शे’र
फिरते हैं भेस में हसीनों के।
कैसे-कैसे डकैत थांग-की-थांग॥
आह! यह बन्दये-ग़रीब आपसे लौ लगाये क्यों?
आ न सके जो वक़्त पर, वक़्त पै याद आये क्यों??
दीद की इल्तजा करूँ? तिश्ना ही क्यों न जान दूँ?
परदयेनाज़ खुद उठे, दस्ते-दुआ उठायें क्यों??
बदल न जाय ज़माने के साथ नीयत भी।
सुना तो होगा जवानी का एतबार नहीं॥
नतीजा कुछ भी हो लेकिन हम अपना काम करते हैं।
सवेरे ही से दूरन्देश फ़िक्रे-शाम करते हैं॥
दावरे-हश्र होश्यार, दोनों में इम्तयाज़ रख।
बन्दये-नाउम्मीद और बन्दये-बेनियाज़ में॥
यादे-खु़दा का वक़्त भी आयेगा कोई या नहीं?
यादे-गुनाह कब तलक शामोसहर नमाज़ में??
मौत माँगी थी खुदाई तो नहीं माँगी थी।
ले दुआ कर चुके अब तर्के-दुआ करते हैं॥
मज़ा गुनाह का जब था कि बावज़ू करते।
बुतों को सजदा भी करते तो क़िब्लारू करते॥
जो रो सकते तो आँसू पूछनेवाले भी मिल जाते।
शरीके-रंजोग़म दामन से पहले आस्तीं होते॥
जैसे दोज़ख़ की हवा खाके अभी आया है।
किस क़दर वाइज़े-मक्कार डराता है मुझे॥
जलवए-दारो-रसन अपने नसीबों में कहाँ?
कौन दुनिया की निगाहों पै चढ़ाता है मुझे॥
ताअ़त हो या गुनाह पसे-परदा खू़ब है।
दोनों का मज़ा जब है कि तनहा करे कोई॥
बन्दे न होंगे, जितने खुदा हैं ख़ुदाई में।
किस-किस ख़ुदा के सामने सजदा करे कोई॥
इतना तो ज़िन्दगी का कोई हक़ अदा करे।
दीवानावार हाल पै अपने हँसा किए॥
हँसी में लग़ज़िशे-मस्ताना उड़ गई वल्लाह।
तो बेगुनाहों से अच्छे गुनाहगार रहे।
ज़माना इसके सिवा और क्या वफ़ा करता।
चमन उजड़ गया काँटे गले का हार रहे॥
तौबा भी भूल गए इश्क़ में वो मार पड़ी।
ऐसे ओसान गये हैं कि ख़ुदा याद नहीं॥
क्या अजब है कि दिले-दोस्त हो मदफ़न अपना।
कुश्तये-नाज़ हूँ मैं क़ुश्तये-बेदाद नहीं॥
तो क्या हमीं है गुनहगार, हुस्नेयार नहीं?
लगावटों का गुनाहों में क्या शुमार नहीं?
ज़ीस्त के हैं वही मज़े वल्लाह।
चार दिन शाद, चार दिन नाशाद॥
सब्र इतना न कर कि दुश्मन पर।
तल्ख़ हो जाय लज़्ज़ते-बेदाद॥
गला न काट सके अपना वाये नाकामी।
पहाड़ काटते हैं रोज़ोशब मुसीबत के॥
मौत आई आने दीजिए परवा न कीजिए।
मंज़िल है ख़त्म सजदये-शुकराना कीजिए॥
दीवानावार दौड़ के कोई लिपट न जाय।
आँखों में आँख डाल के देखा न कीजिए॥
न इन्तक़ाम की आदत न दिल दुखाने की।
बदी भी कर नहीं आती मुझे कुजा नेकी?
