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कुमार विमलेन्दु सिंह की रचनाएँ

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वांछित क्रान्ति

तुम उस स्थान से
जो समतल से थोड़ा ऊपर है
और जहाँ
तुम्हारा स्थित होना
एक संयोग मात्र है
करना चाहते हो
निर्णायक जैसा व्यवहार
सोचते भी नहीं
कि किससे होगा
या नहीं होगा स्वीकार

तुम आश्वस्त हो
क्योंकि जानते हो
कि प्लेटो का दार्शनिक राजा
कभी सजीव हो ही नहीं सकता
और तब तक
तुम ही मानक निर्धारित करते रहोगे
प्रत्ययों के
सत्य के
सौन्दर्य के

तुम अपनी
संयोगवश प्राप्त सुविधाओं के परे
एक लधु प्रसार से भी
अवगत नहीं हो
इस संपूर्ण धरा पर
और चाहते हो कि
तुम्हारे मानक स्वीकार्य हों
विश्व में?

रंग, स्वर्ण, मुद्रा, अक्षर, अनुभूति
सभी स्वतन्त्र रहे हैं सदैव
और तुम इन्हें
अपने सामर्थ्य जीतने
छोटे आवरण से ढककर
कला कह कर
प्रस्तुत करते हो
और जब देर तक
नहीं आती कोई प्रशंसा
स्वयं
काल्पनिक निज सफलता के
उद्धोषक बन जाते हो

ध्यान रखो
समय बहुत बीत चुका है
अब कई वर्ष हो चुके हैं
तुम्हें
अपने आप को
सफल अनुभव करते
इसी बीच
कुछ दूसरे तल
उठ चले हैं
हाँ, तुम से ऊपर
इनके मानक अलग होंगे
और इससे पहले कि
लोप हो जाए

मूल्यों का
बस इतना कह दो
अस्वस्थ हो चुकी भीड़ से
कि तुम
क्षमा प्रार्थी हो
उन सभी प्रस्तुतियों के लिए
जिनसे विषाक्त हुआ है
ग्रहण करने वालों का ह्रदय
इस क्षेत्र में
वांछित क्रान्ति के लिए
तुम्हारा यह योगदान
अमूल्य होगा

इतिहास अनुभव

क्या इतिहास
निष्पक्ष लिखा जा सकता है?

इस प्रश्न का उत्तर है कोई?
लिखने वाला विद्वान
क्या अधिक जानता है
समसामयिक कृषक
या साधारण मनुष्य से
किसी घटना को
प्रथा लिख डाले की त्रुटि
कई बार होती होगी
या हुई भी है
जिसे धर्म मान कर
वर्तमान कष्टकर हो जाता है
नृप प्रशंसा कि अतिशयोक्तियाँ
ढक लेती हैं कई बार
अँधेरे सदनों के
विधवा विलापों को
और किसी काल्पनिक राजकन्या का विवरण
कई बार
प्रसव पीड़ा के रुदन पर
भारी पड़ जाता है

भवनों के निर्माण शैली की बातों में
उन्हीं भवनों के
उन कक्षों का वर्णन
नहीं होता
जिस में बंद हैं
किशोरियों के मानहानि की कथाएँ

वीरगति लिखकर
बंद कर दी जाती हैं कहानियाँ
उन योद्धाओं की
जिनके परिजन
हर दिन लड़े
एक भयंकर युद्ध
उन लोगों के मरने के बाद

जो युवतियाँ ले जाई गई
युद्ध में जीते पुरस्कार की तरह
उनके स्वास्थ्य का
क्या हुआ आगे?
कहीं नहीं लिखा जाता

वेशभूषा के विस्तृत लेखन में
कहीं नहीं लिखा जाता
कि नहीं जूटा पाते थे जो
प्रचलित वस्त्र
क्या पहन कर रहते थे वे?

किस ईश्वर की पुजा
विश्व के किस भाग में
कब से शुरू हुई
यह बताया जाता है अवश्य
परन्तु, यह नहीं बताया जाता है
कि केन के हत्यारा बन जाने पर
उसके “इलोही” ने
दंड दिया उसे
या लेता रहा उपहार
इस घटना के बाद भी

अगर जानना हो कभी
उस युग में विक्षिप्तावस्था से ग्रसित
किसी वृद्धा को
कैसे रखा जाता था
तो क्या पढ़े कोई?
भोजन भी बदल देते हैं इतिहासकार
देवों के भी और मनुष्यों के भी
स्वयं को
बदली हुई राजनीतिक स्थितियों में
स्वीकार्य बनाने के लिए
और सोचते भी नहीं
कि जीवन
मृत्यु में बदल जाता है
वर्तमान में
उनके इतिहास बदलने की चेष्टा से

एक नए विषय को गढ़ा जाए
जिसमें घटनाओं को अनुभव किया जाए
ना कि पढ़ा जाए

कामरेड, तुम भी न!

कैसे हो भाई?
और कल मंदिर क्यों नहीं आए?
मंगरु और घीसू तो आए थे
बड़ी देर तक हमने बातें की
मेरी बच्ची को उन्होने प्रसाद का पेड़ा भी दिया
पता है? हम सब बोल रहे थे
एक ही जगह खड़े होकर
मुझे बड़ा अच्छा लगा
मैंने बिना माइक के
बिना गर्दन में मफ़लर या गमछा लपेटे
उनसे जो भी कहा, उन्होने सुना
उन्होने कहा भी
बिना तुम्हें या तुम्हारी बातों को याद किए

तुम कितनी देर तक
एक जैसा रह लेते हो
जान बुझ कर?
ज़बरदस्ती यह झोला
क्यों लिया है तुमने?
श्री लेदर्स वाले बढ़िया बैग बनाते हैं
और स्वदेशी भी हैं
और तो और
मुसहर टोली के बच्चे भी वही बैग रखते हैं
अब तो सादगी का भी द्योतक नहीं रहा तुम्हारा झोला

