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रमेश चंद्र पंत की रचनाएँ

बसी हैं नागफनियाँ

अब कहाँ वे फूल
गमलों में
लगी हैं नागफनियाँ !

मन हुआ जंगल
सभी कुछ
बेतरह बिखरा
लग रहा चेहरा
नदी का
इन दिनों उतरा

ख़ुशबुओं की अब
कहाँ बातें
सजी हैं नागफनियाँ !

हैं बहुत उन्मन
हवाएँ
रोज़ ही मिलता
गाँव का पीपल
सिहरता
काँपता-हिलता

रंग के रिश्ते
हुए फीके
उगी हैं नागफनियाँ !

दंश की भाषा
कहीं सब
सीखते-बुनते
दूर तक तम के
चितेरे
शून्य हैं रचते

हाँ, कहीं गहरे
बहुत मन में
बसी हैं नागफनियाँ !

छाँव नहीं पेड़ों की

चिड़िया है
एक, रोज़
सपनों में आती है !

बदहवास
लगती है
छाँव नहीं पेड़ों की
बढ़ती ही
रोज़ गई
दुनिया है मेड़ों की

रिश्तों के
घाव खोल
रोज़ ही दिखाती है !

हरियाली
मन की जो
ऊसर में ठूँठ हुई
सोने से
मढ़ी, आज
जंग लगी मूठ हुई

वैभव की
क्षरित कथा
मौन हो सुनाती है !

निर्जन की
यात्रा ही
हिस्से में आई है
आदिम संदर्भों की
मुखरित परछाईं है

आँसू की
एक नदी
रोज़ ही बहाती है !

भोर की किरण 

है उड़ान
भीतर तो बाक़ी
अभी बहुत ही !

समय नहीं
यह माना उजले
पंखों वाले
मूल्यवान
संदर्भ, सीपियों
शंखों वाले

पर इनसे ही
निकलेंगे पथ,
और बहुत ही !

पथरीले
संस्पर्श, नए कुछ
स्वप्न बुनेंगे
रेत-घरों से
निकल भोर की
किरण चुनेंगे

रुकना कैसा ?
चलना है अब
और बहुत ही !

पुल नहीं है

पाट हैं दो
किंतु कोई
पुल नहीं है !

बैठ जाती है
हवा जब
पास थककर
काँप उठती है
नदी की
धार अक्सर

थरथराना
इस तरह तो
हल नहीं है !

सीप-शंखों ने
बुने हैं
स्वप्न मिलकर
पर लहर
बैठी हुई है
होंठ सिलकर

सिलसिला यह मौन का तो
कल नहीं है !

आए हम शहर

आए हम शहर
गाँव नेहों का भूल गए !

चेहरों पर एक नहीं
अनगिन हैं पर्तें
कितनी जो जीने की
ऐसी हैं शर्तें

जामनु की छाँव
नीम-बरगद को भूल गए !

कैसे तो दाँव यहाँ
रोज़ लोग चलते
औरों की कौन कहे
अपनों को छलते

कागा का काँव
यहाँ आकर हम भूल गए !

कुछ ऐसी भाग-दौड़
भीतर तक टूटे
सपने जो लाए थे
संग-साथ छूटे

आए थे पाने कुछ,
ख़ुद को ही भूल गए !

गंधपूरित हैं हवाएँ

हाँ! दरख़्तों ने
नए फिर वस्त्र हैं पहने !

गंधपूरित
हैं हवाएँ
चाँदनी साँसें हुईं

मूक है
वाणी ह्रदय की
मौन में बातें हुईं

डालियों पर फिर
वहीं हैं पुष्प के गहने !

रंग की
जादूगरी हर ओर
है दिखने लगी
ख़ुशबुएँ
अनुबंध अपने
फिर नए लिखने लगीं

जड़ हों या चेतन
सभी के आज क्या कहने !

गूँगे प्रश्न हुए

उत्तर कहाँ तलाशें
लगता वे ही प्रश्न हुए !

फूलों की
मोहक बस्ती में
प्रस्तुत हुए बबूल
रंग-गंध की
भाषाओं के
घायल हुए उसूल

क़त्लगाह में
यहाँ रोज़ ही
जमकर जश्न हुए !

ना जाने
खो गए कहाँ वे
दूध-धुले एहसास
गुलमोहर की
शामें अक्सर
मिलतीं बहुत उदास

क्या-कुछ सुनें-सुनाएँ
अब तो गूँगे प्रश्न हुए !

नेह भीगे पत्र

फूल जो हमने क़िताबों में
सहेजे थे-
बहुत ही याद आए
नहीं तुम पास आए !

