देवता की याचना
इतना विस्तृत आकाश-अकेला मैं हूँ
तुम अपने सपनों का अधिवास मुझे दो।
नीला-नीला विस्तार, हिलोरों में यों ही बहता हूँ
सूनी-सूनी झंकार, न जाने क्यों उदास रहता हूँ
यह अमृत चाँद का तनिक न अच्छा लगता
प्रिय! तुम अपनी रसवंती प्यास मुझे दो।
कण-कण में चारों ओर छलकती नृत्य-चपल मधुबेला
झूमे-बेसुध सौंदर्य, लगा है मधुर रूप का मेला
ऐसी घडियों का व्यंग न सह पाता हूँ
तुम अपने प्राणों का उच्छ्वास मुझे दो।
नंदन के चंदन से शीतल छंदों की क्यारी-क्यारी
सब कुछ देती, देती न मुझे मैं चाँ जो चिनगारी
रम जाऊँ मैं जिसके अक्षर-अक्षर में
वह गीली पलकों का इतिहास मुझे दो।
यह देश तुम्हारे लिए बसाया मैंने सुघर-सलोना
कोमल पत्तों के बीच जहाँ ओसों का चाँदी-सोना
उतरूँगा सुख से मैं अंकुर-अंकुर में
तृण-तरु में मिलने का विश्वास मुझे दो।
सुनो हुआ वह शंख-निनाद
सुनो हुआ वह शंख-निनाद!
नभ में गहन दुरूह दुर्ग का
द्वार खुला कर भैरव घोष,
उठ मसान की भीषण ज्वाला
बढी शून्य की ओर सरोष
अतल सिंधु हो गया उस्थलित
काँप उठा विक्षुब्ध दिगंत
अट्टहास कर लगा नचाने
रक्त चरण में ध्वंसक अंत!
सुनो हुआ वह शंख-निनाद!
यह स्वतंत्रता का सेवक है
क्रांति मूर्ति है यह साकार
विश्वदेव का दिव्य दूत है
सर्वनाश का लघु अवतार
प्रलय अग्नि की चिनगारी है
सावधान जग ऑंखें खोल
देख रूप इसका तेजोमय
सुन इसका संदेश अमोल
सुनो हुआ वह शंख-निनाद!
नीरव त्योहार
बजती बीन कहीं कोई जीवन जिसकी झंकार है .
हँसी-रुदन में आँक रहा हूँ चित्र काल के छुप के
खेल रहा हूँ आँख मिचौनी साथ आयु के चुपके
यह पतझर,यह ग्रीष्म,मेघऋतु,यह हिम करुण शिशिर है
यह त्रिकाल जो घन-सा मन-नभ में आता घिर-घिर है
आँखे दीपक,ह्रदय न जाने किसका चित्राधार है .
बजती बीन कहीं कोई जीवन जिसकी झंकार है .
अश्रु रश्मियों से रंग-रंगकर धरती के आमुख को
बड़े प्रेम से बाँध रहा हूँ मुस्कानों में सुख-दुःख को
गीतों में भर लेता हूँ सूनापन नील गगन का
पृथ्वी का उच्छ्वास, अनल का ताप, प्रलाप पवन का
जन्म-मरण के आंगन में चुग रही साँस अंगार है
बजती बीन कहीं कोई जीवन जिसकी झंकार है .
पल-छिन के अनजान बटोही, आते, रुकते, जाते
मेरी छाया तले बैठकर कभी कभी कुछ गाते
पथ की परिणति में अपनी संध्या का दीप जलाये
सोचा करता मैं जाने कब मेरी बारी आये
धड़कन-धड़कन सजल प्रतीक्षा का नीरव त्योहार है
बजती बीन कहीं कोई जीवन जिसकी झंकार है .
एक करुण आह्वान कहीं से बार बार आता है
एक अपरिचित बैठ ह्रदय में बार-बार गाता है
एक याद की आग जल रही जिसका अर्थ न जानूँ
एक जलन हीं परिचित फिर ही इसे न मैं पहचानूँ
लगता है अस्तित्व अखिल मेरा बस एक पुकार है
बजती बीन कहीं कोई जीवन जिसकी झंकार है .
चाँद ! तुम्हारा रूप सुलगता हुआ तरल चन्दन है
नहीं चांदनी अमृतमयी , ज्वालाओं का वन्दन है
रजनी क्या जाने, ज्वालाएँ क्या कहती हैं मन में
वह तो मैं सुनता हूँ प्रतिपल अपनी हिय-धड़कन में
ज्वाला में हीं अमृत,रख हीं तो अंतिम श्रृंगार है
बजती बीन कहीं कोई जीवन जिसकी झंकार है .
छाँह हुई गहरी ,किसका अंचल यह फैला आता
बहुत दिनों के बाद जोड़ने चला कौन अब नाता
मैं अनंत के बीच खड़ा हूँ अपने हीं परिचय-सा
कल तक सृजन-सरीखा था मैं,लगता आज प्रलय सा
ओट प्रलय का अंचल बनता सृजन नया अभिसार है.
बजती बीन कहीं कोई जीवन जिसकी झंकार है.
मेरे मन! तू दीपक-सा जल
जल-जल कर उज्ज्वल कर प्रतिपल
प्रिय का उत्सव-गेह
जीवन तेरे लिये खड़ा है
लेकर नीरव स्नेह
प्रथम-किरण तू ही अनंत की
तू ही अंतिम रश्मि सुकोमल
मेरे मन! तू दीपक-सा जल
‘लौ’ के कंपन से बनता
क्षण में पृथ्वी-आकाश
काल-चिता पर खिल उठता जब
तेरा ऊर्म्मिल हास
सृजन-पुलक की मधुर रागिणी
तू ही गीत, तान, लय अविकल
मेरे मन! तू दीपक-सा जल
इस समाधि की राखों में
इस समाधि की राखों में,
उन्माद किसी का सोया है!
कितनी बार यहां आकर,
बेजार किसी ने रोया है!
तड़प चुका है थाम कलेजा,
इन चरणों में कितनी बार!
अरे, यहीं आकर अपना,
सर्वस्व किसी ने खोया है!
तू है रूप-किशोर और,
मैं तो तेरा मतवाला हूं;
इस समाधि-मंदिर का मैं ही,
अलख जगानेवाला हूं!
आए ऋतुपति पर न खिलीं ये
मंजुल-कलियां वनमाली!
क्या इस बार न पान करेंगे
अलि मधुमाधव की प्याली!
कूक रहीं आतुर-आशाएं,
पिकी-सरीखी डालों पर;
कौन लुटावेगा जीवन-निधि,
प्यार-भरी इन चालों पर?
उस अतीत की सुख-समाधि पर,
हृदय-रक्त के छींटे फेंक!
यह ऋतुपति क्यों आज कर रहा,
पतझड़ का उदास-अभिषेक!
जीवन का सर्वस्व
इस अगाध में तिनके को भी
मिलता नहीं सहारा!
उधर खड़ा है हंसी उड़ाता
वह पगलों का प्यारा!
जीवन का सर्वस्व बहा जाता है
इन लहरों में!
प्रलय तड़पता आह! कलेजा
पकड़े करुण स्वरों में!
यह प्रहार झंझा-समीर का!
चूर-चूर हो जाऊंगा!
अंतिम-घड़ियां नाच रहीं
प्यारे! किस तट पर पाऊंगा?
बीते दिवसों की कहानियां
कितनी मर्म-मधुर हैं आह!
कितनी है विषाद उनमें करुणा का
कितना प्रखर-प्रवाह!!
आंखों से गिर अश्रु-कणों का
उन चरणों से लिपटाना!
अरुण-उषा के ओस-कुसुम-सा
उनका फिर मुरझा जाना!!
तीक्ष्ण-तीर-सी स्मृतियां आ
अंतर-तल में छिप जाती हैं!
अरे, छेड़ मत, रहने दे
ये बड़ा दुःख पहुंचाती हैं!
आज भूलने दो अतीत को
सर्वनाश! देखा था उस दिन
जीवन के तम में साकार,
अलसाया-सा पड़ा हुआ था
वह तेरा विराट शृंगार!
तारों के धुंधले-प्रकाश में
होता था तेरा सपना,
अपनापन के अंधकार में
खोज रहा था मैं ‘अपना’।
उसी समय सुन पाया तेरा
नीरव मर्मांतक आह्वान!
अकरुण! तेरे अग्नि-अधर पर
नाच उठा मैं बन कर गान!
तार न खींचो, हाय! हृदय में
नाच उठेगी व्यथा अरे!
पल में प्रलय मचेगा मेरे
अंतस्तल में हरे हरे!!
आज भूलने दो अतीत के
उन छायामय सपनों को;
रुको संजो लूं इन दानों को,
पड़े हुए हैं जो बिखरे!
संध्या की मलीन-छाया
होती है-उसे विदा कर दो!
मेरी वीणा में-अपने
प्राणों का मृदुल-गीत भर दो!
ज्वाला में जल जाना ही
धूमिल-प्रभा-पटी पर अंकित
तेरी स्मृति की रेखा!
मधु-प्रमाद में भौंरों के
तेरा पागलपन देखा!
गली-गली फिरता हूं लेकर
मादकता का सौदा!
इंगित पर बिक जाने का
लिख तो दे ज़रा मसौदा!
मेरे उर की कसक हाय!
तेरे गीतों का स्वर हो!
ज्वाला में जल जाना ही
मेरे जीवन का वर हो!
अपने कोमल-अंधकार के
सघन-आवरण में तत्काल;
करुण! छिपा लेना तुम मेरी
दारुण-पीड़ाओं की ज्वाल!
आह! देखना, उसे न चंचल
कर दे क्रूर-विश्व का भार!
कहीं न उमड़ पड़े मेरे इस
प्रलय-भरे जीवन का ज्वार!
अंधकार रहने देना
मत जाल किरण का फैलाना;
मेरी सजल-वेदनाओं को
मत अनंत से बिछुड़ाना!
कवि बैठा है हो लाचार
आज अचानक मचल पड़ा यह
स्मृतियों का सुंदर संसार!
बिखर गईं प्राणों के मोहक
गीतों की कड़ियां सुकुमार!
गया वसन्त, फूल रोते हैं,
सौरभ-आंसू बरसा कर!
आज उठा है कोयल के
अंतरतम में प्रलयंकर-ज्वार!
फटा कलेजा है ऊषा का
बहती है शोणित की धार!
रक्त-रंग में रंगा गगन है
कवि बैठा है हो लाचार!
आठ-आठ आंसू इन रोई
आंखों को रोने दे!
मेरे उर के पतझड़ को
मत ऋतु-वसंत होने दे!
अरे, छेड़ मत गीत
रिक्त-जीवन के सूनेपन में-
अनल-सेज पर प्राण मौन हो
खोये हैं-सोने दे!
अंतर्जग की गलियों में
उड़ने दे गीली-धूल!
अभी खिला मत जीवन की
आशा-लतिका में फूल!
आंसू इसकी भाषा है
जल-निधि तरल न है यह जिसकी
कभी थाह तुम पा सकते!
सोना भी तो नहीं, आग में
जिसको आह! तपा सकते!
मधुर-विपंची न यह, बजाकर
जिसे, गीत तुम गा सकते!
फूल नहीं है जिसे गूंथ कर
मंजुल-हार बना सकते।
यह दुखिया का भग्न-हृदय है
आंसू इसकी भाषा है!