तुम कितने प्रेम से क्रीम लगाकर
दाढ़ी बनाते थे
और अब व्यस्त दिखने के लिए
कैसी खिचड़ी दाढ़ी उगा रखी है?
सोचते भी नहीं कि
गरीब असलम के सैलून का क्या होगा

जानते हो?
मैं तो साफ़ सुथरा
शाकाहारी रह के भी मार्क्स पढ़ लेता हूँ
मुझे समझ भी आ जाता है
अब तो ज़्यादातर लोग सूट पहन के भी
क्रांति की कहानियाँ
कह-सुन ले रहे हैं

अच्छा अच्छा अब समझा
तुम इसलिए उदास हो
कि शोषण लगभग खत्म हो गया
तो तुम किसे प्रेरित करोगे?
ज़्यादातर लोग सामाजिक समानता के रास्ते पर हैं
तो कैसी क्रांति की कहानियाँ सुनाओगे?
मतलब भारतवर्ष में तुम्हारा काम नहीं है
और एक अभिनेता कि तरह
अपना मेक अप करने में
जो तुमने समय दिया
वह व्यर्थ प्रतीत हो रहा है तुम्हें
कोई बात नहीं मित्र
आओं मिलकर काम करते हैं
प्रति व्यक्ति आय के साथ
जनसंख्या विस्फोट की भी बात करते हैं
दास कैपिटल के साथ
कुछ और भी अच्छी चीजें, पढ़ते हैं

कामरेड, तुम भी न…
इतना नाराज क्यों होते हो
क्या कहा?
किसी की जय नहीं बोलोगे?
कोई बात नहीं मित्र
तुम बस जल्दी स्वस्थ हो जाओ
और साथ आओ
इस महान देश के लिए
तब तक के लिए-लाल सलाम
चलो अब तो मुस्कुराओ

मैं विद्रोही मैं यायावर (कविता)

और भी कुछ पथ हैं शेष
बचे हैं कुछ प्रश्न विशेष
क्यों रुक जाऊँ फिर यहीं रात भर?
मैं विद्रोही, मैं यायावर!

बना किया था स्वयं ही श्रोता
सुना किया था श्वास संगीत
इसी भूतल पर तना किया था
यहीं हुआ था कभी विनीत

स्मृतियाँ तो हैं कई यहाँ
कुछ टूटे स्वप्रों के हैं अवशेष
उस साथी राग भी हैं
उन रिपुओं का भी है देव्ष
किन छवियों को साथ ले चलूँ
और बहूँ किन्हें छोड़कर
यही सोच रहा हूँ अब तक
मैं विद्रोही, मैं यायावर!

मेरे राग के बिना कहाँ तब
कोई उत्सव होता था
थक जाते थे चक्षु सबके पर
उन रातों को कोई कब सोता था?
टूटते थे कुछ दंभ वहाँ
और जुटते थे ह्रदय कई
स्वप्रों का आलय भी था
भावों का भी था एक घर
छोड़ आया सब वहीं पर
मैं विद्रोही, मैं यायावर!

एक थी पौध गुलाब की 

एक थी पौध गुलाब की
उस पर थे दो फूल
सुन्दर थे सुगंध से भरे हुए
पर स्थितियाँ न थी अनुकूल

उस गुलाब की पौध पर
कीटों का था वार
डरे हुए थे पुष्प दोनों
देख अपना संसार

माली ही तोड़ ले जाए मुझको
करे अपना व्यापार सफल
सुगंध मेरी सम्मानित होगी
व्यर्थ न होगा मेरा परिमल

ऐसी इच्छा एक पुष्प ने
दूसरे से जताई
इस उद्यान से परे जाने की
अपनी बात बताई

इसी पौध से प्राण मिला है
यहीं पाया है हमने परिमल
उचित है यहीं निष्प्राण होना
अब सफल हो जीवन या विफल

कहा यही दूसरे पुष्प ने
और अपनी निष्ठा दिखाई
बात जब अलग होने की
दोनों पुष्पों में उठ आई

पहले पुष्प ने शान्त भाव से
इस तर्क को सहा
गहन विचार करने के बाद
उसने आगे कहा

सफल, विफल की बात नहीं
बात है सम्मान की
स्थिर रह कर नष्ट होने की
या टूट कर निर्माण की

टूट गए अगर यहाँ से
बनेंगे हम किसी भाव का अंश
यहीं रुके तो क्या मिलेगा
अभिशप्त जीवन, भ्रमरों का दंश?

यही कह टूट चला वह पुष्प
किसी व्याकुल प्रेमी के साथ
दूसरा पुष्प पर वहीं रहा
नहीं छोड़ा पौध का साथ

सुरभित किया प्रेयसी का मन
उस प्रेमी ने वह पुष्प देकर
स्वीकार किया प्रणय उसने भी
प्रेमी से वह पुष्प लेकर

दूसरा पुष्प जो वहीं रहा था
अपने जनक पौध के साथ
निस्तेज अब हो चुका था
और अन्तिम थी उसकी रात

बीत चली जब शर्वरी
दोनों पुष्प पड़े थे मृत
एक पृष्ठों में सज्जित पड़ा था
दूसरे को निगल चुकी थी
यह निष्ठुर धरा विस्तृत

बुलाया नहीं मुझे किसी ने 

शशि-खंड कह कर मुझको
उस रात जगाये बैठे थे तुम
नैराश्य कहीं था उस तल पर
दृग मुझमें गड़ाए बैठे थे तुम

ना मुझ-सा कहने वाला था
ना तुम-सा सुनने वाले
ना नींद आती थी मुझको
ना तुम भी थे सोने वाले

कभी नीर बहे, कभी कविता
अबाध ही रही शब्द-सरिता
फिर हाथ छुड़ा तुम चले गए कहीं
इससे ज़्यादा कुछ याद नहीं

