आँधियाँ चलने लगीं हैं
आँधियाँ
चलने लगीं हैं फिर हमारे गाँव
झर रहे ख़ामोश
पत्ते उम्र से ज्यों छिन
ज़िन्दगी के चार में से
रह गए दो दिन
खेत की किन क्यारियों में
खो गई है छाँव ?
खेत सूखे
जा रहे हैं, भूख से ज्यों देह
मोर बैठा ताकता है
रिक्त होते मेह
बोझ से ज़ख़्मी हुए
पगडण्डियों के पाँव
रेत ने सब
लील डाली है नदी की धार,
भोगनी पड़ती ग़रीबों
को दुखों की मार
ठूँठ होती
टहनियों पर चील ढूँढ़े ठाँव
कौन समझ पाया है
जीवन की परिभाषा आखिर
कौन समझ पाया है
उलझ गए प्रश्नों के फीते
जाके अलगनियों में
उत्तर के आँचल की डोरी
अटकी चिटखनियों में
अनसुलझे ही प्रश्न रह गए
सन्नाटा छाया है
तृष्णा गिरती ओ’ उठ जाती
दम्भ भरी मकड़ी-सी
प्राण छिटक कर गए हाथ से
लाश रही अकड़ी-सी
गम पीकर दु:ख सहकर टूटी
बेचारी काया है
यौवन की बगिया में जब तक
फूल विहँसते रहते
रस के लोभी भँवरे तब तक
मधु के बीच मचलते
पीड़ा का सहभागी बनकर
कब कोई आया है
ज़िन्दगी का मोल
ज़िन्दगी का है नहीं कुछ मोल
हो सके तो प्रेम इसमें घोल
मौसमों से माँग ले तू रंग कुछ न्यारे
आसमाँ की चाँदनी से सुरमयी तारे
रात-दिन फिर
ख़ुशबुओं में टोल
दुख है जग में कि तू अव्वल बना फिरता
और सबको हेय कह पाग़ल बना फिरता
है अहं की नाव
डावाँडोल
रूप दौलत धन भवन क्या काम के तेरे
मित्र रिश्ते शोहरत बस नाम के तेरे
मोह का संसार
सारा गोल
उम्र की अंन्तिम घड़ी अब आ रही प्यारे
साँस काया की रुकी अब जा रही प्यारे
बोल दो मीठे
अरे! तू बोल
राह कठिन है जीवन की
राह कठिन है
जीवन की पर हार नहीं मानी है
पर्वत-सी ऊँची मंज़िल पर
चढ़ने की ठानी है
पीड़ा का अम्बार लगा
ज्यों लहरों की टोली है
सागर के तट पर जा बरसी
टीस मुई भोली है
जीवन नौका गोता खाए
अन्तहीन पानी है
देह किरचती शीशे जैसी
व्याकुल हैं इच्छाएँ
प्राणों में निष्ठुर आशाएँ
हरदम आग लगाएँ
अन्तर में साँसों के फेरे
मौन हुई वाणी है
सन्नाटे हैं बिखरे पथ पर
काँटो का घेरा है
चन्दनवन में ज्यों विषपायी
सर्पों का डेरा है
यादें मन को हरती हैं पर
दु:ख से बेगानी हैं
रिश्तों का आधार
बैरागी मौसम ने खोल दिए द्वार
शाखों ने पहने हैं फूलों के हार
रेशम-सी कलियों में
प्रेमिल अहसास
धड़कन भी डोल रही
साँसों के पास
भँवरों ने घूम–घूम
बिखराया प्यार
नदिया की राहों में
पर्वत के गाँव
प्रियतम की आँखों में
तारों की छाँव
यौवन में उमड़ा है
लहरों का ज्वार
रसवन्ती बाँहों में
मचला है रूप
धरती ने ओढ़ी है
उजली-सी धूप
रिश्तों का बन बैठा
पावन आधार
बदली गाँवों की तस्वीर
कुछ वर्षों में बदल गई है
गाँवों की तस्वीर ।
मोबाईल ले घूम रहा
हर कोई अपने हाथ,
संगी-साथी बचपन के तो
रहे नहीं अब साथ,
तारों ही में उलझ गई है
जीवन की ज़ंजीर ।
टी० वी० के केबल मुँह ताके
चौपलों के बीच,
पुरखों के संस्कारों पर ही