जिसे घृणा से ठुकराते हो
वह इस की अभिलाषा है!
छोड़ न, इन धूलों में मेरा
भग्न-भाग्य सोता है!
जिसकी सूनी-सी समाधि पर
बैठ हृदय रोता है!
उठती है सिसकियां और फिर
रजनी के अंचल में-
आंसू की गीली-रेखा-सी
खो जाती हैं पल में!
मेरे लिये ललाम उषा है
घोर अमा की रात!
खोजूं कहां अभागा मैं
अपना सौभाग्य-प्रभात
मांगी तुझसे शांति
मांगी तुझसे शांति वेदनाओं को
ज़रा छिपाने को!
कुचले हुये हृदय की शोणित-
शोषक जलन मिटाने को!
वारा था सर्वस्व हाय! क्या
ठोकर मार हटाने को?
कौन कहेगा जीवन की बाजी
इस भांति लगाने को?
अरे, प्रलय के मद में तुम
दीवाने-से मत झूमो तो!
अरुणा करुणा उच्छ्वास-विकंपित
इन अधरों को चूमो तो!
क्या जाने, टूटे कितने
सपनों के सुंदर तार!
क्या जाने, छूटे कितने
सोने के सुख-संसार!
क्या जाने, लय हुए कहां-
कितने नीरव-उद्गार!
कुसुम-कलेजे निर्दयता से
कुचले गए अनेक!
अरे एक! है धन्य
न मिलने की तेरी यह टेक!!
सूखी डालों का इतिहास
लिख दो, मेरे हृदय-पटल पर
सूखी डालों का इतिहास!
पतझड़! मेरे प्यारे पतझड़!
लिख दो जीवन-गल्प उदास!
पृथ्वी के कण-कण पर लिख दो
शुष्क-पल्लवों के आख्यान!
ऋतु-कवि! लिखकर चित्रित कर दो
यौवन-युग का अंतिम गान!
लिख दो पलक-पुस्तकों में
पुष्पों का यह नाटक दुःखांत!
आज छोड़ दो विस्मृति की
लहरों में स्मृतियों को उद्भ्रांत!
आंसू-भरी दीन-आंखों के!
स्वर में प्राणाधार विदा!
अरे, हृदय के उच्छ्वासों से
उलझे हुए दुलार विदा!
रुद्ध और अवरुद्ध हुई
वाणी की मृदु झंकार विदा!
जीवन की प्रत्येक-घड़ी में
उठते हुए विचार विदा!
स्वप्नों की निधियां बिखेर कर
रातें करतीं आघातें।
विदा, विदा हां तू भी हो जा
अरी विदाई की बातें!
इस अशांत उर में
यह विषाद-मदिरा है कितनी
तीव्र! इसे जानेगा कौन?
इस अशांत उर में है कितनी
कसक!-इसे मानेगा कौन?
अमल-धवल इन मुक्ताओं का
कौन मूल्य बतलावेगा?
बिना भुक्तभोगी-जन के यह
ज्वाला पहचानेगा कौन?
पलक मारते स्वर्ग छुड़ाती
आह! ज़रा-सी नाराज़ी!
कौन कहेगा -एक दृष्टि पर
लगती जीवन की बाजी?
इन फीकी-रेखाओं में क्या है
जो आंक रहे हो!
मेरी ओर विषमता से क्यों
निर्दय! झांक रहे हो!
कुचल दिया इन अरमानों को
क्रूर बने तुम कैसे!
करुणा से अपनी निर्ममता
अब क्यों ढांक रहे हो!
मिट न सकेगी अंतर की यह
दारुण-दग्ध निशानी!
आह! व्यर्थ क्यों छिड़क रहे हो
माया-जल अभिमानी!!
ऐ अतीत की घड़ियां
अधर न आओ, तड़प रहा हूं
ऐ अतीत की घड़ियां!
इधर न आओ, छिन्न पड़ी हैं,
प्राणों की पंखड़ियां!
मलिन-विषाद-तन-में पीड़ित
जीवन को खोने दो!
इधर न आओ, रोता हूं
रोको न आज, रोने दो!
तीखी निरष्क्रिया मिलती है
दुखिया बेचारे को!
इधर न आओ, खोज रहा हूं
आंसू में प्यारे को!
थिरकूंगा मैं आज तुम्हारे
तिरस्कार के तालों पर!
भर देना, वारूंगा जीवन
विष के तीखे प्यालों पर!
छोडूंगा ठुकराये जाने की भी
चाह इशारा पा!
पर दो अश्रु गिराने देना
वनमाली! वनमालों पर!
सुख पाओ, मेरे जीवन के
दीपक का करके अवसान!
देव! तुम्हारा मधुर व्यंग्य
मुझ पर होवेगा मधुवरदान!
तेरा-मेरा परिचय है
लोटूंगा उस निर्जन-पथ की
धूलों में-सुख पाऊंगा;
दीपक ले-पद-चिन्हों को
खोजूंगा-अलख जगाऊंगा!
मेरे जीवन के रहस्य-मंदिर!
वे धुंधली-रेखाएं
आज उन्हें धो-धोकर लोचन-
जल से स्वच्छ बनाऊंगा।
तुम संध्या के पट में छिप
हंसना मेरे उन्मादों पर!
प्यारे! हृदय लुटा देना
पगले के मधुर प्रमादों पर!
हृदय थाम रखना, भय है
तू करुणा से न पिघल जाए!
इन पीड़ित प्राणों की ज्वाला में
न कहीं तू जल जाए!
तीखी है मदिरा मेरे जीवन के
घायल-भावों की!
भय है, कहीं न तू पीले
पीकर फिर आह! मचल जाए!
ना; मैं खोलूंगा न द्वार
आहों के बंदी-घर का!
तेरा-मेरा परिचय है
हे अतिथि! यहां पल-भर का!
प्रथम प्रेम का मधुर विहान
मादक है वसन्त का सौरभ
मादक फूलों की मुस्कान!
मादक है जीवन के नभ में
प्रथम-प्रेम का मधुर-विहान!
मादक है सावन की उठती हुई
उमंगों की क्रीड़ा
मादक है प्यारी के उस
अलसाये यौवन की ब्रीड़ा!
मादक सुरा-पात्र, मादक वह
सुहागिनी वनमाला है!
किंतु कौन जाने कितनी
मादक यह अंतर्ज्वाला है!
कितनी स्मृतियां बांधी थीं
मैंने संध्या की अलकों में!
अरे, चित्र खींचे थे कितने
नभ की नीलम-पलकों में!
इन उल्लास-भरी लहरों में
छोड़े थे कितने मृदु-गान!
तोड़-तोड़ फेंके थे पथ पर
कितने लोचन-पुष्प अजान!
रोता है निराश-जीवन निर्गंध
शुष्क पंखड़ियों में!
प्यारे! कौन रहस्य छिपा था
सुख की उन मृदु घड़ियों में!
ज्वालाओं में मुझे फेंक तू
ज्वालाओं में मुझे फेंक तू
जांच कर रहा कैसी!
हाय हरे! दारुण-नियन्त्रण
देखी कहीं न ऐसी!
कितनी तीव्र-आंच है इन
शोणित-शोषक-लपटों की!
जलकर भी न समझ पाई
माया तेरे कपटों की!
मांगा त्राण, कहा तू ने-
‘पापी, पाषाण मिलेगा।’
किन राखों में, कहां तलाशूं-
कब निर्वाण मिलेगा?
मेरे फूटे हुए भाग्य पर
मेघ-परी रोती है!
आंसू की शीतलता में
अंतर्ज्वाला सोती है!!
हृदय-चिता की लपटों में
उड़तीं विषाद की राखें-
आज उषा की छाया में
जीवन-संध्या होती है!!
पलक-पल्लवों से झरते हैं
ये चमकीले-दाने!
चुन लो धीरे-से आकर
तुम, हे मेरे दीवाने!
तेरी करुणा रोती
आह! कलेजे के कंपन में
तेरी करुणा रोती!
प्राणों की पीड़ा में छिप कर
तेरी छाया सोती!
प्यारे! तेरे उषः काल में
मेरी संध्या होती!
तेरे तट पर मेरी रजनी
मुक्ता-हार पिरोती!
तेरी आंखें लाल गिरातीं
मेरी आंखें मोती!
एक जीतती एक हारती-
अपनापन-धन खोती!
अयि वेदने! हृदय में भीषण
प्रलय मचाने वाली!
कूक पिकी-सी प्रिय उजड़े-
जीवन की डाली-डाली!!
देख न खाली हो जाए
तेरे सुहाग की प्याली!
अयि ज्वालाओं की रानी!
मिट जाय न तेरी लाली!
अमर रहे तेरा असीम यह
पूर्ण प्रेम सुकुमार!
भरती जा इस जीवन में
अपनी मदिरा की धार!
जीवन कितना सुंदर है
ना, इन फूलों पर न बनेगा
मन-मधुकर मतवाला!
अब न पियेगा स्वप्न-सुरभि-
मदिरा का मादक प्याला!!
कांटों में उलझा देना
जीवन कितना सुंदर है!
सुंदरतर है जीवन की
नैराश्य-आग की ज्वाला!!
आ सखि व्यर्थ! आज मैं तेरी
वंशी मधुर बजाऊं!
हरियाले उन्माद-कुंज का
वनमाली कहलाऊं!
तू आया है आज लूटने को
सर्वस्व हमारा!
छीन, क्षितिज में छिप जाने को
जीवन का सुख सारा!
कुचलेगा पंखड़ियां तू
सौरभ ले उड़ जाएगा!
होगा फिर क्या बेचारे
मधुकर का बोल, सहारा?
ठहर, ठहर, क्षण-मात्र ठहर तू
मत कर यों मनमानी!
हाय! कलेजा टुकड़े-टुकड़े
होगा रे अभिमानी!