कहता हूँ, मैं अब भी
और सुनते हैं शशि, निशा
बहती है आज भी तरणी
बुझती नहीं आज भी तृषा

मेरी ही ज्योति है तुममें
तुम मुझसे ले कर ही आए थे
हाँ, उसी दिवस की बात है
हम-तुम न जब पराए थे

अब रहा न सान्निध्य तुम्हारा
औ’ जग की भाषा मैं भूल गया
निरंकुश बहता हूँ मैं अब
ना यही, ना वह कुल रहा

मिट-मिट कर पहुँचे जहाँ तुम
पहुँच कर “मैं” मिट जाता
मिल जाता नृप का-सा भाग्य
निज सम्मान पर खो जाता

यही सोच मैं खड़ा रहा
पर तुम सब चले गए
जीता तुमने जगत का मान
मैं और कविता छले गए

उन्माद जब मुझ-सा ना था
मेरे संग तब चले थे क्यों?
विद्रोह नहीं था जब मन में
कविता में तब ढले थे क्यों?

ले-लेकर मेरा ही ओज
टिमटिमाते थे तुम भी
अमानिशा के प्रहार से डर के
मेरे शरण आते थे तुम ही

बुझाया नहीं मुझे किसी ने
छोड़ दिया है बस अब जलना
अब उड़ने की सोच रहा हूँ
अत: बंद है रुकना, चलना

तय रहेगा यही परस्पर 

सत्य जानकार तुझको साथी
चला किया था तेरे पीछे
तय हुआ था यही परस्पर
मैं तुझको तू मुझको सींचे

आभासों का रत्नाकर ही
बहा करेगा इस धरा पर
शब्द विश्व ही रच देंगे हम
ईप्साओं का जगत मिटाकर

वर्ण सारे सृष्टि को देकर
रहा करेंगे हम धवल
संचित कर के गीत हमारे
तना करेगा युग नवल

पीड़ा का आलिंगन कर
तब हमने ऐसा सोचा था
उन्मुक्त्त कंठ-स्वर से हमने
उन क्षिप्र क्षणों को रोका था

अश्रु की वृष्टि हुई थी
आनन सबने धोया था
अधर कम्पित थे मेरे भी
औ’ तू भी तो रोया था

घायल रहा ह्रदय तेरा भी
मेरी भी अग्नि प्रबल रही

दिनकर के संग नित्य जलात
अंतर-ज्वाला मैंने भी सही

आकार नहीं हम ले पाए
ना कर पाए कोई व्यापार
जीतने ही खिंचे, उतने ही टूटे
न हो पाया कोई विस्तार

व्योम पर भी स्थिर न हुए
न मिल पाया भूमि का अंश
वायु के संग भटक रहे हम
झेल रहे क्षणों का दंश

विश्व-विधान समझ ना पाए
न बन पाए हम कभी विशेष
वायु के संग विचरण करेगा
पर सदा-सर्वदा हमारा शेष

प्राण बनकर किसी देह में
अगले युग में आयेंगे
आज शिखर से च्युत भले हम
तब हम ही शिखर कहलाएँगे
विजय जानकर तुझको साथी
चला करूँगा तेरे पीछे
तय रहेगा यही परस्पर
मैं तुझको, तू मुझको खींचे

शर्वरी 

सुषुप्त पड़ी है यह धरा सारी
शशांक हुआ नभ का प्रहरी
सुखद स्वप्नों की सुरभि लिए
अवरोहित हो चुकी है शर्वरी

शांत हो चुके है विहंग भी
मंद आभा में चन्द्र के
वन्य जीव भी स्थिर पड़े है
प्रतीत होते हैं भद्र से

ध्वनि से शून्य, कालिमा से पूर्ण
विचर रही है यह धरणी पर
अभिव्यक्त कर रही है यह स्वयं को
जब विराम है सबकी वाणी पर

व्याकुल है यह विरह की मारी
पग भटक रहे हैं दिशा-दिशा
हर क्षण बढ़ती ही जाती है
इसके अन्तर्मन की तृषा

मिलने को प्रभात से ही
किया है इसने निज तन का प्रसार
निःशब्द है पर क्षिप्रता से
खोज रही है अपना अधिकार

प्रस्तुत करने को प्रिय के समक्ष
संग कई दीप्तियाँ लाई है
निर्जन में निशान्त से मिलने
हर मर्यादा तोड़ कर आई है

थक चुका इसका शरीर अब
आतुर है विश्राम के लिए
पर दृष्टि अब भी लालायित है
मिलन-अवधि के अभिराम के लिए

बस! अब प्रभात आने वाला है
भेद कर तम के उर को
प्रज्वलित करेगा जीवन को
तीव्र करेगा पंक्षी के सुर को

व्याकुल होकर खोजेगा अब
प्रभात भी शर्वरी को
नहीं विचारेगा मित्र को
और न सोचेगा अरि को

हाय! विधि का कैसा यह विधान होगा
शर्वरी नहीं, उसके चिह्न चरण में होंगे
मुखचन्द्र के दर्शन को आतुर होगा प्रभात
किन्तु उसके स्वर ही केवल कर्ण में होंगे
कह उठेगा पीड़ा में
हे शर्वरी! तुम फिर आना
मेरी आभा कि शोभा है तुम में
तुमको है यह बतलाना

जब आएगी शर्वरी तो
ये शब्द उसे मिल जायेंगे
फिर लौटेगी हर्षित होकर
जब जड़ चेतन जग जायेंगे

और तुम शशि 

तुम संज्ञाहीन, मैं अर्थरहित
तुम स्वतंत्र, मैं पीड़ा-ग्रहीत
मैं शब्द, तुम रचना
मैं भविष्य, तुम कल्पना
हाँ यह सम्बंध तुमसे विशेष है
जब मुझमे तुम्हारा ही समावेश है

