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अभी तो आँच में‍ पककर ज़रा तैयार होने हैं 

अभी तो आँच में‍ पककर ज़रा तैयार होने हैं
अभी हम गीली मिट्टी के बहुत कच्चे खिलौने हैं

ये पर्वत ख़ूबसूरत लग रहे है‍ आपको साहब
मगर कुछ लोगे ऐसे हैं‍ जिन्हें कन्धे पे ढोने हैं

उजाले की फ़सल काटेगा वो अपने गाँव में जाकर
वो कहता है कि अब की बार उसने चाँद बोने हैं

भटकता रहता हूँ दिनभर किताबें कापियाँ लेकर
मैं उस छोटे-से कमरे में कि जिसमें चार कोने हैं

कभी फिर आपके घर आएँगे वादा रहा यारो
अभी घर जाके हमने सर्फ़ में कपड़े भिगोने हैं

अभी हम चाँदनी का जिस्म छू सकते नहीं हर्गिज़
अभी तो धूप के पानी से हमने हाथ धोने हैं

हवाएँ, धूप, पानी, आग, बारिश, आसमाँ, तारे
यही कम्बल हमारे हैं यही अपने बिछौने हैं

वक़्त के साथ ढल गया हूँ मैं

वक़्त के साथ ढल गया हूँ मैं
बस ज़रा-सा बदल गया हूँ मैं

लौट आना भी अब नहीं मुमकिन
इतना ऊँचा उछल गया हूँ मैं

रेलगाड़ी रुकेगी दूर कहीं
थोड़ा पहले सँभल गया हूँ मैं

आपके झूठे आश्वासन थे
मुझको देखो बहल गया हूँ मैं

मुझको लश्कर समझ रहे हैं आप
जोगियों-सा निकल गया हूँ मैं

मैं तो चाबी का इक खिलौना था
ये ग़नीमत कि चल गया हूँ मैं

हँस रही हैं ऊँचाइयाँ मेरी
सीढ़ियों से फिसल गया हूँ मैं

जब लगी भूख तो पाषाण चबाए उसने

जब लगी भूख तो पाषाण चबाए उसने
अपने बच्चों के लिए पैसे बचाए उसने

आसमाँ धूप हवा छाँव परिंदे जुगनू
अपने घर में कई मेहमान बुलाए उसने

तू शिकारी की ज़रा देख दयानतदारी
परकटे जितने परिंदे थे उड़ाए उसने

वक़्त नादान -से बालक की तरह था यारो
मेरी गुल्लक से कई सिक्के चुराए उसने

बैठने के लिए मैं ढूँढ रहा था कुर्सी
फ़र्श पर धूप के अख़बार बिछाए उसने

प्यास के मारे हिरन को जो पिलाया पानी
एक ही पल में कई जश्न मनाए उसने

कहकशाँ उसकी चुरा कर मैं कहाँ पर रखता
मुझपे आरोप निराधार लगाए उसने

लड़ाई अब हमारी ठन रही है

लड़ाई अब हमारी ठन रही है

कि अब दिल्ली शिकागो बन रही है

तुम्हारी ऐशगाहों से गलाज़त

बड़ी बेशर्म होकर छन रही है

ग़रीबों की खुशी भी दरहकीकत-

नगर के सेठ की उतरन रही है

ये मेरी देह को क्या हो रहा है

किसी तलवार जैसी बन रही है

गज़ब किरदार है उस झोपड़ी का

जो आँधी के मुकाबिल तन रही है

लहू से चित्रकारी कर रहे हैं

ये बस्ती खूबसूरत बन रही है

हाथ पर आसमान

लोग ऊँची उड़ान रखते हैं

हाथ पर आसमान रखते हैं

शहर वालों की सादगी देखो-

अपने दिल में मचान रखते हैं

ऐसे जासूस हो गए मौसम-

सबकी बातों पे कान रखते हैं

मेरे इस अहद में ठहाके भी-

आसुओं की दूकान रखते हैं

हम सफ़ीने हैं मोम के लेकिन-

आग के बादबान रखते हैं

कर्फ़्यू का मारा शहर

दोस्ती में अदावत का डर दोस्तो

रफ़्ता-रफ़्ता करेगा असर दोस्तो

वो धुआं है तो फिर उड़के खो जाएगा

आदमी है तो आएगा घर दोस्तो

मेरे अंदर है बैचेन-सी हर गली

मैं हूँ कर्फ़्यू का मारा शहर दोस्तो

भोर का वो सितारा विदा हो गया

मेरे हाथों पे रखके सहर दोस्तो

बीच में एक अर्जुन पशेमान था

कुछ इधर भाई थे, कुछ उधर दोस्तो