एक क्षण तुम रुको
जिंदगी को लिए मैं खड़ा ओस में
एक क्षण तुम रुको, रोक दो कारवां
तुम समय हो, सदा भागते ही रहे
आज तक रूप देखा तुम्हारा नहीं
टाप पड़ती सुनाई सभी चौंकते
किंतु तुमने किसी को पुकारा नहीं
चाहता आज पाहुन बना दूं तुम्हें
कौन जाने कि कल फिर मिलोगे कहां
जिंदगी को लिए मैं जड़ा ओस में
एक क्षण तुम रुको, रोक दो कारवां
हो लुटेरे बड़े, स्नेह लूटा किए
स्नेह में स्नेह कण-भर मिलाया नहीं
आग जलती रही तुम रहे झूमते
दर्द का एक आंसू बहाया नहीं
आज तक जो अनर्पित जुगोकर रखा
अब समर्पित तुम्हें मिल गए जब यहां
जिंदगी को लिए मैं पड़ा ओस में
एक क्षण तुम रुको, रोक दो कारवां
प्यार लो यह अछूता रहा आज तक
गीत लो यह किसी ने न गाया इसे
यह प्रतीक्षा रही रात-दिन जागती
धड़कनों को सुलाना न आया इसे
सांस लो यह हठीली न संग छोड़ती
तुम जहां भी रहोगे, रहेगी वहां
जिंदगी को लिए मैं गड़ा ओस में
एक क्षण तुम रुको, रोक दो कारवां।
देवता की याचना
इतना विस्तृत आकाश-अकेला मैं हूं
तुम अपने सपनों का अधिवास मुझे दो
नीला-नीला विस्तार, हिलोरों में यो ही बहता हूं
सूनी-सूनी झंकार, न जाने क्यों उदास रहता हूं
यह अमृत चांद का तनिक न अच्छा लगता
प्रिय! तुम अपनी रसवंती प्यास मुझे दो
कण-कण में चारों ओर छलकती नृत्य-चपल मधुवेला
झूमे बेसुध सौंदर्य, लगा है मधुर रूप का मेला
ऐसी घड़ियों का व्यंग्य न सह पाता हूं
तुम अपने प्राणों का उच्छवास मुझे दो
वंदन के चंदन से शीतल छंदों की क्यारी-क्यारी
सब कुछ देती, देती न मुझे मैं चाहूं जो चिनगारी
रम जाऊं मैं जिसके अक्षर-अक्षर में
वह गीली-पलकों का इतिहास मुझे दो
यह देश तुम्हारे लिए बसाया मैंने सुघर-सलोना
कोमल पत्तों के बीच जहां आसों का चांदी-सोना
उतरुंगा सुख से मैं अंकुर-अंकुर में
तृण-तरु में मिलने का विश्वास मुझे दो
इतना विस्तृत आकाश-अकेला मैं हूं
तुम अपने सपनों का अधिवास मुझे दो।
तुम्हारी हंसी से धुली घाटियों में
तुम्हारी हंसी से धुली घाटियों में
तिमिर के प्रलय का नया अर्थ होगा
अनल-सा लहकते हुए तरु-शिखा पर
किरण चल रही या चरण हैं तुम्हारे
सुना है, बहुत बार अनुभव किया है
सुरों में तुम्हें रात भू पर उतारे
तुम्हारी हंसी से धुले हुए पर्वतों के
धड़कते हृदय का नया अर्थ होगा
तुम्हारा कहीं एक कण देख पाया
तभी से निरंतर पयोनिधि सुलगता
कहीं एक क्षण पा गया है तुम्हारा
तभी से प्रभंजन अनिर्बन्ध लगता
तुम्हारी हंसी से धुली क्यारियों में
छलकते प्रणय का नया अर्थ होगा
अहो, तुम वही गीत जनमा नहीं जो
जिसे चूम पृथ्वी लजीली बनी है
अहो, तुम वही स्वर अकल्पित रहा जो
जिसे सांस पाकर सजीली बनी है
तुम्हारी हंसी से धुले रश्मि-पथ पर
चमकते उदय का नया अर्थ होगा।
बहुत बार इस धार पर
तैर चुकी है तरणी मेरी बहुत बार इस धार पर
तोड़ चुका हूं बहुत बार
नाता इस निर्मम तीर से,
बजा चुका हूं बीन सांस की
छूकर मन की पीर से,
बांध चुका हूं छंद न जाने
कितने उस आकश में,
कुछ हर बार लुटाया मैंने
चंचल वीचि-विलास में,
साक्षी है वेदना कि मैंने कितने चित्र सजाए हैं
कितने चित्र बनाये मैंने जनम-जनम की हार पर
तैर चुकी है तरणी मेरी बहुत बार इस धार पर
मैं सजकर निकला करता था
तारों की बारात में,
हरसिंगार बन कहीं बिखर
जाने को स्वर्णिम प्रात में,
कई बार है मुझे मिली
सौरभ की ज्वाला फूल से,
कई बार मैंने सीखा
मिटना किरणों की धूल से।
विसर्जन
तुम जब मिलो, तुम्हारा सुख
मेरे मन का जलजात हो
मैं जब तिमलूं, प्रकृति पिघले
कोई अनहोनी बात हो
चांद अमृत-रस बरसाता है
जब दो प्रेमी मिलते
अधर-अधर के पास पहंुचते
देख सितारे खिलते
वक्ष वक्ष से सटता है
धरती का हृदय उछलता
उच्छ्वासों को लिये गगन का
विरही शून्य मचलता
चितवन में चितवन बल खाती
ज्यों दीपक की बाती
सांस-सांस से लिपट-लिपटकर
इतराती-इठलाती
मेरी काया को छू-छूकर
सृष्टि सृष्टि में सिमटे
बिजली की पायल में झन-झन
झंकृत झंझावात हो
कई बार आकाश उतरकर
धरती पर आया है
कई बार ऊपर उठ दौड़ी
धरती की छाया है
कई बार चंचल लहरें ही
जीवन-पोत बनी हैं
कई बार बेकलियां ही
गीतों का स्रोत बनी हैं
कई बार ओसों की फुहियों ने
शृंगार रचाया
कई बार संध्या-उषा ने
वंदनवार सजाया
अवगुंठन-पट आयु उठाए
जब मेरी पलकों में
हर प्रकाश का पिंड
सजीले सपनों की बारात हो
तन्मयता के अंचल में पथ
अंकित महामिलन का
मधुर लग्न छवि-दर्शन का
छवि-दर्शन के दर्शन का
वाणी नीरव, नीरवता के
लोचन खुले हुए हों
आदि-अंत के छोर रूप् के
जल से धुले हुए हों
चिर-विराम के कल्प-तल्य पर
स्वप्न अशेष संजोए
कुछ खोए-से कुछ संचित-से
प्राण! रहो तुम सोए
नभ में दीप विसर्जन का
संज्ञा का वह अहिवात हो
मैं जब मिलूं, प्रकृति पिघले
कोई अनहोनी बात हो
राग चले साथ राग के
अलग-अलग वृक्ष खड़े
अश्रु-हास और रुदन-गीत गिन रहे
एक लहर फूल से उठी
एक लहर कूल से उठी
लहर चली साथ लहर के
त्वरित और ठहर-ठहर के
अलग-अलग वृक्ष खड़े
ग्रीष्म, शरद के काल गिन रहे
एक आग खेत से उठी
एक आग रेत से उठी
आग जले साथ आग के
राग चले साथ राग के
अलग-अलग वृक्ष खड़े
ह्रास-वृद्धि और बैर-प्रीत गिन रहे
एक ज्वार आर से उठी
एक ज्वार पार से उठी
ज्वार चले साथ ज्वार के
तार बजे साथ तार के
अलग-अलग वृक्ष खड़े
जन्म-मरण और हार-जीत गिर रहे।
तरलायित
नयनों में सपने जब आते
गगन छलक पड़ता है
नूपुर के रव से मुखरित कर
तारों की अमराईं
लहराने इठलाने लगती
रस से भरी जुन्हाई
कली-कली के अंग-अंग से
मदन छलक पड़ताहै
खुल जाती पंखुरियां जैसे
खुले कंचुकी-बंधन
सजल पुतलियों में खुल जाता
मन-मंथन का गोपन
सोई सुरभि सम्हाल न पाती
पवन छलक पड़ता है
सिहर-सिहर उठती तन्मयता
संज्ञा के अंचल में
संज्ञा सिहर-सिहर उठती
सांसों की मृदु हलचल में
भावों का भव भर-भर जाता
भुवन छलक पड़ता है।
जीवन न बने क्यों बंधहीन
हम रहें, न यह आवरण रहे
जीवन न बने क्यों बंधहीन
क्यों छंदहीन की शरण रहे
हम रहें, न यह आवरण रहे
हम खुल जाएं ज्यों गगन खुले
हम धुल जाएं ज्यों पवन धुले
सम्मुख यह अलंकरण रहे
हम रहें, न यह आवरण रहे
जो घाव हमारे, सभी दिखें
रश्मियां हमें सुस्पष्ट लिखें
हम जहां मिलें, न वहां कुंठा
या संबोधों में मरण रहे
हम रहें, न यह आवरण रहे
इतने अक्षर, कोई न व्यथा
शब्दों में केवल एक कथा
स्वर में उच्छ्वासित बांधित्ति
सुश्राव्य बोधि-पथ-चरण रहे
हम रहें, न यह आवरण रहे
निर्गुण के दृग आज सजल क्यों
निर्गुण के हिय की धड़कन में
लय बन गूंज रहा प्रतिपल क्यों
किसने सुधि का दीप जलाया
सुलग उठी निर्गुण की माया
निर्गुण की सूनी सांसों में
आज न जाने यह हलचल क्यों
निर्गुण के दृग आज सजल क्यों
निर्गुण के स्वर में क्यों अंबर
रोता है बिरही-सा झर-झर
निर्गुण के प्राणों की ‘लौ’ में
पिघल रहा है आज अनल क्यों
निर्गुण के दृग आज सजल क्यों
चिर से निर्गुण रहा अकेला
किसके आज मिलन की वेला
धरती को भर कर आंखों में
निर्गुण की कल्पना विकल क्यों
निर्गुण के दृग आज सजल क्यों
यह दीपक बुझ जाने वाला
यह दीपक बुझ जाने वाला
यह आलोक बिलाने वाला
तुम निहार दो, भर जाएगा, तुम में अमर प्रकाश
ज्योति आज के जग की झूठी
मन क्या कहे, मानसी रूठी
तुम निहार दो, खिल जाएगा हृदय-कमल सविलास
नभ विस्तार मांगने आता
सागर स्वयं दास बन जाता
तुम निहार दो, बन जाऊं मैं जीवन का विश्वास
प्रलय विवर्त तुम्हारे मन का
लय में संलय निहित सृजन का
तुम निहार दो, विश्व कमल में फूटे मेरा हास
तुम सागर हो, मैं ज्वार तुम्हें दूंगा
मेरे गीतों को सांझ चूमने आई
मैं देख रहा तरु-शिखरों की पियराई
बोलो, बोलो, इन आंखों से छलकोगे
तुम आतप हो, जलधार तुम्हें दूंगा
मझधार और दोनों तट हाथ हिलाते
वे नखत, अग्नि-जन, धुंधले दीप जलाते
नाविक बन जाओ, आओ, आओ, आओ
तुम प्लावन हो, पतवार तुम्हें दूंगा
राह में क्षण सृजन का कहीं है पड़ा
रात के खेत का स्वर सितारों-जड़ा
बीचियों में छलकती हुई झीलके
दीप सौ-सौ लिए चल रही है हवा
बांध ऊंचाइयां पंख में राजसी
स्वप्न में भी समुद्यत सजग है लवा
राह में क्षण सृजन का कहीं है पड़ा