जानती हो, क्षण अब क्षिप्रता से
चलते चले जाते हैं और
और धूमिल करना चाहते हैं
मेरे हृदय पर अंकित तुम्हारे चित्र को
तुम्हारे नहीं होने का इन्हें आभास है
तुम्हारी स्मृति मिटाना, इनका प्रयास है

तुम तो निरंतर उपस्थित हो मेरे साथ
तुम मेरी पीड़ा का अंश हो
मेरी अतृप्त इच्छाओं का विध्वंस हो
अब क्या इच्छा रखूँ
जब तुम मेरे पास, मुझमें
अब जा भी नहीं सकती तुम यहाँ से
याद भी नहीं तुम्हें कुछ, आई कहाँ से

सम्भावना तो नहीं अब कि तुम से
रहित कर के कुछ भी सोचूँ
सम्भव ही नहीं अब कि
स्वयं में तुझको न खोजूँ
अब मृत्यु भी आए अगर
छीनने मुझसे तुम्हारा सानिध्य
मैं सृष्टि बन जाऊँगा
पुन: तुम्हें पाऊँगा
करूँगा अपने प्रेम को सिद्ध

हर युग में, हर काल में
तुम ही होगी मेरी प्रेयसी
तुम से अलग ही सही, लेकिन तुम्हारा ही
मैं अंश बनूँगा और तुम शशि
और तुम शशि

न पुराना दूँगा, न नया लूँगा 

तुम्हारा छल तुम्हें बता दूँ अगर
और यह भी कह दूँ कि जान गया था मैं, पहले ही
तुम्हें दुख होगा संभवत:

तुम पहले क्या करोगे?
अपने कृत्यों के औचित्य के पक्ष में, तर्क दोगे
या थोड़ा समय माँगोगे?
यह सोचकर कि थोड़ा समय बीतने पर
कुछ याद नहीं रहेगा मुझे

मेरा, तुम्हें समझ लेना
क्या इतना अनुचित है?
मैं सहूँ चुपचाप
क्या यही प्रत्याशित है?
यह मान लिया है तुमने कि
जब-जब कहोगे तुम
मैं आ ही जाऊँगा
स्वयं सम्हाल लूँगा सब समस्याएँ अपनी
और तुम्हें नहीं बुलाऊँगा

लेकिन ये जान नहीं पाए तुम कि
कई बार मेरा कुछ नहीं समझ पाना
तुम्हारे उत्साह के लिए होता था
और बहुत बार मेरा चुप रह जाना
सम्बंधों के निर्वाह के लिए होता था
संभ्रांत हो चुके हो अब तुम
तुम्हारे छल सकने की क्षमता
वह भी बिना ग्लानि के
प्रतिभा कहलाती हैं
तुम्हारे नए समाज में

नया तो सबके साथ हो सकता है
और होता भी है
मैंने भी कुछ नए नियम बनाए है
और बहुत कुछ अपना पुराना भी बचा लाया हूँ

मुझे खेद है
क्योंकि मुझे पता है कि
जब तुम यही पुराना
जो मैं बचा लाया हूँ
माँगने आओगे
और देना चाहोगे
अपना सारा नया
मैं न पुराना दूँगा
न नया लूँगा

फिर सुनाऊँगा कभी

उस पहाड़ के पीछे
इस नदी के उस पार
रात्रि की पूरी कालिमा
सुन्दर अरुणाभा
सब के बारे में
पूछ कर जाते हैं
यह विहंग मुझसे

अब मेरे पंख के रंग
जो पहाड़, नदी, रात और भोर से
उपहार में मिले थे
सदन सज्जा के लिए हैं
उड़ान की बातें
फिर सुनाऊँगा कभी

शिव! आप ही हैं 

वृक्षों के झुरमुट में
अटकी संध्या
नभ पर प्रकट होने का
आदेश माँगता मयंक
श्रम से शिथिल
नीड को लौटते हुए खग
किसी उत्सव के घोषणा कि प्रतीक्षा
किसी आगंतुक की आशा
विश्राम की आकाँक्षा
भयमुक्त, हर्ष मिश्रित और
प्रत्याशित सुखद आश्चर्य के
इन क्षणों के बाद
पुन, प्रकृति! तुम ही हो
शिव! आप ही हैं

कैसे अकेले सम्हालूँ मैं 

इतना सबकुछ
कैसे अकेले सम्हालूँ मैं
तुम्हारी स्मृतियाँ
तुम्हारा बिना बताए
सम्बंध विच्छेद
एक परस्पर मित्र से भेजा
तुम्हारा अन्तिम संदेश
और बहुत से रतजगे

तुम मानो
मेरी बात
मेरे ह्रदय का एक अंश
प्राण सहित
वहीं प्रतीक्षा में हैं
और आज अचानक
तुम्हारा सपनों में आकर
वार्तालाप!
फिर एक बार
रख गया है
समय मेरे लिए
तुम्हारी स्मृतियाँ
तुम्हारा बिना बताए
सम्बंध विच्छेद
एक परस्पर मित्र से भेजा
तुम्हारा अन्तिम संदेश
और बहुत से रतजगे

लेकिन साफ दिख रहे हो

बादलों वाले
ऐसे ही मौसम में
एक दिन अचानक
हमने बातचीत बंद कर दी थी
एक दूसरे से
कुछ दिनों तक
मैं व्यथित रहा था
कारण जानने के लिए

और तुम्हारा
लगातार चुप रहना
विवश करता रहा
मुझे यह मानने पर
कि ठीक किया है तुमने
गति बहुत तीव्र हो गई थी मेरी
तुमसे संवाद टूटने के बाद
खूब दौड़ा,
जा चढ़ा कई बार
अलग-अलग शिखरों पर
तुम्हारे अलावा
लगभग सब थे
प्रशंसकों की भीड़ में
अब गमन धीमा हो चुका है
ऊपर की तरफ
लेकिन भीड़ तेजी से कम हो रही है
कुछ ही लोग बचे हैं आस-पास

