वेदना
वेदना तुम पास आकर
इस हृदय का बल बनो
अश्रु अंतस में हैं ठहरे
दे रहे हैं घाव गहरे
जिन्दगी के हर कदम पर
ज्यों लगे दिन रात पहरे
वेदना तुम आज आकर
चक्षुओं का जल बनो
वेदना तुम पास आकर
इस हृदय का बल बनो
रूठ बैठे स्वप्न सारे
हम हुए हैं बेसहारे
क्या बचा अब शेष कुछ भी
जब कोई अपनों से हारे
वेदना तुम डगमगाती
आस का सम्बल बनो
वेदना तुम पास आकर
इस हृदय का बल बनो
टूटती हर कामना जब
बस तुम्हें ही थामना तब
फिर उजालों से भला मन
सामना कैसे करे अब
वेदना तुम मुस्कुराकर
हर व्यथा का हल बनो
वेदना तुम पास आकर
इस हृदय का बल बनो
महक रहा हो मौसम जैसे
प्रीति हृदय पर कुछ यूँ छाई
महक रहा हो मौसम जैसे
शब्द ठहर जाते अधरों पर
बैठ हृदय में भाव चहकते
खुलतीं बंद सहमती पलकें
देख रहीं बस कदम बहकते
ठहरी-ठहरी मधुर चाँदनी
देख मगर कुछ यूँ मुस्काई
बहक रहा हो मौसम जैसे
प्रीति हृदय पर कुछ यूँ छाई
महक रहा हो मौसम जैसे
आँख मिचौली सँग तारों के
खेल रहे हैं जुगनू सारे
पीकर मदिरा मगन हुए हैं
जैसे ये मदहोश नजारे
इधर उधर कुछ भटके बादल
हँसकर बदन छुए पुरवाई
चहक रहा हो मौसम जैसे
प्रीति हृदय पर कुछ यूँ छाई
महक रहा हो मौसम जैसे
खुशियाँ बैठी हैं सिरहाने
लहराती भावों की सरिता
छिपकर बैठी बना रही है
लाज निगोड़ी अनुपम कविता
करवट-करवट ढीठ कामना
मचल रही है बस हरजाई
दहक रहा हो मौसम जैसे
प्रीति हृदय पर कुछ यूँ छाई
महक रहा हो मौसम जैसे
बैठ अकेला अन्तर्मन
बैठ अकेला अन्तर्मन ये
अक्सर सोचा करता है।
प्रेमबेल चाहे अनचाहे
दिन प्रतिदिन क्यों बढ़ती है ?
देव बनाकर अपने हिय में
चित्र हजारों गढ़ती हैं
प्रिय का मोहक रूप भला वह
दुख कैसे सब हरता है।
बैठ अकेला अन्तर्मन ये
अक्सर सोचा करता है।
रंग बिरंगे पंछी आंगन
आकर खूब चहकते हैं
किस्म-किस्म के फूल हृदय में
क्योंकर खूब महकते हैं
सोच किसी को क्यों कैसे बस
गंध हृदय में भरता है।
बैठ अकेला अन्तर्मन ये
अक्सर सोचा करता है।
घंटों समय बिताता है क्यों
बैठ सामने दर्पण के
खोज-खोज क्यों पढ़े कहानी
निश्छल नेह समर्पण के
और किसी पर कैसे यह मन
बिना स्वार्थ के मरता है।
बैठ अकेला अन्तर्मन ये
अक्सर सोचा करता है।
बात-बात पर इन नयनों में
आखिर आंसू आते क्यों ?
दुख-विषाद पलकों पर सारे
लेकर सदा उठाते क्यों ?