व्योम लगता कि लिपिबद्ध तृणभूमि है
चांदनी से भरी दूब बजती जहां
व्योम लगता कि हस्ताक्षरित पल्लवी
पंखवाली परी ओस सजती जहां
ओढ़ हलका तिमिर शैली प्रहरी खड़ा
आज किसी की लय पुकारती
दीप एक आंखों में जलता
‘लौ’ में मेरा प्रियतम चलता
संज्ञा बनी स्नेह की बाती
सधि बेसुध हो छवि उतारती
आज किसी की लय पुकारती
मौन मुखर हो उठा हृदय का
कैसा प्रेम तनिक परिचय का
ध्वनि से निकल प्रतिध्वनि, ध्वनि को
हेर-हेर कर हाय हारती
आज किसी की लय पुकारती
जनम-जनम की साध न जाने
क्यों उर-सिंधु लगा लहराने
अपने ही बन गई प्रतीक्षा
अपने ही बन गई आरती
आज किसी की लय पुकारती
यह मेरी आंखों का सावन
उतर पहाड़ों से जब दिन की छाया टलने को हुई
पाल तानकर अकस्मात जब नौका चलने को हुई
मैंने पाया एक गीत अंतर में छिपे अगाध से
इसकी तुलना करे न कोई गंध-विहीन बयार से
एक विनय है, एक प्रार्थना आलोचक संसार से
यह मेरी आंखों का सावन, सावन का उच्छ्वास है
यह मेरे मन का सूनापन, अपने में आकाश है
राजकुमारी वर्षा भी इसको चूमे सुरचाप से
इसकी तुलना करे न कोई अंधड़ के चीत्कार से
एक विनय है, एक प्रार्थना पर-निंदक संसार से
ढुलका दूं क्यों इसे चांदनी की मदघूर्ण हिलोर में
बांधू क्यों मैं इसे वायुमंडल की रेशम-डोर से
मेरे देवार्पित प्राणों की यह है अनविध वंदना
इसकी तुलना करे न कोई तम के उपसंहार से
एक विनय है, एक प्रार्थना परिवंचक संसार से
थकी उंगलियां सही किंतु झंकारों को पहिचानती
कौन शोध, संबोध कौन दोनों का अंतर जानती
नीली-नीली झील सितारों की इसका परिवेश है
इसकी तुलना करे न कोई बालू के शृंगार से
एक विनय है, एक प्रार्थना अपवादक संसार से
चिंतन से अभिषिक्त, सिक्त किंजल्क-धुले विश्वास से
अनुरंजित जागरण-राग से रंजित शुभ्र प्रकाश से
सपनों की श्री से अर्चित चंदन-चर्चित मृदु मौन से
इसकी तुलना करे न कोई ठूंठ और पतझार से
एक विनय है, एक प्रार्थना अभिशापक संसार से
उतना सुख से भरा कि जितना हृदय वसंत-पराग का
उतना रस से भरा कि जितना परस कुंआरी आग का
भेद-भरा पर खुला हुआ जैसे निकुंज की नीलिमा
इसकी तुलना करे न कोई लुब्ध विलासी प्यार से
एक विनय है, एक प्रार्थना आक्रोशक संसार से
मूक पारदर्शक मेरे अक्षर-अक्षर के दीप का
दूरागत आह्वान गीतमय अंतर्गोध समीप का
शंख-नांद में भर-भर जाता सागर के अनुरोध पर
इसकी तुलना करे न कोई तरु के हाहाकार से
एक विनय है, एक प्रार्थना अभिसंघक संसार से
भुजंगों से घिरी हूं, मैं नियति हूं
तिमिर का रंध्र है मेरा बसेरा
तिमिर से पोछ वपु झलका रही हूं
भुजाओं में मुझे लो बांध, आओ
अदेखा रूप-रस छलका रही हूं
लुटाती हूं अतुल सौंदर्य शोभा
लुटाती हूं अतुल सौभाग्य, रति हूं
भुजंगों से घिरी हूं, मैं नियति हूं
तिमिर के फूल मैं जिस ठौर चुनती
वहीं प्रतिनिमिष पल संसार बनता
तिमिर में मैं जहां सांसें संजोती
वहीं आकृति, वहीं आकार बनता
नया सूरज उगा दूं रक्त-सींचा
पुकारो तुम कि मैं छंदानुगति हूं
मुरझाता हूं मुस्काने से
मन के भीतर मौन बोलता
स्वर की चिर ऊर्म्मिल-लहरों पर
युग-युग का चैतन्य डोलता
मन के भीतर मौन बोलता
अग्नि-पिंड-सा मैं जल उठता
नक्षत्रों का जग बन उठता
निर्मल छाया में चुपके मैं
जीवन की लघु-ग्रंथि खोलता
मन के भीतर मौन बोलता
मैं न बना हूं मिट जाने को
मुरझाता हूं, मुस्काने से
लघु हूं, अपनी सांसों पर
मैं विराट् को आज तोलता
मन के भीतर मौन बोलता
शब्द के अर्थ ने द्वार खोला नहीं
गीत लिखकर थका, गीत गाकर थका
शब्द के अर्थ ने द्वार खोला नहीं
छंद तारे बने, छंद नभ भी बना
छंद बनती हवाएं रही रातभर
छंद बनकर उमड़ती चली निर्झरी
रह गया देखता मुग्ध पर्वत-शिखर
तीर से वीचियों का मिलन एक क्षण
छंद वह भी बना, प्यार बोला नहीं
वृक्ष की पत्तियों पर शिखा रूप् की
मुस्कुराती रही, रात ढलती गई
पाटियां पारकर आयु की हर किरन
रक्त बहता रहा-राह चलती गई।
मनुष्य
सूना-सूना हृदय कि जिसका गान खो गया है
बुझा दीप या टूटा तारा,
मरु उदास या सूखी धारा,
वह तममय मंदिर, जिसका
भगवान खो गया है
अपना ही अवसान निराला,
सांस-सांस विध्वंसक ज्वाला,
डगमग-पग राही, जिसका
संधान खो गया है
सूना-सूना हृदय कि जिसका गान खो गया है
नींद की मछलियां खेलतीं धार पर
स्वप्न-शैवाल से कुछ निकलतीं उधर
कुछ मचलतीं वहां, कुछ बिछलतीं इधर
कुछ अतल को हिलोरें किरण-पुच्छ से
कुछ दीये-सी जलें शुक्ति-शृंगार पर
कुछ चपल-रश्मियों से उभरती चलें
दूधियां चांदनी में संवरती चलें
सुप्त संज्ञा जहां कौंधती कुछ वहां
कौंधतीं बिजलियां ज्यों हवा-तार पर
कुछ रहीं चुन समय के झड़े पंख जो
कुछ रहीं चुन सितारों-जड़ें पंख जो
बीच जल के गिरे जो अचल लड़खड़ा
कुछ उछालें उन्हें चक्षु-पतवार पर
नींद की मछलियां खेलतीं धार पर
ज्योति को दुख ने किया पावन
ज्योति को दुख ने किया पावन
सूर्य कण-कण रक्त से सींचा
समय का रथ रथी-सा खींचा
प्लव बना पथ, पथ बना प्लावन
एक उद्बोधन, खुले तारे
एक आश्वासन, बिना हारे
चल पड़ा है, चल रहा जीवन
हिमालय
अरे हिमालय! आज गरज तू
बनकर विद्रोही विकराल!
लाल लहू के ललित तिलक से
शोभित करके अपना भाल।
विश्व-विशाल-वीर दिग्विजयी!
अभिमानी अखंड गिरिराज!
साज, साज हां आज गरजकर
क्रांति-महोत्सव के शुभ-साज
शंखनाद कर, सिंह-नाद कर
कर हुंकार-नाद भयमान!
पड़े कब्र के भीतर मुर्दे
दौड़ पड़ें सुनकर आह्वान।
एक गीत हर दग्ध हृदय में
चिह्न रक्त के मिले जहां भी
मारुत धोता रहा रात-भर
मानव-मन के अंतरतम में
समर छिड़ा जो, नया नहीं है
हिंस्र वन्य पशु-सा आ बैठा
अंधकार जो, गया नहीं है
तारों को नीचे उतार कर
सागर रोता रहा रात-भर
मृत-सा पड़े पंक्ति में पर्वत
मृत-सा खड़े वृवक्ष, पथ निर्जन
मृत-सा फूल खिले डालों पर
यह भी एक अनोखा सिरजन
एक गीत हर दग्ध हृदय में
सपने बोता रहा रात-भर।
आश्वस्त
मैं तो सांसों का पंथी हूं
साथ आयु के चलता
मेरे साथ सभी चलते हैं
बादल भी, तूफान भी
कलियां देखीं बहुत, फूल भी
लतिकाएं भी तरु भी
उपवन भी, वन भी, कानन भी
घनी घाटियां, मरु भी
टीले भी, गिरि-शृंग-तुंग भी
नदियां भी, निर्झर भी
कल्लोलिनियां, कुल्याएं भी
देखे सरि-सागर भी
इनके भीतर इनकी-सी ही
प्रतिमाएं मुस्कातीं
हर प्रतिमा की धड़कन में
अनगिनत कलाएं गातीं
अनदेखी इन आत्माआंे से
परिचय जनम-जनम का
मेरे साथ सभी चलते हैं
जाने भी, अनजान भी
सूर्योदय के भीतर मेरे
मन का सूर्योदय है
किरणों की लय के भीतर
मेरा आश्वस्त हृदय है
मैं न सोचता कभी कौन
आराध्य, किसे आराधूं
किसे छोड़ दूं और किसे
अपने जीवन में बांधूं
दृग की खिड़की खुली हुई
प्रिय मेरा झांकेगा ही
मानस-पट तैयार, चित्र
अपना वह आंकेगा ही
अपनो को मैं देख रहा हूं
अपने लघु दर्पण में
मेरे साथ सभी चलते हैं
प्रतिबिंबन, प्रतिमान भी
दूर्वा की छाती पर जितने
चरण-चिह्न अंकित हैं
उतने ही आंसू मेरे
सादर उसको अर्पित हैं
जितनी बार गगन को छूते
उन्नत शिखर अचल के
उतनी बार हृदय मेरा
वंदन के जल-सा छलके
जब-जब जलधि सामने आता
बिंदु-रूप में अपने
तब-तब मेरी संज्ञा लुटती
लुटते मेरे सपने
आकृतियां, रेखाएं कितनी
इन आंखों में पलतीं
मेरे साथ सभी चलते हैं
लघु भी और महान भी
पथ में एकाकीपन मिलता
वही गीत है हिय का
पथ में सूनापन मिलता है
वही पत्र है प्रिय का
दोनों को पढ़ताहूं मैं
दोनों को हृदय लगाता
दोनों का सौरभ-कण लेकर
फिर आगे बढ़ जाता
हर तृण में, हर पत्ते में
सुनता हूं कोई आहट
लगता है हर बार कि मेरी ही
आ रही बुलाहट
अकुलाहट चाहे जैसी हो
सीमा पर तारों की
मेरे साथ सभी चलते हैं
स्वर भी, स्वर-संधान भी
किसका लूं मैं नाम और
किसकी कविताएं गाऊं
किसका मैं सौंदर्य बखानूं
किसका पता बताऊं
शब्द-कोष जब-जब मैं देखूं
स्वयं शब्द बन जाऊं
जब-जब अक्षर पहचानूं
तब-तब संज्ञा बिसराऊं
हर रेखा में चित्र विलोकूं
चित्राधार बनाऊं
यह चित्रों का समारोह
दृग खोलूं पलक गिराऊं
मेरा रक्त, त्वचा यह मेरी
और अस्थियां बोलें
मेरे साथ सभी चलते हैं
आदि और अवसान भी।
कैकेयी
मैं न सोचती बात स्वर्ग की
अलका की अथवा अंबर की