अल्लाह री बेताबिये-दिल वस्ल की शब को।
कुछ नींद भी आँखों में है कुछ मय का असर भी॥
वो कश-म-कशे-ग़म है कि मैं कह नहीं सकता।
आग़ाज़ का अफ़्सोस और अन्जाम का डर भी।
कोई बन्दा इश्क़ का है कोई बन्दा अक़्ल का।
पाँव अपने ही न थे क़ाबिल किसी ज़ंजीर के॥
शैतान का शैतान, फ़रिश्ते का फ़रिश्ता।
इन्सान की यह बुलअ़जबी याद रहेगी॥
दिल अपना जलाता हूँ, काबा तो नहीं ढाता।
और आग लगाते हो, क्यों तुहमते-बेजा से॥
बाज़ आ साहिल पै गो़ते खानेवाले बाज़ आ।
डूब मरने का मज़ा दरियाए-बेसाहिल में है।
मुफ़लिसी में मिज़ाज शाहाना।
किस मरज़ कि दवा करे कोई॥
हँस भी लेता हूँ ऊपरी दिल से।
जी न बहले तो क्या करे कोई॥
न जाने क्या हो यह दीवाना जिस जगह बैठे।
खुदी के नशे में कुछ अनकही न कह बैठे॥
सुहबते-वाइज़ में भी अँगड़ाइयाँ आने लगीं।
राज़ अपनी मैकशी का क्या कहें क्योंकर खुला॥
रौशन तमाम काबा-ओ-बुतख़ाना हो गया।
घर-घर जमाले-यार का अफ़साना हो गया॥
दयारे-बेख़ुदी है अपने हक़ में गोशये-राहत।
गनीमत है घड़ी भर ख़्वाबे-गफ़लत में बसर होना॥
दिले-आगाह ने बेकार मेरी राह खोटी की।
बहुत अच्छा था अंजामे-सफ़र से बेख़बर होना॥
किसकी आवाज़ कान में आई
किसकी आवाज़ कान में आई
दूर की बात ध्यान में आयी
आप आते रहे बुलाते रहे
आने वाली एक आन में आयी
यह किनारा चला कि नाव चली
कहिये क्या बात ध्यान में आयी!
इल्म क्या इल्म की हकीक़त क्या
जैसी जिसके गुमान में आयी
आँख नीचे हुई अरे यह क्या
यूं गरज़ दरम्यान में आयी
मैं पयम्बर नहीं यगाना सही
इस से क्या कसर शान में आयी
सिलसिला छिड़ गया जब यास के फ़साने का
सिलसिला छिड़ गया जब यास के फ़साने का
शमा गुल हो गयी दिल बुझ गया परवाने का
वाए हसरत कि ताल्लुक़ न हुआ दिल को कहीं
न तो काबे का हुआ मैं न तो सनम-खाने का
खिल्वत-ए-नाज़ कुजा और कुजा अहल-ए-हवस
ज़ोर क्या चल सके फ़ानूस से परवाने का
वाह किस नाज़ से आता है तेरा दौर-ए-शबाब
जिस तरह दौर चले बज़्म में परवाने का
मुझे दिल की ख़ता पर ‘यास’ शर्माना नहीं आता
मुझे दिल की ख़ता पर ‘यास’ शर्माना नहीं आता
पराया जुर्म अपने नाम लिखवाना नहीं आता
बुरा हो पा-ए-सरकश का कि थक जाना नहीं आता
कभी गुमराह हो कर राह पर आना नहीं आता
[पा-ए-सरकश= बात न सुनने वाला पैर]
मुझे ऐ नाख़ुदा आख़िर किसी को मूँह दिखाना है
बहाना कर के तन्हा पार उतर जाना नहीं आता
मुसीबत का पहाड़ आख़िर किसी दिन कट ही जायेगा
मुझे सर मार कर तेशे से मर जाना नहीं आता
[तेशे=कुलहाड़ी]
असीरो शौक़-ए-आज़ादी मुझे भी गुदगुदाता है
मगर चादर से बाहर पाँव फैलाना नहीं आता
[असीरो=बंधक,कैदी]
दिल-ए-बेहौसला है इक ज़रा सी टीस का मेहमाँ
वो आँसू क्या पिऐगा जिस को ग़म खाना नहीं आता
खुदी का नशा चढ़ा आपमें रहा न गया
खुदी का नशा चढ़ा आप में रहा न गया।
ख़ुदा बने थे ‘यगाना’ मगर बना न गया॥
