एकालाप
गैस चेंबर द्वितीय विश्वयुद्ध में
या हिटलर का प्रथम प्रयोग नहीं था,
शुरुआत तो तभी हो गयी,
जब जंगली रास्तों पर
छुपे हुए फंदे लगाए गये,
जंगली जलस्रोतों में ज़हर घोला गया,
और निवाले में बारूद भर, रखा गया!
तब से अब तक कितने वनराज कितने गजराज
और कितने झुंडो का सफाया हुआ!
और कितने प्रकृति पड़ोसी कहाँ विलुप्त हो गये
तब अगला क्रम – युद्ध में बारूद और गैस
और फिर अगला क्रम नागासाकी हिरोशिमा
और फिर अगला क्रम – कई कदम आगे
युद्ध और शांति की दहलीजों के पार –
न फंदे, न बारूद, न ज़हर, न गैस –
जिसके लिए किसी घोषित युद्ध या शांति
की जरूरत नहीं –
यह तो बस एक मौसमों में घुला हुआ
शून्य में भी दस्तक देता वायरस, –
भस्मासुर चंगुल में पकड रहा है, मानव भाग रहा है,
कोई संदेह नहीं बचा है? कोई प्रश्न नहीं?
सशरीर स्वर्गारोहण का मार्ग महाविनाशक
द्वार है, मानव जाति की बलि बेदी है,
भस्मासुर प्रभु की विडम्बना हो सकती है,
पर मानवता का विनाश मात्र,
भस्मासुर का यह पहला दुष्प्रयोग
या प्रथम दुर्घटना हो सकती है
पर अन्तिम अवसर है साथी,
दिशा बदल दो, आओ चलें
अपनी धरती पर, अपने प्रकृति मे
अपने पड़ोसियों के बीच
सृष्टि-बिम्ब
[झंझावात, मात्र विनाश और विध्वंस का पर्याय बनकर, अपनी सहज प्रकृतिवश बादल-बिजली के संग ‘बुद्धि-प्रज्ञा-चेतना’ के ज्ञान मार्गी धूनी का विलोम प्रस्तुत करता हुआ, सर्जना-चेतना (जो मनुष्य में अन्तर्गुम्फित ब्रह्माण्ड और पिंड के बीच की एकमात्र कड़ी है) के गतिमानस्वरुप की वैपरीत्य बन, चेतना के अन्तिम विजय-फल के रूप में शिशु (सृष्टि) को यद्यपि की समग्र के पालने में झूलता देखता है, पर शिशु अपने आप में मानव और मानवता का अंकुर बन एक और अनन्त उर्ध्वगामी संभावना का बीज लिए किलकारी मारता है और परम-ब्रह्म से एक कड़ी बनता है – कि हे धरती! यह लो मैं अपना अमृत-पुत्र तुझे देता हूँ]
गरज-गरज अम्बर में
जब भर नाद,
प्रबल झंझा हुंकारे,
घुमड़-घुमड़ बादल चढ़ आयें,
बिजली-कड़के।
धूनी लगाए, परम-चेतना,
दिव्य-दृष्टि से
दस दिशि करती भ्रमण
बींधते महाकाल को॥
परत दर परत, घने-काले बादल घिर
घटाटोप कर, घोर-घोर गर्जन घहराएँ
अंधड़ उठ विकराल,
धूल-धूसरित कर जल-थल
हरहरात हहकार करे नभ अन्दर-बाहर॥
चमक चमक, कर डंक करारी बिजली दौड़े
कोलाहल क्रन्दन के तीखे दंश बनाए।
लांघ कर घटाटोप को, दबाए निज पैरों से
सुनाती लोरी-लय की, हर गर्जन पर
कड़कती बिजली का संचार
करें तेजस्वी उस
शिशु-सृष्टि विम्ब को॥
झुलाता बादल, पलना घुमड़-घुमड़ कर
सजोती परम-चेतना उस नन्हें को
जो अम्बर में ठहर-ठहर
भरता किलकारी
धूनी लगाए – परम चेतना दिव्य-दृष्टि से
दस-दिशी करती भ्रमण
पूजती आह्लादित हो,
इष्ट-देव को महादेव को॥
मुक्ति-पथ
हर सुबह लौट आता है सूरज,
अपने माथे पर लगाए लाल-गुलाल
और थाम लेता है लहराता आँचल, बीतती रात का,
हर शाम देर-सबेर लौट आता है
सैलानी मनचला चांद और
थाम लेता है धरती का हाथ, सपनों की चाँदनी में
दौड़ता दुधिया बादलों के बीच,
तभी तो सूरज और चांद – इन दोनों को,
समझाती-बुझाती है धरती बार-बार, बारम्बार,
कहां दौड़ते हो हर रात-हर दिन,
अनजानी राह अनजाने देश ?
