हम मात्र सम्बोधन जिये
अस्मिता के प्रश्न पर जग मौन है
भावनाएँ मर गयीं
हम मात्र सम्बोधन जिये
जब उठाया शीष तो दुत्कार पायी
जब भरी हुंकार फटकारें मिलीं।
स्वाभिमानी दीप जाते हैं बुझाये,
मुखरता को हेय धिक्कारें मिलीं।
सभ्यता के प्रश्न पर जग मौन है
व्यवस्थाएँ मर गयीं
हम मात्र संशोधन जिये
तख़्तियों ने ख़ूब, आवाज़ें लगायीं
देवाताओं क्यों नहीं, देता सुनाई.
अस्मिता पर चोट खा, मन फट गया है
मरहमों से अब नहीं, होती लिपाई
भव्यता के प्रश्न पर जग मौन है
आस्थाएँ मर गयीं
हम मात्र उद्बोधन जिये
सीढियाँ वर्जित रहीं, जब पग बढ़ाया,
मंन्दिरों में पूज, कोठे पर बिठाया।
प्रश्न अब अस्तित्व पर उठने लगा है
दाँव पर हर बार नारी को लगाया
दिव्यता के प्रश्न पर जग मौन है
प्रार्थनाएँ मर गयीं
हम मात्र आंदोलन जिये
शुभ ऋचाएँ प्रेम की
हो गया संपन्न सम्मेलन
लोग बनकर रह गए दोलन
और परिभाषित न फिर से हो सकीं
व्याख्याएँ प्रेम की!
निकटतम सम्बंध बोझीले हुए
जन्म के अनुबंध सब ढीले हुए
और सुधियों से नयन गीले हुए!
और आच्छादित न फिर से हो सकीं,
भावनाएँ प्रेम की!
हो गए पूरे सभी भाषण
बस दिखावे को रहा हर प्रण,
जानकी को छल गया रावण!
और वरदानित न फिर से हो सकीं
साधनाएँ प्रेम की!
संकलन अपने-परायों का
ज़िंदगी है ग्रंथ साँसों का,
संधि-विग्रह औ समासों का!
और संपादित न फिर से हो सकीं
यातनाएँ प्रेम की!
चाह कब साकार कर पाए
बेड़ियाँ, प्रतिबंध, हर पाए,
हम नहीं प्रतिकार कर पाए!
और स्वरसाधित न फिर से हो सकीं
शुभऋचाएँ प्रेम की!
पीर प्रवाहित है रग-रग में
पीर प्रवाहित है रग-रग में,
दर्द समाहित है नस-नस में,
मुझमें पीड़ा समाधिस्थ है,
प्राण नियंत्रण से बाहर है!
रेचक करना भूल गई हूँ,
कुम्भक की विधि याद नहीं है!
कैसे ध्यान-धारणा हो अब,
नाड़ी-शोधन ज्ञात नहीं है!
प्रियतम प्रेम प्रयाण से पहले
योग सुभग इक़ सपना भर है!
विचलित-चित्त न धीरज जाने,
विरहा की गति चरम हुई है!
ब्रह्मरन्ध्र तुममें विलीन है,
साँसों की गति विषम हुई है!
आयुष लेकर क्या करना है,
बहुत निकट नटवर-नागर है!
आठों प्रहर साधनामय हैं,
शुभ संकेत प्रदर्शित होता!
चारों-धाम मिले मन भीतर,
अचल-सुहाग समर्पित होता!
अंतर्ज्योतित अभयानंदित,
हृदय आज सुख का सागर है!
आज प्रणय हो जाने दो
अधरों से गीत, मिल जाने दो,
साँसों में प्रीत, घुल जाने दो,
मेरी पीड़ा में आज प्राण,
निज दर्द विलय हो जाने दो!
प्रिय आज प्रणय हो जाने दो!
प्रिय आज प्रणय हो जाने दो!
पलकों के मण्डप के नीचे,
फ़िर अश्रु-बराती बन आए!
आँखों में नींद नहीं आई,
सपने अब तक हैं अनब्याहे!
मंत्रों के पूरे होने तक,
फ़िर आज हृदय खो दो!
प्रिय आज प्रणय हो जाने दो!
मेरे भीतर दम तोड़ रहीं,
अनगिन आशाओं की गुडियाँ
जाने किसने विश्वास छला,
अमृत में दीं विष की पुड़ियाँ
जीवन की अब अभिलाषा क्या?
यह प्रेम अभय हो जाने दो
प्रिय आज प्रणय हो जाने दो
गालों तक ढलके आँसू अलि,
तेरी सूरत में ढल जाएँ!
केवल अवशेष रहे इतना,
हम नीर–क्षीर से मिल जाएँ!
चाहों के पात हिले मन में,
दृग-नीर-निलय हो जाने दो!
प्रिय आज प्रणय हो जाने दो!
प्रीतम मेरे कब आओगे
टीस उठे हिय भीतर लोचन, अथक बहाएँ आँसू!
प्रीतम मेरे कब आओगे, सोच-सोच रह जाऊँ!
चढ़ी पालकी पलकों वाली,
रैन दुल्हन बन आई!
नयन हठीले मण्डप त्यागें,
नींद रही अनब्याही!
जीवन से सपनों का नाता, जोड़-जोड़ रह जाऊँ!
प्रीतम मेरे कब आओगे, सोच-सोच रह जाऊँ!
अन्तर्मन की व्यथा अनोखी,
अधर नहीं कह पाए!