छेद ही छेद उसके सफ़ीन में थे

और पानी पे था उसका घर दोस्तो

ख़ुद से मुँह छुपाके

पत्थर उठाके झील में वो फेंकता रहा

पानी को छटपटाता हुआ देखता रहा

मत जा कड़ी है धूप, ज़रा छाँव मे ठहर

रस्ते का एक पेड़ मुझे रोकता रहा

बारिश में भीगता हुआ बालक गरीब का

लोगों की छतरियों को खड़ा देखता रहा

मैं उससे आगे बढ़ गया जिसकी न थी उम्मीद

मेरा नसीब पीछे मेरे हाँफता रहा

रोटी है एक लफ़्ज या रोटी है इक खुशी

ये प्रश्न अपनी भूख से मैं पूछता रहा

जब ये खबर हुई मुझे मैं आइना भी हूँ

तो खुद से मुँह छुपाके कहीं भागता रहा

अँधेरे की पुरानी चिट्ठियाँ 

हाथ में लेकर खड़ा है बर्फ़ की वो सिल्लियाँ
धूप की बस्ती में उसकी हैं यही उपलब्धियाँ

आसमा की झोपड़ी में एक बूढ़ा माहताब
पढ़ रहा होगा अँधेरे की पुरानी चिट्ठियाँ

फूल ने तितली से इकदिन बात की थी प्यारकी
मालियों ने नोंच दीं उस फूल की सब पत्तियाँ

मैं अंगूठी भेंट में जिस शख़्स को देने गया
उसके हाथों की सभी टूटी हुई थी उँगलियाँ

टूटे हुए पर की बात

कभी दीवार कभी दर की बात करता था

वो अपने उज़ड़े हुए घर की बात करता था

मैं ज़िक्र जब कभी करता था आसमानों का

वो अपने टूटे हुए पर की बात करता था

न थी लकीर कोई उसके हाथ पर यारो

वो फिर भी अपने मुकद्दर की बात करता था

जो एक हिरनी को जंगल में कर गया घायल

हर इक शजर उसी नश्तर की बात करता था

बस एक अश्क था मेरी उदास आंखों में

जो मुझसे सात समंदर की बात करता था

दिल्ली शिकागो बन रही है

लड़ाई अब हमारी ठन रही है

कि अब दिल्ली शिकागो बन रही है

तुम्हारी ऐशगाहों से गलाज़त

बड़ी वेशर्म होकर छन रही है

ग़रीबों की ख़ुशी भी दरहकीकत-

नगर के सेठ की उतरन रही है

ये मेरी देह को क्या हो रहा है

किसी तलवार जैसी बन रही है

गज़ब किरदार है उस झोपड़ी का

जो आँधी के मुकाबिल तन रही है

लहू से चित्रकारी कर रहे हैं

ये बस्ती खूबसूरत बन रही है

तमाम घर को बयाबाँ बना के रखता था

तमाम घर को बयाबाँ बना के रखता था
पता नहीं वो दीए क्यूँ बुझा के रखता था

बुरे दिनों के लिए तुमने गुल्लक्कें भर लीं,
मै दोस्तों की दुआएँ बचा के रखता था

वो तितलियों को सिखाता था व्याकरण यारों-
इसी बहाने गुलों को डरा के रखता था

न जाने कौन चला आए वक़्त का मारा,
कि मैं किवाड़ से सांकल हटा के रखता था

हमेशा बात वो करता था घर बनाने की
मगर मचान का नक़्शा छुपा के रखता था

मेरे फिसलने का कारण भी है यही शायद,
कि हर कदम मैं बहुत आज़मा के रखता था

तेरा शो-केस भी क्या खूब ठसक रखता था 

तेरा शो-केस भी क्या खूब ठसक रखता था
इसमें मिट्टी का खिलौना भी चमक रखता था

आपने गाड़ दिया मील के पत्थर-सा मुझे-
मेरी पूछो तो मैं चलने की ललक रखता था

वो शिकायत नहीं करता था मदारी से मगर-
अपने सीने में जमूरा भी कसक रखता था

मुझको इक बार तो पत्थर पे गिराया होता-
मैं भी आवाज़ में ताबिंदा खनक रखता था

ज़िंदगी! हमने तेरे दर्द को ऐसे रक्खा-
प्यार से जिस तरह सीता को, जनक रखता था

मर गया आज वो मेरे ही किसी पत्थर से
जो परिंदा मेरे आंगन में चहक रखता था.