क्या चाहते हो,
इस विराट शून्य से,
जरा ठहरो तो सही,
बता दो सिर्फ एक बार
एक बार तो बता दो-
क्या? और कहां? !
सूरज ने कहा था – तुम मेरी पत्नी हो, अर्द्धांगिनी हो,
लो इसलिए बताता हूँ
मेरे लिए यह एक प्रश्न है
परिदृश्य का –
मैं तोड़ देना चाहता हूं सौर-मंडल की
प्राचीनता, समरूपता और एकरसता,
इस सिस्टम का ठहराव,
इसमें दम घुटता है सबका,
कुछ भी नहीं है
जो नया हो, जो सार्थक हो
सब कुछ ठहर गया है, सब कुछ जर्जर हो गया है॥
सूरज की अराजक परिवर्तन की चाह
अर्थहीन असंतोष को कारण
सीमा से परे एक आस्था थी – आत्महंता,
जिसको पाने या करने की शर्त होगी – प्रलय, ध्वंस,
धरती को मालूम था जब भी, सूरज बदलेगा
ना रहेगा सौरमंडल, धरती या चाँद
ना जाड़ा ना गर्मी ना बरसात,
फिर कैसा चाहिए उसे संपूर्ण परिवर्तन, के लिए परिवर्तन
ऋतुओं से परे, सृष्टि से परे,
क्योंकि सूरज सृष्टा नहीं जो बदल सके
परिदृश्य, वह तो खुद ही सृष्टि है॥ 1 ॥
धरती ने कहा था, प्रिय!
तुम तो हर दिन देखते हो हर रात जाते हो
कहां-कहां कितनी-कितनी दूर
कभी दिखे अगर सृष्टा, तो होना नतमस्तक
मेरी तरफ से भी, बार-बार बारम्बार
जिसने मुझे तुम्हें दिया-
ताकि मैं तुम्हारी परिक्रमा करती रहूँ
ताकि मैं पाल सकूं, पोषण कर सकूँ
हर एक जीव, एक-एक पेड़ पौधे
जो मेरी ही मिट्टी में फलते फूलते
जीते मरते हैं, जो मेरे अपने हैं॥ 2 ॥
चांद ने कहा था, हे प्रिये,
चेतन हूँ, क्या करूँ, मेरी प्रकृति है,
सो लो बताता हूं, मेरे लिए यह एक सवाल है-
परिप्रेक्ष्य का –
मन भटकता है, बासी सच नहीं भाता,
तो नया अर्थ ढूंढने,
अनजान को जानने और सृष्टि को,
पहचानने की कोशिश में
परिप्रेक्ष्य–बदलने पड़ते हैं, – बदलता हूं, तभी तो, –
गोकि नहीं बदल सकता मैं अपना परिपथ –
न चमक सकता हूं दिन में, सो, खुद ही लुका छिपी करते,
अपनी ही दृष्टि बदलते, देखता हूँ तुम्हें,
आकाश के कभी इस दिशा में कभी उस कोने से
कभी शाम से ही या कभी आधी रात के बाद,।
पर सच मानों, परिप्रेक्ष्य बदलते हुए,
तुम्हारे बदले स्वरूप, यानी
रात में चमकती तुम्हारी श्यामल आंखें
और फैले काले बाल,
या सुबह होते दिखते तुम्हारे सौन्दर्य की सूर्ख आभा,
इन सब में भी मुझे एक शाश्वत का आभास होता है-
उसी को समझने, उसे ही देखने,
मैं दौड़ता हूं हर दिन प्रतिदिन॥ 3 ॥
चांद की जिज्ञासा स्वाभाविक थी,
पर वह कैसे देख सकता है, अपने को,
अपने परिप्रेक्ष्य को?
