ढ़हते दरख्त
दरख्तों को ढहना पसन्द नहीं
वे उठते हैं ऊँचे फैलाव के साथ
वे फैलते हैं पूरे फैलाव में
वे पाँव पसारते हैं पूरी जमीन में
भरपूर ज़मीन, भरपूर आसमान
भरपूर आसपास, पूरी तरह भरपूर
जब कभी ज़मीन करवट लेती है
आसमान आखिरी बूंद तक पिघल जाता है
आसपास बैगाना बन जाता है
दरख्तों को ढहना पड़ता है
ढहने से पहले वे
पखेरुओं को आशीष देते हैं
लताओँ से विदा कहते हैं
पत्तियों को झड़ जाने देतें हैं
जडों में बिल बनाए साँपों का सिर
हौले से सहला देते हैं
मौन धमाके से
वर्तमान को थर्राते हुए
मुट्ठी भर माटी हाथ में लिए
ढह जाते हैं भविष्य में
सपने देखता समुद्र
समुद्र के सपनों में मछलियाँ नहीं
सीप घौंघे, जलीय जीव जन्तु नहीं
किश्तियाँ और जहाज नहीं
जहाजों की मस्तूल नहीं
लहरों के उठना ,सिर पटकना नही
नदियाँ नहीं , उनकी मस्तियाँ नहीं
समुद्र सपने देखता है
जमीन का, उस पर चढे पहाडों का
उन सबका जिन्हें नदियाँ छोड
चलीं आईं थीं उस के पास
समुद्र के सपने में पानी नहीं होता
भले घर की लडकियाँ
भले घर की लडकियाँ
पतंगें नहीं उडाया करतीं
पतंगों में रंग होते हैं
रंगों में इच्छाएँ होती हैँ
इच्छाएँ डँस जाती हैँ
पतंगे कागजी होती हैँ
कागज फट जाते हैँ
देह अपवित्र बन जाती है
पतंगों में डोर होती है
डोर छुट जाती है
राह भटका देती है
पतंगों मे उडान होती है
बादलोँ से टकराहट होती है
नसें तडका देती हैं
तभी तो
भले घर की लड़कियाँ
पतंगे नहीं उड़ाया करतीं
जड़े जानती हैं
जड़े जानती हैं कि
वजूद उनका ही है
जिनके हिस्से में
रोशनी है
रोशनी उनकी है जो
बिना किसी परवाह
पी रहे हैं गटागट
धूप और छाँह
उंगलियों के रेशे रेशे से
मिट्टी को थामे
सोचती रह जाती है वह
पीठ पर चढ़े
तने के बारे में
कोटर के बारे में
पखेरुओं के बारे में
अंधमुंदी आँखों से देखती है
टहनियों को, उन पर लदी पत्तियों को
तभी
कैंचुऍ गुदगुदाने लागाते हैं
सँपोले कुदकियाँ भर
घेर लेते हैँ
किस्से सुनाने लगाती हैँ चींटियाँ
लम्बी यात्राओं के बारे में
इक्कट्ठे हो जाते हैं वे तमाम
जिनके हिस्से में बस अँधेरा है
जड़े जान जातीं हैं
सबसे बड़ा सुख
रोशनी नहीं है
रिश्ते
कुछ रिश्ते
तपती रेत पर बरसात से
बुझ जाते हैं
बनने से पहले
रिश्ते
ऐसे भी होते हैं
चिनगारी बन
सुलगते रहतें हैं जो
जिंदगी भर
चलते साथ
कुछ कदम
कुछ रुक जाते हैं
बीच रास्ते
रिश्ते होते हैं कहाँ
जो साथ निभाते हैं
सफर के खत्म होने तक..
दीवारें
तुम आए
एक दीवार बन
तमाम खतरों का
सामना करने के लिये
धूप चमकी
मैं घिर गई दीवारों से
तुम उड़ गये कभी के
भाप बन
खतरे दीवारों के भीतर आ गये
दोस्ती के आम
बाजार भरा है आमों से
ठसाठस भरे ठेले, दूकाने
सड़कों के किनारे के ढ़ेर
आम
कहीं भी हों
लपक कर दौड़ता है मन
खाने को
आम के मौसम में
निराश रहते हैं
तमाम छोटे…मोटे
कुरूप सुरूप फल
आम का कहना क्या
इसकी तुलना सिर्फ एक से हो सकती है
वह है दोस्ती
दोस्ती भी आम की तरह
भरभरा कर चली आती है
मुँह में स्वाद घुलने घुलने तक
छूछी गुठली हाथ रह जाती है
दोस्ती की गुठली पर
मुँह मारते हम
कल्पना करते हैं उन दिनों की
जब वह रसीली, गुदीली और
भरी भरी हुआ करती थी
कभी कभी दोस्ती
आम की तरह ही
बाहर से लुभाती है
किन्तु
खाँप मुँह में रखते ही
बेस्वाद निकल जाती है
कभी कभी दोस्ती
बाहर से कड़ियल, बदरंग होती है
किन्तु हर रेशे में
दावत का रंग देती है
अक्सर होता है मेरे साथ
जब मैं आम को देखती हूँ
दोस्ती याद आती है
दोस्ती के चलते
आम भुला जाती हूँ