उसने इतना तो सलीका रक्खा

उसने इतना तो सलीका रक्खा
बंद कमरे में दरीचा रक्खा

तुमने आँगन में बनाई गुमटी
मैंने छोटा-सा बगीचा रक्खा

गीत आज़ादी के गाये सबने
और पिंजरे में परिंदा रक्खा

उसने हर चीज़ बदल दी अपनी
जिस्म का घाव पुराना रक्खा

घर बनाने के लिए पक्षी ने
चार तिनकों पे भरोसा रक्खा

उसने जाते हुए अश्कों से भरा—
मेरे हाथों पे लिफ़ाफ़ा रक्खा.

सब पुरानी निशानियाँ गुम-सुम

सब पुरानी निशानियाँ गुमसुम
ज़िन्दगी की कहानियाँ गुमसुम

घर के बाहर पिता है फ़िक्रज़दा
घर में रहती हैं बेटियाँ गुमसुम

एक कम्बल था गुम हुआ यारो
अब के गुज़रेंगी सर्दियाँ गुमसुम

झोंपड़ी की तो ख़ैर फ़ितरत थी
हमने देखीं अटारियाँ गुमसुम

दश्ते-तन्हाई भी अजब शय है
पेड़ ख़ामोश , झाड़ियाँ गुमसुम

क़त्ल कर आई हैं चरागों का
देख, बै्ठी हैं आँधियाँ गुमसुम.

बात करता है इतने अहंकार की

बात करता है इतने अहंकार की
जैसे बस्ती का हो वो कोई चौधरी

मौत के सायबाँ से गुज़रते हुए
वो पुकारा बहुत— ज़िंदगी-ज़िंदगी !!

कैनवस पे वो दरिया बनाता रहा
उसको बेचैन करती रही तिश्नगी

उसकी आँखों में ख़ुशियों के त्यौहार थे
उसके हाथों में थी एक गुड़ की डली

क़र्ज़ के वास्ते हाथ रक्खे रहन
इक जुलाहे की देखो तो बेचारगी

मेरे अश्कों की वो भाप थी दोस्तो
एक ‘ एंटीक ’ की तरह बिकती रही

मैं शीशे की तरह गर टूट जाता

मैं शीशे की तरह गर टूट जाता
वो पलकों से मेरी किरचें उठाता

उसे भी तैरना आता नहीं था
मुझे वो डूबने से क्या बचाता

मेरी मजबूरियाँ हैं दोस्त वरना
किसी के सामने क्यूँ सर झुकाता

ये दस्ताने तेरे अच्छे हैं लेकिन
तू मुझसे हाथ वैसे ही मिलाता

खड़ा हूँ साइकिल लेके पुरानी
नये बाज़ार में डरता-डराता

अगर होता मैं इक छोटा-सा बालक
तो फिर कागज़ के तैय्यारे बनाता

वो रिश्तों को कशीदा कर गया है
मिला है मुझसे लेकिन मुँह चिढ़ाता.

अगर मैं धूप के सौदागरों से डर जाता

अगर मैं धूप के सौदागरों से डर जाता
तो अपनी बर्फ़ उठाकर बता किधर जाता

पकड़ के छोड़ दिया मैंने एक जुगनू को
मैं उससे खेलता रहता तो वो बिखर जाता

मुझे यक़ीन था कि चोर लौट आएगा
फटी क़मीज़ मेरी ले वो किधर जाता

अगर मैं उसको बता कि मैं हूँ शीशे का
मेरा रक़ीब मुझे चूर-चूर कर जाता

तमाम रात भिखारी भटकता फिरता रहा
जो होता उसका कोई घर तो वो भी घर जाता

तमाम उम्र बनाई हैं तूने बन्दूकें
अगर खिलौने बनाता तो कुछ सँवर जाता.