भीड़ भरी दुनिया में उसको
खोने से क्यों डरता है।
बैठ अकेला अन्तर्मन ये
अक्सर सोचा करता है।
पीर रिमझिम
तोड़ कर तटबंध सारे
आज नयनों के सहारे
है बरसती पीर रिमझिम
है बरसती पीर रिमझिम
काँच जैसे हृदय टूटा
सँग अपनों का भी छूटा
कर्म धोखा खा गया यूँ
भाग्य ने सर्वस्व लूटा
मन विकल हो आज द्वारे,
अब भला किसको पुकारे
है बरसती पीर रिमझिम
है बरसती पीर रिमझिम
राह खुशियों ने है मोड़ा
लक्ष्य ने अनुराग तोड़ा
झूठ रिश्ते और नाते
आज सबने साथ छोड़ा
स्वप्न नेहिल सब हमारे,
रह गए बैठे कुँवारे
है बरसती पीर रिमझिम
है बरसती पीर रिमझम
हंस रही है आज दुनिया
जानती सब राज दुनिया
गीत गाती वेदना अब
दे रही है साज दुनिया
तुम नहीं हो साथ फिर जब
कौन किस्मत को संवारे
है बरसती पीर रिमझिम
है बरसती पीर रिमझिम
कुछ मिश्री सा घोलो तो
नहीं सामने,पर सपनों में
कभी -कभी कुछ बोलो तो
कहो हृदय की मीठी बातें
कुछ मिश्री सा घोलो तो
जीवन का हर पल तुमसे है
आज और प्रिय कल तुमसे है
बाधाओं से कैसा डर जब
अंतस का हर बल तुमसे है
मेरा है सर्वस्व तुम्हारा
मुझको कभी टटोलो तो
कहो हृदय की मीठी बातें
कुछ मिश्री सा घोलो तो
खुशी पकड़ कर द्वारे ला दूं
या कह दो तुम तारे ला दूं
जितने भी हैं नील गगन में
तोड़ -तोड़ मैं सारे ला दूं
एक तुम्हीं तो बस मेरे हो
मुझे कभी तुम तोलो तो
कहो हृदय की मीठी बातें
कुछ मिश्री सा घोलो तो
मुझे पता क्या दुनियादारी
गढूं बैठकर मूर्ति तुम्हारी
दूर – दूर तक महके बेला
नयनों में है चढ़ी खुमारी
नींद मुझे भी आ जाती पर
सुधियों संग तुम डोलो तो
कहो हृदय की मीठी बातें
कुछ मिश्री सा घोलो तो
थोड़ा सा रो लेती हूँ
अन्तर्मन में सुस्मृतियों के बीज रोज बो लेती हूँ।
याद तुम्हारी आती है तो थोड़ा सा रो लेती हूँ।
प्रश्न कई जब उठकर दिल में ,
करने लगते खींचातानी !
गढ़ते नहीं भाव भी आकर
फिर से कोई नयी कहानी !
नयनों में ले नीर सुनो तब, पीर सभी धो लेती हूँ।
याद तुम्हारी आती है तो थोड़ा सा रो लेती हूँ।
सौतन बनकर बैठ गयी है,
अपने द्वारे भले निराशा !
मगर छिपी इन संघर्षों में
जाने कैसी कोमल आशा !
पलकों में स्वप्निल इच्छाएँ, रखकर मैं सो लेती हूँ।
याद तुम्हारी आती है तो थोड़ा सा रो लेती हूँ।
दिखे नहीं अपनी भी छाया
धुंध कभी जब आकर घेरे !
पथ में बन अवरोध खड़े हों
पहरों तक घनघोर अँधेरे !
दीप जला तब नाम तुम्हारे,संग सदा हो लेती हूँ।
याद तुम्हारी आती है तो थोड़ा सा रो लेती हूँ।
झुलस – झुलस मुरझाये सपने
जीवन की इस तेज धूप में
झुलस झुलस मुरझाये सपने।
घर पावन सा वो मिट्टी का
नेह मिले जो अपने हिस्से
छूट गया अम्मा का आंचल
नहीं रहे नानी के किस्से
गुड्डे गुड़ियों के संग कितने
हमने खूब सजाये सपने।
जीवन की इस तेज धूप में
झुलस झुलस मुऱझाये सपने।
पीहर गयी खुशी ज़्यों अपने
धड़कन – धड़कन भटकें यादें
अधरों पर है मौन सुशोभित
अंतस में चिहुंकें फरियादें
देख देख ऋतुओं के मन को
नयनों ने छलकाये सपने।
जीवन की इस तेज धूप में
झुलस झुलस मुरझाये सपने।
विस्मृत हो जाते दुख सारे
और न आकर चलतीं रातें
अपने पांव धरे फूलों पर
साथ हमारे चलतीं रातें
निष्ठुर जग के ही द्वारे पर
जा जाकर मुस्काये सपने।
जीवन की इस तेज धूप में
झुलस झुलस मुरझाये सपने।
अक्षर – अक्षर गीत
बनकर सुर संगीत अधर पर आओ तुम
