नजात
दुखते हुए सीनों की ख़ुशबू के हाथों में
उन जलते ख़्वाबों के लहराते कोड़े हैं
जिन्हें वो इक गहनाए चाँद की नंगी कमर पे बरसाती रहती है
तीरगी बढ़ती जाती है
और हमारा चाँद अभी तक ऐसी कोहना-सला हवेली का क़ैदी है
जिसे हवा और बादल ने तामीर किया है
जिस की गीली दीवारों पर मंढी हुई बेलों में
ऐसी खोपड़ियाँ खिलती हैं
जिन की आँखों के ख़ाली हल्कों में माज़ी हाल और मुस्तक़बिल के
गड-मड रंगों के बे-नूर धुँधलके के जमे हुए हैं
तुम ही बताओ जब शाख़ों से
फ़ाख़ती नीले फूलों की बजाए
खोपड़ियाँ फूटें
सुब्ह-ए-बहार का सूरज उन से आँख मिला कर कैसे ज़िंदा रह सकता है
इसीलिए तो इस वीरान हवेली के आँगन में ख़जाँ के नग़्मे
ज़िंदा इंसानों के नौहे बन कर गूँजते हैं
नम-आलूद फ़ज़ा के नादीदा सीने पर
सब्र की सिल की तरह रूक हुए बर्फ़ीले सूरज
शाम की उखड़ी हुई चौखट पर
अपने सर घुटनों में छुपा कर सोचते हैं
कभी तो सदियों की आवारगियों का बोझ उठाए कोई मुसाफ़िर
इस्म-ए-रिहाई को ज़ेर-ए-लब दोहराते हुए
इस बे-रंग हवेली के दरवाज़े पर
वो दस्तक देने आएगा
खुल कर बारिश बरसेगी और चाँद रिहा हो जाएगा
बाक़ी दाएरे ख़ाली हैं
रंगों और ख़ुशबुओं की तख़्लीक से पहले
मरने वाले लम्हे की नम आँखों से
आइंदा के ख़्वाबों की उर्यानी का दुख झाँक रहा था
ख़त-ए-शुऊर से आज अगर हम
उस लम्हे की सम्त कभी देखें तो रूह में जागती
गीली मिट्टी की आवाज़ सुनाई देती है
ये दुनिया तो मिटे हुए दाएरे की सूरत का अक्स है
जिस में सोचों आँखों और हर्फों के लाखों दाएरें लरज़ाँ हैं
चारों जानिब ख़ुशबुओं के आँगन में जलते हुए रंगों की लहरें
हवा की डोर से बंधी हुई ऐसी कठ-पुतलियाँ हैं
जो अपने जनम की साअत से इस पल तक
चुप की लय पर नाच रही हैं
जाने कब से उर्यां ख़्वाबों का पैराहन पहने
आते जाते लम्हों पर चिल्लाती हैं
देखो ग़ौर से देखो
ये उर्यानी मख़्फ़ी और ज़ाहिर में ज़िंदा राब्ते की ख़ातिर
अपनी अस्ल की जानिब झुकते इंसानों के
वस्ल-तलब-जज़्बों की तरह सवाली हैं
बाक़ी दाएरे ख़ाली हैं
बे-ख़बरी
ख़ौफ़ अभी जुड़ा न था सिलसिला-ए-कलाम से
हर्फ़ अभी बुझे न थे दहशत-ए-कम-ख़िराम से
संग-ए-मलाल के लिए दिल आस्ताँ हुआ न था
इक़्लीम-ए-ख़्वाब में कहीं कोई ज़ियाँ हुआ न था
निकहत-ए-अब्र-ओ-बाद की मस्ती में डोलते थे घर
साफ़ दिखाई देते थे
उस की गली के सब शजर
गर्द मिसाल-ए-दस्तकें दर पे अभी जमी न थीं
रंग-ए-फ़िराक-ओ-वस्ल की परतें अभी खुली न थीं
ऐसे में थी किसे ख़बर