इतने वर्षों बाद
तुमसे बात करने का
बहुत मन हो रहा है
और देखों न…
इस बार कोई दर्पण नहीं चाहिए
तुम्हें देखने के लिए
आँखें बंद करके
थोड़ा अन्दर झाँक के
जब देख रहा हूँ
तो तुम थोड़े अचेत से
लेकिन साफ़ दिख रहे हो

मैंने स्वयं बनाया है इन्हें

हर बार यही होता है
तुम आते हो
शिकायते करते हो
और चले जाते हो
लेकिन क्या ठीक है
हर बार यही करना?
छोड़ जाना
मेरे चेहरे पर
तुम्हारी सिकुड़ चुकी
टेढ़ी, तिरछी उम्मीदों का नक्शा
अरे! लोग पूछते हैं
कई बार तो
सहानुभूति भरी प्रशंसा भी कर जाते हैं
और यह सब तभी करते हैं
जब मुझे
नहीं सुनना होता
यह सब
अगली बार जब आना
तो भूतकाल और
स्वर्णिम साम्भव्य की कथाएँ
मत लाना।
ये सब जो देखते हो ना
मेरे आस-पास
अबाध भाव धाराएँ
स्वतन्त्र हँसी
लगातार हार सकने की क्षमता
सब स्वयं अर्जित किया है मैंने
और हाँ… थक भी गया हूँ
थोड़ा रुक कर
रोकर, विश्राम करना चाहता हूँ
एक बार फिर अगर
तुमने मुझे सताया
तो मैं कह दूँगा सबसे
कि तुम निर्जीव चित्र हो
मेरे ही अतीत के
और तुम्हारे सारे रंग पराए हैं
अभी के श्वेत-श्याम
और सारे कम चटकीले रंग
मेरे हैं
मैंने स्वयं बनाया है इन्हें

प्रथम हत्यारा 

कर्तव्य था दोनों का
‘केन और अबेल’
दोनों भाइयों का
जनसंख्या का गुणन
आदम और हव्वा के
दोनों संतानों का
कर्तव्य था

सामर्थ्य भी दोनों में था
अग्रज केन और अनुज आबेल
दोनों में कृषक केन
और चरवाहा अवेल
दोनों में

अपने-अपने उत्पाद का
एक खंड
अपने ‘इलोही’ अर्थात
ईश्वर को समर्पित करते थे दोनों
लेकिन, क्यों?
किसे मानते थे ईश्वर या इलोही?

उक्त्त तो यही है कि
समर्पण स्वीकार भी होता था
अबेल का समर्पण
अधिक स्वीकार्य था ईश्वर को
कौन था ईश्वर या इलोही?
मानव उत्पत्ति के पहले
कौन करता था समर्पण?
उत्पाद के समर्पण से
जीवन में क्या लाभ था?

केन ने सहोदर अबेल की
हत्या कर दी
अपने उत्पादों को
स्वीकार्य बनाने के लिए
यह मानव इतिहास की
प्रथम हत्या थी
यह मंशा स्वयं जागृत हुई
केन में या इलोही की प्रेरणा थी?
क्या ठीक है यह सब सोचना या पूछना?
मैं विराम देता हूँ
प्रश्नों को मारता हूँ
सब प्रश्नों को
केन तुम्हारी आत्मा स्वतन्त्र रहे
अपराध बोध से
मैं हूँ, तुम नहीं
प्रथम हत्यारा इन प्रश्नों का

कविता तुम! 

तरंगिणी ही जैसी हो
‘कविता’ तुम भी
उच्चतम स्त्तर पर
विमल, श्वेत, ठोस

उष्णता आवश्यक होती है तुम्हें
गति के लिए
और प्राप्य भी है तुम्हें वह
तुम भी भावनाओं से शब्दों में
बदलती हो
जैसे हिम बदलता है
जल बूंदों में
तरंगिणी बनने से पहले
जब भर चुका होता है
भावों से ह्रदय
तब बदलते हैं यह भाव
शब्दों में
ठीक वैसे ही
जैसे हिमखंड कोई वृहद
पिघलता है
सघन जलराशि बन जाता है
वेग भी ग्रहण करता है
लेकिन, निर्मल ही रहता है
जब तरंगिणी बनकर
सब के लिए सुलभ हो जाता है
हिमखंड
ना तो श्वेत रह जाता है
ना निर्मल
हाँ, सब देख पाते हैं उसे
स्पर्श कर पाते हैं उसका
पर मलिन हो जाती है
जल राशि
और कालांतर में लुप्त भी

हिमखंड बने रहते हैं
वही ऊंचाई पर
अकेले
किसी का स्पर्श नहीं मिलता
दृष्टि भी नहीं पहुँचती सबकी
लेकिन बनी रहती है
निर्मलता और उज्जवलता
‘कविता’ तुम्हें भी
तरंगिणी के जैसा ही होना चाहिए
श्रद्धा के प्राप्ति की आशा में
मलिन होने की संभावना
सदैव होगी
तुम्हें इससे बचना चाहिए

लालटेन 

दीपावली की सफाई में
एक हरे रंग का लालटेन
मिला माँ को
बता रही थी वह
कि पढ़ते थे हम
उसकी रोशनी में
जब छोटे थे

हल्के नीले रंग के तेल के अलावा
जो लालटेन में
भरा जाता था
जलने के लिए
वह कालखंड याद आया
जब सिमट आती थी
पूरी दुनिया
उस लालटेन की रोशनी के घेरे में

मैंने देखा उसे
गौर से
और जैसे अचानक
बातचीत शुरू हो गई उससे
मैंने पूछा लालटेन से
कितने दिन बाद दिखे हो
क्या अभी जल पाओगे
पहले की तरह?
जब माँ साफ करती थी तुम्हें
हमारे पढ़ने के लिए
ज़ोर से हँसा लालटेन
और पूछा मुझसे
क्या तुम पढ़ पाओगे
माँ की इच्छाओं को
हर साल, दूर देश से
बस दीपावली में आ कर
मेरी धीमी रोशनी में

