रघुविन्द्र यादव के दोहे-1
नैतिकता ईमान से, वक़्त गया है रूठ।
सनद माँगता सत्य से, कुर्सी चढ़ कर झूठ॥
लगते हैं सद्भाव को, अनगिन गहरे घाव।
होते हैं इस देश में, जब-जब कहीं चुनाव॥
किसकी हिम्मत मोड़ता, सरकारी फरमान?
सूरज से ज़्यादा हुआ, जुगनू का सम्मान॥
कैसे रहे समाज में, अमन चैन सद्भाव।
कोई तन को दे रहा, कोई मन को घाव॥
कहाँ रहेंगी मछलियाँ, सबसे बड़ा सवाल।
घडियालों ने कर लिए, कब्ज़े में सब ताल॥
पूछ रहे हैं गाँव के, खेत मेंढ़ खलिहान।
कैसे जीवित रख लिया, अब तक भी ईमान॥
किसे फ़िक्र है देश की, कौन करेगा त्याग?
कहीं पेट की भूख है, कहीं हवस की आग॥
बुलबुल ने आकाश में, जब-जब भारी उड़ान।
बाजों ने प्रतिबन्ध के, सुना दिए फरमान॥
राजनीति के अश्व पर, बौने हुए सवार।
घास छीलते फिर रहे, शिखरों के हक़दार॥
फैला सभ्य समाज में, जाने कैसा रोग।
आहत करके और को, ख़ुशी खोजते लोग॥
खूब किया सय्याद ने, बुलबुल पर उपकार।
पंख काटकर दे दिया, उड़ने का अधिकार॥
है रिश्वत के सामने, बेबस अभी विधान।
गाँव लूटकर खा गए, मुखिया, पंच, प्रधान॥
हिम्मत टूटी हंस की, डोल गया विश्वास।
काग मिले जब मंच पर, पहने धवल लिबास॥
सपनों पर भी हो गई, ओलों की बरसात।
मौसम बरसा दो घडी, अँखियाँ सारी रात॥
सुनकर तर्क वकील के, न्याय हुआ लाचार।
कातिल को फिर मिल गया, जीने का अधिकार॥
रोटी भूखे पेट को, तन को मिले लिबास।
केवल इतनी भूख है, आमजनों के पास॥
पीट रहे हैं लीक को, नहीं समझाते मर्म।
आडम्बर को कह रहे, कुछ नालायक धर्म॥
गलत-सही का फैसला, अगर करेगी भीड़।
भाईचारा छोडिये, नहीं बचेंगे नीड़॥
रिश्वत बोली झूठ से, सुनले करके गौर।
कलियुग के इस दौर के, हम दोनों सिरमौर॥
गिरवी दिनकर की कलम, पढ़ें कसीदे मीर।
सुख सुविधा कि हाट में, बिकते रोज कबीर॥
रघुविन्द्र यादव के दोहे-2
कहीं भेड़िये घात में, कहीं शिकारी जाल।
है हिरनी के भाग्य में, मरना सदा अकाल॥
घर से निकली तितलियाँ, खतरों से अनजान।
बीच बाग में कर गये, भँवरे लहूलुहान॥
नफ़रत बोते फिर रहे, योगी, भोगी, संत।
बनने को बेताब हैं, नवयुग के सामंत॥
हैं नारी के भाग्य में, दर्द, घुटन, अवसाद।
अपने जिसको लूटते, कहाँ करे फ़रियाद॥
गहने होते थे कभी, लाज, शर्म, संस्कार।
अब ये जिसके पास हैं, कहलाते लाचार॥
किसे सुनाये द्रौपदी, घायल मन की पीर।
धर्मराज ही खींचते, अब नुक्कड़ पर चीर॥
गली गली में हो रहा, चीर हरण अपमान।
अंधे राजा बाँटते, पीड़ित को ही ज्ञान॥
कोने कविता में पड़ी, गीत फिरें भयभीत।