मैं अपने हौसले को यकीनन बचाऊँगा

मैं अपने हौसले को यक़ीनन बचाऊँगा
घर से निकल पड़ा हूँ तो फिर दूर जाऊँगा

तूफ़ान आज तुझसे है , मेरा मुकाबला
तू तो बुझाएगा दीये, पर मैं जलाऊँगा

इस अजनबी नगर में करूँगा मैं और क्या
रूठूँगा अपने आपसे ख़ुद को मनाऊँगा

ये चुटकुला उधार लिए जा रहा हूँ मैं
घर में हैं भूखी बेटियाँ उनको हँसाऊँगा

गुल्लक में एक दर्द का सिक्का है दोस्तो,
बाज़ार जा रहा कि उसको भुनाऊँगा

बादल को दे के दावतें इस फ़िक्र में हूँ मैं
कागज़ के घर में उसको कहाँ पर बिठाऊँगा.

हवा से छोड़ अदावत कि दोस्ती का सोच 

हवा से छोड़ अदावत कि दोस्ती का सोच
अए चाराग, तू चरागों की रोशनी का सोच

समन्दरों के लिए सोचना है बेमानी
जो सोचना है तो सूखी हुई नदी का सोच

तू कर रहा सफ़र ,करके बन्द दरवाज़ा
जो पायदान पे है उसकी बेबसी का सोच

हमेशा याद रहा तुझ को राम का बनवास
कभी तू बैठ के थोड़ा-सा जानकी का सोच

हमें तो मौत भी लगती है हमसफ़र अपनी
हमारी फ़िक्र न कर अपनी ज़िन्दगी का सोच

निज़ाम छोड़ के जिसने फ़क़ीरी धरण की
अमीरे-शहर, उस गौतम की सादगी का सो़च

जो क़ाफ़िले में है शामिल न ज़िक्र कर उसका
जो हो गया है अकेला उस आदमी का सोच.

बुरे दिनों का आना-जाना लगा रहेगा 

बुरे दिनों का आना-जाना लगा रहेगा
सुख-दुख का ये ताना-बाना लगा रहेगा

मैं कहता हूँ मेरा कुछ अपराध नहीं है
मुंसिफ़ कहता है जुर्माना लगा रहेगा

लाख नए कपड़े पहनूँ लेकिन ये सच है,
मेरे पीछे दर्द पुराना लगा रहेगा

मेरे हाथ परीशां होकर पूछ रहे हैं-
कब तक लोहे का दस्ताना लगा रहेगा

महानगर ने इतना तन्हा कर डाला है
सबके पीछे इक वीराना लगा रहेगा

युद्ध हुआ तो खाने वाले नहीं बचेंगे-
होटल की मेज़ों पे खाना लगा रहेगा

दिन का था कभी डर तो कभी रात का डर था

दिन का था कभी डर तो कभी रात का डर था
इस बात का डर था कभी उस बात का डर था

जो भीग चुका वो भला किस बात से डरता
जो घर में खड़ा था उसे बरसात का डर था

धनवानों की महफ़िल में सभी बोल रहे थे
वो चुप था कि उस शख़्स को औक़ात का डर था

ऐ दोस्त मैं हैरान नहीं तेरे अमल पर
जो तूने दिया है उसी आघात का डर था

जिन्सों को तो बाज़ार में बिकना था ज़रूरी
बाज़ार में बिकते हुए जज़्बात का डर था

उस शख़्स ने कालीन मुझे दे तो दिया था
रक्खूँगा कहाँ, मुझको इसी बात का डर था.

तेज़ बारिश हो या हल्की, भीग जाएँगे ज़रूर 

तेज़ बारिश हो या हल्की भीग जाएँगे ज़रूर
हम मगर अपनी फटी छतरी उठाएँगे ज़रूर

दर्द की शिद्दत से जब बेहाल होंगे दोस्तो
तब भी अपने आपको हम गुदगुदाएँगे ज़रूर

इस सदी ने ज़ब्त कर ली हैं जो नज़्में दर्द की
देखना उनको हमारे ज़ख़्म गाएँगे ज़रूर

बुलबुलों की ज़िन्दगी का है यही बस फ़ल्सफ़ा
टूटने से पेशतर वो मुस्कुराएँगे ज़रूर

आसमानों की बुलंदी का जिन्हें कुछ इल्म है
एक दिन उन पक्षियों को घर बुलाएँगे ज़रूर.

