पहले का
विवश दुराग्रह साँसों का
अब वही सत्य
मेरी असमर्थ भुजाओं का।
मैं दास अर्थ का –
निर्णय भी उसका ही है।
वह द्रोण और था जिसने सपने देखे थे।
[एकलव्य को सम्बोधित करते हैं। मन में अन्तर्विरोध, पर स्वर ठंडा कठोर]
कैसा प्रपंच यह, भीलपुत्र!
मुझको तू अपना गुरु कहता
पर मैंने तुझको
शिष्य बनाया कभी नहीं –
तू कैसे कहता अपने को मेरा सेवक?
(स्वगत) प्रिय एकलव्य!
तू कर दे अस्वीकार मुझे –
मेरे छल का उत्तर है तेरे पास यही।
मैं गुरु होने के योग्य नहीं।
तू कह दे यही
और मैं बच जाऊँगा।
[द्रोणके मौन मुख की ओर एकलव्य नेहभरी दृष्टि डालता है। फिर मुस्कराते हुए कहता है]
एकलव्य: यह अस्वीकार आपका
गुरुवर, शिरोधार्य।
मैं जान गया हूँ छल प्रभु का –
ऊपर से अस्वीकार किये
मन से मुझको स्वीकारा है।
मेरे मन में संकल्प
और बाँहों में बनकर स्फूर्ति
प्रभु ने मेरे लक्ष्यों को सदा सँवारा है।
जब-जब मैंने त्रुटियाँ की हैं
प्रभु ने ही उन्हें सुधारा है।
इस धनुर्यज्ञ में
आहुतियाँ देने का मेरा प्रण
हर आपने ही होता बन पूर्ण किया।
यह आश्रम भी प्रभु का ही है
मैं हूँ केवल इसका सेवक।
[मूर्ति की ओर इंगित करता है]
यह आप यहाँ बैठे, गुरुवर
इस आश्रम के कुलगुरु महान।
[द्रोण की दृष्टि मूर्ति की ओर जाती है। सभी कौरव-पाण्डव भी उस ओर देखते हैं। द्रोण क्षण भर के लिए विह्वल-विचलित होते हैं, किन्तु तुरन्त मन को रोककर कठोर हो जाते हैं]
द्रोण (स्वगत): यह सत्य तुम्हारा, एकलव्य
है बहुत क्रूर।
तुम नहीं जानते
द्रोण हुआ कितना बेबस।
वह भ्रष्ट और असमर्थ
बँधा निज स्वार्थों से –
वह वहन नहीं कर पायेगा
यह सत्य तुम्हारा निर्विकार।
(प्रकट में) तो एकलव्य!
मैं ही हूँ तेरा गुरु
जिससे…
तूने यह शिक्षा पायी है –
गौरवान्वित हूँ
तू है महान।
तुझको आता
है धनुर्वेद में जो कुछ भी
तेरी शिक्षा हो चुकी पूर्ण
मेरे शिक्षण-निर्देशन में तू सिद्ध हुआ।
है तुझे ज्ञात क्या
आर्यों की यह परम्परा –
शिक्षा पूरी हो जाने पर
देता है शिष्य दक्षिणा गुरु को मुँहमाँगी।
यह प्रथा निभायेगा क्या तू?
वैसे तू आर्य नहीं
इससे तुझ पर यह बंधन नहीं
कि प्रथा निभाए तू।
[एकलव्य के मुख पर उल्लास का भाव है। अन्तिम वाक्य से वह हतप्रभ होता है, पर वह शान्त रहता है। उल्लास के साथ वह द्रोण को उत्तर देता है]
एकलव्य: मैं आर्य नहीं, यह सत्य
किन्तु हैं आर्य आप
मैं शिष्य आपका यह सम्बन्ध निभाऊँगा।
आदेश करें…
मेरी सामर्थ्य समर्पित है श्रीचरणों में –
यह देह-आत्मा…
सब कुछ प्रभु का ही तो है।
[द्रोण के मन में फिर दुविधा जागती है। किन्तु वे मन को द्रवित होने से रोकते हैं]
द्रोण (स्वगत): एकलव्य, वत्स!
