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महेश वर्मा की रचनाएँ

चेहरा

पता नहीं तुम कितने अन्तिम संस्कारों में शामिल हुए
कितनी लाशें देखी लेकिन फिर ज़ोर देता हॅूँ इस पर
कि मृत्यु इंसान का चेहरा अप्रतिम रूप से बदल देता है

यह मुखमुद्रा तुमने इसके जीते जी कभी नहीं देखी थी

यह अपने मन का रहस्य लेकर जा रहा है अैर निश्चय ही नहीं लौटेगा

पता नहीं क्या करता इसका अगर कुछ और दिन रूकता कि
कौन-सा स्पर्श उसकी त्वचा में सिहरन भर देता था और उसकी साँसों में आग
कौन-सी याद उसकी आत्मा को भर देती थी ख़ालीपन से
किन कन्दराओ से आता था उसका वीतराग मौन और उसकी धूल भरी आवाज़

यह उसका विनोद है, उसका असमंजस
उसकी पीड़ा है और उसका पापबोध
जो उस रहस्य से जुड़ा है निश्चय ही-जिसे लेकर जा रहा है
या उसका क्षमाभाव है

और बदला न ले पाने को ऐंठती उसकी आत्मा की प्रतिछवि है उसके चेहरे पर
जो उसे बनाती है अभेद्य और अनिर्वचनीय

एक प्रेमनिवेदन जो किया नहीं गया
एक हत्यारी इच्छा, हिंसात्मक वासना
मौका, चूकी दयालुताएँ और प्रतिउŸार के वाक्य

ये उसकी आत्मा की बेचैन तहों में सोते थे फिलवक़्त
अब इन्हें एक अँधेरे बक्से मंे रख दिया जाएगा

प्रार्थना का कोई भी सफ़ेद फूल,
करुणा का कोई भी वाक्य इन तक नहीं पहुँच पाएगा

और तुम्हें यह तो मानना ही होगा कि
तुम्हारी काव्यात्मक उदासी से बड़ी चीज़ थी
उसके मन का रहस्य।

ऐसे ही वसन्त में चला जाऊँगा

ऐसे ही वसन्त में चला जाऊँगा,
इन्हीं फटेहाल कपड़ों में जूतों की कीचड़ समेत ।
परागकणों की धूल में नथुनों की सुरसुराहट रोकता
ढू़ँढ़ने लगूँगा कोई रंग
वहाँ खूब पीला नहीं दिखेगा तो
निराश जूते पर
जमी धूल पर
पीला लिखने के लिये झुकूँगा
रूक जाऊँगा ।

किसी उदास वृक्ष की तरह ऐसे ही झुका रहूँगा
किसी दूसरे मौसम में सर उठाऊँगा

कोई पत्ता उठाऊँगा आगे की लू भरी दोपहरों से
धूप के दरवाज़े में भी ऐसे ही घुस जाऊँगा

कुछ भी नहीं बदलूँगा कुछ बदलेगी
तो कन्धों पर गिरती बारिश ही बदलेगी

बारिश से बाहर कभी नहीं आऊँगा ।

जैसे की जीवद्रव्य

अपनी उँगलियों से मेरी हथेली पर लिखे वह शब्द
कोई नाम लिखो
फिर मुझे एक कूटशब्द लिखने दो अपने हाथ पर
या पीठ पर
कहीं भी
फिर एक चुम्बन लिखो एकाकी चाँद पर ताकि मैं
फिर से उसी जगह पर उन्हीं अक्षरों पर दोहराकर लिख
सकूँ अपना चुम्बन

आकाश कहाँ लिखा है ?
मेरे या कि तुम्हारे वक्ष पर ?

अब इस आकाश पर एक सूर्य लिखो
अनगिनत तारे, बादल और हवा लिखो
और मुझे आँकने दो अपने हिस्से की आकाशगंगा

फिर मेरे माथे पर अपना भाग्य लिखो
मैं तुम्हारे माथे पर पढ़ूँगा अपना भाग्य

लेकिन सबसे पहले मेरे लिए एक जीवन लिखो
शुरूआत में मेरी पहली कोशिका लिखो
और इसमें तीर से
महत्वपूर्ण हिस्सों को नामांकित करो : जैसे की जीवद्रव्य ।

रात

कभी माँसल, कभी धुआँती कभी डूबी हुई पसीने में
ख़ूब पहचानती है रात अपनी देह के सभी रंग

कभी इसकी खड़खड़ाती पसलियों में गिरती रहती पत्तियाँ
कभी टपकती ठँडी ओस इसके बालों से

यह खुद चुनती है रात अपनी देह के सभी रंग

यह रात है जो खुद सजाती है अपनी देह पर
लैम्प पोस्ट की रोशनी और चाँदनी का उजास

ये तारे सब उसकी आँख से निकलते है
या नहीं निकलते जो रुके रहते बादलों की ओट

ये उसकी इच्छाएँ हैं अलग-अलग सुरों की हवाएँ

तुम्हारी वासना उसका ही खिलवाड़ है तुम्हारे भीतर
ऐसे ही तुम्हारी कविता

यह एकांत उसकी साँस है
जिसमें डूबता आया है दिनों का शोर और पंछियों की उड़ान

तुम्हारा दिन उसी का सपना है ।

कमीज़

खूँटी पर बेमन पर से टँगी हुई है कमीज़
वह शिकायत करते-करते थक चुकी
यही कह रहीं उसकी झूलती बाँहें

उसके कंधे घिस चुके हैं पुराना होने से अधिक अपमान से
स्याही का एक पुराना धब्बा बरबस खींच लेता ध्यान

उसे आदत-सी हो गई है बगल के
कुर्ते से आते पसीने के बू की
उसे भी सफाई से अधिक आराम चाहिए
इस सहानुभूति के रिश्ते ने आगे आकर ख़त्म कर दी है उनकी दुश्मनी

लट्टू के प्रकाश के इस कोण से
उसकी लटक आई जेब में भर आए अँधेरे की तो कोई बात ही नहीं

छींक

छींक एक मजेदार घटना है अपने आंतरिक विन्यास में और बाहरी शिल्प में । अगर एक व्यक्ति के रूप में आप इसे देखना चाहें तो इसका यह गौरवशाली इतिहास ज़रूर जान जाएँगे कि इसे नहीं रोका जा सकता इतिहास के सबसे सनकी सम्राट के भी सामने । “नाखूनों के समान यह हमारे आदिम स्वभाव का अवशेष रह गया है हमारे भीतर” – यह कहकर गर्व से चारों ओर देखते आचार्य की नाक में शुरू हो सकती है इसकी सुरसुरी ।

सभ्य आचरण की कितनी तहें फोड़कर यह बाहर आया है भूगर्भ जल की तरह — यह है इसकी स्वतन्त्रता की इच्छा का उद्घोष। धूल ज़ुकाम और एलर्जी तो बस बहाने हैं हमारे गढे हुए । रुमाल से और हाथ से हम जीवाणु नहीं रोकते अपने जंगली होने की शर्म छुपाते है ।

कभी दबाते है इसकी दबंग आवाज़
कभी ढकना चाहते अपना आनंद ।

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