नर्म-कोमल
दूब पर हमने लिखे जो
नेह के अक्षर
ढूँढ़ने होंगे
वही फिर गंध अब भी
घाट के पत्थर
इंद्रधनुषी स्वप्न जो हमने
सहेजे थे-
बहुत ही याद आए
नहीं तुम पास आए !

दूधिया रातें
अकेले बैठ चुपचुप
गुनगुना उठना
याद कर जैसे
कहीं-कुछ मन ही मन में
खिलखिला उठना

नेह-भीगे पत्र जो हमने
सहेजे थे-
बहुत ही याद आए
नहीं तुम पास आए !

स्वर्णपंखी साँझ

शाम सिंदूरी
गगन लोहित हुआ !

कुहनियों के
बल, हथेली पर टिकाकर
गाल, लेटी धूप
मुग्ध मन से
है निरखती स्वर्णपंखी
साँझ का यह रूप

द्वीप मरकत
भाल पर शोभित हुआ !

झिलमिलाते
चाँद-तारे
नदी-जल में तैरते-से दीप
देखते हैं
दृश्य अपलक
तल-अतल में मीन-घोंघे-सीप

भूल सब कुछ
चर-अचर मोहित हुआ !

सूखी नदी-सा

पुल हमें
था जोड़ता जो ढह गया !

बात थी
कुछ भी नहीं
थे स्वार्थ अंधे
व्यग्र थे उद्धत बहुत
हो उठे कंधे

एक सूनापन
है मन में, गड़ गया !

थे ग़लत
कोई नहीं
पर, कौन सुनता
बर्छियाँ ताने सभी थे
कौन झुकता

मन कहीं
सूखी नदी-सा हो गया !

अंधी सदी 

जन्मना
कुछ अर्थ सच में,
रख सकेगा क्या?

निर्वसन मिलती यहाँ
हर रोज़ ही
अक्सर नदी है,
मरुथलों में दूर तक
फैली हुई
अंधी सदी है,

गुलमोहर
कुछ अर्थ अपना,
रख सकेगा क्या?

देह पर अनगिन खरोचें
ढो रहीं
हर क्षण दिशाएँ,
बस! व्यथाएँ-ही-व्यथाएँ
और हैं
शापित कथाएँ,

गीत यह
कुछ अर्थ अपना,
रख सकेगा क्या?

डूब गई मंगल-ध्वनि 

डूब गई
मंगल-ध्वनि,
लगता सन्नाटों में ।

उत्सव
संबोधन सब
जहरीले दंश हुए,
घर की
दहलीजों के
रक्षक हैं कंस हुए,

डूब गया
अक्षत-मन,
सकरे-से पाटों में ।

उजले
संदर्भों की
वल्गाएँ छूट गईं,
लगता
संकल्पों की
समिधाएँ रूठ गईं,

डूब गए
ज्योति-कलश,
उथले-से घाटों में ।

दुख तो दुख है

दुःख तो
दुःख है
आएगा ही,
लेकिन दहना नहीं मुनासिब!

ऊपर से
जो सुखी लग रहे
भीतर से
वे भी हैं घायल,
फर्क कोण का
कोई इससे
तो कोई
उससे है घायल,

डूबे सब
आकंठ
भ्रमों में,
कुछ भी कहना नहीं मुनासिब!

नदिया
रेत हुई हैं भीतर
कहने को
निर्मल जल-धारा,
फैला है
निस्सीम गगन तक
पर कैसा
सागर? जल खारा,

सपने
दर्द, समय
सब सच हैं,
ऐसे ढहना नहीं मुनासिब!

शांति की, सद्भाव की बातें करें हम

शांति की, सद्भाव की बातें करें हम,
राष्ट्र के उत्थान की बातें करें हम ।

है पनपने लग गई नफ़रत दिलों में,
स्नेह की, विश्वास की बातें करें हम ।

ख़ून की फिर से नदी बहने न पाए,
मिलकर रहें, समभाव की बातें करें हम ।

जाति, भाषा, धर्म की दीवार तोडें,
आदमीयत की यहाँ बातें करें हम ।

छल न पाए अब अँधेरा फिर किसी को,
ज्योति-गीतों की यहाँ बातें करें हम।

आग का शोला हवा में दिख रहा है

आग का शोला हवा में दिख रहा है,
द्वीप संशय का निरंतर बढ़ रहा है ।

रोज़ ही षड्यंत्र तम फिर कर रहे हैं,
ज्योति का हर सूर्य आहत लग रहा है ।

यह नदी जो बह रही है, पूछना,
ख़ून इसमें रोज़ कितना मिल रहा है ।

विषधरों का वंश फिर से इन दिनों,
खिलखिलाती हर हँसी को डस रहा है ।

चीख़ जो अक्सर सुनाई दे रही है,
दर्द से घायल पखेरू उड़ रहा है ।

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