पौध नई दी सींच,
आँगन के झगड़ों में सबकी
बिखर गई जागीर ।
हैंडपम्प घर-घर आ बरसा
सूखी जाती झील,
खेत खड़े सूने, खलिहानों
पर मँडराए चील,
बिन माँझी की नाव खड़ी है
देखो नदिया पार ।
बरसी फुहारें
रूह तक बरसी फुहारें
बारिशों की आज ।
खिल उठी धरती गगन का
मिल रहा है प्यार,
शाख पर पाया गुलों ने
प्रीति का संसार,
मिट रही है दूरियाँ
लो ख़्वाहिशों की आज ।
भीग कर आसक्ति से
यौवन हुआ मदहोश,
सब्र ने पैग़ाम भेजा
उम्र को ख़ामोश,
आ रही ख़ुशबू फिज़ां में
साज़िशों की आज ।
लड़कियों ने खूब ओढ़ा
तितलियों-सा रंग,
प्रश्न चूनर ने किया यह
क्या रचा है ढंग,
महफ़िलें सजने लगी
फिर कहकशों की आज ।
रोशनी के घर
रोशनी वाले मकाँ ऊँचाइयों में खो गए।
मंज़िलों पर और मंज़िल
बस सलाखों औ’ झरोखे,
काँच के दर औ’ दरीचे
ज्यों छलावे और धोखे,
रेशमी पर्दे कहीं तन्हाइयों में खो गए।
ज़ेवरों के बीच कितने
ख़्वाब तन को डस रहे हैं,
ओढ़कर मुस्कान झूठी
महफ़िलों में हँस रहे हैं,
अजनबी बनकर बदन परछाइयों में खो गए।
फ़र्श पर कालीन महँगी
पर घरोंदें खोखले हैं,
ये दिखावे के सलीके
दोमुँहे औ’ दोगले हैं,
शहर के रिश्ते अँधेरी खाइयों में खो गए।
दिल चाहे
मन करता है, पंख लगाकर पवन संग हो जाऊँ ।
साजन ने बूँदों के हाथों पत्र मुझे लिखवाया,
यह सावन सूना बीतेगा यह कहकर भिजवाया;
आँसू, पीड़ा से बोले तुम ठहरो, मैं तो जाऊँ ।
कागा बोले खिड़की पर तब अँखियाँ सपन जगाए,
पनघट पर सखियों की बतियाँ तन में अगन लगाए;
दरपन में छवि अपनी देखूँ मुग्ध स्वयं खो जाऊँ ।
विरह गठरियाँ कब तक बाँधूँ परदेसी बतला जा,
सेज ताकती सूनी कब से मुखड़ा तो दिखला जा;
यौवन पूछे चूनर से क्या एकाकी सो जाऊँ ।
भोर, दुपहरी, संध्या, रतियाँ दिन गिनते ही बीते,
साजन तुम बिन पूरा सावन बीता रीते – रीते;
दिल चाहे, प्रिय तुमको लेकर प्रीति नगर को जाऊँ।
हैं हवाएँ भी पशेमां
शख़्स है सारे परेशां शहर में मेरे।
गुम हुई लब से हँसी
बेज़ार है आँखें,
सब यहाँ ओढ़े लबादा
दे रहे धोखे,
कौन अब पकड़े गिरेबां शहर में मेरे।
सज रहे बाज़ार
जिस्मों की कंगारों पर,
बिक रही इज़्ज़त
सफलता के किनारों पर,
है हवाएँ भी पशेमां शहर में मेरे।
दुश्मनी के छोर
साहिल पर हुए चौड़े,
नफ़रतों की आँधियों ने
रुख नहीं मोड़े,
ज़हर में डूबी फ़िजा है शहर में मेरे।
लौट गए घन बिन बरसे
बिन बरसे ही लौट गए घन
मन को नही छुआ।
प्यासी धरती ने अँखियों की
सूजन को सहलाया,
पेड़ों ने धानी चूनर को
यह कहकर बहलाया,
प्रियतम से बिछुड़ी सजनी संग
अक्सर यही हुआ।
रात कटी फिर तन्हाई के
आँगन अलख जगाते,
इंतज़ार के सही मायने
ख़ुद को ही समझाते,
चाँद, देह में अगन लगाकर
हँसता आज मुआ।
रिक्त हवाएँ तपती छत को
सन्देशा दे आई,
धीर धरो आएँगी फिर से
बूँदों की पहुँनाई,
खेतों में बैठा हलकू
करता है रोज़ दुआ।