गुनाहे-ज़िंदादिली कहिये या दिल-आज़ारी[1]।
किसी पै हँस लिये इतना कि फिर हँसा न गया॥
समझते क्या थे, मगर सुनते थे तर्रानाये-दर्द।
समझ में आने लगा जब तो फिर सुना न गया॥
पुकारता रहा किस-किसको डूबनेवाला।
ख़ुदा थे इतने, मग्र कोई आड़े आ न गया॥
पहले अपनी तो ज़ात पहचानें
पहले अपनी तो ज़ात पहचाने।
राज़े-क़ुदरत बखाननेवाला॥
जानकर और हो गया अनजान।
हो तो ऐसा हो जाननेवाला॥
पेट के हलके लाख बड़मारें।
कोई खुलता है जाननेवाला॥
ख़ाक में मिलके पाक हो जाता।
छानता क्या है छाननेवाला॥
दिन को दिन समझे और न रात को रात।
वक़्त की क़द्र जाननेवाला॥
एक मुक्तक
किधर चला है? इधर एक रात बसता जा
गरजनेवाले ग्रजता है क्या, बरसता जा
रुला-रुला के ग़रीबों को हँस चुका कल तक
मेरी तरफ़ से अब अपनी दसा पै हँसता जा॥
एक मुक्तक
किधर चला है? इधर एक रात बसता जा
गरजनेवाले ग्रजता है क्या, बरसता जा
रुला-रुला के ग़रीबों को हँस चुका कल तक
मेरी तरफ़ से अब अपनी दसा पै हँसता जा॥
पांच शे’र
शरबत का घूँट जान के पीता हूँ खूनेदिल।
ग़म खाते-खाते मुँह का मज़ा तक बिगड़ गया॥
इसी फ़रेब ने मारा कि कल है कितनी दूर।
एक आज-कल में अबस[1] दिन गँवायें है क्या-क्या।
ख़ुशी में अपने क़दम चूम लूँ तो ज़ेबा[2] है।
वो लगज़िशों पै[3] मेरी मुसकराये है क्या-क्या॥
बस एक नुक्तये-फ़र्ज़ी का[4] नाम है काबा।
किसी को मरकज़े-तहक़ीक़ का[5] पता न चला॥
उमीदो-बीमने[6] मारा मुझे दुराहे पर।
कहाँ के दैरो-हरम? घर का रास्ता न मिला॥
- ऊपर जायें↑ व्यर्थ
- ऊपर जायें↑ मुनासिब
- ऊपर जायें↑ लड़खडा़ने पर
- ऊपर जायें↑ कल्पना-बिंदु का
- ऊपर जायें↑ खोज के लक्ष्य का
- ऊपर जायें↑ आशा-निराशा
चार शे’र
क्या ख़बर थी दिल-सा शाहं-शाह आख़िर एक दिन।
इश्क़ के हाथों गदाओं-का-गदा[1] हो जाएगा॥
किस दिले-बेक़रार को तूने यह वलवला दिया।
देना न देना एक है, ज़र्फ़ से[2] जब सिवा दिया॥
हुस्न चमक गया तो क्या, बू-ए-वफ़ा तो उड़ गई।
इस नई रोशनी ने आह दिल का कँवल बुझा दिया॥
ज़िन्दा रक्खा है सिसकने के लिए।
वाह! अच्छे दोस्त से पाला पड़ा॥
- ऊपर जायें↑ भिक्षुक
- ऊपर जायें↑ आवश्यकता से अधिक
गिला किसे है कि क़ातिल ने नीमजाँ छोडा़
गिला किसे है कि क़ातिल ने नीमजाँ[1] छोड़ा।
तड़प-तड़प के निकालूँगा हौसला दिल का॥
ख़ुदा बचाये कि नाज़ुक है उनमें एक-से-एक।
तुनक-मिज़ाजों से ठहरा मुआमला दिल का॥
किसी के हो रहो अच्छी नहीं यह आज़ादी।
किसी को ज़ुल्फ़ से लाज़िम है सिलसिला दिल का॥
पियाला ख़ाली उठाकर लगा लिया मुँह से।
कि ‘यास’ कुछ तो निकला जाय हौसला दिल का॥
- ऊपर जायें↑ अर्द्धमृतक
चरागे़जीस्त बुझा दिल से इक धुआँ निकला
चराग़-ए-जीस्त[1] बुझा दिल से इक धुआँ निकला।
लगा के आग मेरे घर से मेहरबाँ निकला॥
तड़प के आबला-पा[2] उठ खड़े हुए आख़िर।
तलाशे-यार में जब कोई कारवाँ निकला॥