अक्षर-अक्षर गीतों के बन जाओ तुम
हंसे कामना मौन संग इठलाये भी
और प्रीत का गांव मुझे दिखलाते भी
मधुर राग जीवन की ऐसी गाओ तुम
अक्षर-अक्षर गीतों के बन जाओ तुम
पहन नये परिधान बसंती रंग मिले
फूलों पर भी खूब तुम्हारे रंग खिले
मन उपवन को आकर जरा सजाओ तुम
अक्षर-अक्षर गीतों के बन जाओ तुम
गाती रात सितारों के संग मधुर रागनी
नभ से बसुधा तक फैली है शुभ्र चांदनी
इन किरणों से कुछ पल चलो नहाओ तुम
अक्षर-अक्षर गीतों के बन जाओ तुम
खोना पाना जीवन है तो कैसा डर
पास रहो या फिर मुझसे दूर कहीं पर
खुशबू बनकर अन्तर्मन महकाओ तुम
अक्षर-अक्षर गीतों के बन जाओ तुम
आज नहीं हैं साथ उजाले अब अपने
अंधकार में डूब गये हैं सारे सपने
आकर कुछ खुशियों के दीप जलाओ तुम
अक्षर-अक्षर गीतों के बन जाओ तुम
खुली आंख से देखा जिनको
खुली आंख से देखा जिनको
उन सपनों ने ठगा मुझे।
पथ पर फूल बिछाने थे कुछ
तोड़ सितारे लाने थे कुछ
कभी रचे जो तुम्हें सोचकर
वो नवगीत सुनाने थे कुछ
किन्तु बेड़ियां हैं पांवों में
दिया समय ने दगा मुझे।
खुली आंख से देखा जिनको
उन सपनों ने ठगा मुझे।
देख मुझे सब मुंह बिचकाते
अपने सारे रिश्ते नाते
जब-जब दीप जलाती हूं मैं
कर्म-भाग्य मिल सभी बुझाते
सदा उजालों ने भी समझा
अंधियारों का सगा मुझे।
खुली आंख से देखा जिनको
उन सपनों ने ठगा मुझे।
दुख खुशियों के पल हरता है
समय नमन में जल भरता है
मांग रही बस उत्तर दुनिया
प्रश्न कौन कब हल करता है
इसी भीड़ में शामिल तुम भी
अक्सर ऐसा लगा मुझे।
खुली आंख से देखा जिनको
उन सपनों ने ठगा मुझे।
सिन्धु बताओ
कल -कल बहती सरिता की जब
मीठी इतनी जल धारा।
सिन्धु बताओ भला तुम्हारा
फिर क्यों इतना जल खारा।
झरनें बरखा और सभी ने
मिलकर तुम्हें सजाया है !
न्यौछावर कर नेह असीमित
प्रीति गीत ही गाया है !
किया इन्होंने खुद को अर्पण
सब कुछ तुम पर है वारा।
सिन्धु बताओ भला तुम्हारा
फिर क्यों इतना जल खारा।
लहरों से ले धाराओं तक
पल-पल स्नेह जताती हैं !
वर्षा की बूंदें भी आकर
मुस्काती मिल जाती हैं !
फिर भी घोर गर्जना करते
थर्राते तुम जग सारा।
सिन्धु बताओ भला तुम्हारा
फिर क्यों इतना जल खारा।
हीरे मोती नवरत्नों से
भरे हुए हो मान लिया !
तुम विशाल हो तुम महान हो
जलधि नाम है जान लिया !
किन्तु पथिक घनघोर प्यास से
तट पर ही जीवन सारा।
सिन्धु बताओ भला तुम्हारा
फिर क्यों इतना जल खारा।
मन फिर से तुलसी बन जाओ
मन फिर से तुलसी बन जाओ
झूठा जग झूठी सब बातें
झूठी हैं ये झिलमिल रातें !
खोज रहे होकर क्यों व्याकुल
इनमें तुम मीठी सौगातें !
कर्म करो ऐसा कुछ बढ़कर
जीवन का अनुपम धन पाओ।
मन फिर से तुलसी बन जाओ।
झूठा प्रेम है झूठी माया
झूठी है ये कंचन काया !
मत भागो तुम इनके पीछे
ये सब तो हैं दुखती छाया !
नये पाठ की छटा बिखेरो
एक नया सुर ताल सुनाओ।
मन फिर से तुलसी बन जाओ।
बहुत रो चुके दुख का रोना
अश्रु नहीं अब अपने खोना !
लड़कर नित्य स्वयं से सीखो
खुशियों के बीजों को बोना !
कुछ अपने कुछ औरों के हित
एक नया इतिहास बनाओ।
मन फिर से तुलसी बन जाओ।
जब याद तुम्हारी आती है
इस दुनिया से उस दुनिया तक
राह कहाँ से जाती है।
हिय में उठता प्रश्न यही जब
याद तुम्हारी आती है।
सब कुछ पाकर भी लगता है
जैसे जीवन व्यर्थ हुआ !
बिना तुम्हारे कैसी दुनिया
क्या जीने का अर्थ हुआ !