मैं न सोचती बात विहंसते
तारों के आलोकित घर की
मैं न सोचती बात अवध की
या विशाल इस राजमहल की
गली-गली जिससे गुंजित है
उस उमंग-जय-कोलाहल की
सोच रही हूं-भाग्यहीन-सा
ठुकराया-सा छला हुआ-सा
भूमि-भाग वह कहीं खड़ा है
नियति-वह्नि में जला हुआ-सा
जहां मिलती वरदान-रूप् में
असह यातना, दुस्सह पीड़ा
जहां दुखी मानव का जीवन
बना अमानव की लघु क्रीड़ा
जहां वेदना करुण दृगों से
बन आंसू की धारा बहती
जहां बंदिनी-सी नित धरती
रक्त-घूंट पी-पी कर रहती
जहां विषमता भ्रमित ज्ञान की
फहराती है विजय-पताका
मनुज-रक्त से लिखा जा रहा
महाकरुण इतिहास जहां का
जहां अहिंसा सांस तोड़ती
हिंसा जहां फूलती-फलती
दानव अट्टहास करता है
जहां चिता मानव की जलती
जहां प्रार्थना की छाती में
छुरी दंभ की भोंकी जाती
क्रूर दमन की भट्ठी में नित
जहां शांति है झोंकी जाती
राजमहल में नक्षत्रों से
यदि मैं दीपावली मनाऊं
साज सजा कर आज अवध को
यदि मैं अलकापुरी बनाऊं
यदि विमुग्ध शृंगारमयी-सी
रूप-गर्विता-सी मुस्काऊं
वैभव के छवि-मद में डूबी
यदि स्वभाग्य पर मैं इठलाऊं
राजन्! तो मानवता के प्रति
क्या अन्याय महान न होगा
जीवन जिसका है प्रतीक, क्या
यह उसका अपमान न होगा
क्या समाज के भग्न हृदय पर
यह भीषण आघात न होगा
विकल विश्व की आशाओं पर
क्या यह उल्कापात न होगा
मेरे मन का एक स्वप्न है
उसे आप क्या पूर्ण करेंगे
इस भिखारिणी की झोली को
आशा करूं कि आप भरेंगे
राजतिलक रुक जाय राम का
हो आदेश अयोध्या छोड़े।
राजतिलक की बेला में वे
सिंहासन का बंधन तोड़ें
दशरथ की आंखों के सम्मुख
अकस्मात् छा गया अंधेरा
एक साथ ही चिंता ने, दुख ने
विमर्ष ने आ कर घेरा
ऐसा लगा कि पग के नीचे
धरती डगमग डोल रही है
चारों ओर नियति की छाया
पिशाचिनी-सी बोल रही है
चलने लगीं वेग से सांसें
लगी लड़खड़ाने-सी वाणी
संशय उठा हृदय में, सम्मुख
माता खड़ी या कि पाषाणी
खड़ी सामने जो यह ममता
या है किसी शाप की ज्वाला
अमृत-पात्र उसके हाथों में
या विनाश के विष का प्याला
आंखों में वरदान उमड़ता
या कि झूमता काल भयंकर
अधरों पर मुस्कान खेलती
या रौरव का अनल प्रलयंकर
बोले-‘भद्रे! आज अचानक
तुमने प्रश्न उठाया कैसा
रूप तुम्हारी इच्छाओं का
मैंने कभी न देखा ऐसा
स्वप्न तुम्हारे राजहंस-सा
रहे आज तक चुगते मोती
वन-फलों का, नक्षत्रों का
तुम पहले थीं हार पिरोती
चाह बन गई आज तुम्हारी
अकस्मात् क्यों आंच प्रलय की
सूख गई क्यों निमिष-मात्र में
धार सुधा-सित पुत्र-प्रणय की
जिस पर सुख समस्त तुम अपना
कल तक करती रहीं निछावर
आज उसी के लिए बन गईं
बोलो, किस प्रकार तुम पत्थर
कैसे माता के स्नेह को
चूर-चूर तुमने कर डाला
हाय! दे रही हो तुम कैसे
आज पुत्र को देश-निकाला
तुम कहतीं तो पलक मारते
जीत स्वर्ग को मैं ले आता
तुम कहतीं तो अखिल विश्व का
वैभव तुम पर प्रिये! लुटाता
तुम कहतीं तो रत्न सिंधु से
छीन तुम्हारे आगे धरता
प्रेयसि! सुख के लिए तुम्हारे
असंतुष्ट मैं विधि को करता
किंतु छोड़ कर सब कुछ तुमने
किस मुंह से यह बात निकाली
मांग रही हो भिखारिणी के
नाते कैसी भीख निराली
भीख मांग लो तन-मन-धन की
भीख मांग लो इन प्राणों की
किंतु राम की भीख न मांगो
उपमा बनो न पाषाणों की’’
‘‘मैं न राम को मांग रही हूं
मांग रही है जिसकी वाणी
वह है युग की सजग चेतना
महाशक्ति युग की कल्याणी
वह है युग की प्रबल प्रेरणा
युग के अरुणोदय की लाली
वह है युग की क्रांति-तपस्या
आग न जिसकी मिटनेवाली
युग आंखों का अश्रु नहीं है
महाज्वार वह है सागर का
वह ममत्व है नहीं हृदय का
है प्रणाद वह वह्नि-शिखर का
वह गति नहीं थकित चरणों की
प्रगति तूर्ण वह प्रलय-पवन की
वह सुरचाप नहीं सपनों का
प्रखर ज्योति वह ग्रीष्म-गगन की
वह मुस्कान नहीं उषा की
वह न चांदनी का आकर्षण
गौरव का निंडाभ्र प्रबल वह
मूर्तिमान भीष्मोग्र प्रवर्तन
‘‘युग ताके तो अंबर कांपे
पत्र-सरीखी पृथ्वी डोले
युग बोले तो प्रतिध्वनित हो
पंचतत्व की वाणी बोले
युग ताके तो भानु भीत हो
लहरें महासिंधु की जागें
ध्वंस, नाश, संहार त्रस्त हों
भय से अशुभ शक्तियां भागें
युग संकेत करे तो दौड़े
पूर्ण-तूर्ण गति मेघ-महीधर
प्रलय-नृत्य आरंभ करें दु्रत
महाप्रलय के प्रभु शिवशंकर
मैं युग की संदेश-वाहिनी
मैं युग के चरणों की रेखा
मेरे इन आकुल नयनों में
क्या न आपने युग को देखा।’’
‘‘क्या न मांग है यह भी युग की
राम रहें साकेतपुरी में
जिस प्रकार रहते तारापति
नक्षत्रों की उस नगरी में
राजमुकुट की तरल दीप्ति में
मूक स्वरों में सिंहासन के
क्या न मांग गुंजित है युग की
मुखर कंठ में राजभवन के’’
‘‘राजमुकुट की तरल दीप्ति में
मुखर कंठ में राजभवन के
युग बसता है नहीं अंक में
स्वर्ण-विमंडित सिंहासन के
पर्ण-कुटीरांे में युग बसता
जहां अश्रु के दीपक जलते
अंगारों पर जहां प्रज्ज्वलित
देव-दूत वन मानव चलते
दानव जहां रक्त का प्यासा
मनुज-प्रेम की चिता जलाता
शीश भेंट देने को अपना
मानव जहां खड़ा मुस्काता
गूंज रही है जहां धरित्री
गूंज रहा नभ हाहा-रव से
जहां बीच लपटों के मानव
लोहा लेता है दानव से
युग बसता है वहां जहां की
छाया भी काली होती है
दानवता जय-पर्व मनाती
मानवता धुल-धुल रोती है
युग बसता है महाप्रलय के
पन्नग के-से फुफकारों में
मरुत्प्रहारों में विनाश के
महानाश के अंगारों में
युग बसता है बलि-प्रदीप में
बलि-प्रदीप की ज्वालाओं में
युग बसता है बलिदानों में
विभा-बलित बलिशालाओं में
सुन युग का आह्वान भेंट में
धर्मवीर हैं मस्तक देते
सुन पुकार युग की, आंधी में
कर्मवीर हैं नौका खेते
युग की आज्ञा हुई, चले
बल-वीर मृत्यु को गले लगाने
शूली पर चढ़ने, भालों की,
तलवारों की प्यास बुझाने
युग ने फूंका शंख ज्वार-सा
उठा अचानक हृदय-हृदय में
चमक इरम्मद की ज्वाला
फेली समस्त जीवन की लय में
युग का मिला निमंत्रण पौरुष
लगा तैरने शोणित-जल में
युग ने इंगित किया, बन गई
धुरी बांह रानी की पल में
जब-जब युग की जिह्वा डोली
राजमुकुट पौरुष ने छोड़ा
राष्ट्रदेवता को प्रणाम कर
सिंहासन का बंधन तोड़ा
जब-जब युग की जिह्वा डोली
पौरुष बना आग वसुधा की
काल-सिंधु का गरल पी लिया
अग-जग को दी भेंट सुधा की’’
‘‘मुझे गर्व है प्रिये! कि तुमने
सुन ली मानवता की वाणी
मुझे गर्व है, तुम रानी हो
और साथ ही हो क्षत्राणी
केवल रमा नहीं हो प्रेयसि!
और न तुम केवल कल्याणी
मुझे गर्व है, प्रिये! कि तुम हो
महाशक्ति-रूपा रुद्राणी
बहुत बार है स्वर्ग लुटाया
सुमुखि! तुम्हारी चल चितवन पर
भृकुटि-भंग पर आज तुम्हारे
कहो, कहो, क्या करूं निछावर।
क्रान्ति
अयी विप्लव-बालिके सरल!
ढाल यौवन – प्याले में गरल
उमड़ पड़ जीवन – पथ पर तू,
विलम मत सुन्दरि! क्षण-भर तू;
मचल झुक-झुककर हँस-हँसकर
अमर उत्साह हृदय भर!
करालिनि! अयी रक्त-वदने!
कालिके! कपट-कलुष-कदने!
क्रोध की ज्वाला फैलाकर
झूमकर पगली! गा-गा कर
सोख ले शीघ्र द्वेष-सागर
अमर-उत्साह हृदय में भर!
सत्य का झंडा फहरादे
उमंगें उर में लहरादे
विजय का दिव्य-मंत्र पढ़कर
खींच ला सूर्यासन सत्वर
सुकवि का राजतिलक देकर
अमर उत्साह हृदय में भर!
28.3.28
शंख-निनाद
सुनो, हुआ वह शंख-निनाद!
नभ के गहन-दुरूह-दुर्ग का
द्वार खुला कर भैरव-घोष!
उठ मसान की भीषण-ज्वाला
बढ़ी शून्य की ओर सरोष!
अतल-सिन्धु हो गया उत्थलित
काँप उठा विक्षुब्ध-दिगंत!
अट्टहास कर लगा नाचने
रक्त-चरण से ध्वंसक-अंत!
कवि का है यह शंख-निनाद!
यह स्वतंत्रता का सेवक है
क्रान्ति-मूर्ति है यह साकार;
विश्व-देव का दिव्य-दूत है
सर्वनाश का लघु-अवतार!
प्रलय-अग्नि की चिनगारी है
सावधान! जग आँखें खोल;
देख रूप इसका तेजोमय
सुन इसके संदेश अमोल!
भाग रे कपट, भाग विद्रोह!
भाग दुनिया के मिथ्या-मोह!
अग्नि-कुंड में कूद मंत्र पढ़
आती विजय दिखा आह्लाद
द्वार स्वर्ग के खुले हुये हैं
सुनो, हुआ यह शंख-निनाद!
25.3.28
उन्माद
उमड़ पड़ शीघ्र प्रबल-उन्माद!
सिन्धु के वक्षस्थल को चीर
हिला अवनी-तल-हृदय-अधीर
कुचल पैरों से द्वेष-विषाद
उमड़ पड़ शीघ्र प्रबल-उन्माद!
बहादे जहर-भरा तूफ़ान!