लहू लगा के शहीदों में हो गए दाख़िल।
हविस तो निकली मगर हौसला कहाँ निकला॥
लगा है दिल को अब अंजामेकार का खटका।
बहार-ए-गुल से भी इक पहलु-ए-ख़िज़ाँ निकला॥
ज़माना फिर गया चलने लगी हवा उलटी।
चमन को आग लगाके जो बाग़बाँ निकला॥
कलाम-ए- ‘यास’ से दुनिया में फिर इक आग लगी।
यह कौन हज़रते ‘आतिश’ का हमज़बाँ निकला॥
- ऊपर जायें↑ जीवन-दीप
- ऊपर जायें↑ पाँव के छाले
हवाए-तुन्द में ठहरा न आशियाँ अपना
हवा-ए-तुन्द में[1] ठहरा न आशियाँ अपना।
चराग़ जल न सका ज़ेरे आस्माँ अपना॥
जरसने[2] मुज़द-ए-मंज़िल[3] सुना के चौंकाया।
निकल चला था दबे पाँव कारवाँ अपना॥
ख़ुदा किसी को भी यह ख़्वाबेबद न दिखलाए।
क़फ़स के सामने जलता है आशियाँ अपना॥
- ऊपर जायें↑ तेज़ हवा में
- ऊपर जायें↑ यात्री दल के ऊँटों की घंटी की आवाज़ ने
- ऊपर जायें↑ यात्रा का अंत होने की ख़ुशखबरी
चार फुटकर शे’र
परवाने कर चुके थे सर-अंजामे-ख़ुदकशी[1]।
फ़ानूस आडे़ आ गया, तक़दीर से॥
सुहबते-वाइज़ में भी अँगड़ाइयाँ आने लगीं।
राज़ अपनी मैकशी का क्या कहें क्योंकर खुला॥
रोशन तमाम काबा-ओ-बुतख़ाना हो गया।
घर-घर जमाले-यार का अफ़साना हो गया॥
दयारे-बेखु़दी है अपने हक़ में गोश-ये-राहत।
गनीमत है घड़ी भर ख़्वाबे-ग़फ़लत में बसर होना॥
- ऊपर जायें↑ आत्महत्या का प्रयत्न
आप क्या जानें मुझपै क्या गुज़री
आप क्या जानें मुझपै क्या गुज़री।
सुबहदम देखकर गुलों का निखार॥
दूर से देख लो हसीनों को।
न बनाना कभी गले का हार॥
अपने ही साये से भड़कते हो।
ऐसी वहशत पै क्यों न आए प्यार॥
तू भी जी और मुझे भी जीने दे।
जैसे आबाद गुल से पहलू-ए-ख़ार॥
बेनियाज़ी भली कि बेअदबी।
लड़खडा़ती ज़बाँ से शिकवये-यार॥
बन्दगी का सबूत दूँ क्योंकर।
इससे बहतर है कीजिये इन्कार॥
ऐसे दो दिल भी कम मिले होंगे।
न कशाकश हुई न जीत न हार॥
ख़ुदी का नश्शा चढ़ा आप में रहा न गया
ख़ुदी का नश्शा चढ़ा आप में रहा न गया
ख़ुदा बने थे ‘यगाना’ मगर बना न गया
पयाम-ए-ज़ेर-ए-लब ऐसा कि कुछ सुना न गया
इशारा पाते ही अँगड़ाई ली रहा न गया
हँसी में वादा-ए-फ़र्दा को टालने वालो
लो देख लो वही कल आज बन के आ न गया
गुनाह-ए-ज़िंदा-दिली कहिए या दिल-आज़ारी
किसी पे हँस लिए इतना के फिर हँसा न गया
पुकारता रहा किस किस को डूबने वाला
ख़ुदा थे इतने मगर कोई आड़े आ न गया
समझते क्या थे मगर सुनते थे तराना-ए-दर्द
समझ में आने लगा जब तो फिर सुना न गया
करूँ तो किस से करूँ दर्द-ए-ना-रसा का गिला
के मुझ को ले के दिल-ए-दोस्त में समा न गया
बुतों को देख के सब ने ख़ुदा को पहचाना
ख़ुदा के घर तो कोई बंदा-ए-ख़ुदा न गया
कृष्ण का हूँ पुजारी अली का बन्दा हूँ
‘यगाना’ शान-ए-ख़ुदा देख कर रहा न गया
उदासी छा गई चेहरे पे शम्मा-ए-महफ़िल के
उदासी छा गई चेहरे पे शम्मा-ए-महफ़िल के
नसीम-ए-सुब्ह से शोले भड़क उठे दिल के