पता नहीं कि वो किस ओर मोड़ देगा मुझे

पता नहीं कि वो किस ओर मोड़ देगा मुझे
कहाँ घटाएगा और किसमें जोड़ देगा मुझे

मैं राजपथ पे चलूँगा तो और क्या होगा
कोई सिपाही पकड़ के झिंझोड़ देगा मुझे

पतंग की तरह पहले उड़ाएगा ऊँचा
फिर उसके बाद वो धागे से तोड़ देगा मुझे

अमीरे-शहर के बरअक़्स तन गया था मैं
वो अब कमान की मानिंद मोड़ देगा मुझे

वो इत्र बेचने वाला बड़ा ही ज़ालिम है
मैं फूल हूँ तो यक़ीनन निचोड़ देगा मुझे.

ऐसे कर्फ़्यू में भला कौन है आने वाला 

ऐसे कर्फ़्यू में भला कौन है आने वाला
गश्त पे एक सिपाही है पुराने वाला

सामने जलते हुए शहर का मंज़र रखके
कितना बेक़ैफ़ है तस्वीर बनाने वाला

वक़्त , मैं तेरी तरह तेज़ नहीं चल सकता
दूसरा ढूँढ कोई साथ निभाने वाला

मोम के तार में अंगारे पिरो दूँ यारो
मैं भी कर गुज़रूँ कोई काम दिखाने वाला

एक क़ाग़ज़ के सफ़ीने से मुहब्बत कैसी
डूब जाएगा अभी तैर के जाने वाला.