वह खुद ही उस सच का एक हिस्सा है,
जिसे देखने, परिप्रेक्ष्य ढूंढता है वह,
यानी वह विधेय है – उद्देश्य नहीं।
धरती ने कहा, हे भाग्यवान
कितने प्यारे हो, देख लेते हो एक सच के,
कितने रूप, या सभी रूपों में फैला एक सच।
फिर भी, या इसलिए,
अगर दिखे तुम्हें वह द्रष्टा, जिसकी दृष्टि थी
यह संसार, सूरज, तुम और मैं,
तो नमन करना मेरी तरफ से भी बार-बार बारम्बार।
यहां अनवरत और अनंतकाल से,
सृष्टि में बंधी और दृष्टि की दासी मैं,
फिर भी शाश्वत हो चली हूं,
ढूंढती हूं मुक्ति, जो फिर भी नहीं है परे,
दृष्टा से या सृष्टा से ………………॥ 4 ॥
धरा-पुत्री
प्रातः कालीन सूर्य के साथ
जब जिन्दगी अपना रंग बिखेरती है – चतुर्दिक,
उसका स्वागत करना मैंने तुमसे सीखा है,
सिंदूरी लाल रंग में नहाई धरा
अपनी धरोहर
तुम्हारे हवाले कर देती है
चिड़ियों के गीत, पौधों की सुगबुगाहट और
यहां तक की ढेर सारे लोगों की रोजी-रोटी ।
तुम्हारे पद चिन्हों पर उगते जाते हैं फूलों के अम्बार – रंग बिरंगे,
तुम्हारे बनते बिगड़ते मनःस्थिति के रंग, तुम्हारे पीछे
उन्हीं फूलों में निकलते जाते हैं।
तुम्हारे चले हुए रास्ते को साजते संवारते
लोगों को मिल जाता जीने का सम्बल और जीवन-धर्म ।
इतने सजीव और सार्थक संसार की सांस
वास्तव में तुम्हारी तपस्या से ही जन्मती है।
हे धरा पुत्री तुम्हारा यह तापस स्वरूप ही
देख सकते है नश्वर मनुष्य
पेड़ पौधे पखेरू और मैं,
तुम्हारे पास होने का मतलब है
सृजन में होना तुम्हारे साथ,
तुम्हें प्यार करने का अर्थ है
धरती और प्रकृति को प्यार करना
क्योंकि तुम सचमुच धरा-पुत्री ही हो।
तुम्हारे प्रतिदिन की गतिविधियां
एक जीवन यात्रा का पड़ाव है
तुम्हारी दैनिक दृष्टि
परिभाषित करती है जीवन धर्म
और तुम्हारी दिनचर्या भी
जगत गति की वाहक है।
मैं नहीं दूर कर सकता तुम्हारी बिडम्बना
वह तो तुम धरा से पूछो
प्रकृति से पूछो या फिर पूछो फैले आसमान से
कि तुम्हें ही क्यों मिली
यह विरासत-शाश्वत, अनवरत और सृजनशील
तत्वों के वहां पहुंचाने की
जहां सूर्यरथी धरती प्रकृति आदि -2
सभी तुम्हारी प्रतिक्षा कर रहे हों
तुम्हारी समय-यात्रा पूरा होने पर
बधाई देने के लिए।
मैं जानता हूं और महसूस भी करती हूं कि
ठीक वही मैं बन सकता हूं
तुम्हारा रथी,
क्योंकि उस रथ को चलाने का
सौभाग्य केवल उसे है
जो पग-पग पर तुम्हारे साथ
चल सके – पहुंच सके वहां
जहां पृथ्वी-आकाश, जन्म-मृत्यु
सब कुछ का
कोई अर्थ नहीं रह जाती है
महाबैताल
भरी, आषाढ़ी-रात गांव के छोर
स्याह-काले सन्नाटे,
बिंधता रोम-रोम, टर्राते मेढक, झींगुर झर्राते॥
टूटे-बिखरे छज्जे से होकर
रिसता दीवारों पर,
बीते-बारिश का कहर कोंचता गांव, बैल, घर॥
धुप्प अँधेरा पसर बैठता
दूर-दूर तक निर्जन ताल-पोखरे, पगडंडी को बांध ‘डीह’ तक॥
आधी रात चले छप-छप
बैताल सतह पानी-ढाबर
पर मुंह में लिए लुकार करे विचरण, सिवान भर॥
हरहरात पीपल समेत
खेतों से होकर,
ठहर ताल के पास, बुलाए प्रेत-निशाचर॥
पंगत बैठ, मंत्रणा कर
गिनते-पुकारते हुए
अकाल-काल के घातक सब अभिशप्त जनों को॥
खेत प्रहरी पर टूटी बिजली+
पिछले साल, हुआ बैताल
तभी से घिरे गांव के छोर, स्याह-काले जल से, लबलब॥
ऊपर, डूबे धान-खेत की
उत्सव भूमि बनाकर