शरीक-ए-हाल नहीं है कोई तो क्या परवा
दलील-ए-राह-ए-मोहब्बत हैं वलवले दिल के
अजब नहीं के बपा हो यहीं से फ़ितना-ए-हश्र
ज़माने भर में हैं सारे फ़साद इसी दिल के
न संग-ए-मील न नक़्श-ए-क़दम न बांग-ए-जरस
भटक न जाएँ मुसाफ़िर अदम की मंज़िल के
ख़ुशी के मारे ज़मीं पर क़दम नहीं रखते
जब आए क़ाफ़िले वाले क़रीब मंज़िल के
नज़ारा-ए-रुख़-ए-लैला मुबारक ऐ मजनूँ
निगाह-ए-शौक़ ने पर्दे उठाए महमिल के
मुशाहिदे को इक आईना-ए-जमाल दिया
कमाल-ए-इश्क़ ने जौहर दिखा दिए दिल के
ज़बान-ए-‘यास’ से अफ़साना-ए-सहर सुनिए
वो रोना शम्मा का परवानों से गले मिल के
यार है आइना है शाना है
यार है आइना है शाना है
चश्म-ए-बद-दूर क्या ज़माना है
झाँकने ताकने का वक़्त गया
अब वो हम हैं न वो ज़माना है
वहशत-अँगेज़ है नसीम-ए-बहार
क्या जुनूँ-ख़ेज़ ये ज़माना है
साक़िया अर्श पर है अपना दिमाग़
सर है और तेरा आस्ताना है
दाग़-ए-हसरत से दिल हो मालामाल
यही दौलत यही ख़ज़ाना है
महशरिस्तान-ए-आरज़ू-ए-विसाल
दिल है क्या एक कार-ख़ाना है
लो बुझा चाहता है दिल का कँवल
ख़त्म अब इश्क़ का फ़साना है
क्या कहीं उड़ के जा नहीं सकते
वो चमन है वो आशियाना है
‘यास’ अब आप में न आएँगे
वस्ल इक मौत का बहाना है
ढूँढ़ते फिरते हो अब टूटे हुए दिल में पनाह
ढूँढ़ते फिरते हो अब टूटे हुए दिल में पनाह।
दर्द से ख़ाली दिले-गबरू-मुसलमाँ देखकर॥
सब्र करना सख़्त मुश्किल है तड़पना सहल है।
अपने बस का काम कर लेता हूँ आसाँ देखकर॥
ऐसी पिला कि साकि़या! फ़िक्र न हो निजात की।
नशा कहीं उतर न जाय रोज़े-शुमार देखाकर॥
आबला-पा निकल गये काँटों को रौंदते हुए।
सूझा फिर आँख से न कुछ मंज़िले-यार देखकर॥
ज़मीं करवट बदलती है बलाये-नागहाँ होकर
ज़मीं करवट बदलती है बलाये-नागहाँ होकर।
अजब क्या सर पै आये पाँव की ख़ाक आसमाँ होकर॥
उठो ऐ सोनेवालो! सर पै धूप आई क़यामत की।
कहीं यह दिन न ढल जाये नसीबे-दुश्मनाँ होकर॥
अरे ओ जलनेवाले! काश जलना ही तुझे आता।
यह जलना कोई जलना है कि रह जाये धुआँ होकर॥
दो कतआ़त
सब तेरे सिवा काफ़िर, आख़िर इसका मतलब क्या!
सिर फिरा दे इन्साँ का ऐसा ख़ब्ते-मज़हब क्या!!
मजाल थी कोई देखे तुम्हें नज़र भरकर।
यह क्या है आज पडे़ हो मले-दले क्योंकर॥
पसीना तक नहीं आता, तो ऐसी ख़ुश्क तौबा क्या
पसीना तक नहीं आता, तो ऐसी ख़ुश्क तौबा क्या?
नदामत वो कि दुस्मन को तरस आ जाये दुश्मन पर॥
उस तरफ़ सात आसमाँ और इस तरफ़ इक नातवाँ।
तुमने करवट तक न ली दुनिया को बरहम देख कर॥
खु़दा जाने अज़ल को पहले किस पर रहम आयेगा?
गिरफ़्तारे क़फ़स पर या गिरफ़्तारे नशेमन पर॥
कोई क्या जाने बाँकपन के यह ढंग
कोई क्या जाने बाँकपन के यह ढंग।
सुलह दुश्मन से और दोस्त से जंग॥
क्या ज़माना था कैसे दुश्मन थे?
रात भर सुलह और दिन भर जंग॥
संगे-दिल को बना दूँ देवता मैं।
आप क्या जानें बन्दगी के ढंग?