मान विदूषक पा रहे, अजब चली है रीत॥
ऊपर बैठे लिख रहा, सबके जीवन लेख।
हिम्मत है तो या खुदा, जग में आकर देख॥
आँसू, आहें, बेबसी, हलधर की तकदीर।
शासन की सब नीतियाँ, बढ़ा रही हैं पीर॥
हालत देख समाज की, आये याद कबीर।
दोहों में बहने लगी, अक्षर अक्षर पीर॥
ख़त्म हुआ यूँ आपसी, भाई चारा, प्यार।
अब तो खबर पड़ोस की, देता है अखबार॥
धनिकों का करती रही, दिल्ली सतत विकास।
भूखों को सिखला रही, धर्म कर्म उपवास॥
अरी भेड़ अब मान ले, सत्ता का अहसान।
उन काटकर दे रही, तुझे दुशाला दान॥
नायक बने समाज के, झूठे दुष्ट लबार।
हांडी अब तो काठ की, चढ़ती बारम्बार॥
दुनिया नाहक पालती, अहम वहम अभिमान।
लालकिला खाली पड़ा, शीशमहल वीरान॥
डाल दिए हैं जेल में, पकड़ पकड़ खरगोश।
मगर देखकर भेड़िये, पुलिस हुई बेहोश॥
अपनी आँखों देख लें, समदर्शी का न्याय।
कहीं भूख से मौत है, कहीं करोड़ों आय॥
बाँट रहा बारूद अब, कहकर शुद्ध अबीर।
करनी देखी संत की, आये याद कबीर॥
डाल दिए खुद सत्य ने, बिना लड़े हथियार।
वरना होती झूठ की, यहाँ शर्तिया हार॥
रघुविन्द्र यादव के दोहे-3
कनक खेत में खप गई, सस्ती बिकी कपास।
रामदीन रुखसत हुआ, खा गोली सल्फास॥
रहा बिछाता उम्रभर, जो राहों में शूल।
उसका भी अरमान है, पग पग बरसें फूल॥
लड़ें कहाँ तक द्रौपदी, कौरव कुल के साथ।
द्रौण पितामह कर्ण का, जिनके सिर पर हाथ॥
घुसे हमारी पीठ में, खंज़र जितनी बार।
दुश्मन गायब थे सभी, हाजिर थे बस यार॥
ज्ञानी ध्यानी मौन हैं, मूढ़ बाँटते ज्ञान।
पाखंडों का दौर है, सिर धुनता विज्ञान॥
जिसने घुसकर भीड़ में, बस्ती फूँकी रात।
सुबह हुई करने लगा, वही अमन की बात॥
जब से महँगी हो गई, बंजर पड़ी ज़मीन।
लक्ष्मण भी श्रीराम का, करता नहीं यकीन॥
नए दौर के प्यार की, खौफ़नाक तस्वीर।
लैला दौलत माँगती, राँझा गर्म शारीर॥
जीवनभर करता रहा, जो खुद रोज शिकार।
खौफ़जदा है आजकल, जंगल का सरदार॥
पंख काटकर बाज़ के, खूब हँसा शैतान।
उसका ऊँचा हौसला, भरने लगा उड़ान॥
बहुत भयावह हो गए, उत्पीड़न के चित्र।
रक्त पिपासे घूमते, गली गली में मित्र॥
जंगल के राजा बने, जब जब दुष्ट सियार।
चुन चुन कर मारे गए, देशभक्त सरदार॥
काटा करते जेब जो, लगे काटने शीश।
उधर पुजारी कह रहे, खुद को ही जगदीश॥
झूठ युधिष्ठिर बोलते, कर्ण लूटते माल।
विदुर फिरौती ले रहे, केशव करें मलाल॥
अपराधी के पक्ष में, होता खड़ा समाज।
करे झूठ की पैरवी, तनिक न आती लाज॥
कैसे कागज़ पर लिखें, अपने मन की बात।
