काश ऐसा भी हो चुका होता
सारे सुख आके जा चुके होते
दुख हमें आज़मा चुके होते
हर जुदाई को जी चुके होते
अपने होठों को सी चुके होते
सारे सूरज निकल चुके होते
हर अँधेरा निगल चुके होते
रंग चेहरों के धुल चुके होते
सारे किरदार खुल चुके होते
सच कहीं मुँह छिपा चुका होता
झूठ दुनिया को खा चुका होता
रोज़ ओ शब् आके जा चुके होते
सारे करतब दिखा चुके होते
काश सब कुछ ये हो चुका होता
फिर जो मिलता मैं तुझसे जाने हयात
जो भी होता नया नया होता
जो न होता नया
नहीं, हरगिज़ नहीं
मेरे आबाद लम्हों में
मेरी वीरानियों में भी
जो कोई साथ होता है
तो वो बस एक तू ही है
हज़ारों कोशिशें की
तुझपे कोई नज़्म कह डालूँ
कहानी कोई लिक्खूँ
या कि कोई गीत ही रच दूँ
मगर एहसास को तेरे
कोई एक रूप दे देना
मगर विस्तार को तेरे
किसी एक हद में ले आना
नहीं, हरगिज़ नहीं है मेरे बस में
मेरे बस में …माँ !
नया होता ।
मैं ख़ुद से किस क़दर घबरा रहा हूँ
मैं ख़ुद से किस क़दर घबरा रहा हूँ ।
तुम्हारा नाम लेता जा रहा हूँ ।
गुज़रता ही नहीं वो एक लम्हा,
इधर मैं हूँ कि बीता जा रहा हूँ ।
ज़माने और कुछ दिन सब्र कर ले,
अभी तो ख़ुद से धोखे खा रहा हूँ ।
इसी दुनिया मे जी लगता था मेरा,
इसी दुनिया से अब घबरा रहा हूँ ।
बढ़ा दे लौ ज़रा तन्हाइयों की,
शबे-फुरक़त , मैं बुझता जा रहा हूँ ।
ये नादानी नहीं तो क्या है दानिश,
समझना था जिसे, समझा रहा हूँ ।
अगर कुछ दाँव पर रख दें, सफ़र आसान होगा क्या
अगर कुछ दाँव पर रख दें, सफ़र आसान होगा क्या
मगर जो दाँव पर रखेंगे वो ईमान होगा क्या
कमी कोई भी वो ज़िन्दगी में रंग भरती है
अगर सब कुछ ही मिल जाए तो फिर अरमान होगा क्या
मगर ये बात दुनिया की समझ में क्यों नहीं आती
अगर गुल ही नहीं होंगे तो फिर गुलदान होगा क्या
बगोला-सा कोई उठता है क्यों रह-रह के सीने में
जो होना है तआल्लुक का इसी दौरान होगा क्या
कहानी का अहम् किरदार क्यों ख़ामोश है दानिश
कहानी का सफ़र आगे बहुत वीरान होगा क्या
ख़ुदी को दान करके देखते हैं
ख़ुदी को दान करके देखते हैं ।
सफ़र आसान करके देखते हैं ।
अभी तक फ़ायदे में उसको रक्खा,
ज़रा नुक़सान करके देखते हैं ।
परखना है खुद अपने आप को भी,
कोई एहसान करके देखते हैं ।
इधर माहौल कुछ अच्छा हुआ है,
कोई ऐलान करके देखते हैं ।
जिस उलझन को कभी बिसरा दिया था,
उसी का ध्यान करके देखते हैं ।
नज़र में रौनकें चुभने लगी हैं,
फ़ज़ा वीरान करके देखते हैं ।
मनाने से नहीं मानेगा दानिश,
उसे हैरान करके देखते हैं ।
जीते जी ये रोज़ का मरना ठीक नहीं
जीते जी ये रोज़ का मरना ठीक नहीं ।
अपने आप से इतना डरना ठीक नहीं ।
मीठी झील का पानी पीने की ख़ातिर,
उस जंगल से रोज़ गुज़रना ठीक नहीं ।
कुछ मौजों ने मुझको भी पहचान लिया,
अब दरया के पार उतरना ठीक नहीं ।
रात बिखर जाती है दिन की उलझन से,
रात का लेकिन रोज़ बिखरना ठीक नहीं ।
वरना तुझसे दुनिया बच के निकलेगी,
ख़ुद से इतनी बातें करना ठीक नहीं ।
सीधे सच्चे बाशिंदे हैं बस्ती के,
दानिश इन पर जादू करना ठीक नहीं ।