नाख़ुदा! कुछ ज़िरे-तूफ़ाँ आज़माई भी दिखा
नाख़ुदा! कुछ ज़ोरे-तूफ़ाँ आज़माई भी दिखा।
फ़िक्रे-साहिल छोड़ लंगर डाल दे मजधार में॥
‘यास’! गुमराही से अच्छी ज़हमते-वामान्दगी।
डाल लो ज़ंजीर कोई पायेकज़-रफ़्तार में॥
पैबन्दे-ख़ाक होने का अल्लाह रे इश्तयाक़।
उतरे हम अपने पाँव से अपने मज़ार में॥
शरमिन्दये-कफ़न न हुए आसमाँ से हम।
मारे पडे़ हैं सायए-दीवारे-यार से॥
कहते हो अपने फ़ेल का मुख़्तार है बशर।
अपनी तो मौत तक न हुई अख़्तियार मैं॥
दुनिया से ‘यास’ जाने को जी चाहता नहीं।
वल्लाह क्या कशिश है इस उजडे़ दयार में॥
गले में बाहें डाले चैन से सोना जवानी में
गले में बाहें डाले चैन से सोना जवानी में।
कहाँ मुमकिन फिर ऐसा ख़्वाब देखूँ ज़िन्दगानी में॥
ग़नीमत जान उस कूचे में थककर बैठ जाने को।
किसे दम भर मिला आराम दौरे-आसमानी में॥
यकसाँ कभी किसी की न गुज़री ज़माने में।
यादश बख़ैर बैठे थे कल आशियाने में॥
सदमा दिया तो सब्र की दौलत भी देगा वो।
किस चीज़ की कमी है सख़ी के ख़ज़ाने में॥
अफ़सुर्दा ख़ातिरों की ख़िज़ाँ क्या, बहार क्या।
कुंजे-क़फ़स में मर रहे या आशियाने में॥
हम ऐसे बदनसीब कि अब तक न मर गये।
आँखों के आगे आग लगी आशियाने में।
दीवाने बनके उनके गले से लिपट भी जाओ।
काम अपना कर लो ‘यास’ बहाने-बहाने में॥
ख़ून के घूँट बलानौश पिये जाते हैं
ख़ून के घूँट बलानौश पिए जाते हैं।
खैर साक़ी की मनाते हैं जिए जाते हैं।
एक तो दर्द मिला उसपै यह शाहाना मिज़ाज।
हम ग़रीबों को भी क्या तोहफ़े दिए जाते हैं॥
दिल है पहलू में कि उम्मीद की चिंगारी है।
अब तक इतनी है हरारत कि जिए जाते हैं।
चार रुबाइयाँ
खटका लगा न हो तो मज़ा क्या गुनाह का।
लज़्ज़्त ही और होती है चोरी के माल में ॥
अल्लाह क़फ़स में आते ही क्या मत पलट गई।
अखिर हमी तो हैं कि फड़कते थे जाल में॥
महराबों में सजदा वाजिब, हुस्न के आगे सजदा हराम।
ऐसे गुनहगारों पै ख़ुदा की मार नहीं तो कुछ भी नहीं॥
दिल से खुदा का नाम लिए जा, काम किए जा दुनिया का।
काफ़िर हो, दींदार हो, दुनियादार नहीं तो कुछ भी नहीं॥
सजदा वह क्या कि सर को झुकाकर उठा लिया।
बन्दा वो है जो बन्दा हो, बन्दानुमा न हो॥
उम्मीदे-सुलह क्या हो, किसी हक़-परस्त से।
पीछे वो क्या हटेगा, जो हद से बढ़ा न हो॥
मज़ा जब है कि रफ़्ता-रफ़्ता उम्मीदें फलें-फूलें।
मगर नाज़िल कोई फ़ज़्ले-इलाही नागहाँ क्यों हो॥
समझ में कुछ नहीं आता पढ़े जाउँ तो क्या हासिल?
नमाज़ों का है कुछ मतलब तो परदेसी ज़बाँ क्यों हो?
कुछ मक़्ते
हिजाबो-नाज़ बेजा ‘यास’ जिस दिन बीच में आया।
उसी दिन से लड़ाई ठन गई शेख़ो-बिरहमन में॥
यहीं से सैर कर लो ‘यास’ इतनी दूर क्यों जाओ।
अदम आबाद का डांडा मिला है कूए-क़ातिल से॥
क्या कोई पूछनेवाला भी अब अपना न रहा।
दर्दे-दिल रोने लगे ‘यास’ जो बेगानों से॥
कोई ज़िद थी या समझ का फेर था
कोई ज़िद थी या समझ का फेर था।
मान गए वो मैंने जब उल्टी कही।
शक है काफ़िर को मेरे ईमान में।
जैसे मैंने कोई मुँह देखी कही॥
क्या खबर थी यह खुदाई और है।
हाय! क्यों मैंने खु़दा लगती कही॥
ज़माना ख़ुदा को खु़दा जानता है
ज़माना खु़दा को ख़ुदा जानता है।
यही जानता है तो क्या जानता है॥
वो क्यों सर खपाए तेरी जुस्तजू में।
जो अंजामे-फ़िक्रेरसा जानता है॥
ख़ुदा ऐसे बंदों से क्यों फिर न जाए।
जो बैठा हुआ माँगना जानता है॥
वो क्यों फूल तोड़े वो क्यों फूल सूँघे?