यहाँ हाथ भी हाथ से, कर देता है घात॥
उनके सारे व्यर्थ हैं, जप, तप, तीरथ, दान।
जो अपने माँ बाप का, करें नहीं सम्मान॥
किस पर अब संशय करें, किस पर करें यकीन।
शेष बचा सच झूठ में, अंतर बहुत महीन॥
अपने भाई हैं नहीं, अब उनको स्वीकार।
चूहे चुनना चाहते, बिल्ली को सरदार॥
देह दिखाकर बेचती, नारी अब उत्पाद।
कूद रही है गर्त में, होने को आज़ाद॥
रघुविन्द्र यादव के दोहे-4
लोग झूठ के पक्ष में, देते मिलें दलील।
शिष्टाचारी देश में, होता सत्य ज़लील॥
घर त्यागा मठ में गया, ग्रहण किया संन्यास।
तन मन से भोगी रहा, बदला सिर्फ़ लिबास॥
लोग मछलियों पर यहाँ, यूँ करते अहसान।
जल से बाहर फेंककर, देते जीवन दान॥
पाल अहम का सब रहे, बड़ा भयंकर रोग।
लम्बी लम्बी फेंकते, औने पौने लोग॥
हलधर के हालात में, आया नहीं सुधार।
कोटेदार खरीदता, सालाना दो कार॥
पढ़ने को बेताब था, शायर नया कलाम।
सिक्कों की झंकार सुन, बोला सिर्फ़ सलाम॥
करने होंगे लेखनी, तुझे समय से प्रश्न।
झोपड़ियों में भूख है, महलों में क्यों जश्न?
धन की ताक़त ने किया, फिर से नया कमाल।
छोड़ दिए वैताल ने, करने सभी सवाल॥
जीत रहा हर बार वो, जिसके बड़े वकील।
बेवा कि ख़ारिज करें, हाकिम सभी अपील॥
अगर करेंगे भेड़िये, जंगल में इन्साफ।
शीश कटेगा चोर का, कातिल होंगे माफ़॥
जाति धर्म सब हैं खड़े, आरोपी के साथ।
न्याय मिलेगा किस तरह, पीड़ित खाली हाथ॥
चाहत खरपतवार की, दे बरगद को मात।
घुटने से नीचे रहे, मगर भेड़ की लात॥
एक तरह के फूल से, जिनका है अनुराग।
वे बहुरंगी बाग़ में, लगा रहे हैं आग॥
पूछ रही है ज़िन्दगी, हर दिन वही सवाल।
क्या जीवन का लक्ष्य है, केवल रोटी दाल॥
तड़प रही हैं मछलियाँ, सूख रहा है ताल।
राहत देने आ गया, शासन लेकर जाल॥
काँटों का जिस देश में, होता है सम्मान।
होना निश्चित है वहाँ, फूलों का अपमान॥
लाल चौक घायल पड़ा, रोती है डल झील।
घाटी का दुख कह सके, कोई नहीं वकील॥
सुनी नहीं तहसील ने, रिश्वत बिना दलील।
रामदीन होता रहा, सारी उम्र ज़लील॥
दरिया का पानी गया, शेष बची है रेत।
एक एक कर बिक रहे, गहने बर्तन खेत॥
गड़बड़ मौसम से हुई या माली से भूल।
आँगन में उगने लगे, नागफनी के फूल॥
रघुविन्द्र यादव के दोहे-5
कैसे लिखता मीत मैं, सावन वाले गीत।
मानवता पर हो रही, दानवता कि जीत॥
नए दौर ने कर दिए, धर्मवीर लाचार।
जती सती भूखे मरें, मौज करें बदकार॥
साजिश है ये वक़्त की, या केवल संयोग।
नागों से भी हो गए, अधिक विषैले लोग॥
हर कोई स्वच्छंद है, कैसा शिष्टाचार।
