चैक पर रकम
चैक पर रकम लिख दूं, ले कर दूं हस्ताक्षर
प्यार का तरीका यह
नया है सुनयनी।
छुआ छुअन बतरस तो
बाबा के संग गए
मीठी मनुहार अब यहां कहां
छेड़छाड़ रीझ खीझ
नयन झील में डुबकी
चित्त आर-पार अब यहां कहां
रात कटी आने का इंतज़ार करने में
जाने के लिए
भोर भया है सुनयनी।
कौन सा जन्मदिन है
आ तेरे ग्रीटिंग पर
संख्याएं टांक दूं भली भली
सात मिनट बाकी हैं
आरक्षित फ़ुरसत के
चूके तो बात साल भर टली
ढ़ाई आखर पढ़ने, ढाई साल का बबुआ
अभी-अभी विद्यालय
गया है सुनयनी।
मीरा के पद गा कर
रांधी रसखीर उसे
बाहर कर खिड़क़ी के रास्ते
दिल्ली से लंच पैक
मुंबईया प्रेम गीत
मंगवाया ख़ास इसी वास्ते
तू घर से आती है, मैं घर को जाता हूं
यह लोकल गाड़ी की
द
बंटवारा कर दो
बँटवारा कर दो ठाकुर ।
तन मालिक का
धन सरकारी
मेरे हिस्से परमेसुर ।
शहर धुएँ के नाम चढ़ाओ
सड़कें दे दो झंडों को
पर्वत कूटनीति को अर्पित
तीरथ दे दो पंडों को ।
खीर-खांड ख़ैराती खाते
हमको गौमाता के खुर
सब छुट्टी के दिन साहब के
सब उपास चपरासी के
उसमें पदक कुंअर जू के हैं
ख़ून पसीने घासी के
अजर-अमर श्रीमान उठा लें
हमको छोड़े क्षण भंगुर
पँच बुला कर करो फ़ैसला
चौड़े-चौक उजाले में
त्याग-तपस्या इस पाले में
गजभीम उस पाले में
दीदे फाड़-फाड़ सब देखें
हम देखेंगे टुकुर-टुकुर
या है सुनयनी।
शारदे
मूर्तिवाला शारदे को
हथौड़े से पीटता है
एक काले दिन
कलमुँही तू दो टके की क्यों गई थी कार में
क्या वहां साधक मिलेंगे सेठ में सरकार में
खंडिता हो लौट आई हाथ में बख्शीस लेकर
पर्व वाले दिन
तू फ़कीरों कबीरों के वंश की संतान है
साहबों की साज सज्जा के लिए सामान है
इसलिए कच्चे घरों में ओट देकर तुझे पाला
और टाले दिन
कामना थी पाँव तेरे महावर से मांड़ते
फिर किसी दिन पूज्य स्वर से सात फेरे पाड़ते
क्या करें ऊँचे पदों ने पद दलित कर छंद सारे
मार डाले दिन
कौन है?
कौन है ? सम्वेदना !