जब साअत-ए-महताब हो
यूँ भी तो है कि और ही नक़्शा-ए-ख़ाक-ओ-आब हो
बे-हुनर साअतों में इक सावल
नुज़ूल-ए-कश्फ़ की रह में सफ़ेद दरवाज़े
क़दम-बुरीदा-मुसाफ़िर से पूछते ही रहे
तिरे सफ़र में तो उजले दिनों की बारिश थी
तिरी निगाहों में ख़ुफ़्ता धनक ने करवट ली
बला की नींद में भी हाथ जागते थे तिरे
तमाम पहलू मसाफ़त के सामने थे तिरे
तिरी गवाही पे तो फूल फलने लगते थे
तिरे ही साथ वो मंज़र भी चलने लगते थे
ठहर गए थे जो बाम-ए-ज़वाल पर इक दिन
हँसे थे खुल के जो अहद-ए-कमाल पर इक दिन
तिरे जुनूँ पे क़यामत गुज़र गई कैसे
रियाज़तों की वो रूत बे-समर गई कैसे
मुझे मुझ से ले लो
दोज़ख़ साअतों के
सभी ख़्वाब आसेब बन कर
मिरे दिल से लिपटे हुए हैं
मिरी रूह अनजाने हाथों में जकड़ी हुई है
मुझे मुझ से ले लो
कि ये ज़िंदगी
उन अज़ाबों की मीरास है
लम्हा लम्हा जो मेरा लहू पी रहे हैं
ज़मानों से मैं मर चुका हूँ मगर अन-गिनत
वहशी इफ़रीत
मेरे लहू की तवानाई पर आज भी पल रहे हैं
मैं अपने आप से कब तुम्हारा नाम पूछूँगा
परिंदों से सबक़ सीखा शजर से गुफ़्तुगू की है
सवाद-ए-जाँ की ख़ामोशी में ठहरे
अब्र-ए-तन्हाई की औदी ज़र्द चादर पर
शुआ-ए-याद के हाथों लिखी हर बे-नवा लम्हे की पूरी दास्ताँ
मैं ने पढ़ी है
नशात-अंगेज़ रातों और ख़्वाबों के शफ़क-आलूद चेहरे को
झुलसते दिन की ख़ीरा-कुन फ़ज़ा में
एक उम्र-ए-राएगाँ के आइने में मह्व हो कर कब नहीं देखा
बरस गुज़रे रूतें बीती वतन से बे-वतन होने की सारी बेबसी झेली
मैं बर्फ़ानी इलाक़ों मर्ग़-ज़ारों वादियों और रेगज़ारों से
निशान-ए-कारवाँ चुनता सदा-ए-रफ़्तगाँ सुनता हुआ गुज़रा
कहाँ मुमकिन था लेकिन मैं ने जो देखा सुना वो याद रक्खा अजब ये है
नहीं गर हाफ़िज़े में कुछ तो वो इक नाम है तेरा
ख़बर कब थी कि बहती उम्र की सरकश रवानी में
मुझे जो याद रहना चाहिए था
मैं वही एक नाम भूलूँगा
परिंदों और पेड़ों से जहाँ भी गुफ़्तुगू होगी
तुम्हारा ज़िक्र आते ही धुँधलके
ज़हन में इक मौजा-ए-तारीक बन कर फैलते जाएँगे
और ये हाफ़िज़ा मफ़्लूज आँखों से मुझे
घूरेगा चिल्लाएगा
ख़ौफ़-ए-ख़ुद-फ़रामोशी से तुम डरते थे लेकिन अब
मआल-ए-ख़ुद-फ़रामोशी से तुम कैसे निभाओगे
ग़ुबार अंदर ग़ुबार अँगड़ाइयाँ लेते हुए
रस्ते में जो कुछ खो चुके हो उस को कैसे ढूँड पाओगे
ये लाज़िम तो नहीं है एक अन-बूझी पहेली जब अचानक याद आ जाए
उसे हर हाल में हर बार बूझोगे
तुम अपने आप से कब तक किसी का नाम पूछोगे