विश्व-तरु के प्रसून-कोमल
तोड़, दे पाट नग्न-भू-तल!
सूर्य-सा चमका क्रान्ति-कृपाण
बहादे ज़हर भरा तूफ़ान!
बनादे नन्दन-विपिन मसान!
बंद कर दे कोयल के गीत
छेड़ निज भैरव-राग अजीत!
न वैभव हो, न रहे अभिमान
बनादे नन्दन-विपिन मसान!
सुकवि की बज्र-कलम को चूम!
गगन में फैला दे तत्काल
प्रलय के विप्लव-बादल-जाल;
मस्त हो यौवन-मद में झूम
सुकवि की बज्र-कलम को चूम!
28.3.28
उमंग
सागर-सा उमड़ पड़ूँ मैं।
लहरें असंख्य फैलाकर;
विचरूँ झंझा के रथ पर
मैं ध्वंसक रूप बना कर!
शिव-सा तांडव दिखलाऊँ
मैं करूँ प्रलय-सा गर्जन;
बिजली बनकर तड़कूँ मैं
काँपे नभ अवनी निर्जन!
बरसाऊँ सूर्य-सरीखा
विकराल अनवरत ज्वाला;
मैं ज़हर उगल दूँ जग में
यौवन का पीकर प्याला!
मैं बनकर तीर बधिक की
छेदूँ अन्याय-हृदय को;
कर शंख-निनाद बुलाऊँ
भीषण-रक्ताक्त-विजय को!
मैं मातृ-मूर्ति-मन्दिर में
प्राणों का दीप जलाऊँ;
शोणित-समुद्र में तैरूँ
प्रलयंकर रूद्र कहाऊँ!
आ जा हे अंतक स्वामी!
हे इष्टदेव! अब आ जा;
मेरी यौवन-लहरों में
बस, यही उमंग उठा जा!
23.3.28
बिजली
अट्टहास कर, पापी का मैं-
हृदय हिलानेवाली हूँ;
गगन-गोद में नृत्य-मग्न मैं
करालिनी हूँ काली हूँ!
पिशाचिनी हूँ शोणित प्यासी
क्रोध-मूर्ति, मैं हूँ न सरल;
मृत्यु-सरीखी लिये घूमती
प्रलय-पात्र में नाश-गरल!
मेघों के विप्लव-दल की मैं
हूँ नवीन-नायिका उदण्ड;
चिनगारी हूँ सर्वनाश की
कुटिल चक्र चालिनी प्रचण्ड!
हो सवार द्रुत बादल-रथपर
खोज रही हूँ मैं निर्भय-
कंसराज का पता; हुआ है
आज दुष्ट का पापोदय!
बनकर आग बरस जाऊँगी
शक्तिशालिनी मैं तत्काल
चिह्न न शेष रहेगा कोई
अन्यायी का क्षुद्र विशाल!
21.6.28
वीर-विद्रोही
बिजली बन चमकूँगा चंचल चलाक मैं
भय-तम विदारूँगा वीरता-उजाला से!
लोचन भयंकर हूँ तीसरा त्रिलोचन का
लूँगा सोख द्वेष का समुद्र कोच-ज्वाला से!
गरल न पीऊँगा अमृत-घट फोड़ दूँगा
प्यास यह बुझाऊँगा गर्म खून-प्याला से!
नोच-नोच धूल में मिलाऊँगा प्रसून-हार
साजूँगा चंडिका-चरण मैं मुंड-माला से!
नाश का बवंडर फूँक दूँगा मैं चारों ओर
विष बरसाके आज काल-सर्प काला-से!
सावधान! ताकना न भूल के भी मेरी ओर
कुटिल-कठोर हूँ मैं कुलिश-कराला-से!
भेजा बेध दूँगा द्रुत निर्भय चलाके नेजा
छेद के कलेजा खींच लूँगा आँत भाला से!
मैं हूँ विद्रोही कौन रोक भला सकता मुझे
झपटूँगा जब मैं गरज मेघमाला-से!
2.12.28
उल्लास
खीचूँगा ललाट पर तेरे
मैया! रक्त-तिलक मैं आज!
मैं उच्छृंखल नष्ट करूँगा
तेरी अटल-शांति के साज!
विध्वंसक त्रिशूल ले तेरा
नृत्य करूँगा मैं विकराल!
छोडूँगा फुफकार भयंकर
बनकर विराट विष-भरा व्याल!
दूँगा मसल वासुकी का फन
चुटकी से मैं महाप्रचंड!
कहलाऊँगा विश्व-विधात्री का
विद्रोही-पुत्र उदंड!
आँखों में भर क्रोध भयंकर
अग्नि-शिखा-मिस ज्वालामय!
टहलूँगा संसार-समर में
रूद्र-सरीखा मैं निर्भय!
कर डमरू का नाद रचूँगा
पल में घोर प्रलय का कांड!
लील सूर्य-शशि-तारा-दल को
तोड़-फोड़ दूँगा ब्रह्मांड!
7.1.29
माँ प्रलयंकरि
उज्ज्वल-वल्कल-वसन फेंक कर
धारण कर ले रक्ताम्बर!
आज प्रकट कर माँ! अपनी
लोहित असि का झंकार प्रखर!
विष-मदिरा पी ओ प्रलयंकरि
कर प्रमत्त तांडव-नर्तन!
रूद्रे! देख रूद्रता तेरी
कर ले बन्द त्रिलोक नयन!
मैं नाचूँ पागल-सा हँसकर
देख वेश तेरा नूतन!
बज्र-कलम से लिखूँ, अग्नि की
भाषा में कविता भीषण!
शंकर के वक्षस्थल पर कर
रक्त-चरण से देवि! प्रहार!
आज हिलादे ब्रह्मासन को
और मचादे हाहाकार!
धधका दे द्रुत फूँक जगत में
आग जहन्नुम की विकराल!
भीमे! आज मुझे तू दे दे
अपने हाथों की करवाल!
8.1.29
अग्नि-कवि
करूँगा उथल-पुथल क्षण में!
सिंह-समान दहाडू़ँगा नवयुग के इस समरांगण में!
प्रलयंकर मैं हूँ विराट कवि
आग उगलता हुआ क्रान्ति-रवि;
दिव्य-शक्ति है मेरे शब्दों के अचूक-आकर्षण में
करूँगा उथल-पुथल क्षण में!
मैं न हूँ सरस-सलोना फूल!
मधुसूदन का चक्र-सुदर्शन मैं शिव का हूँ तीक्ष्ण-त्रिशूल
चिता-अग्नि की एक लहर हूँ
प्रलय-मेघ की घोर-घहर हूँ;
सर्वनाश हूँ मूर्तिमान मैं, विष हूँ, नहीं सुधा सुख-मूल
मैं न हूँ सरस-सलोना फूल!
फूँक भीषण रण-तूर्य महान!
घूमूँगा मैं कोने-कोने बना बवंडर प्रबल महान!
यौवन की ज्वाला लहरा कर
विजय-बैजयंती फहराकर;
माँ के चरणों में प्रणाम कर आज चढ़ाऊँगा बलिदान!
फूँक भीषण रण-तूर्य महान!
भाग जाओ तारक-मंडल!
मचा हुआ है मरूक्षेत्र का महाभयंकर कोलाहल!
परिवर्तन का चक्र चल रहा
क्रोध तड़प कर स्वयं जल रहा;
आवें दौड़ लक्ष्मण झटपट आज थामने पृथ्वी-तल!
भाग जाओ तारक-मंडल
13.7.28
बल दे
दे द्वार खोल दारूणतर
मेरे अवरूद्ध हृदय का;
अंतर्जग गुंजित कर दे
पढ़ अक्षय-मंत्र विजय का!
यह अंधकार प्राणों का
यह घोर क्षुद्रता मन की;
ओ महाशक्ति माँ! हर ले
यह निर्बलता जीवन की!
चंडिके! क्रोध का अपने
भीषण-तूफान बहा दे!
संसार चकित रह जावे
तू ऐसा अस्त्र गहा दे!
जागृति की आज भयंकर
उमड़े उमंग नस-नस में!
तांडव विनाश दिखलावे
मज्जित हो करुणा-रस में!
तम को नीरव-छाया में
तेरी असि चमक रही है;
हिलती हें नभ की कड़ियाँ
थर्राती विपुल-मही है!
चिल्लाकर भाग रहा है
संदेह छिपाये मुख को;
इच्छाएँ आज बनी हैं
भैरवी भूल सब सुख को!
पागल हो झूमरहा है
यौवन कराल विष पीकर;
फटतीं नभ की दीवारें
कल्लोलित होता सागर!
उस ओर विजय हँसती है
पहरे माला तारों की;
झुक-झुक सौभाग्य चढ़ाता
मृदु-भेंट हृदय-हारों की!
रक्तताक्त-वासना रोती
लघु-मृत्यु-अंक में छिपकर;
काँपते स्वयं हैं भय से
देवादिदेव प्रलयंकर!
हाँ, द्वार खुला तू आई
फूटीं प्रकाश की कलियाँ;
काफूर हो गईं सारी
माया-जग की बेकलियाँ!
आ जये देवि! जगदम्बे
अम्बिके कराली-काली;
आ सिंहवाहिनी! आ तू
आ दुर्गे खप्परवाली!
त्योरियाँ बदल आँखों से
झर-झर-झर आग उगल दे;
फैलाकर अष्ट भुजायें
बल दे! बच्चों को बल दे!
25.3.28
अभिमन्यु
अये बलवीर अग्नि के लाल!
अये कौरव-कुल-काल-कराल!
अये शंकर के तृतिय-नयन!
अये अंबुधि के गुरु-गर्जन!
अये उद्धेलित बड़वानल!
अये प्राणांतक नाश-गरल!
अये प्रज्वलित-रक्त-रवि-बाल!
अये बलवीर अग्नि के लाल!
अये बादल के प्रलय-निनाद!
अये करि के प्रचंड-उन्माद!
अये नन्दन-वन के तूफ़ान!
अये यौवन के विप्लव-गान!
अये विध्वंस-चिता की ज्वाल!
अये बलवीर अग्नि के लाल!
क्रान्ति की चिनगारी अनमोल!
उत्थलित-सागर के कल्लोल!
सूर्य की सुधा, चंद्र की आग!
अये विष के अनुपम-अनुराग!
शुभ्र-शोभन-गर्वोन्नत-भाल!
अये बलवीर अग्नि के लाल!
प्रलय के अये अरुण-उल्लास!
समर्पण के खूनी-इतिहास!
वीरता के ज़हरीले-हास!
अये दुर्जय! दौर्दण्ड-विनाश!
अये दुर्दान्त-विकट-भूचाल!
अये बलवीर अग्नि के लाल!
उतर फिर भूपर राजकुमार!
कठिन यह चक्रव्यूह विदार!
सृतिष्ट का प्रलय, प्रलय की सृष्टि!
अनवरत विष-बाणों की वृष्टि!
अये अर्जुन के अनुपम-लाल!
अये कौरव-कुल-काल-कराल!
8.1.29
अग्नि-गान
धधक ओ री प्रलयंकर-आग!
धधक ओ अरी भयंकर आग!
धधक ज्वालाएँ फैलाकर
धधक झंझा से बल पाकर
धधक धू-धूकर धक-धक कर
धधक बढ़ती ही जा ऊपर
धधक कर बुला प्रचंड-निदाघ!
धधक ओ अरी भयंकर-आग!