कह दो अभी घर में नहीं हूँ ।
कारख़ाने में बदन है
और मन बाज़ार में
साथ चलती ही नहीं
अनुभूतियाँ व्यापार में
क्यों जगाती चेतना
मैं आज बिस्तर में नहीं हूँ ।
यह, जिसे व्यक्तित्व कहते हो
महज सामान है
फर्म है परिवार
सारी ज़िन्दगी दूकान है
स्वयं को है बेचना
इस वक़्त अवसर में नहीं हूँ ।
फिर कभी आना
कि जब ये हाट उठ जाए मेरी
आदमी हो जाऊँगा
जब साख लुट जाए मेरी
प्यार से फिर देखना
मैं अस्थि-पंजर में नहीं हूँ
मची हुई सब ओर खननखन
मची हुई सब ओर खननखन
यूरो के घर-डॉलर के घर
करे मदन रितु चौका-बर्तन
किस्से पेंग चढ़े झूलों के
यहाँ बिकाने वहाँ बिकाने
बौर झरी बूढ़ी अमराई
क्या-क्या रख लेती सिरहाने
सबका बदन मशीनों पर है
मंडी में हाज़िर सबका मन
मान मिला हीरा-पन्ना को
माटी में मिल गया पसीना
बड़े पेट को भोग लगा कर
छुटकू ने फिर कचरा बीना
अख़बारों में ख़बर छपी है
सबको मिसरी सबको माखन
सोलह से सीधे सठियाने
पर राँझे की उमर न पाई
फूटे भांडे माँग रहे हैं
और कमाई और कमाई
जहाँ रकम ग्यारह अंकों में
वहाँ प्रेत-सा ठहरा जीवन
दो बच्चे तकदीर मगन है
एक खिलाड़ी एक खिलौना
दो यौवन व्यापार मगन है
एक शाह जी एक बिछौना
मुद्रा का बाज़ार गरम है
इसमें कहाँ तलाशें धड़कन
पत्थर दिल दुनिया
पत्थर दिल
दुनिया का, कुछ-कुछ भला हो रहा है
आज किसी कोने में छुपकर
मर्द रो रहा है
शुभ ही रहा क्रौंच का मरना,
कविता रचवा दी
ज्ञानी ध्यानी
वैरागी को करुणा उपजा दी
गीले गालों पर, बहेलिया
पाप धो रहा है
किरणों को छू कर पर्वत का
बर्फ़ पिघलता है
अड़ियल अचलेश्वर
योगी का आसन हिलता है
बड़दादा को भुजबल पर
अफ़सोस हो रहा है
लगता है अब हवा चलेगी,
पानी बरसेगा
अगिया बापू
कान पकड़कर, सॉरी बोलेगा
इत्मिहान में फ़ेल युवक
निश्चिंत सो रहा है
हम भी भूखे
हम भी भूखे तुम भी भूखे
और बीच में वर्जित फल है
हाय समय वर्जित साँकल
जिस पर मन सुगबुग होता है
आता वही तीर की जद में
वसुधा भर कुटुम्ब कहना है
रहना है अपनी सरहद में
हम भी काले तुम भी काले
दोनों का उपनाम धवल है
अभिलाषा अभिसार उमंगें
सब झाँसे हैं सप्तपदी के
हम अगिया बैताल उठाए
खोज रहे हैं घाट नदी के
पीना मना नहाना वर्जित
कलसे में पूजा का जल है
अतिमानव आचरण हमारे
पशु होने को ललचाते हैं
बोधिवृक्ष के नीचे आकर
कितने बौने रह जाते हैं
बाहर से शालीन शिखर हम
भीतर लावा-सी हलचल है
मेह क्या बरसा
मेह क्या बरसा
घरों को लौट आए
नेह वाले दिन
हाट से लौटे कमेरे
मुश्किलों से मन बचा कर
लौट आए छंद में कवि
शब्द की भेड़ें चरा कर
मेह क्या बरसा
भले लगने लगे हैं
स्याह काले दिन
कोप घर से लौट
धरती ने हरी मेंहदी रचाई
वीतरागी पंछियों ने
गीतरागी धुन बनाई
मेह क्या बरसा
लगे मुरली बजाने
गोप ग्वाले दिन
कुरकुरे रिश्ते बने
कड़वे कसैले पान थूके
उमंगें छत पर चढ़ीं
मैदान में निकले बिजूके
मेह क्या बरसा
सभी ने हाथ में लेकर
उछाले दिन
दो हज़ार सत्तर में
मुहरबंद हैं गीत
