बहुत मुश्किल था मुझ को राह का हमवार कर देना
बहुत मुश्किल था मुझ को राह का हमवार कर देना
तो मैं ने तय किया इस दश्त को दीवार कर देना
तो क्यूँ इस बार उस ने मेरे आगे सर झुकाया है
उसे तो आज भी मुश्किल न था इंकार कर देना
फिर आख़िरकार ये साबित हुआ मंज़ूर था तुझ को
हमारे अरसा-ए-हस्ती को बस बेकार कर देना
उसे है रोज़ पानी की तरह मेरी तरफ़ आना
और अपने जिस्म को कुछ और आतिश-बार कर देना
वो उस का रात भर तामीर करना मुझ को मुश्किल से
मगर फिर सुब्ह से पहले मुझे मिस्मार कर देना
हम हिज्र के रस्तों की हवा देख रहे हैं
हम हिज्र के रस्तों की हवा देख रहे हैं
मंज़िल से परे दश्त-ए-बला देख रहे हैं
इस शहर में एहसास की देवी नहीं रहती
हर शख़्स के चेहरे को नया देख रहे हैं
इंकार भी करने का बहाना नहीं मिलता
इक़रार भी करने का मज़ा देख रहे हैं
तू है भी नहीं और निकलता भी नहीं है
हम ख़ुद को रग-ए-जाँ के सिवा देख रहे हैं
कुछ कह के गुज़र जाएगा इस बार ज़माना
हम उस के तबस्सुम की सदा देख रहे हैं
न बेकली का हुनर है न जाँ-फ़ज़ाई का
न बेकली का हुनर है न जाँ-फ़ज़ाई का
हमें तो शौक़ है बस यूँही नय-नवाई का
जब उस को जानने निकले तो कुछ नहीं जाना
ख़ुदा से हम को भी दावा था आश्नाई का
रह-ए-हयात में कोई नहीं तो क्या शिकवा
हमें गिला है तो बस अपनी बेवफ़ाई का
हमारी आँखों से शबनम टपक रही है अभी
यही तो वक़्त है उस गुल की रू-नुमाई का
उसे कहाँ हमें क़ैदी बना के रखना था
हमें को शौक़ नहीं था कभी रिहाई का
हम जब्र-ए-मोहब्बत से गुरेज़ाँ नहीं होते
हम जब्र-ए-मोहब्बत से गुरेज़ाँ नहीं होते
ज़ुल्फ़ों की तरह तेरी परेशाँ नहीं होते
ऐ इश्क़ तिरी राह में हम चल तो रहे हैं
कुछ मरहले ऐसे हैं जो आसाँ नहीं होते
दानाओं के भी होश उड़े राह-ए-तलब में
नादाँ जिन्हें कहते हो वो नादाँ नहीं होते
जल्वों के तिरे हम जो तमाशाई रहे हैं
सौ जल्वे हों नज़रों में तो हैराँ नहीं होते
अल्लाह रे ये वहशत-ए-उश्शाक़ का आलम
महफ़ूज कभी जैब-ओ-गरेबाँ नहीं होते
क्या उन की भी आँखों में है मेरा ही गुल-ए-तर
ऐसे तो मेरे दोस्त-गुलिस्ताँ नहीं होते
नज़ारगी-ए-शौक़ ने दीदार में खींचा
नज़ारगी-ए-शौक़ ने दीदार में खींचा
फिर मैं ने उसे अपने हवस-ज़ार में खींचा
खुलती नज़र आती है क़बा-ए-गुल-ए-मक़्सद
एहसास-ए-तलब ने जो उसे ख़ार में खींचा
है दीदनी गुल-कारी-ए-एहसास-ओ-तख़य्युल
क्या आरिज़-ए-गुल को लब-ए-इज़िहार में खींचा
तस्वीर सी इक बन गई क्या जानिए किस की
क़तरों ने नम अपना मिरी दीवार में खींचा
ता-हद्द-ए-नज़र खुलती गई जुल्फ़-ए-दो-आलम
एहसास ये किस का दिल-ए-बेदार में खींचा
फिर क़िस्सा-ए-शब लिख देने के ये दिल हालात बनाए है
फिर क़िस्सा-ए-शब लिख देने के ये दिल हालात बनाए है
हर शेर हमारा आख़िर को तेरी ही बात बनाए है
तुम को है बहुत इंकार तो तुम भी इस की तरफ़ जा कर देखो
वो शख़्स अमावस रात को कैसे चाँदनी रात बनाए है
अब ख़्वाब में भी उस ज़ालिम को बस हिज्र का सौदा रहता है
ऐ जज़्बा-ए-दिल तू किस के लिए ये फूल और पात बनाए है
क्या होश-ओ-ख़िरद क्या हर्फ़-ओ-नवा सब अपने लिए बेकार हुए
क़िर्तास-ए-नज़र पर तन्हाई बीते लम्हात बनाए है
हर बार वही हिज्राँ हिज्राँ का शोर मचाने वाला दिल
अपनी ही करे है रिश्ता-ए-ग़म तेरे ही सात बनाए है
क्या जानिए अब के मौसम में कब वक़्त के जी में क्या आए
किस की औक़ात बिगाड़े है कि की औक़ात बनाए है
ये तेरा दिवाना रात गए मालूम नहीं क्यूँ पहरों तक
आँसू की लकीरों से कितने नक़्श-ए-जज़्बात बनाए है
ये शहर अपनी इसी हा-ओ-हू से ज़िंदा है
ये शहर अपनी इसी हा-ओ-हू से ज़िंदा है
तुम्हारी और मिरी गुफ़्तुगू से ज़िंदा है
कुछ इस कदर भी बुराई नहीं है मज़हब में
जहान कलमा-ए-ला-तक़नतू से ज़िंदा है
हम अपनी नफ़स-कुशी की तरफ़ नहीं माइल
कि अपना जिस्म तो बस आरज़ू से ज़िंदा है
अब उस के बाद बताएँ तो क्या बताएँ हम
तमाम क़िस्सा-ए-मन है कि तू से ज़िंदा है
हम इस के बाद भी सरगर्म-ए-ज़िंदगी हैं कि दिल
बस एक क़तरा-ए-ताज़ा-लहू से ज़िंदा है
यूँ भी तो तिरी राह की दीवार नहीं है
यूँ भी तो तिरी राह की दीवार नहीं है
हम हुस्न-ए-तलब इश्क़ के बीमार नहीं है
या तुझ को नहीं क़द्र हम-आशुफ़्ता-सरो की
या हम ही मोहब्बत के सज़ा-वार नहीं है
क्या हासिल-ए-कार-ए-ग़म-ए-उल्फ़त है कि मजनूँ
अब दश्त-नवर्दी को भी तय्यार नहीं है
अक्सर मिरे शेरों की सना करते रहे हैं
वो लोग जो ग़ालिब के तरफ़-दार नहीं हैं
अब तुझ को सलाम ऐ ग़म-ए-जानाँ कि जहाँ में
क्या हम से दीवानों के ख़रीदार नहीं है
फिर तुझ से जुदा हो के कहीं ख़ुद से बिछड़ जाएँ
हम लोग कुछ ऐसे भी दिल-आज़ार नहीं हैं