भाषा
एक भाषा प्रेम के, सबकेॅ मिलावै छै
ई सबकेॅ बुझावै छै ।
एक भाषा सहयोग के, सबके काम आवै छै
ई सबकेॅ बुझावै छै ।
एक भाषा अहिंसा के, सबकेॅ सबसें जोड़ै छै
ई सबकेॅ बुझावै छै ।
एक भाषा नकार के, सबके दुनियाँ उजाड़ै छै
ई केकरौ नै बुझावै छै ।
दुख तो होगा दोस्त
क्या करूँ, दोस्त !
अपनी फितरत ही ऐसी है
कि चाहकर भी उसूलों को छोड़ नहीं पाता
दिल तोड़ने वाले गुणा-भाग पर
तुम्हारी तरह रोमांचित हो नहीं पाता
कितना भी कहो
नहीं सीख पाऊँगा कभी
बदतर हालात में भी
भीतर ख़ुशी दबाए मासूम बने रहने की कला
पीड़ा है तो साफ़ दिखाई देगी चेहरे पर
गुस्सा है तो तमतमा जाऊँगा
और प्यार है तो छलक उठेगा व्यवहार में
क्या करूँ, दोस्त !
अपना मिज़ाज ही कुछ जुदा है
लोमड़ी को शेर स्वीकारना हो नहीं पाता
कायरों को बहादुर
और गद्दारों को क्रान्तिकारी कह नहीं पाता
कितना भी बक लो
तुम्हारे कहे का मूल भावों से सँगत बैठा नहीं पाऊँगा
गुलाब को पँखुरियों से अलग देख नहीं पाऊँगा
सच कहूँ तो
बहुरूपिया भी इतना शातिर नहीं होता
कौआ भी इतना काँय काँय नहीं करता
दुख है, दोस्त !
कि हमारे चलने का वक़्त एक ही है
मगर सुख है कि तुम्हारे साथ चलने से
मेरे क़दम लगातार इनकार कर रहे
यह तो तय है
जल्द ही ख़त्म हो जाएगा यह बेसुरा मंगलगान
शुरू हो जाएगा तेरे अन्दर बाहर टूटने का क्रम
रोक लो ख़ुद को
मुर्दागीरी में कब तक रहोगे मगन
कैसे समझाऊँ, दोस्त !
वाह-वाहियाँ कैसी कैसी
दरबारी कैसे कैसे
चालाकियाँ कैसी कैसी
पलटीमार कैसे कैसे…
उतार लो नक़ली चोला
मसकरा ग्लिसरीन लगाकर क्यों बन रहे हो भोला
जानता है ज़माना
तुम्हारी अक़लियत और ज़मींदारी की हक़ीकत
जिन अमृतबेल के भरोसे अटूट बनी हुई हैं सांसें
उन्हें मसलने के मनसूबे
आत्मघाती साबित होंगे, मूरख
गर टूट गई हया की दीवार
और हट गया रुख़ से पर्दा
किसे मुँह दिखाओगे
दुख तो होगा, दोस्त
मगर होना लाजिमी है तेरी मर्दानगी की फ़ज़ीहत ।
उपहास न करना
वक़्त की कई क्रॉसिंग पर
टँगी हैं परिवर्तन की चाबियाँ
ग़ौर करना
और ध्यान से उठाना
बग़ल की बहुरंगी दीवारों पर
लिखी हैं उद्गारों की किताबें
पढ़ते जाना
और मर्म को समझना
चाबियाँ हाथों को ख़ूब पहचानती हैं
दीवारें आँखों को भलीभाँति पढ़ती हैं
मर्म भरे शब्दों को कभी क्रॉस न करना
क्रॉसिंग पर खड़ी भीड़ का
कतई उपहास न करना
रुला देंगे वक़्त के बेलौस थपेड़े
उमड़ पड़ेगा भावनाओं का ज्वार
और
हुंकार कर उठेंगी मूक खड़ी दीवारें ।
कमाल है… कुछ भी कमाल नहीं
स्टाइल छोड़ो
वह तो भड़ुआ भी मारता है
बोली-बानी को भी दरकिनार करो
लुम्पेन भी माहौल देखकर मुँह खोलता है
देहरी के भीतर गुर्राना
डीह छोड़ते ही खिखियाना
किसी मसखरे के वश में होता है
सिर पर टाँक लेने भर से क़ाबिलियत आती
तो हर मोरपँख बेचने वाला कन्हैया न होता ?
पुरानी कहावत है
सावन के अन्धे को सब हरा दिखाई देता है
तो फिर कब तक यूँ ही बहकने दिया जाए
पतझड़ को वसन्त कहते क्योंकर सुना जाए
कुल जमा ये कि
हर बात पे जाने दिया
तो साया भी साथ छोड़ देगा
बहुत हुआ…
अकर्मण्य ही समझो
कुछ किया क्या ?
बस ‘दूध-भात’ सुरकता जा रहा है
इसलिए कहता हूँ, प्यारे !
खाल उतारो
शर्तिया सियार निकलेगा ।
हमारी टूटती सांसें लौटा दो
पीएम ने कहा
खुले में शौच न करो
सीएम बोले
कुछ तो शर्म करो
डीएम ने हड़काया
ऐसों को तभी के तभी पकड़ो
जीएम ने फरमाया
लोटा छोड़ो चाहे जैसे हगो
सबने कहा
हर शौच के पहले-पश्चात
‘जय हिन्द’ कहो
अस्पताल में मरते बच्चों ने हाथ जोड़ा
खुले में क्या
बन्द किले में भी शौच नहीं करेंगे
बस, हमारी टूटती सांसें लौटा दो …!
पगडण्डियाँ
टेढ़ी-मेढ़ी पगडण्डियों को मत मिटाओ
सीधी राह दण्डवत करने वालों को
चलकर गन्तव्य पहुँचाना सिखाती हैं ये
पश्मीने की शॉल को
पसीने से तर धोती से रू-ब-रू कराती हैं
सादगी भरी सुबह को
सुरमई शाम के क़रीब लाती हैं ये ।
दूर तक फैलाव में पगडण्डियों का संजाल
उन पर चलते मानुखों की लयबद्धता
और उनके सतरंगी पहनावे की ख़ूबसूरती देखी है कभी ?
खैनी और पानी के पहियों पर
घण्टों भूख की गाड़ी खींचते हुए
भगती गाने वालों से साबका पड़ा है ?
सीत-बसन्त
बिहुला-बिसहरी जैसे क़िस्सों में खोकर
उम्मीदों की भगजोगनी को
हथेलियों में सजाने वालों की मुस्कुराहट देखी है ?
मधुबनी पेण्टिंग तो देखी होगी
छापे वाली साड़ी
चौख़ाने वाली लूँगी
या पुराने कपड़ों से सिली सुजनी ?
कोहबर भी नहीं लिखा गया
तेरे घर में कभी ?
बनिये की दुकान पर न गए हो
छटाँक-कनमा-अधपौने में तौली जाती
गृहस्थियाँ न देखी हों
ऐसा तो नहीं हो सकता…
वो भी नहीं ?
तो ऐसा करो हतभागे !
सबके भोजन कर लेने के बाद
लम्बी डकार लेकर बिस्तर पर पसरने से पहले
कभी पलटकर खाना खाती माँ की थाली निहार लेना…
पगडण्डियाँ अपनी परिभाषा सहित मिल जाएँगी
फिर भूल जाओगे सीधी राह दण्डवत करने वालों को
सुविधाओं का पहाड़ मुहैया कराना
और सतरंगी क्यारियों को मिटाकर समरभूमि बनाना ।