प्राणों से प्राणों की दूरी,
हृदय नहीं सह पाए!
आने वाले हर पंथी को, टोक-टोक रह जाऊँ!
प्रीतम मेरे कब आओगे, सोच-सोच रह जाऊँ!
पीर भरे दो हाथ दर्द की,
साँकल खटकाते हैं!
मन की चौखट छूकर जाते
तन को तरसाते हैं!
एक हँसी को तरस गया मन, घोंट-घोंट रह जाऊँ!
प्रीतम मेरे कब आओगे, सोच-सोच रह जाऊँ!
एक दिवस सौ सदी सरीखा,
मन में भ्रम भरता है!
साँसों का आगमन व्यर्थ ही
जीवन कम-कम करता है!
हुआ क्यूँ उनसे झूठा परिचय, कोस-कोस रह जाऊँ!
प्रीतम मेरे कब आओगे, सोच-सोच रह जाऊँ!
ख़बर उड़ी है
ख़बर उड़ी है
‘रामकली’ की बिटिया भाग गयी
नाले पार मिला ‘कुरता’
कुछ और कहानी कहता है
बड़े दिनों से, गिद्ध चिड़ी पर
नज़र गढ़ाये थे
घर के भीतर-बाहर उस पर
घात लगाये थे।
डाँट डपट कर, सूरज पहरा,
देता आठ पहर
और चाँदनी ने हँसिये से
ज़ोर दिखाए थे
ख़बर बड़ी है
बिन ब्याहे ही बिटिया भाग गयी
‘छप्पर: में’ कोठी’ जाना
कुछ और कहानी कहता है
जितने मुँह हैं, उतनी बातें
किसका मुँह पकड़े,
‘पंचायत’ में, कौन सुने
प्रतिवादी हैं तगड़े।
सीना ताने आरोपी
अल्लाता जी भर कर
मुछमुंडे आदर्श खोखले
नियम हुए लँगड़े।
ख़बर खड़ी है
बिना कहे कुछ बिटिया भाग गयी
‘पोस्मार्टमी’ ब्यौरा चुप
कुछ और कहानी कहता है
मूड़ फुटव्वल करती चीख़ें
अपना हक़ माँगे।
झोपड़ियों पर दावेदारी
ज़मीदार दागे
जबरन ख़ुशबू लूट रहे हैं
माली बेबस है
कलियाँ हैं लाचार न जाने
कब क़िस्मत जागे
ख़बर जड़ी है
हर ‘चैनल’ पर बिटिया भाग गयी
कुछ भँवरों का गुम होना
कुछ और कहानी कहता है
जीत के पल
हम अभावों की धरा पर
वैभवी सपने सँजोकर
कर्मपथ पर चल पड़े हैं
मुट्ठियों में क़ैद करने जीत के पल।
पंक-तट आवास अपना
सोचते हैं घर कहीं हो
भोगते दुर्गन्ध फिर भी
चाहते मधुपुर कहीं हो
चाहना की इस त्वरा में
स्वेद की बूँदें घँघोकर
शूलपथ पर चल पड़े हैं
मुट्ठियों में क़ैद करने शीत के पल
गुदड़ियों में जी रहे हैं
टाट के पैबंद लेकर
हर घड़ी मर-मर जिए हैं
चंद बँधुआ साँस लेकर
आस का चूल्हा जलाकर
झोंकते हैं आज अपना
नियतिपथ पर चल पड़े हैं
मुट्ठियों में क़ैद करने प्रीत के पल
साँस खुलकर ले सकें हम
है कहाँ अधिकार इतना
तृप्ति मिलती, पेट भरता,
है नहीं व्यापार इतना
चेतना अपनी जगाकर
भाग्य को आँखें दिखाकर
दीप्तपथ पर चल पड़े हैं
मुट्ठियों में क़ैद करने गीत के पल
सिसक रहे चूल्हे
एक अटा के नीचे जलते
सिसक रहे चूल्हे।
सीले-सीले सम्बन्धों को
निभा रहे हैं
आँखें मींचे।
हृदय नहीं मिलता है लेकिन
बाँहों को बाँहों में भींचे।
खेप नये रिश्तों की आयी
मटकाती कूल्हे।
वास्तु-टिप्स की
आड़ें लेकर
बदल दिया
घर का फ़र्नीचर।
लेकिन एक
कक्ष बाबा का,
सबको लगता
वहीं शनीचर।
टाँग दिए हैं वहाँ किसी ने
फिर जूते-उल्हे।
बिना खिंची इन
दीवारें को,
लाँघ नहीं पाती मुस्कानें।
पर्व और
उत्सव में मिलते,
उलाहनों की भौहें तानें।
शांत दुल्हनें, अपने-अपने
समझातीं दूल्हे।
मन पंछी बहुत अकेला है
चारों ओर रोशनी,
फिर भी, भीतर बहुत अँधेरा है
ऊँचे टीले पर बैठा
मन पंछी बहुत
अकेला है!
धूल, धुआँ,
धूप के साए
कंकरीट से रिश्ते पाए
हवा विरोधी, आपाधापी
छाया में भी, तन जल जाए
क्या पाना था? क्या पाया है?
ख़ुद को कहाँ,
ढकेला है
प्लेटफ़ॉर्म पर
खड़े रह गए,
छूट गईं सब रेलगाड़ियाँ
भोलापन खा गई तरक्की
सीख गए हम कलाबाज़ियाँ
बजा सीटियाँ, समय ने जाने
खेल कौन-सा
खेला है?