करे प्रकम्पित हास्य-नाद प्रेतों का, बनझंझा दे झकझोर,
गांव के छोर॥
हास्य क्रन्दन के पहले, पोखर-बिच, अशुद्ध मंत्र उच्चारण
देता शक्ति सभी प्रेतों को,
जिससे तहस-नहस कर फसल, बांधकर ‘डीह’ रौंदते
जीवात्मा को॥
सोते हलवाहे, गड़ेरिये,
गाय-बैल बकरी समेत
रात की भभुति को
खोदे-गाड़ कर गहरे,
तोड़, यज्ञ-बेदी, सारे
विश्वास
उलट-पलट कर, घाल-मेल कर,
जन-जन के सपने में आया तोड़-मरोड़
त्रासद-पीड़ा-दायक
कौतुक करता बैताल, बनाता इन्द्रजाल पर इन्द्रजाल।
सोते बच्चे को चौंकता,
कि चले पांचवे-साल, किनारे ताल,
जहाँ जलप्लावित होकर, कर डाले विकराल जाल का ताल,
विचरे शाश्वत तृष्णा बीच महत्त्वाकांक्षी, बन बैताल महाबैताल॥
बंजारे
चैत की पुरवाई भरी रात में,
हौले-हौले झूमते, आम के बौर को
गुनगुनाते तुमने सुना,
टपकते हुए महुए के फूलों से
सराबोर महकते बगीचों को
बतियाते हुए तुमने सुना,
टिमटिमाते दिए की मद्धिम लौ में
जागते हुए तुम्हारे खेमें को,
चुपचाप रोते हमने देखा।
बन्जारे
क्या पिछले मुकाम पर
तुम्हारा कुछ छूट गया है?
पिछली राह पर,
फुदकता खरगोश
हवा में झूमती महकती दूब पर
ठीक वहीं खेल रहा है,
पिछली रात के चूल्हे की सोंधी राख
उसी बरगद के नीचे अब भी सुलग रही है,
तुम्हारी कहानियाँ और तुम्हारे ही गीत
सुना रहे हैं बगीचे और गा रही हैं हवाएँ।
मैं सुन रहा हूँ
पुरवाई का धीरे-धीरे थमना
और तुम्हारा अपनी चटाई और खेमे समेटना,
मुँह उजाले, सुबह के रस्ते
नदी के घाट से होकर,
उस पार रेतों में गुजरना॥
तुम्हारे गीत और उन पर थिरकते ढोल की थाप,
भेड़ों के रेवड़ से उठी घंटियों की टन-टन
गहरे डूब गये हैं, मन के भीतर।
बन्जारे। बन्जारे। तू मत जा
मेरा कुछ टूट गया है,
मेरा भी कुछ छूट गया है॥
शहर में दोस्ती
शहर गुस्से में बड़बड़ा रहा है,
कि सुबह होते ही कही
हमारी तुम्हारी मुलाकात न हो जाय
कि कहीं तुम्हें याद न आ जाय
मेरा भूला हुआ चेहरा और
बिसरे हुए वह गीत, जिसे गाते हुए
हम शहर तक आये थे, साथ-साथ॥
शहर धमकियाँ देने लगा है,
कि दिन के उजाले में, तुम्हारी आँखें
फिर कहीं न देखने लगें धवल-उज्जवल
आकाश, सुनहरे सपने, सार्थक मंजिले,
वैसे भी सपने और ख्वाब देखने की
तुम्हारी पुरानी आदत है, जिसका ताना-बाना
बुनते, अपनी चादर छोड़ नंगे पाँव चलते
चले आये थे तुम॥
शहर की आँखों में खून उतर आया है
वह तुम्हारा गला घोंटना चाहता है,
तुम्हारी मुस्कराहट उसे अच्छी नहीं लगती
जो क्षण भर के लिए ही सही, दूर कर सकती है
बच्चों के सहमे मन से, आतंक का साया,
या ला सकती है उदास थके चेहरों पर
अपनेपन का सुकून,
मुझे अब भी याद है
तुम्हारे मुस्काने पर दिन में खिल उठी थी
रात की रानी और
रातों को उग आये थे कमल के फूल॥
शहर सनकी और हत्यारा हो गया है,
कि हमारी आंखे कही ढूँढ न लें
कदम-कदम पर टूटी बिखरी ज़िन्दगी के सपने,
हवाओं के साथ उड़़ते मन के गीत,
आवाज़ों में घुले-मिले ठहाके
और सांसों में बसा प्यार।
दोस्ती करोगे मुझसे
सच मानो बहुत मामूली बात है,
शायद तुम्हारे अगल-बगल
चलते हुए सपने की हँसी
तुम्हारे आस्तीन में छिपे हुए
जिन्दगी की धड़कन
और गोमती के पानी में झलकते
चाँदनी रात का चाँद,
सब वापस आ जाय एक साथ,
सच मानों मुझसे दोस्ती कर लो॥