मैं कुरुकुल का आचार्य
माँगता हूँ तुझसे
अपनी सीमाओं का रक्षण –
मेरे स्वार्थों की राजनीति में
तेरी आहुति आवश्यक।
(प्रकट में) दे मुझे दाहिना अपना प्रबल अँगूठा यह
जिससे प्रत्यन्चा साध
असम्भव रचता तू।
है मेरा यह आदेश कि तू इसका उपयोग न कर।
[द्रोण की बात पूरी होते-होते एकलव्य बाँये हाथ से अपनी कमर में खुंसी कटार निकाल लेता है और जब तक द्रोण कुछ सोचें-समझें, अपने दाहिने अँगूठे को जड़ से काट देता है। खून का फव्वारा छूटता है, किन्तु एकलव्य निस्पृह-तटस्थ रक्त से भीगे अँगूठे को अंजलि में लेकर गुरु को समर्पित करता है। द्रोण इस दृश्य से विचलित-आतंकित-निष्प्रभ हो पल भर के लिए अपना मुँह फेर लेते हैं। सभी राजकुमार भी आतंकित दीखते हैं। अर्जुन के चेहरे पर पश्चात्ताप-ममता का मिला-जुला भाव आता है। एकलव्य प्रफुल्ल मुद्रा में अंजलि में तड़पते अँगूठे को सम्बोधित करते हुए कहता है]
एकलव्य: तू धन्य हुआ!
गुरु ने स्वीकार किया तुझको
तू धन्य हुआ!
आचार्यश्रेष्ठ!
संकुचित न हों…
स्वीकार करें यह तुच्छ भेंट\
संकोच कर रहे थे कहने में आप व्यर्थ –
यह देय आपका मिले आपको
यही उचित।
इसकी थी सिद्धि आपकी दी
यह सिद्धि अधूरी रह जाती
यदि आप इसे स्वीकार न करते
यों, भगवन!
प्रभु!
अब सहर्ष आशीष इसे दें
बने अमर!
पीड़ा के आख्यानों में इसका नाम न हो –
यह है उल्लासों का प्रतीक।
बलिदानों का है
शुभ मुहूर्त्त यह!
दीक्षित हूँ मैं सपनों से –
उस नयी मनुजता के आदर्शों से
जो सूर्यास्तों की इस बेला में पलता है।
यह कटा अँगूठा व्यर्थ न हो
असमर्थ न हो –
वरदान बने अगले युग का।
पीड़ाओं के युग का हो अन्त…
इसी से, प्रभु!
अन्यायों से संकुचित न हो कोई आगे।
[कहते हुए द्रोण के चरणों में समर्पित हो जाता है। कटे अँगूठे का रक्त द्रोण के चरणों पर एक रेखा-सी बनाता है। आकाश में रक्ताभ किरणें फ़ैल रहीं हैं। सारा दृश्य उससे नहाया-हुआ लगता है। सूर्य का रक्ताभ बिम्ब द्रोण की प्रतिमा के पीछे ढलता-हुआ एक कटे अँगूठे की छायाकृति बनाता है। एक महाकार अँगूठे की परछाईं द्रोण और उनके चरणों में समर्पित एकलव्य को घेर लेती है। द्रोण एकलव्य को बाँहों में भर लेते हैं, दुलराते हुए बिलखते हैं। पीछे से वनदेवियों का समूहगान गूँजता है]
समूहगान: यह कटे अँगूठे का इतिहास पुराना है।
सदियों से मानव छला गया है
ऐसे ही।
यह है प्रतीक
अन्यायों का
अनुदार संकुचित नियमों का
खंडित बिखरी आस्थाओं का।
मानव ने जिनको मान्य किया
वे सत्य अधूरे हैं सारे –
हैं विवश बहुत
मानव के सारे ही सपने।
पहले भी द्रोण हुए हैं
आगे भी होंगे।
विकलांग सूर्य के पल अनेक होंगे फिर भी।
पर यह पीड़ा का पर्व
अलौकिक है अतीव –
हो गया शिष्य सार्थक अपने बलिदानों से।
जब-जब होगा सूर्यास्त
हवाएँ होंगी दुख
इस कटे अँगूठे की पीड़ा से व्याकुल हो।
रक्ताभ झील में सूर्य नहायेगा हर दिन।
पर वहीं पलेगा सुख
जिसमें…
नीरव आकाश सँजोएँगे
तारों के जंगल में छिपकर
सूर्योदय के अभिनव सपने।
यह एकलव्य का अमरगीत
सारे सूर्यास्तों में होगा
सूर्योदय की आस्था से…
अपलक भरा हुआ।
[स्वर अन्तिम वाक्य को दोहराता जाता है, गूँजता जाता है। गहराते अंधकार में वृक्षों की आकृतियों के बीच द्रोण और एकलव्य की आकृतियाँ भी सम्मिलित हो जाती हैं]