पत्थर को ललकारते, शीशे के औजार॥
वक़्त खेलता है सदा, अजब अनोखे खेल।
कल पटरी थी रेल पर, अब पटरी पर रेल॥
दो रोटी के वास्ते, मरता था जो रोज।
मरने पर उसके हुआ, देशी घी का भोज॥
नया दौर रचने लगा, नए नए प्रतिमान।
भाव कौड़ियों के बिके, मानव का ईमान॥
मासूमों के खून से, खेलें जो दिन रात।
दिल्ली उन से कर रही, समझौते की बात॥
नेता लूटें देश को, पायें छप्पन भोग।
जनता कि किस्मत बने, भूख, गरीबी, रोग॥
हत्या, डाका, रहजनी, घूस और व्यभिचार।
नेता करने लग गए, लाशों का व्यापार॥
कुर्सी पाने के लिए, खेल रहे हैं खेल।
कल तक जिससे वैर था, आज उसी से मेल॥
राजनीति अपराध का, जब से हुआ कुमेल।
सच के पौधे सूखते, हरी झूठ jiकी बेल॥
मंजिल उसको ही मिली, जिसमें उत्कट चाह।
निकल पड़ा जो ढूँढने, पाई उसने राह॥
चोरी कर कर घर भरा, जोड़े लाख करोड़।
जेब कफ़न में थी नहीं, गया यहीं सब छोड़॥
भ्रष्ट व्यवस्था ने किये, पैदा वह हालात।
जुगनू भी अब पूछते, सूरज से औकात॥
भ्रष्ट व्यवस्था कर रही, सारे उलटे काम।
अन्न सड़े गोदाम में, भूरा मरे अवाम॥
तुलसी काटी, बो दिए, कीकर और बबूल।
नए दौर की सभ्यता, कैसे करूँ कबूल?
धन की खातिर बेचता, आये दिन ईमान।
गिरने की सीमा सभी, लाँघ गया इंसान॥
ताकत के बल चल रहा, दुनिया का व्यवहार।
झूठ बुलंदी छू रहा, सत्य खड़ा लाचार॥
सच को सच कैसे लिखे, जिसका मरा ज़मीर।
अमर कबीरा हो गया, लिख जनता कि पीर॥
रघुविन्द्र यादव के दोहे-6
सत्य कहे यारी गई, स्पष्ट कहे सम्बन्ध।
अब तो केवल रह गए, स्वारथ के अनुबंध॥
झूठों के दरबार हैं, सच पर हैं इल्ज़ाम।
कैसे होगा न्याय अब, बोलो मेरे राम॥
सुनते आये हैं सदा, होती सच की जीत।
झूठ मगर निर्भय यहाँ, सत्य फिरे भयभीत॥
कनक हुई जब खेत में, दो कौड़ी था मोल।
लाला के गोदाम से, बिकी कनक के तोल॥
कहीं शिकारी तानते, उस पर तीर कमान।
कहीं भेड़िये घात में, हिरनी है अनजान॥
संसद में होती रही, महिला हित की बात।
थाने में लुटती रही, इज्ज़त सारी रात॥
नारी को समझा सदा, मर्द जाति ने दास।
ताड़न की अधिकारिणी, कहते तुलसीदास॥
रामराज की कल्पना, करती है भयभीत।
भूली कब है जानकी, अपना दुखद अतीत॥
विधवा होते ही हुए, सब दरवाजे बंद।
आँखों का भी नींद से, टूट गया अनुबंध॥
नारी पूजक देश में, नारी है लाचार।
हत्या, शोषण, अपहरण, भरे पड़े अखबार॥
नयी सदी से मिल रही, दर्द भरी सौगात।
बेटा कहता बाप से, तेरी क्या औकात॥
रिश्तों को यूँ तोड़ते, जैसे कच्चा सूत।
बँटवारा माँ बाप का, करने लगे कपूत॥