क्यों अतीत की बात हमें
हरदम इतना तडपाती है।
हिय में उठता प्रश्न यही
जब याद तुम्हारी आती है।
एक तुम्हारे ना होने से
सूर्य अस्त ज्यों आज हुआ !
धरा छोड़कर गया उजाला
अँधियारे का राज हुआ !
चुपके चुपके नयनों में बस
केवल बदली छाती है।
हिय में उठता प्रश्न यही
जब याद तुम्हारी आती है।
हाथो में थामें बैठी हूँ
किस्मत जो लेकर आई !
छोड़ गये जबसे तुम मुझको
करूँ दुखों से सिर्फ लड़ाई !
मगर भावना इस मन की
बस पल पल तुम्हें बुलाती है।
हिय में उठता प्रश्न यही
जब याद तुम्हारी आती है।
धरती अम्बर, चाँद, सितारे
धरती,अम्बर, चाँद, सितारे
खफा-खफा लगते हैं सारे
नहीं बोलतीं आज हवाएँ
चुप चुप सी हैं सभी दिशाएँ
संदेशों की प्यारी पाती
पढ़कर अब हम किसे सुनाएँ
गुमसुम बैठे दिनकर प्यारे
खफा खफा लगते हैं सारे
धरती अम्बर चांद सितारे
दिवस लगे ज्यों सोया सोया
नदियों झरनों का मन खोया
इक कोने में पंख छिपाए
मन का मोर बैठ कर रोया
देख-देख खामोश नजारे
खफा खफा लगते हैं सारे
धरती अम्बर चांद सितारे
अंतस में संगीत नहीं अब
कोयल गाती गीत नहीं अब
दोनों आँखें अविरल बहतीं
मन है पर मनमीत नहीं अब
राह देखते साँझ सकारे
खफा खफा लगते हैं सारे
धरती अम्बर चांद सितार
सो रहा संसार सारा
जागकर तारे गिनूँ मैं
सो रहा संसार सारा।
नेह अपना लुट चुका पर
याद अपने हाथ है !
नींद पीहर को गयी है
चाँदनी पर साथ है !
आह भरती है निशा ये
ढूँढता है मन किनारा !
जागकर तारे गिनूं मैं
सो रहा संसार सारा।
नाम प्रिय के इस नयन में
टिमटिमाता दीप है !
खो गया अनमोल मोती
कश्मकश में सीप है !
मुस्कुराकर व्योम पूछे
कौन था इतना वो प्यारा।
जागकर तारे गिनूँ मैं
सो रहा संसार सारा।
महमहाती रातरानी
आज ताने कस रही !
एक तन्हाई हमेशा
कल्पना को डस रही !
वक्त की अठखेलियों में
कौन देता है सहारा !
जागकर तारे गिनूँ मैं
सो रहा संसार सारा।
याद फिर तेरी अचानक
वक्त के साये तले जो
थी कभी धुँधला गयी।
याद फिर तेरी अचानक
आज मुझको आ गयी।
सोचकर बीते दिनों को
डर मुझे लगने लगा !
वक्त है चालाक कितना
फिर मुझे ठगने लगा !
नयन मे आकर घटा फिर
आज देखो छा गयी।
याद फिर तेरी अचानक
आज मुझको आ गयी।
क्या कहूं तुझसे भला अब
ये नया इक दौर है !
कल जहाँ पर था कभी तू
आज कोई और है !
जो भी मिलना था मुझे सब
भाग्य से मैं पा गयी।
याद फिर तेरी अचानक
आज मुझको आ गयी।
अनकही बातों को कैसे
शब्द में ढालूँ भला !
स्वप्न तक में जो नहीं है
किस तरह पा लूँ भला !
ज़िन्दगी में इन दुखों को
खूब मैं भी भा गयी।
याद फिर तेरी अचानक
आज मुझको आ गयी।
हो जाये मन पहले जैसा
हो जाये मन पहले जैसा।
कह दो मीत आज कुछ ऐसा।
थम जाये नयनों का पानी
रुके हृदय की भले रवानी
नेह सुधा यों बरसाओ तुम
हो जाए फिर चूनर धानी
अगर साथ तुम फिर दुख कैसा।
हो जाये मन पहले जैसा।
कह दो मीत आज कुछ ऐसा।
अंतर की पीड़ा मिट जाये
नज़र तुम्हारी आस जगाये
जब-जब याद करूं मैं तुमको
मन का दीप स्वयं जल जाये
क्या करना है रुपया पैसा।
हो जाये मन पहले जैसा।
कह दो मीत आज कुछ ऐसा।
आकर बैठो पास हमारे
आंचल में टांकों तुम तारे
झुक जाये फूलों की डाली
और हवा फिर बाल संवारे
मिल जाये जैसे को तैसा।
हो जाये मन पहले जैसा।
कह दो मीत आज कुछ ऐसा।
मौन है टूटा सितारा
काश बहती ही रहे ,
इन आँसुओं की तरल धारा ।
डूबते राही को जब तक
ना मिले कोई किनारा ।
व्यस्त है सारा जहाँ यह
चाह अब किसको किसे है !