शब्दों के मध्य का प्रसार 

शब्दों के मध्य का प्रसार
मिल जाए अगर
कभी स्थल स्वरूप
आलय वही बनाऊँगा
पूर्ण हुए श्रवण से
अपेक्षित कथन के बीच
एक नई भूमि बिछाऊँगा
एक गवाह होगा
निकल जाने का
चिंता के लिए
एक वातायन से
तृप्ति को बुलाऊँगा

तुम, मैं और अर्थपूर्ण शान्ति
वही रहेंगे
समय से परे
मिल जाए अगर कभी
स्थल स्वरूप
शब्दों के मध्य का प्रसार

स्वागत है 

नैराश्य से कहीं
तो कहीं कुतर्क से
कभी ह्रदय-हीनता से
तो कभी-हीनता से
तो कभी स्वार्थ-सिद्धि से
यह धरा
यह मानवता
निश्चय ही आहत है

एक सदन बनाया है मैंने
चुन-चुन कर
अक्षरों से
गवाक्षहीन पर
प्राणवायु से पूर्ण
जीवन-साम्भव्य की
सब परिस्थितियाँ
विधमान है उसमें
एक ह्रदय
कुछ त्याग
लेकर आ सको
तो आ जाओ
सह्रदय स्वागत है

हे आगन्तुक!

हे आगन्तुक! अब कैसे विश्वास दिलाऊँ तुम्हें
यह प्रसार मानवों का ही विश्व है
कैसी क्षीण स्मृति है तुम्हारी
स्वयं ही तो इसकी रचना कि थी तुमने
अब पूछते हो क्या यही विश्व है

हे आगन्तुक! अब यहाँ भावना खोज रहे हो
जानते नहीं, मानव अब समय हो चुका है
अब भावना का काम ही क्या है
अब तो बस रम्य, हेम वर्णी कामना है
इसी के बल पर तो मानव और सभ्य होगा
तुम्हारे विक्रम को भी चुनौती दे सके
अब ऐसा यहाँ सामर्थ्य होगा

हे आगन्तुक! मैं सच कहता हूँ, विश्वास करो
यह अर्धनग्र काया ही स्त्री है
वह दुर्बल काया ही पुरुष है
क्या कहा, तुमने स्त्री को लज्जा, पुरुष को बल दिया
धीरे बोलो अन्यथा प्रकृति पूछेगी
गुण यह सारे गए कहाँ?
हे आगन्तुक! तुम मानते क्यों नहीं
और यह भ्रातृ, मातृ जैसे अनोखे शब्द
क्यों बार-बार दोहरा रहे हो?
जो तथ्य हैं वही समक्ष हैं तुम्हारे
यहाँ कोई भ्रातृ-मातृ नहीं है
यहाँ हर कोई बस सफल या असफल कहलाता है

हे आगन्तुक! तुम व्यर्थ घबरा रहे हो
आगे बढ़ो, अब यहाँ कोई परीक्षा नहीं होती
सब कुछ इतना सरल हो चुका है
यह स्थान अब सुन्दर बन चुका है
सत्य, अहिंसा का उच्चारण करने वाले मूर्ख
अब इस स्थान पर आते भी नहीं

हे आगन्तुक! तुम्हारी आँखों में तो अश्रु हैं
तुम तो रो रहे हो, दुखी हो
आश्चर्य है! ऐसे सभ्भ्रांत समाज को देखकर
तुम्हें रोना क्यों आ रहा है?
मेरा मस्तिष्क यह समझ नहीं पा रहा है
अच्छा! रोना चाहते हो तो रोकर भी देखो
कोई पीड़ा पूछने नहीं आएगा
तुम्हारे दु: ख को हर्ष विषय बनाएगा
क्या कहा? अब यहाँ नहीं आओगे?
जाना चाहते हो तो जाओ लेकिन, जान लो
हमारे जैसा विश्व नहीं बना पाओगे

मृग श्राप

हिरणी- यह अरण्य की हरीतिमा
यह सुखद सा एकान्त
यह उत्तेजित करती गंध धरा की
और उज्ज्वल यह निशान्त
क्या कहते हो तुम प्रिये?
क्या यह नहीं हमारा सौभाग्य है?
इसी वन से परे
क्या नहीं नृपों का राज्य है?

हिरण- सत्य कहती हो प्रेयसी
उन्मुक्त्त हमारा संसार है
ना मनुजों का सा द्वेष है
ना भावों का व्यापार है

हिरणी- इसी वन के उस छोर पर
बसा हुआ है एक नगर
व्यवहार वहाँ मनुष्यों का
द्वेष मुक्त्त ही दिखता है
ना क्रय होता है किसी भाव का
ना भाव कोई बिकता है

हिरण- तुम निश्छल हो प्रेयसी
अत: नहीं तुम जानती
रहा नहीं नर कभी द्वेष -मुक्त्त
धरित्री भी है मानती

हिरणी- स्वीकार्य नहीं मुझे है
यह सिद्ध सत्य तुम्हारा
नर ही द्वेष मुक्त्त है
वह नगर ही सारा

हिरण- स्वप्र-लोक क्या चली गयी थी?
और अब सहसा ही आई हो
चित्र वहीं के भर कर दृगों में
इस धरा पर लाई हो
तुम्हारे उर का प्रेम है यह
जो विश्व दिखता तुमको सरल है
हे प्रिये! यह मृत्यु-लोक है
यहाँ परिवर्तन होता प्रतिपल है

हिरणी- नहीं जानती मैं प्रियवर
क्या होता यह परिवर्तन है
प्रेम तुम्हारा था संम्पति मेरी
आज भी वह मेरा धन है

हिरण- पुलकित हुआ ह्रदय मेरा
प्रणय शब्द तुम्हारे सुनकर
पर इसी कथन-श्रवण में हमारे
डूब रहेगा नभ में दिनकर

हिरणी- विभावरी जब बीत चलेगी
बिखरेंगे जब स्वर्णिम कर
पुन: यहीं हम आएँगे
क्रीड़ा दिवस भर करेंगे
कुछ मिलन गीत भी गाएँगे

हिरण- उत्सुक हूँ मैं तुमसे सुनकर
उस नगर का विवरण
सौहार्द्र मनुजों के मध्य जहाँ है
और प्रेम है प्रतिक्षण
क्यों न चलें वहीं हम दोनों
और वहीं पर गान करें
क्या जाने कोई यशस्वी
हम मृगों का भी मान करे?