सभी को कीमती कपड़े पहन के आने हैं 

सभी को कीमती कपड़े पहन के आने हैं
बदन के घाव हर इक शख़्स को दिखाने हैं

अभी न छीन तू परवाज़ उस परिंदे की
अभी तो उसने कई घोंसले बनाने हैं

तेरे शहर की उदासी का हाल तू जाने
मेरे शहर में लतीफ़ों के कारख़ाने हैं

मैं इस लिए नहीं बारात में हुआ शामिल
फटी कमीज़ है जूते भी कुछ पुराने हैं

शहर की पटरियों पे बन गई हैं दूकानें
भिखारियों के न जाने कहाँ ठिकाने हैं

कटी पतंग के पीछे वो भागते ही नहीं
हमारे शहर के बच्चे बहुत सयाने हैं

जो ख़ुद कुशी के बहाने तलाश करते हैं

जो ख़ुद कुशी के बहाने तलाश करते हैं
वो नामुराद बहुत ज़िन्दगी से डरते हैं

मेरा मकान पुरानी सराय जैसा है
कई थके हुए राही यहाँ ठहरते हैं

ये बात दर्ज़ है इतिहास की किताबों में
कि बादशाहों की ख़ातिर सिपाही मरते हैं

वो टूटते हैं मगर क़हक़हा लगाते हुए
कि बुलबुले कहाँ अपनी क़ज़ा से डरते हैं

खड़ा हुआ है अँधेरे में तू दिया लेकर
तेरे वजूद का सब एहतराम करते हैं

वो मेरे जिस्म के अन्दर है ज़लज़लों की तरह 

वो मेरे जिस्म के अन्दर है ज़लज़लों की तरह
मैं बदहवास-सा फिरता हूँ पागलों की तरह

तू आसमान में यूँ छोड़ के न जा मुझको
पते बदलते रहूँगा मैं बादलों की तरह

उठा सके तो ज़रा हाथ पे उठा मुझको
कि मैं तो रहता हूँ पानी पे बादलों की तरह

अगर ये शहरे-मुहब्बत है तो बता मुझको
हमारे बीच है ये कौन फ़ासलों की तरह

फ़क़ीर होते हैं बेखौफ़, तन्हा रहते हैं,
ज़मानासाज़ ही चलते है क़ाफ़िलों की तरह

लम्हा-लम्हा पिघलती आवाज़ें 

लम्हा-लम्हा पिघलती आवाज़ें
दूर तक साथ चलती आवाज़ें

एक बूढ़ा – सा रेडियो घर में
खरखरा कर निकलती आवाज़ें

सुबह से शाम तक वही मंज़र
सिर्फ़ कपड़े बदलती आवाज़ें

सीड़ियों से मुंडेर तक,शब भर—
चाँदनी की टहलती आवाज़ें

फिर नहीं आया काबुली वाला—
उसकी यादों में पलती आवाज़ें

धूप के डाल कर नए जूते—
आज इठला के चलती आवाज़ें

शोर फुटबाल जैसा गलियों में
खिड़कियों से उछलती आवाज़ें

जला के तीलियाँ अब दोस्त मिलने आया है

जला के तीलियाँ अब दोस्त मिलने आया है
कि मैने आज इक क़ाग़ज़ का घर बनाया है

पता नहीं मुझे दावत में क्या खिलाए वो
जो अपने वास्ते पत्थर उबाल लाया है

भटकने के लिए दुनिया में रहनुमाओं ने
ज़मीं पे एक फ़िलिस्तीन भी बनाया है

पता लगाओ कि इन्सान है या वो रोबोट
जो तितलियों की चटाई बनाने आया है

बड़ों ने यत्न किए और थक गये लेकिन
पतंग तार से बच्चा उतार लाया है

खड़ा हुआ था वहीं आँसुओं के जलसे में
कि जिसने अपना लतीफ़ों से घर बनाया है

ज़िन्दगी के लिए इक ख़ास सलीक़ा रखना

ज़िन्दगी के लिए इक ख़ास सलीक़ा रखना
अपनी उम्मीद को हर हाल में ज़िन्दा रखना

उसने हर बार अँधेरे में जलाया ख़ुद को
उसकी आदत थी सरे-राह उजाला रखना

आप क्या समझेंगे परवाज़ किसे कहते हैं
आपका शौक़ है पिंजरे में परिंदा रखना

बंद कमरे में बदल जाओगे इक दिन लोगो
मेरी मानो तो खुला कोई दरीचा रखना

क्या पता राख़ में ज़िन्दा हो कोई चिंगारी
जल्दबाज़ी में कभी पाँव न अपना रखना

वक्त अच्छा हो तो बन जाते हैं साथी लेकिन
वक़्त मुश्किल हो तो बस ख़ुद पे भरोसा रखना

पेड़ पर्वत परिन्दे सभी प्रार्थना 

पेड़ पर्वत परिंदे सभी प्रार्थना
वक़्त के सामने ज़िन्दगी प्रार्थना

घुप अँधेरा बियाबान चारों तरफ़
जैसे जुगनू की हो रोशनी प्रार्थना

रेज़गारों , में झुलसे हुए शख़्स को
एक कीकर की छाँव लगी प्रार्थना

जो कि मुफ़लिस के हक़ में लिखी जाएगी
शायरी होगी वो दर्द की प्रार्थना

फ़लसफ़ा आपका मुझको अच्छा लगा
आदमी के लिए आदमी प्रार्थना

इस जटिल झूठे चालाक संसार में
आपकी सादगी अनकही प्रार्थना

तेज़-तूफ़ान अपशब्द लिखता रहा
और दीपक की मासूम-सी प्रार्थना.

ये तमाशा भी अजबतर देखा 

ये तमाशा भी अजबतर देखा
बर्फ़ पे धूप का बिस्तर देखा

लौट कर सारे सिपाही ख़ुश थे
सिर्फ़ ग़मगीन सिकंदर देखा

सेठ साहब ने ठहाके फेंके
मुफ़लिसों ने उन्हें चुन कर देखा

खोटे सिक्के की मिली भीख उसे
एक अंधे का मुकद्दर देखा

एक तिनके में खड़ा था जंगल
एक आँसू में समन्दर देखा

अजनबी शहर मेम इक बच्चे ने
जाते-जाते मुझे हँसकर देखा

ज़िन्दगी ! तू बड़ी मुश्किल थी मगर
तुझको हर हाल में जी कर देखा.

मैं इक चराग हूँ जलना है ज़िन्दगी मेरी

मैं इक चराग हूँ जलना है ज़िन्दगी मेरी
छुपी हुई है इसी दर्द में ख़ुशी मेरी

खड़ा हूँ मश्क लिए मैं उदास सहरा में
किसी की प्यास बुझाना है बंदगी मेरी

मैं एक ऐसा गडरिया हूँ, बकरियाँ सब हैं
चुरा के ले गया इक चोर बाँसुरी मेरी

मैं नंगे पाँव हूँ जूते ख़रीद सकता नहीं
पर इसको लोग समझते हैं सादगी मेरी

खड़ा हूँ क़ाग़ज़ी कपड़े पहन के बारिश में
ये हौसला है मेरा या है बेबसी मेरी

महानगर में अकेला तू जा रहा है तो जा
खलेगी एक दिन बेहद तुझे कमी मेरी.

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