खोलना दो हज़ार सत्तर में
जब पानी चुक जाए
धरती सागर आँखों का
बोझ उठाए नहीं उठे
पक्षी से पाँखो का
नानी का बटुआ
टटोलना दो हज़ार सत्तर में
इसमें विपुल-वितान तना है
माँ के आँचल का
सारी अला-बला का मंतर
टीका-काजल का
नौ लख डालर संग
तोलना दो हज़ार सत्तर में
छूटी आस जुडाएगी
यह टूटी हुई क़सम
मन के मैले घावों को
यह रामबाण मरहम
मिल जाए तो शहद
घोलना दो हज़ार सत्तर में
मैराथन में है भविष्य जी
मैराथन में है भविष्य जी
उमर पांच कद पौने तीन
आँखों में आकाश अषाढी
सेब गाल कच भँवरीले
तन में गोकुल-गंध
चाल दुलकी, नथुने गीले-गीले
कसी हुई नवनीत पीठ पर
मैकाले की पुख़्ता ज़ीन
तख़्ती पर कुर्सी छापी
फिर रुपया रुतबा रौब लिखा
तब से ही तोता-रटंत में
ज़्यादा-ज़्यादा जोश दिखा
तनखैया टीचर ट्यूशन में मीठे
कक्षा में नमकीन
पाँच रोज झंडा माता की
जय-जय का अभ्यास किया
छठवें दिन नाचे-गाए
तब मुख्य-अतिथि ने पास किया
खेले खाए तो चपरासी
पढ़े, गए अमरीका चीन ।
नहीं हिली धरती
नहीं नहीं भूकंप नहीं है
नहीं हिली धरती
सरसुतिया की छान हिली है
कागा बैठ गया था
फटी हुई चिट्ठी आई है
ठनक रहा है माथा
सींक-सलाई हिलती है
सिन्दूर माँग भरती
हाक़िम का ईमान हिला है
हिली आबरू कच्ची
भीतर तक हिल गई
जशोदा की नाबालिग बच्ची
पिंजरे में आ बैठी है
चिड़िया डरती-डरती
मंदिर नहीं हिला
चौखट पर मत्था काँप रहा है
नंगा भगत देवता की
इज़्ज़त को ढाँप रहा है
हिलती रही हथेली
तुलसी पर दीवट धरती
सूरज का रथ हिला
चन्द्रमा का विमान हिलता है
बिना हाथ पैरों का
देखो आसमान हिलता है
ऐसे में पत्थर दिल धरती
हिल कर क्या करती।
शब्द शर वाले धनुर्धर
शब्द-शर वाले धनुर्धर
गोद पाले हैं ।
शस्त्र-शैया पर अमर हम
गीत वाले हैं ।।
राग-रंजित रहे काया
रक्त अपना ही रचाया
समर में स्वाहा किया सब
पंचतत्वों को बचाया
प्रलय में नूतन सृजन के
बीज डाले हैं ।
दर्प को दे दिया दर्पण
फर्ज़ के आगे समर्पण
प्रण किया हमने पिता की
कामना का किया तर्पण
तब कहीं गंगाजली में
व्रण खंगाले हैं ।
नीति के नाते विनत हैं
क्या करें हम देवव्रत हैं
पारदर्शी हैं समय के
अन्धपन के मातहत हैं
द्रोपदी के आँसुओं से
तर दुशाले हैं ।
वार झेला मान जैसा
शत्रु है संतान जैसा
हाथ रिपुदल पर उठा है
विजय के वरदान जैसा
है सदा सद्भाव स्वर में
शब्दों में सतयुग की ख़ुशबू
नहीं, पेट में नहीं किसी के कस्तूरी
दंतकथा सुनकर, हिरना मदमाते हैं ।
विश्वामित्र, वशिष्ठ पहिनकर
चोला चोखा है
शब्दों में सतयुग की ख़ुशबू
समझो धोखा है
नागलोक है जीभ देहरी के भीतर
बाहर बन्दनवार ज़रूर सजाते हैं ।
किन्तु-परन्तु साथ रखती
वाणी मंगलवारी
लोहा कभी नहीं छूते हैं ये पारसधारी
कल्पवृक्ष कच्चे धागे में कैद किया
अंगूरी पीते अमरौती खाते हैं ।
अनहद-अंतर्नाद कुछ नहीं
म्यूजिक सिस्टम है
मंच विडियो है तब तक
कुण्डलिनी में दम है
ले दे कर इज़्ज़त जो है सो बनी हुई
परिचय में पहले पदनाम बताते हैं ।