हिरणी- हाँ! निश्चित हम जाएँगे
और मिलन-गीत भी गाएँगे
यदि स्नेह से खुल जाएगा
किसी भवन का वातायन
जान लोगे तुम भी प्रियवर!
प्रेम, मनुजों का भी है धन

द्वितीय भाग

दशरथ का विस्तृत प्रासाद और उसमें क्रीडा करते प्रभु राम बार-बार वातायन की ओर जाते हैं और हर्षित होकर किलकारी करते हुए यहाँ-वहाँ दौड़ रहे हैं।

दशरथ (सेवकों से)- विख्यात रहा जो देवों में भी
उसी शौर्य का खण्ड है राम
सुरक्षित रही धरा जिससे
उस धैर्य का अवलम्ब है राम
क्रीड़ा सुलभ रहे राम की
सेवकों! यह ध्यान रहे
ले आओ, प्रबंध कराओ
जब, जितना, जो राम कहे

सेवक (दशरथ से)- क्रीड़ारत ही रहेंगे राम
कृपया आप निश्चिंत रहें
प्रबंध कराएँगे हम सब कुछ का
जब, जितना, जो राम कहे

कौशल्या (सेवकों से)- पुलकित हो जाता है मन मेरा
हँसता है जब पुत्र मेरा
मुँख पर इसके बना रहे
यह अधरों का प्रसाद सदा

रुक कर, गिर कर, वह चलता है जब
चलता है यह जीवन मेरा
लगता है जब उर से मेरे
सुरभित होता है मन मेरा

कुछ भी हो जाए पर यह ध्यान रहे
पुत्र मेरा न कष्ट सहे
शब्द नहीं है पास इसके
अत: पूर्ति हो अविलम्ब उसकी
जो यह संकेतों में भी कहे

सेवक (कौशल्या से)- सामर्थ्य में जितना होगा
उससे परे भी जाएँगे
संकेत मात्र पर ही राम के
हम सब कुछ ले आएँगे

तृतीय भाग

हिरण- हिरणी दशरथ के प्रासाद के पास आते हैं| हिरणी बताती है कि यही उस प्रेमपूर्ण नगर के राजा का महल है

हिरण – कैसा विस्तृत प्रासाद है यह
विश्वकर्मा का उन्माद है यह
सौन्दर्य तो देखो इस भवन का
अलौकिक! निर्विवाद है यह

हिरणी – मोहित हुए जाते हो कैसे
बस देखकर एक भवन
चकित हो जाओगे प्रियवर !
देख यहाँ मनुजों का मन

हिरण – प्रस्तर से ही रच दिया है
मनुजों ने यह विशाल भवन
कृति विस्तृत है जब इतनी
कितना वृहद् होगा मन!

हिरणी- किन्तु, माप कहाँ मन को देती है?
कृति किसी सजीव की
स्वार्थ सृष्टि ही रच देते हैं
यही मनुष्य, अजीब सी

हिरणी- पुन: उसी भाव को क्यों
निज उर में तुम घोल रहे हो?
बंद वहीं पड़े है जो गीत
उन्हें नहीं क्यों खोल रहे हो?

चतुर्थ भाग

(हिरण और हिरणी बहुत देर तक गाते है पर खिड़की नहीं खुलती, जब हिरण को अपने जीतने का आभास होने लगता है तभी राम वातायन पर दिखते हैं)

हिरण- सारे स्वर अब मुक्त्त हो चुके
कंठ चाहता है विश्राम
वातायन तो एक ना खुला
आओ, अब लौट चलें अविराम

हिरणी- स्थिर करो यह चंचल मन
औ’ प्रतीक्षा का लो आनन्द
टीके रहे जो क्षेत्र में
कीर्ति उन्हीं की बनी अखण्ड

हिरण- रण-क्षेत्र नहीं है यह प्रिये!
औ’ कीर्ति की चाह नहीं
आह्वान प्रेम का है यह तो
योद्धाओं की कठिन राह नहीं

हिरणी- रण में शत्रु प्रत्यक्ष होता है
औ’ प्रेम में निज-मन में
युद्ध की विजय समय के अधीन है
प्रेम की विजय है हर क्षण में
चाहे न चलते हों प्रियवर
प्रेम-संघर्ष में कोई शर
पर, स्वयं से लड़ पाना भी
है नहीं कोई सरल समर

हिरण- स्वयं से ही संघर्ष हो जिसमें
भावों का कैसे उत्कर्ष हो उसमें
चाहों तो प्रेम कहो इसे मगर
है यह सब ईप्साएँ प्रखर

हिरणी- वाद-विवाद अब छोड़ो प्रियवर!
औ’ देखो वह छवि सुन्दर
आह! कैसा प्यारा बालक है वह
क्या सुन्दर चक्षु, क्या कोमल अधर

हिरण- निश्चय ही सत्य कहा तुमने
साधारण यह छवि नहीं
कठिन है विश्वास करना
यह बालक है, रवि नहीं
कल-कल बहते झरने जैसी
हँसी इसकी लगती है
औ’ इसके धवल शरीर पर
स्वर्ण-माला भी जँचती है

हिरणी- एक सुखद सी शीतलता
इसकी दृष्टि से मिलती है
और वात्सल्य-पुष्पों की श्रुंखला
मेरे ह्रदय में खिलती है