सो रहा सुख कोठियों में
पांव दुख अपना घिसे है !
चाँदनी सबको लुभाती,
मौन है टूटा सितारा ।
जानती हूँ मैं धरा की
ये पुरातन रीतियाँ हैं !
हर विजेता की यहाँ पर
चल रहीं बस नीतियाँ हैं !
कौन उसके पास जाता,
जिन्दगी में जो है हारा ।
पर न जाने क्यों हृदय भी
दर्द से विक्षिप्त है अब !
लग रहा मन भी किसी
संकल्प से उद्दीप्त है अब !
दुर्दिनों में रह गई हूँ
मैं अकेली-बेसहारा।
समय भला कब ठहरा है
कुछ भी कर डालें हम लेकिन
यह समय भला कब ठहरा है।
केवल खेल खिलाने आता
कभी हंसाता कभी रुलाता
एक यही है शक्तिमान बस
दुनिया का है यही विधाता
लेकर बसुधा से अंबर तक
सिर्फ इसी का ही पहरा है।
कुछ भी कर डालें हम लेकिन
समय भला कब ठहरा है।
सुख-दुख को पहचान रहे हम
अपना दूजा जान रहे हम
गिरकर उठकर संभल संभलकर
लक्ष्य नया नित ठान रहे हम
जब तक यह है साथ तभी तक
सांसों से रिश्ता गहरा है।
कुछ भी कर डालें हम लेकिन
यह समय भला कब ठहरा है।
खुशियां ग़म सब लेकर चलता
और यही जो भाग्य बदलता
इसके ही सब ताने-बानें
मन चाहे जब जिसको छलता
सुनता नहीं किसी की कुछ भी
सच में यह बिल्कुल बहरा है।
कुछ भी कर डालें हम लेकिन
यह समय भला कब ठहरा है।
सुख-दुख
सुख-दुख
क्योंकर इनसे है घबराना
सुख-दुख साथ पला करते हैं।
साथी हैं ये जीवन पथ के
मिलकर साथ चला करते हैं।
संघर्षों के भय से प्यारे
यूं हम भाग नहीं सकते
और भाग्य से पग-पग पर हम
खुशियां मांग नहीं सकते
केवल मीठे फल ही सारे
तरुअर नहीं फला करते हैं।
साथी हैं ये जीवन पथ के
मिलकर साथ चला करते हैं।
भले ज़माना हृदय तोड़ दे
मगर न रखना कुछ मन में
त्याग अयोध्या संग सीता के
फिरे राम भी, वन-वन में
बन मारीच सदा अपने ही
अक्सर हमें छला करते हैं।
साथी हैं ये जीवन पथ के
मिलकर साथ चला करते हैं।
ओढ़ निराशा मुंह लटकाए
बैठा करते नही कभी
कष्ट हमारा हमीं हरेंगे
दूजे हरते नहीं कभी
आशाओं के दीप नयन में
बुझते नहीं जला करते हैं।
साथी हैं ये जीवन पथ के
मिलकर साथ चला करते हैं।
जीवन बिल्कुल बहता पानी
लहर-लहर की अजब कहानी।
जीवन बिल्कुल बहता पानी।
मिला रंग इस जग के सारे
चित्र बनाता, समय किनारे
शाश्वत कौन भला रहता है
‘नश्वर सब कुछ’ जग कहता है
चलता सिर्फ विधाता का ही
लाख करे कोई मनमानी।
जीवन बिल्कुल बहता पानी।
यह मन तो केवल छलता है
लय पर ही जीवन चलता है
धूप-छांव से कब क्या कहती
सांझ सुबह के संग कब रहती
हंसता बचपन दुखी बुढ़ापा
संघर्षों में लिप्त जवानी।
जीवन बिल्कुल बहता पानी।
कहीं दीप से रोशन घर है
कहीं अंधेरे में छप्पर है
कहीं हंसे बारिश की बूंदें
कहीं खुशी है आंखें मूंदें
कर्म-भाग्य में जगह-जगह बस
जारी केवल खींचातानी।
जीवन बिल्कुल बहता पानी।