जो दिल का दुखाना बुरा जानता है॥
हासिले-फ़िक्रे नारसा क्या है
हासिले-फ़िक्रे नारसा क्या है।
तू खु़दा बन गया बुरा क्या है॥
कैसे-कैसे ख़ुदा बना डाले।
खेल बन्दे का है ख़ुदा क्या है॥
दर्दे-दिल की कोई दवा न हुआ।
या इलाही! यह माजरा क्या है।।
नूर ही नूर है कहाँ का ज़हूर।
उठ गया परदा अब रहा क्या है॥
रहने दे हुस्न का ढका परदा।
वक़्त-बेवक़्त झाँकता क्या है॥
पढ़के दो कलमे अगर कोई मुसलमाँ हो जाय
पढ़के दो कलमे अगर कोई मुसलमाँ हो जाय।
फिर तो हैवान भी दो रोज़ में इन्साँ हो जाय॥
आग में हो जिसे जलना तो वो हिन्दु बन जाय।
ख़ाक में ही जिसे मिलना वो मुसलमाँ हो जाय॥
नशये-हुस्न को इस तरह उतरते देखा।
ऐब पर अपने कोई जैसे पशेमाँ हो जाय॥
सुलहजूई ने गुनहगार मुझे ठहराया
सुलहजूई ने गुनहगार मुझे ठहराया।
जुर्म साबित जो किया चाहो तो मुश्किल हो जाय़।।
नाख़ुदा को नहीं अब तक तहे-दरिया की ख़बर।
डूबकर देखे तो बेगानये-साहिल हो जाय़॥
एक ही सजदा क्या दूसरे का होश कुजा।
ऐसे सजदे का यह अंजाम कि बातिल हो जाय॥
दर्देसर था सज़द-ए-शामोसहर मेरे लिए
दर्देसर था सजद-ए-शामोसहर मेरे लिए।
दर्देदिल ठहरा दवा-ए-दर्देसर मेरे लिए॥
दर्देदिल के वास्ते पैदा किया इन्सान को।
ज़िन्दगी फिर क्यों हुई है, दर्देसर मेरे लिए॥
फ़ितरते-मजबूर को अपने गुनाहों पै है शक।
वा रहेगा कब तलक तौबा का दर मेरे लिए॥
ऐसी आज़ाद रू इस तन में
ऐसी आज़ाद रूह इस तन में।
क्यों पराये मकान में आई॥
बात अधूरी मगर असर दूना।
अच्छी लुक़नत ज़बान में आई॥
आँख नीची हुई अरे यह क्या।
क्यों ग़रज़ दरमियान में आई॥
मैं पयम्बर नहीं यगाना’ सही।
इससे क्या कस्र शान में आई॥
चार अशआ़र
कीमया-ए-दिल क्या है, खा़क है, मगर कैसी?
लीजिये तो मँहंगी है, बेचिये तो सस्ती है॥
खिज्रे-मंज़िल अपना हूँ, अपनी राह चलता हूँ।
मेरे हाल पर दुनिया क्या समझ कर हँसती है॥
बन्दा वो बन्दा जो दम न मारे।
प्यासा खड़ा हो दरिया किनारे॥
शबे-उम्मीद कट गई लेकिन–
ज़िन्दगी अपनी मुख़्तसिर न हुई॥
सलामत रहे दिल में घर करने वाले
सलामत रहे दिल में घर करनेवाले।
इस उजडे़ मकाँ में बसर करनेवाले॥
गले पै छुरी क्यों नहीं फेर देते।
असीरों को बेबालो-पर करनेवाले॥
खड़े हैं दुराहे पै दैरो-हरम के।
तेरी जुस्तजू में सफ़र करनेवाले॥
कुजा सहने-आलम, कुजा कुंजे-मरक़द।
बसर कर रहे हैं बसर करनेवाले॥
आँख दिखलाने लगा है वो फ़ुसूँ-साज़
आँख दिखलाने लगा है वो फ़ुसूँ-साज़ मुझे
कहीं अब ख़ाक न छनवाए ये अंदाज़ मुझे
कैसे हैराँ थे तुम आईने में जब आँख लड़ी
आज तक याद है इस इश्क़ का आग़ाज़ मुझे
सामने आ नहीं सकते कि हिजाब आता है
पर्दा-ए-दिल से सुनाते हैं वो आवाज़ मुझे
तीलियाँ तोड़ के निकले सब असीरान-ए-क़फ़स
मगर अब तक न मिली रुख़्सत-ए-परवाज़ मुझे
पर कतर दे अरे सय्याद छुरी फेरना क्या
मार डालेगी यूँही हसरत-ए-परवाज़ मुझे
ज़ेर-ए-दीवार-ए-सनम क़ब्र में सोता हूँ फ़लक