अब तो अपना खून भी, करने लगा कमाल।
बोझ समझ माँ बाप को, घर से रहा निकाल॥
पानी आँखों का मरा, मरी शर्म औ’ लाज।
कहे बहू अब सास से, घर में मेरा राज॥
सास ससुर लाचार हैं, बहू न पूछे हाल।
देते में ‘सेवा’ करे, बाबा हुआ निहाल॥
खंज़र रखकर जेब में, करें अमन की बात।
होठों पर मुस्कान है, भीतर मन में घात॥
मंदिर में पूजा करें, घर में करें कलेश।
बापू तो बोझा लगे, पत्थर लगें गणेश॥
बचे कहाँ अब शेष हैं, दया, धर्म, ईमान।
पत्थर के भगवान् हैं, पत्थर दिल इंसान॥
पत्थर के भगवान् को, लगते छप्पन भोग।
मर जाते फुटपाथ पर, भूखे प्यासे लोग॥
धर्म कर्म की आड़ ले, करते हैं व्यापार।
फोटो, माला, पुस्तकें, बेचें बंदनवार॥
रघुविन्द्र यादव के दोहे-7
पहन मुखौटा धर्म का, करते दिनभर पाप।
भंडारे करते फिरें, घर में भूखा बाप॥
बरगद रोया फूटकर, घुट घुट रोया नीम।
बेटों ने जिस दिन किये, मात पिता तकसीम॥
घुट घुट कर माँ मर गई, पूछा कभी न हाल।
देवी माँ का जागरण, करते हैं हर साल॥
मातृभक्त सबसे बड़े, उनकी कहाँ मिसाल।
‘मातृसदन’ घर पर लिखा, माँ को दिया निकाल॥
घर आँगन बाँटे गये, बाँट लिये हल बैल।
हिस्से में माँ बाप को, दिया गया खपरैल॥
तन से शहरी हो गए, पर मन में है गाँव।
भूल न पाये आज तक, बरगद वाली छाँव॥
चौपालें खामौश हैं, पनघट हैं वीरान।
बाँट दिया किसने यहाँ, न$फरत का सामान॥
दौलत उसके पास है, अपने पास ज़मीर।
वक़्त करेगा फ़ैसला, सच्चा कौन अमीर॥
हंस चाकरी कर रहे, काग बने सरदार।
करने लगे गँवार भी, शिक्षा का व्यापार॥
झूठ मलाई खा रहा, छल के सिर पर ताज।
सत्य मगर है आज भी, रोटी को मुहताज॥
बेटी निकली काम पर, पिता हुआ बेचैन।
जब तक घर लौटी नहीं, रहे द्वार पर नैन॥
गये जमाने त्याग के, शेष रह गया भोग।
लाशों को भी लूटते, हैं कलियुग के लोग॥
होता रहा समाज में, दीपक का गुणगान।
बाती के बलिदान पर, नहीं किसी का ध्यान॥
अपने ही शोषण करें, कौन बँधाए धीर।
सभी डालना चाहते, औरत को ज़ंजीर॥
साँप नेवलों में बढ़ा, जब से मेल मिलाप।
दोनों दल खुशहाल हैं, करता देश विलाप॥
जनहित की परवाह नहीं, नहीं लोक की लाज।
कौओं की सरकार का, करें समर्थन बाज॥
साँप नेवलों ने किया, समझौता चुपचाप।
पाँच साल हम लूट लें, पाँच साल फिर आप॥
होगा कैसे देश से, राजतंत्र का अंत।
लोकतंत्र भी दे रहा, नये नये सामंत॥
उभर रही है देश की, खौफ़नाक तस्वीर।
भाव ज़मीनों के बढ़े, सस्ते हुए ज़मीर॥
जमकर हुआ विकास तो, हम को कब इन्कार।
लोग भूख से आज भी, मरते हैं सरकार॥