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हमारी कविता

हमारी कविता

तुम कल्पना पर होकर सवार
लिखते हो कविता
और हमारी कविता
रोटी बनाते समय जल जाती है अक्सर
कपड़े धोते हुए
पानी में बह जाती कितनी ही बार

झाड़ू लगाते हुए
साफ हो जाती है मन से
पौंछा लगाते हुए
गँदले पानी में निचुड़ जाती है

साफ़ करते हुए घर के जाले
कहीं उलझ जाती अपने ही भीतर
और जाले बना लेती है अनगिनत
धूल झाड़ते हुए दीवार से
सूखी पपड़ी सी उतर जाती है
टावल टाँगते समय
टँग जाती है खूँटी पर

सूई में धागा पिरोते-पिरोते
हो जाती है आँख से ओझल

छेद-छेद हो जाती है
तुम्हारी कमीज़ में बटन टाँगते
बच्चों की चिल्ल-पों में खो जाती है
मिट्टी हो जाती है
गमलों में देते हुए खाद

घर-बाहर सँभालते सहेजते
तुम्हारे दंभ में दब जाती है
और निकलती है किसी आह सी
जैसै घरों की चिमनियों से
निकलता है धुँआ।

अगर पढ़ सको तो पढ़ो
हमको ही
हमारी कविता की तरह
हम औरतें भी
एक कविता ही तो हैं।

औरत

औरत

घर में
हर कहीं बिखरी होती है औरत
लेकिन उसका कोई घर नहीं होता
वह घर होती है दूसरों के लिए
दूसरे रहते हैं उसमें
मगर वह खुद में नहीं रहती

सबको संभालती है
पोसती है पालती है
सबके लिए वक्त निकालती है
पर अपने लिए नहीं होता
उसके पास वक्त

टंगी रहती है औरत पर्दे की तरह
आड़ देती हुई घर की तमाम कमजोरियों को
पर सड़क पर ला दिया जाता है
उसका सम्मान कभी भी

सीवन करती है वह तमाम उधड़नों की
और खुद ही उधड़-उधड़ जाती है
हाड़ तोड़ बेगार करती है तमाम उम्र
और तमाम उम्र खाली हाथ रहती है
महसूस करती है वह सबका दर्द
और उसका दर्द कोई महसूस नहीं करता

तरह-तरह की भूमिकाएं हैं
औरत के लिए
मगर औरत की अपनी कोई भूमिका नहीं

औरों की तरह
औरत भी अपना सफ़र करती है
मगर औरत की ज़िंदगी में
पिता के घर से पति के घर तक
और पति के घर से मृत्यु के घर तक
कोई हमसफर नहीं होता !

पत्ता

फिर गिरा सूखा पत्ता

एक नया जीवन मिला
कितनी ही कोंपलों को
उसकी छोड़ी जगह पर
निकलेंगी कितनी ही शाखें
उन पर खिलेंगे कितने ही नए पत्ते

कितनी हरियाली, कितनी हलचल होगी
कितना होगा जीवन
कोई कैसे बताए

क्या पता
कहीं काट ही न दिया जाये वृक्ष
किसी सड़क के नाम पर

पर अभी-अभी तो गिरा है
एक और पत्ता टूटकर
सैकड़ों कोंपलों को जगह देता

हम

रोज़ सुबह से रात तलक
टूटते हैं सपने
टूटती हैं उम्मीदें
टूटता है विश्वास
मगर हम
फिर भी नहीं होतीं निराश

नए सपनों,
नई उम्मीदों,
नई आशाओं के साथ
होती है फिर सुबह

और हर नई सुबह के साथ
हम औरतें फिर से जी उठती हैं

खबरदार

खबरदार
तुम पर नज़र रखी जा रही है
लगातार
एक चूक हुई नहीं
कि आकर नोचने को तैयार
सौ-सौ गिद्ध बैठे हैं पुरूषत्व के
तुम कहीं भी और कभी भी
धर ली जाओगी

तुम्हारे पास अपना कुछ नही है
फिर भी सब कुछ छोड़ने को रहो तैयार

तुम्हारे ऊपर कभी भी लग सकते हैं लांछन
कि तुम हो वाचाल, बेग़ैरत, कुल्टा और बदचलन

तुम्हारे प्यार और तुम्हारी ममता के मानीं
कभी भी हो सकते है बेमानी

जिस दिन भी और जिस भी पल
जीना चाहोगी जीवन अपनी ही तरह
उसी दिन और उसी पल
तुम से छीन लिया जायेगा
तुम्हारा प्यार और सम्मान

और इसीलिए नजर रखी जा रही है तुम पर
कि तुम करो कोई चूक
और छीन लिया जाये तुमसे तुम्हारा सब कुछ

मजदूरों की बस्ती 

मजदूरों की बस्ती नहीं होती
वे जहाँ रुक जाते हैं
बस जाती है वहीं उनकी बस्ती

वहीं सुलगने लगता है उनका चूल्हा
वहीं उठने लगती है सौंधी सुगंध
और वहीं पकने लगती है उनकी रोटी
वहीं खेलने लगते हैं उनके बच्चे
और वहीं पलने लगते हैं उनकी आंखों में सपने