धधक झुलसादे नीलांबर
धधक पिघलादे शिला-शिखर
धधक उमड़ादे अंबुधि घोर
फैलादे ज़हर अघोर
धधक कर मचा अनोखा फाग!
धधक ओ अरी भयंकर-आग!
धधक सैनिक के मन-वन में
धधक विद्रोही-जीवन में
धधक अंतर में प्राणों में
धधक कर उठा प्रलय का राग!
धधक ओ अरी भयंकर-आग!
धधक खूनी-आँखों में क्रुद्ध
धधक आशाओं में विक्षुब्ध
धधक रण-रक्तोल्लासों में
धधक श्वासों-प्रश्वासों में
धधक उसकादे यौवन-नाग!
धधक ओ अरी भयंकर-आग!
धधक खौलादे रुधिर-प्रवाह
धधक जानिगल दानवी-आह
धधक फड़कादे युग-भुज-दण्ड
धधक भड़कादे भाव उदण्ड
धधक ओ री प्रलयंकर आग!
धधक ओ अरी भयंकर-आग!
9.1.29
महाकाल
अरे निर्दय-रक्ताक्त-पिशाच!
कहाँ तेरे ज़हरीले-बाण?
कहाँ वह तेरा अग्नि-त्रिशूल?
कहाँ वे नारकीय यम-दंड?
तड़पती आज दीनता दीन!
धूल में लोट-लोट असहाय!
खून के बहते अश्रु-प्रवाह!
पाप का तांडव-नृत्य-कराल!
टहलता फिरता है अभिमान!
घुमाता अनाचार का चक्र!
कुचल पैरों से महाप्रचंड
अनाश्रित-दुर्बल-जीवन क्षुद्र!
क्रोध का अट्टहास यह देख!
निर्बलों पर यह अत्याचार!
हाय री! दानवता विकराल!
हाय पशुता! नृशंसता! हाय!
x x x x
आज तू कहाँ?
शांत क्यों बोल?
कहाँ तेरा अदम्य-उल्लास?
कहाँ सर्पिणी-शक्ति, फुफकार?
कहाँ वह प्रतिहिंसा की आग?
टूट पड़ता क्यों इनपर नहीं
दरिद्रों का क्यों करता नाश?
अरे जल्लाद! निठुर-बेपीर!
बोल, क्यों शिथिल हुआ तू आज?
x x x x
प्रलय के शांत-शून्य में घोर
कौन छिपकर चलती अनजान?
नियति?
री पिशाचिनी-विकराल!
दिखा मत अपना भीषण-रूप!
महत्त्वाकांक्षाओं के उच्च
रक्त-रंजित आसन पर बैठ
अहा! मुस्काता अत्याचार!
घृणा से आँख तरेर-तरेर
विजय है उसके चारों ओर
एरे महा-दुर्दान्त-काल
एरे प्रचंड! बस एकबार-
चमका अपनी खूनी-कटार!
शोणित-प्यासी जिह्वा निकाल!
भुज-दंड पटक, कर अट्टहास
छाती पर आज धरित्री के
कर अपना बज्र-चरण प्रहार!
तूफ़ान बहादे क्रोध फूँक
कैलास हिलादे रे उदंड!
नगपति को करदे चूर-चूर
उल्का-निपात कर बार-बार
दे उठा भयंकर बड़वानल
हत्यारे! कर दे विश्व भस्म!
जा लील सूर्य-शशि आसमान
खूखार! ज़हर के बादशाह!
उन्मत्त! तान तीक्ष्ण-त्रिशूल
आसुरी-शक्ति का हृदय छेद!
बीभत्स भयानक नरक-दूत
ले दौड़ निरंकुश! दाँत पीस!
धधका श्मशान की चिता-ज्वाल
कर सड़ी-लाश पर लघु विहार!
लोलुप की कुत्सित-खाल खींच
कर तूर्य-नाद!-कर तूर्य-नाद!
x x x x
काँप रे अहंकार! तू काँप!
द्वेष की दुनिया तू भी काँप!
घृणा मत कर, दीनों से, काँप!
काँप री नीच-वासना! काँप!
उठा है पीड़ित का निःश्वास
क्रान्ति का बनकर उग्र स्वरूप!
भस्म करने को आज त्रिलोक!
काँप रे विश्व-विजेता! काँप!
11.1.28
हिमालय
अरे हिमालय! आज गरज तू
बनकर विद्रोही विकराल!
लाल-लहू के ललित-तिलक से
शोभित कर ले अपना भाल!
विश्व-विशाल-वीर! दिग्विजयी!
अभिमानी अखंड गिरिराज!
साज, साज हाँ आज गरज कर
कान्ति-महोत्सव के शुभ-साज!
शंख-नाद कर, सिंह-नाद कर
कर हुंकार-नाद भयमान!
पड़े कब्र के भीतर मुर्दे
दौड़ पड़े सुनकर आह्वान!
विहँस उठा ले विजय-पताका
रक्त-ललित प्रचंड उज्ज्वल!
चरणों से उलीच दे सागर
अरे अजेय! अरे पागल!
गरज; काँप जावें जिसको सुन
पाप-वृत्ति के नीच-गुलाम!
मचल पड़े उच्छृंखल-जीवन
मचल पड़े यौवन उद्दाम!
भौंहें चढ़ा आसुरी-बल को
अरे निरंकुश! तू ललकार!
दुष्टों के लघु-वक्षस्थल में
बढ़कर आगे भोंक कटार!
फूट पड़ें शत ज्वालामुखियाँ
भीषण ज्वाला फैलाकर!
दौड़े झंझा हाथों में ले
स्वाधीनता-केतु सुंदर!
उठे प्रबल प्रत्येक हृदय में
विप्लव का विध्वंसक ज्वार!
रक्त-नदी में अट्टहासकर
तैरें प्रतिहिंसा, प्रतिकार!
गिरिवर! आज जगा तू अपना
सदियों का खोया उल्लास!
विश्व देख ले खोल दृगों को
अपने उपकरणों का नाश!
15.1.29
ललकार
यह मुक्त-केतु हाँ विजय-केतु चिर-उन्नत!
कर सकता कौन इसे साहस कर अवनत?
मैं लिये कृपाण खड़ा हूँ महाभयंकर!
आँखों से क्रोध उगलता हूँ प्रलयंकर!
छिपता है पापी-कायर-सा रवि भय से!
कँपता त्रिभुवन मेरे यौवन की जय से!
है चमकरहा मेरा केशरिया बाना!
दूँगा हाथों को तोड़ न आगे आना।
मेरे रहते हैं किसकी इतनी हिम्मत!
जो कर दे मेरे विजय-केतु को अवनत!
मैं चिता-भस्म फैलाऊँगा अंबर में!
फूँकूँगा ज्वालामुखियाँ तिल-तिल भर में!
फूलों को कुचल चलूँगा कंटक-पथ पर!
मैं प्रलय रचूँगा बैठ क्रान्ति के रथ पर!
मैं तोड़-फोड़ दूँगा प्रमोद-तरु कोमल!
मैं हूँ विध्वंसक चक्र-सुदर्शन चंचल!
खंजर कटार ले दौडूँगा शोणित-रत!
यह विजय-पताका कौन करेगा अवनत?
मैं बढ़ा चलूँगा झूम प्रलय-बादल-सा!
कर तूर्य-नाद नाचूँगा मैं पागल-सा!
मैं नदी रक्त की लाल बहा डालूँगा!
खींचूँगा पृथ्वी-पट अरि-कुल घालूँगा!
मैं चूर करूँगा लात मार गिरि-माला!
जग में धधकाऊँगा विप्लव की ज्वाला!
मैं दुर्वासा का शाप भीष्म का दृढ़ ब्रत
यह विजय-पताका कौन करेगा अवनत?
मैं हूँ निर्बन्ध भयंकर विप्लवकारी
मेरे भय से काँपेंगे अत्याचारी!
मैं हूँ स्वतंत्रता का तप-तरुण-पुजारी!
जलती श्वासों में प्रतिहिंसा-चिनगारी!
मैं अग्नि-लहर में बैठ मुस्कुराता हूँ!
मैं विष की बंशी बजा गीत गाता हूँ!
मेरा विख्यात अमित-बल है सीमा-गत!
यह विजय-पताका कौन करेगा अवनत?
19.1.28
युगांतरकारी
हो सावधान! अब आई मेरी बारी!
चमकी आँखों में गौरव की चिनगारी!
चमकी आँखों में गौरव की चिनगारी!
फटता अंबर हुंकार-नाद होता है!
युगनेत्र नराधम मींच-मींच रोता है!
वेदना-विश्व में भीषण प्रलय मचा है।
यह यज्ञ भयानक!-किसने बोल, रचा है?
बिजली कड़की या चमकी रक्त-कटारी?
हो सावधान! अब आई मेरी बारी!
कालिमा पाप-रजनी की घोर हटा के!
आरहा प्रभात खून की नदी नहा के!
है द्वादश-रवि ने उदय लिया अंबर में!
होगा जग भस्मीभूत, ठहर, पल-भर में!
भूतल पर उथल-पुथल होवेगी भारी!
हो सावधान! अब आई मेरी बारी!
नस-नस मैं बिजली दौड़ रही है भीषण!
हैं आज बने ज्वाला जीवन के कण-कण!
छिपकर बैठी है विभीषिका ”आही“ में!
भरती स्वतंत्रता अंगारे चाहों में!
जग गई हृय की आज शक्तियाँ सारी!
हो सावधान! अब आई मेरी बारी!
झंझा-समीर संदेश सुनाता मेरा!
कर अट्टहास बादल यश गाता मेरा!
उठ बड़वानल खौलाता लहू बदन का!
मैं निर्भय चक्र चलाता दुष्ट-दमन का!
मैं कुरुक्षेत्र-संचालक कृष्ण-मुरारी!
हो सावधान! अब आई मेरी बारी!
मेरी आशाएँ चमक रहीं तारों में!
मैं झूम रहा पागल-सा उद्गारों में!
मैं दूँगा खोल स्वर्ग का द्वार चिरंतन!
मैं दौड़ बुलाऊँगा सुखमय-परिवर्तन!
मैं हूँ अजेय-दुर्जेय सृष्टि-संहारी!
हो सावधान! अब आई मेरी बारी!
मैं दूँगा रोक प्रवाह अतल-सागर का!
मैं गर्व करूँगा चूर-चूर शंकर का!
मैं पटक तोड़ दूँगा शशि-अमृत-प्याला!
सम्मुख आवेगा कौन?-लिये हूँ भाला!
मैं हूँ विराट विभ्राट युगातंरकारी।
हो सावधान! अब आई मेरी बारी!
19.1.29
ज्वाला (कविता)
1.
मैं हूँ उच्छृंखल विकट कान्ति की ज्वाला!
मैं हूँ प्रचंड मैं दुर्दमनीय विशाला!!
मैं हूँ विद्रोही की आँखों की लाली;
हूँ सर्वनाश-मदिरा की तीखी-प्याली!
मैं अन्ययी-हित विष की तीक्ष्ण भुजाली;
मैं विश्व-विजयिनी महाशक्ति हूँ काली!
मैं क्रोधमयी रण-चंडी हूँ विकराली;
अपनी मादकता में रहती मतवाली!
है मेरा शोणित-रंजित साज निराला!
मैं हूँ उच्छृंखल विकट क्रान्ति की ज्वाला!!