क्यूँ न हो ताला-ए-बेदार पर अब नाज़ मुझे
बे-धड़क आए न ज़िन्दाँ में नसीम-ए-वहशत
मस्त कर देती है ज़ंजीर की आवाज़ मुझे
पर्दा-ए-हिज्र वही हस्ती-ए-मौहूम थी ‘यास’
सच है पहले नहीं मालूम था ये राज़ मुझे
आप से आप अयाँ शाहिद-ए-मानी होगा
आप से आप अयाँ शाहिद-ए-मानी होगा
एक दिन गर्दिश-ए-अफ़लाक से ये भी होगा
आँखें बनवाइए पहले ज़रा ऐ हज़रत-ए-क़ैस
क्या इन्हीं आँखों से नज़्ज़ारा़-ए-लैली होगा
शौक़ में दामन-ए-यूसुफ़ के उड़ेंगे टुकड़े
दस्त-ए-गुस्ताख़ से क्या दूर है ये भी होगा
लाखों इस हुस्न पे मर जाएँगे देखा-देखी
कोई ग़श होगा कोई महव-ए-तजल्ली होगा
हुस्न-ए-ज़ाती भी छुपाए से कहीं छुपता है
सात पर्दों से अयाँ शाहिद-ए-मानी होगा
होश उड़ेंगे जो ज़माने की हवा बिगड़ेगी
चार ही दिन में ख़िज़ाँ गुलशन-ए-हस्ती होगा
और उमड़ेगा दिल-ए-ज़ार जहाँ तक छेड़ो
ये भी क्या कोई ख़ज़ाना है कि ख़ाली होगा
दिल धड़कने लगा फिर सुब्ह-ए-जुदाई आई
फिर वही दर्द वही पहलू-ए-ख़ाली होगा
ये तो फ़रमाइए क्या हम में रहेगा बाक़ी
दिल अगर दर्द-ए-मोहब्बत से भी ख़ाली होगा
एक चुल्लू से भी क्या ‘यास’ रहोगे महरूम
बज़्म-ए-मय है तो कोई साहब-ए-दिल भी होगा
अदब ने दिल के तक़ाज़े उठाए हैं
अदब ने दिल के तक़ाज़े उठाए हैं क्या क्या
हवस ने शौक़ के पहलू दबाए हैं क्या क्या
न जाने सहव-ए-क़लम है कि शाहकार-ए-क़लम
बला-ए-हुस्न ने फ़ितने उठाए हैं क्या क्या
निगाह डाल दी जिस पर वो हो गया अँधा
नज़र ने रंग-ए-तसर्रुफ़ दिखाए हैं क्या क्या
इसी फ़रेब ने मारा के कल है कितनी दूर
इस आज कल में अबस दिन गँवाए हैं क्या क्या
पहाड़ काटने वाले ज़मीं से हार गए
इसी ज़मीन में दरिया समाए हैं क्या क्या
गुज़र के आप से हम आप तक पहुँच तो गए
मगर ख़बर भी है कुछ फेर खाए हैं क्या क्या
बुलंद हो तो खुले तुझ पे ज़ोर पस्ती का
बड़े-बड़ों के क़दम डगमगाए हैं क्या क्या
ख़ुशी में अपने क़दम चूम लूँ तो ज़ेबा है
वो लग़्ज़िशों पे मेरी मुस्कुराए हैं क्या क्या
ख़ुदा ही जाने ‘यगाना’ मैं कौन हूँ क्या हूँ
ख़ुद अपनी ज़ात पे शक दिल में आए हैं क्या क्या
चले चलो जहाँ ले जाए वलवला दिल का
चले चलो जहाँ ले जाए वलवला दिल का
दलील-ए-राह-ए-मोहब्बत है फ़ैसला दिल का
हवा़-ए-कूचा-ए-क़ातिल से बस नहीं चलता
कशाँ-कशाँ लिए जाता है वलवला दिल का
गिला किसे है के क़ातिल ने नीम-जाँ छोड़ा
तड़प तड़प के निकालुँगा हौसला दिल का
ख़ुदा बचाए कि नाज़ुक है उन में एक से एक
तुनक-मिज़ाजों से ठहरा मुआमला दिल का
दिखा रहा है ये दोनों जहाँ की कैफ़ियत
करेगा साग़र-ए-जम क्या मुक़ाबला दिल का
हवा से वादी-ए-वहशत में बातें करते हो
भला यहाँ कोई सुनता भी है गिला दिल का
क़यामत आई खुला राज़-ए-इश्क़ का दफ़्तर
बड़ा ग़ज़ब हुआ फूटा है आबला दिल का
किसी के हो रहो अच्छी नहीं ये आज़ादी
किसी की ज़ुल्फ़ से लाज़िम है सिलसिला दिल का
प्याला ख़ाली उठा कर लगा लिया मुँह से
कि ‘यास’ कुछ तो निकल जाए हौसला दिल का