और बस इतने से सुख से ही खुश होकर
वे उठा देते हैं ऊँचे-ऊँचे भवन और इमारतें
बसा देते हैं बड़ी-बड़ी बस्तियाँ
और निकाल देते हैं
दुर्गम पहाड़ों और बीहड़ जंगलों बीच से रास्ते

सिर्फ़ इतने से ही सुख से खुश होकर
वे बसा सकते हैं
एक बिल्कुल ही नई दुनिया।

साहस का नेपथ्य 

औरत डरती है बात करने से
कहीं वाचाल न समझ ली जाए

औरत डरती है चुप रहने से
कहीं मूर्ख न समझ ली जाए

औरत डरती है हर अपने से
कहीं दुश्मन न निकल जाए

औरत डरती है हर बेगाने से
कहीं ‘अपना’ न कह दिया जाए

औरत डरती है हंसने से
कहीं बेहया न समझ ली जाए

औरत डरती है चीखने से
कहीं बद्ज़बान न समझ ली जाए

औरत डरती है
क्योंकि उसे मालूम नहीं है
कि ये सब उसे चुप कराने के तरीके हैं
और जिस घड़ी उसे ये बात समझ आती है
उसके साहस की शुरुआत हो जाती हैऔरत डरती है बात करने से
कहीं वाचाल न समझ ली जाए

औरत डरती है चुप रहने से
कहीं मूर्ख न समझ ली जाए

औरत डरती है हर अपने से
कहीं दुश्मन न निकल जाए

औरत डरती है हर बेगाने से
कहीं ‘अपना’ न कह दिया जाए

औरत डरती है हंसने से
कहीं बेहया न समझ ली जाए

औरत डरती है चीखने से
कहीं बद्ज़बान न समझ ली जाए

औरत डरती है
क्योंकि उसे मालूम नहीं है
कि ये सब उसे चुप कराने के तरीके हैं
और जिस घड़ी उसे ये बात समझ आती है
उसके साहस की शुरुआत हो जाती है

जन ज्वार 

मिश्र के जन सैलाब के आगे
झुक गया हुस्नी मुबारक

चुप्पी बेबसी नहीं होती
नहीं होती चुप्पी बेबसी
उसके पीछे चलता है गहरा विचार मंथन
दिमाग की हांडी में पक जाते हैं जब विचार
बेख़ौफ़ उतरने लगती है
जनता तब सड़कों पर
और एक से लाख होने में देर नहीं लगती

आँखों से गुलामी का अंधेरा छँट जाता है
तनने लगती हैं मुट्ठियाँ और उठने लगते हैं हाथ
जनता जूझती है निराहार, निरस्त्र
सशस्त्र सैनाओं से

एक कठिन दौर से गुज़रते लोग
जल्दी ही जान जाते हैं
कि टालने से टलती नहीं चीजें
और बिगड़ जाती हैं

कितने ही हुस्नी मुबारक बैठे हैं
अल्जीरिया, सीरिया और लीबिया में
और हमारे आस-पास भी
हमारे दिलो-दिमाग़ पर कब्ज़ा किए
हमारे सब्र का इम्तेहान लेते
देखें कब ये बाँध टूटता है।

तहरीर चौक की जन क्रांति देती है सदेश
कि लोकतंत्र के नाम पर जो भी बन बैठेगा तनाशाह
ये मजबूत जनता उसे ऐसे ही कर देगी
नेस्तोनाबूद

तुम्हारा कोट 

तुम्हारे कोट को छुआ तो यूँ लगा
कि जैसे तुम हो उसके भीतर
उसके रोम-रोम में समाये
तुम्हारी ही गंध व्यापी थी उसमें
जो उसे छूते ही समा गई मुझमें
यूँ लगा कि जैसे तुमने छुआ हो मुझे
अचानक कहीं से आकर

मैं तो समझी थी
कि तुम भूल गए हो मुझको
दिखा जब अंदर की जेब में लगा हरा पेन
एक मीठा सा अहसास हुआ
ये वही हरा पेन था
जो लिया था तुमने पहले मुझसे कभी

मगर अब वो पेन महज़ पेन नहीं रहा
वहाँ उग आया था एक हरा पत्ता
जो सीधे तुम्हारे दिल से जाके जुड़ता था
और तुम्हारा दिल अभी भी मुझसे जुड़ा है
मै अब भी हरे पत्ते-सी हरियाती हूँ
तुम्हारे मन में
ये जानकर अच्छा लगा

ये जानकर अच्छा लगा
कि तुमने लगा के रखा है
मुझको अभी भी सीने से
मैं अब भी वहाँ बसती हूँ
सघन हो गया प्रेम
आँख से आँसू बह निकले
तुमने सोख लिया फिर से मेरा दुख
सारा विषाद बह गया

रह गया तुम्हारा-मेरा प्रेम
हरे पत्ते सा तुम्हारे कोट में

संबंध 

मैंने उससे कहा
आओ मेरा मन ले लो
उसे मेरा तन चाहिए था

मैंने फिर उससे कहा
आओ मेरा मन ले लो
उसे मेरा धन चाहिए था

उसने मेरा तन लिया
उसने मेरा धन लिया
मन तक तो वो आया ही नहीं

अब मैं सोचती हूँ
कि मैंने उसके साथ
इतना लम्बा जीवन कैसे जिया

पर जीवन जो बीत गया
जीवन जो रीत गया
वह जिया गया कहाँ

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