(अचानक हिरण गम्भीर हो जाता है और हिरणी को ध्यानपूर्वक देखने लगता है और उसकी आँखों में अश्रु भर आते है। हिरणी लगातार राम को ही देखती रहती है और अब उसका ध्यान हिरण की और जाता है तो वह आश्चर्यचकित होकर पूछती है।)

हिरणी- भावावेश समझूँ इसे
या अविरल प्रेम की धाराएँ
चिंता छलक रही है आँखों से
या भविष्य की आशाएँ

हिरण- कहीं सुना था मैंने प्रिये!
सुखद जब जीवन जान पड़ता हैं
आगामी स्थितियाँ विकट होती है
औ’ असम्भव, अंत जहाँ लगता है
मृत्यु वहीं निकट होती है

रोक सको तो रोक लो प्रिये!
यह सुरभित आवरण
और ये स्वर्णिम क्षण
पता नहीं कल मन बदल जाए
या रहे ही नहीं यह तन

तारक-मणियों की दीप्ति
औ’ मयंक की शीतलता
सब कुछ भर लो दृष्टि में
यह संध्या आगामी प्रभात
ये भीगे तृण, वह जल-प्रपात
कुछ छूट न जाए सृष्टि में

हिरणी- क्षणों को तो रोक न पाऊँगी
अब तो प्रेम-पाश फैलाऊँगी
तुम यह आकाश
मैं, मेरे श्वास
यह रात्री, वह प्रभात
सब है मेरी दृष्टि में
अब क्या चाहूँ मैं सृष्टि से

(हिरण और हिरणी को स्थिर और मंद देखकर बालक राम दुखी हो जाते हैं और उन्हें गाता न देखकर रोने लगते हैं। बालक राम लगातार रोते ही जाते हैं, और सेवक जिन्हें कौशल्या और दशरथ का आदेश था कि ‘राम न रोएँ’, राम को मनाने का हर संभव प्रयास करते हैं। राम चुप नहीं होते और वातायन पर खड़े-खड़े, रोते हुए मृगों की ओर इशारा करते हैं। सेवक समझ जाते हैं कि बालक राम मृगों के लिए रो रहे हैं। एक सेवक बाण चलाता है और वह बाण सीधा हिरण को लगता है। हिरण एक चीख के साथ गिर पड़ता है और हिरणी एकदम अवाक खड़ी देखती राह जाती है।)

हिरण- आह! लौट जाओ प्रिये वन की ओर
देख नहीं पाऊँगा मैं भोर
इस सुरभित संध्या कि स्मृतियाँ
मैं साथ लेकर जाऊँगा
वचन देता हूँ तुमको
दृश्य बन स्वन्पों में
औ ध्वनि बन कर्णों में आऊँगा

हिरणी- कैसा आज हुआ यह अनर्थ
दृश्य और श्रुति का अर्थ
मैं नहीं समझ पाऊँगी
अछुण्ण होते हैं भाव, सुना है
पर इन्हें ही छूने
मैं पुनः लौट कर आऊँगी

(हिरण प्राण त्याग देता है और सेवक उसका शव लेने आते हैं। शव के पास खड़े होकर वह कुछ विमर्श करने लगते है।)

सेवक- मृत पड़ा है यह मृग अब तो
अब इससे क्या काम करे?
चलो मृदंग बनाएँ इसके चर्म से
औ निष्प्राण शरीर का भी उपयोग कर
हम मनुजों का नाम करें

(सेवक मृग-चर्म से मृदंग बनाकर ले आते है और बालक राम को सुनते हैं। राम आह्लादित होकर उछलने-कूदने लगते हैं।)

हिरणी- आह! तुम सचमुच आए

(दूर से मृदंग की आवाज सुनकर)
ध्वनि बन कर मेरे मेरे कर्णो में
हृदय का स्पंदन बढ़ रहा है
औ स्थिरता है चरणों में
पर कब तक ध्वनि यह आएगी
औ’ मुझको बहलाएगी
दीप्तियाँ लेकर जैसे ही रात्रि
भास्कर को छुपाएगी
मुझ तक आने वाली सारी ध्वनियाँ
स्वतः ही रुक जाएँगी

(हिरणी यह सोचकर दुखी हो जाती है। क्यूँकि अब संध्या बीतने ही वाली है। मृदंग की ध्वनि भी अब रुक-रुक कर आ रही है। प्रासाद में राम चंचल होकर फिर वातायन पर आते है और स्थिर हिरणी को देखते है। हिरणी इतनी स्थिर होती है कि राम अचानक चंचल से स्थिर हो जाते है और रोने लगते है। सेवको के पूछने पर फिर राम हिरणी की ओर इशारा कर देते है और सेवको में से एक, बाण चलाता है, जो सीधा हिरणी को लगता है।)

हिरणी- (पीड़ा से कराहती हुई)-
हाय! शर ही मिला मुझको भी
कौन अपराध किया था मैंने
बस प्रेम-दृष्टि डाली थी बालक पर
ऐसा क्या आघात किया था मैंने?

हे बालक! तुम उस दिन रोए
और मेरे प्रियवर निष्प्राण हुए
आज हठ और रुदन से तुम्हारे
पखेरू मेरे भी प्राण हुए
ममत्व से देखा था तुमको
और तुमने विरह दिया
क्षमा किया मैंने तुमको फिर भी
पर आज शेष क्या रह गया?

प्रतिशोध की कामना तो
मन में मेरे न आएगी
मनुष्य का हृदय नहीं है मेरा
सो, वहाँ नहीं रह पाएगी

लेकिन, कर्म का फल तो होता है
औ’ तुम भी उसको पाओगे
स्नेह से भरे जीवन में तुम्हारे
फिर एक मृग आएगा
औ’ जिसे झेल मैं मृत हो रही
वहीं विरह तुम्हें फिर दे जाएगा

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