2.
मैं हूँ विध्वंसक महाप्रलय की ज्वाला!
अंतक अनन्त मैं हूँ भीषण विकराला!!
मैं विहारिणी हूँ विश्व-वेदना-वन की;
मैं कुटिल-वासना हूँ शंकर के मन की!
मैं नाश सृष्टि का, सृष्टि नाश की नूतन;
मैं मृत्यु-मरण मैं हूँ नव-जीवन-यौवन!
मैं विप्लवकारी के अंतर की आशा;
मैं विभीषिका, रण-तांडव रक्त-पिपासा!
मैं हूँ ”विराट कवि“ के भावों की माला!
मैं हूँ विध्वंसक महाप्रलय की ज्वाला!!
3.
मैं हूँ हर के कंठस्थ जहर की ज्वाला!
मैं हूँ भुजंग-वासुकि का क्रोध-कसाला!!
झुलसा दूँगी मैं आज हृदय पापी का;
दानव नृशंस, पर-पीड़क सन्तापी का!
मैं भस्म करूँगी जग का वैभव सुन्दर;
मैं रोके रुक न सकूँगी महाभयंकर!
मैं लहू चूस लूँगी लोलुप-सी तन का;
मैं हूँ भीषण-उन्माद काल के मन का!
मैं फूँक करूँगी आज विश्व को काला!
मैं हूँ हर के कंठस्थ ज़हर की ज्वाला!!
4.
मैं हूँ स्वतंत्रता की चिर-उज्वल ज्वाला!
है अमर-शानित-दायक मेरा उजियाला!!
मैं स्वर्ग-लोक का वैभव हूँ चिर-सुन्दर;
मैं कृष्ण-बाँसुरी का हूँ गीत मनोहर!
मैं देश-भक्त की वर-देवी हूँ पावन;
मैं सुख-सुषमा की अक्षय-राशि सुहावन;
मैं हूँ ज्वालाओं की सुहागिनी रानी;
है मेरी अकथ अलौकिक पुण्य-कहानी!
रवि-शशि हैं मेरे सुभग-कंठ की माला!
मैं हूँ स्वतंत्रता की चिर-उज्वल ज्वाला!!
23.1.29
लाल दिन
विश्व-विधात्री के ललाट पर
जलती विकट-चिता-ज्वाला!
महाकाल हँसता है पहरे
नर-मुंडों की लघुमाला!
उगल रहे प्रलयंकर शंकर
तृतिय-नयन से चिनगारी!
विचर रहा उदण्ड-विद्रोही
मद-हारी स्वेच्छाचारी!
निगल रहा है राहु सूर्य को
लोलुप जीभ निकाल महान!
लिखता है यम सर्वनाश की
रक्त-लिप्त गाथा भयमान!
दौड़ रही हैं दग्ध-चिता पर
पिशाचिनी डाकिनी अजान!
शत-शत ज्वालाएँ गाती हैं
धू-धू कर यौवन के गान!
तैर रहा है रक्त-नदी में
योद्धा अन्ययी को मार!
पशुबल तड़परहा पैरों-तल
कायरता कर रही गुहार!
छोड़ स्वर्ण-प्रासाद मनोहर
भाग रहा है नीच-नृशंस।
मुँह बाये हैं खड़ा सामने
प्रलयंकर विप्लव-विध्वंस!
गति, मति, शक्ति कराल बनी हैं
दुष्ट-दलनि-रुद्रा साकार
इनके सम्मुख ठहर सकेगा
केसे दानव-अत्याचार?
पराधीनता काँप-काँप कर
बहा रही है अश्रु अपार!
देख काल का रूप भयंकर
करता रिपु-दल हाहाकार!
नरक-शक्तियाँ मरी जा रहीं
भूपति आज बना बेहोश!
रक्त-शिखा की ज्योति फूटती
हँसता रण-चंडी का रोष!
स्वतंत्रता के हुंकारों से
गुंजित होता है सुरधाम!
फहराते हैं मुक्त-पवन में
अगणित विजय-केतु अभिराम!
बढ़ता है आकाश चूमने
शोणित-सिंधु महा उत्ताल!
नंगा नाच रहा है निर्भय
वह दिन! -हाँ हाँ वह दिन लाल!
18.1.29
प्रतिहिंसा
बालिका सरल!
अयी तुम नहीं बालिका सरल!
प्रबल तुम प्रलयंकरी सुजान
रक्त-रंजित धारे परिधान!
करों में अरि-कुल-काल-कृपाण
तनी भौंहें, गति क्रुद्ध महान!!
चमक चलती बन तड़ित चपल
ढालती मादक यौवन-गरल!
अयी तुम नहीं बालिका सरल!
अग्नि की ज्वाल!
कठिन तुम काल-अग्नि की ज्वल!
चिता-लहरों में बैठ अपार
किलक करतीं सानंद-बिहार!
चलाकर बिजली-सी तलवार
अंत तुम करतीं अत्याचार!!
पहर कर नर-मुंडों की माल
नाचती गाती दे-दे ताल!
कठिन तुम काल-अग्नि की ज्वाल!
मृत्यु-अवतार!
कुटिल तुम महामृत्यु-अवतार!
मचल कर अनियंत्रित-हुंकार
पान करतीं रिपु-शोणित-धार!
तुम्हारा पाकर चरण-प्रहार
काँप जाती वसुधा, संसार!!
दिगंबरि, रक्तांबरि साकार
तुम्हारा युद्धस्थल अभिसार!
कुटिल तुम महामृत्यु-अवतार!
सृष्टि संहार!
तुम्हारा क्रोध सृष्टि-संहार!
तुम्हारी श्वास प्रबल-तूफ़ान
तुम्हारी चितवन प्रलय-अजान!
तुम्हारी इच्छा ही बलिदान
तुम्हारी गति विद्रोह महान!!
तुम्हारी लोहित-असि-झंकार
काल की अकरुण-करुण-पुकार!
तुम्हारा क्रोध सृष्टि-संहार।
विकट-विकराल
कालिके! अयी विकट-विकराल!
कमर से तीक्ष्ण-कटारी खींच
कलेजा छेद पाप का नीच!
भूमि का सूखा-पट दो सींच
सूर्य ले भय से आँखें मींच!!
लपलपाती निज जीभ निकाल
चाट लो लहू दुष्ट का लाल!
कालिके! अयी विकट-विकराल!
29.1.29
जीवन-ज्योति
अयि जीवन की ज्योति! नाच तू
सूर्य-किरण-सी-चपल-महान!
वीणा के मृदु पागल स्वर-सी।
तारावलि-सी, लोल-लहर-सी।
अंतस्तल में नाच उठा दे
प्रलय-गान की ध्वंसक-तान!
यौवन के चल-वीचि-जाल पर,
भुज-विशाला पर चिता-ज्वाल पर;
ताल-तालपर नाच नटी-सी
छम-छम-छम पगली! अनजान!
रिक्त न हो ”ज्वाला“ की प्याली,
मिटे न रक्त-शिखा की लाली;
आग लगा दे अयि करालिनी!
भीषण-भावों में भयमान!
शक्ति-सर्पिणी को उसका दे,
सुप्त-उमंगें छेड़ जगा दे;
सखी! नाच तू, दौड़ बुलाऊँ
मैं अंतक प्रचंड-तूफ़ान!
29.1.29
प्रलयोल्लासिनी
बैठ हिमालय-शैल-शिखर पर
करती हूँ मैं सूर्य-निनाद!
तैर रहा है आसमान में
मेरे यौवन का उन्माद!
नग्न-चिता की ज्वालाओं में
हँसती हूँ मैं फूल-समान!
आग लगाता है दुनिया में
मेरा क्रोध प्रबल भयमान!
ध्वंस-पाठ रटती रहती हूँ
मैं कृपाणधारिणी कराल!
खोज रही हूँ खूनी-खल को
मैं तरेर कर आँखें लाल!
सुकवि छेड़ता प्रलय-विपंची
झूम-झूम उन्मत्त महान!
मैं पगली-सी विहँस-विहँसकर
गाती हूँ विनाश का गान!
रवि की आँखें फोड़, गर्व से
करती हूँ प्रचण्ड हुंकार!
मेरी ओर विलोक, भयातुर
विश्व कर रहा हाहाकार!
लहूपी रही गट्ट-गट्ट मैं
समर-भूमि में मदमाती!
तांडव करती हूँ पिशाचिनी
रौंद धरत्री की छाती!
साज रही चुन-चुन चिनगारी
चिता-सेज मैं अति अभिराम!
सोऊँगी, फिर जागूँगी, फिर
प्रलय मचाऊँगी मद्दाम!
फूल रहा है जीवन-वन में
सुंदर सर्वनाश का फूल!
मैं आँधी बन घूम रही हूँ
छूकर विश्व-वेदना-कूल!
बड़वानल मेरी उमंग है
झंझा है मेरा अभिमान!
मैं शंकरा भस्म कर देती
पाप, ताप, अपयश, अपमान!
भुजंगिनी हूँ खा जाऊँगी
मृत्यु-लोक सुंदर-सुरलोक!
विधि की दर्पहारिणी हूँ मैं
मुझे न भय चिंता या शोक!
जीवित रहती रक्त-पिपासा
मेरे मन में चिर-चंचल!
मैं उल्लासमयी हूँ, मेरी
प्रलय, यही धुन है पागल!
30.1.29
सैनिक
लिखी गई है बज्र-कलम से
मेरी जीवन-पुस्तक आह!
जिसके पृष्ट-पृष्ठ पर अगणित
बहे हुये हैं रक्त-प्रवाह!
आशा की प्रत्येक-लहर में
उमड़ रहा प्रचंड-तूफ़ान!
उतावली-सी अभिलाषाएँ
गातीं मृदु-स्वर से ‘बलिदान।’
तरुणी-विभीषिका है मेरी
चिर-सहचरी-सखी सुकुमार!
पहराता मैं असि-प्रिया को
नर-मुंडों का सुंदर-हार!
मेरे फौलादी-शरीर पर
होते प्राणांतक-आघात!
तो भी सदा नाचता रहता
होठों पर आनंद-प्रभात!
मैं न कभी कंपित होता सुन
वह विकराल तुपक-गर्जन!
हिल जाती है पर्वत-माला
थर्राते जिससे निर्जन!
शत्रु चलाते मुझे लक्ष्य कर
खड्ग और भीषण भाला!
पर निर्भीक घूमता रहता
मैं यौवन-मद-मतवाला!
मेरी राह रोक सकता है
बलशाली है ऐसा कौन?
मुझे देखकर अंतक-शंकर
खड़ा सोचने लगते मौन!
मुझे न विचलित करते, रण के
हाहाकार और चीत्कार!
मैं आगे बढ़ता विदीर्ण कर
घूम्र-धूल-पट भीमाकार!
उठती हुईं अग्नि की लपटें
देख, न मैं घबड़ाता हूँ!
प्रत्युत भौंहें चढ़ा क्रोध से
मैं कृपाण चमकाता हूँ!
दुष्टों को मैं मार, खून से
तुरत बुझाता माँ की प्यास!
मेरे इस अखंड-भुज-बल पर
बोल, न है किसको विश्वास?
प्रलयंकर-सा रूप बनाके
कर में ले नंगी-तलवार!
चलता हूँ चुपचाप ध्येय पर
कर असंख्य शोणित-पथ पार!