दूसरे की बात सुनि परत न ऐसी जहाँ
दूसरे की बात सुनि परत न ऎसी जहाँ ,
कोकिल कपोतन की धुनि सरसात है ।
छाइ रहे जहाँ द्रुम बेलिनि सोँ मिलि ,
मतिराम अलिकुलनि अँध्यारी अधिकात है ।
नखत से फूलि रहे फूलन के पुँज घन ,
कुँजन मे होत जहाँ दिनहूँ मे राति है ।
ता बन की बाट कोऊ सँग न सहेली कहि ,
कैसे तू अकेली दधि बेचन को जाति है ॥
याही को पठाई बड़ो काम करि आई बड़ी
याही को पठाई बड़ो काम करि आई बड़ी ,
तेरी है बड़ाई लख्यो लोचन लजीले सोँ ।
साँची क्योँ न कहै कछु मोको किधौँ आपु ही को ,
पाई बकसीस लाई बसन छबीले सोँ ।
कवि मतिराम मोसो कहत सँदेसो ऊन ,
भरे नख शिख अँग हरख कटीले सोँ ।
तू तो है रसीली रस बातन बनाय जानै ,
मेरे जान आई रस राखि कै रसीले सोँ ॥
मतिराम का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।
मतिराम का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।
आवत मैँ सपने हरि को लखि
आवत मैँ सपने हरि को लखि नैसुक बाँट सँकोचन छोड़ी ।
आगे ह्वै आड़े भए मतिराम मँहू चितयोँ चित लालच ओड़ी ।
होठन को रस लेन को आलि री मेरी गही कर काँपत ठोड़ी ।
और भई न सखी कछु बात गई इतने ही मे नीँद निगोड़ी ॥
मतिराम का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।
बारनि धूपि अँगारनि धूप कैँ धूम
बारनि धूपि अँगारनि धूप कैँ धूम अँध्यारी पसारी महा है ।
आनन चँद समान उगो मृदु मँद हँसी जनु जोन्ह छटा है ।
फैलि रही मतिराम जहाँ तहाँ दीपति दीपनि की परभा है ।
लाल ! तिहारे मिलाप को बाल ने आजु करी दिन ही मे निसा है ।
मतिराम का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।
साँझ ही ते करि राखै सबै करिबे के
साँझहिं ते करि राखै सबै करिबे के काज हुते रजनी के ।
पौढ़ि रही उमगी अति ही मतिराम अनन्द अमात न जी के।।
सोवति जानि के लोग सबै अधिकाते बिलास-मनोरथ-नीके ।
सेज ते बाल उठी हरुए हरुए पट खोलि दिए खिरकी के।।
मतिराम का यह दुर्लभ छन्द श्री राजुल महरोत्रा के संग्रह से उपलब्ध हुआ है।
विजेता हत्यारा
जब पहली बार उसने हमारे एक पड़ोसी को मारा था
तब बेहद ग़ुस्सा आया था ।
हमने हत्यारे के ख़िलाफ़ आवाज़ें बुलन्द की थीं
और जुलूस भी निकाले थे ।
दूसरी बार जब एक और पड़ोसी मारा गया
तब मैं गुमसुम-सा हो गया था ।
घर दफ़्तर सड़क हर जगह असहाय और अकेला ।
फिर जब हमारे तीन-चार पड़ोसी एक साथ मारे गए
तब हम हत्यारों की जयकार करते हुए सड़कों पर उतर आए ।
अब मैं अकेला नहीं था ।असहाय भी नहीं ।
पूरी भीड़ थी साथ ।
हत्यारा अब विजेता बन चुका था । हमारा नायक !
(2009)
अभी भी बचे हैं
अभी भी बचे हैं
कुछ आख़िरी बेचैन शब्द
जिनसे शुरू की जा सकती है कविता
बची हुई हैं
कुछ उष्ण साँसे
जहाँ से सम्भव हो सकता है जीवन
गर्म राख़ कु
सुनो इतना कुछ कि
सुनो इतना कुछ कि कुछ भी न सुन सको
जानो इतना कुछ कि कुछ भी न जान सको
समझो इतना कुछ कि कुछ भी न समझ सको
आवाज़ों में डूब रही हैं आवाज़ें
आवाज़ों को डूबोने वाली आवाज़ें
किन्हीं और आवाज़ों में डूब रही हैं
धूर्त और क्रूर सौदागरों से सजा है बाज़ार ।
रेदो
तो मिल जाएगी वह अन्तिम चिंगारी
जिससे सुलगाई जा सकती है फिर से आग ।
रीढ़ की हड्डियाँ
रीढ़ की हड्डियाँ
मानकों की तरह होती हैं
टुकड़ों-टुकड़ों में बँटी फिर भी जुड़ी हुई
ताकि हम तन और झुक सकें
यह तो दिमाग को तय करना होता है
कि कहाँ तनना है कहाँ झुकना है
मैं एक बच्चे के सामने झुकना चाहता हूँ
कि प्यार की ऊँचाई नाप सकूँ
और तानाशाह के आगे तनना चाहता हूँ
ताकि ऊँचाई के बौनेपन को महसूस कर सकूँ !
काँवरिए आ रहे ह
जल्दी-जल्दी ख़ाली कर दो रास्ते
बेटे-बेटियों को घरों में छुपा लो
स्थगित कर दो सभी यात्राएँ
काँवरिए आ रहे हैं !
धरती को पाँवों से
जूतों से बाइकों से
ट्रकों से ट्रैक्टरों से रौंदते हुए
गाँजा-शराब के नशे में धुत्त
फ़िल्मी गीतों की फूहड़ पैरोडियों पर नाचते
काँवरिए आ रहे हैं !
ध्वनि-विस्तारकों की चीख़ और शोर से
ईश्वर को डराते हुए
रास्ते में ग़लती से आ गए बच्चों और
बूढ़ों को कुचलते हुए
राहगीरों के वाहनों में आग लगाते हुए
काँवरिए आ रहे हैं !
कभी नहीं, कभी नहीं देखा होगा
आस्था का ऐसा अश्लील प्रदर्शन
“बोल बम ! बोल बम !
लोकतंत्र का निकला दम !”
बढ़ता जा रहा है शोर
फैलता जा रहा है उन्मादियों का घेर
ईश्वर के लिए
अब मन्दिर के पिछवाड़े छिपकर
रोने की जगह भी नहीं बची है
काँवरिए आ रहे हैं !
थोड़ा-सा ईश्वर
थोड़ा-सा ईश्वर चाहिए
बस, इतना कि कमर में तेज दर्द हो
तो उसे पुकार सकूँ
बीमार बेटी का इलाज हो रहा हो बेअसर
तो उससे पूछ सकूँ
किसी बेबस बेसहारे के लिए
कुछ न कर पाऊँ
तो उसके हवाले कर सकूँ
जब सूझ न रही हो बेहतरी की कोई राह
तो उसकी मुँहतकी कर सकूँ
थोड़ा सा चाहिए लेकिन
इतना ज्यादा ईश्वर तो बिल्कुल नहीं चाहिए
कि ‘जय श्रीराम ! जय श्रीराम !!’ कहते हुए
किसी की हत्या कर दूँ !