बनारस : दो शब्दचित्र
1.
पिस्ता-बादाम की ठंडई में
भांग के सुंदर संयोग से
बना-रस
एक घूँट में गटकते हुए
बनारस
गुम हो जाता सरेशाम
’दशाश्वमेध’ की संकरी गलियों में !
और उस वक़्त
उसके लिए मायने नही रखती
‘गोदौलीया’ की उद्भ्रान्त भीड़
शोर-शराबा/ चीख़-पुकार आदि
सहजता से
मुस्कुराती हिंसा को देखकर
मुस्कुरा देता वह भी
कि नहीं होता उसे
गंगा के मैलेपन का दर्द
और “ज्ञानवापी” के विभेद का एहसास
कभी भी…….!
पसंद करता वह भी
ब्यूरोक्रेट्स की तरह
निरंकुशता का पैबंद
व्यवस्थाओं के नाम पर
और मनोरंजन के नाम पर
भौतिकता का नंगा नृत्य
रात के अंधेरे में !
अहले सुबह
घड़ी-घंटों की गूँज
और मंत्रोचारण के बीच
डुबकी लगाते हुए गंगा में
देता अपनी प्राचीन संस्कृति की दुहाई
अलमस्त सन्यासियों की मानिन्द
निर्लज्जतापूर्वक !
आख़री समय तक रखना चाहता वह
आडंबरों से यु्क्त हँसी
और सैलानी हवा के झकोरों से
गुदगुदाती ज़िंदगी
ताकि वजूद बना रहे
सचमुच-
बनारस शहर नहीं
गोया नेता हो गया है
सत्तापक्ष का…..! !
2
करतालों की जगह
बजने लगा है पाखंड
अंधविश्वास-
रूढ़ियों को कंधे पर लटकाए
सीढ़ियाँ चढ़ रहा है चट्ट-चट्ट
लज्जित हैं सुबह की किरणें
खंड-खंड तोता रटन्त यजमान लुभाते आख्यान
एक अखंड मु्जरा
एक तेलौस मेज़ पर
तले हुए नाश्ते के समान फैला पाश्चात्य
सुबह-ए-बनारस !
नदी
उम्र के-
एक पड़ाव के बाद
अल्हड़ हो जाती नदी
ऊँचाई-निचाई की परवाह के बग़ैर
लाँघ जाती परम्परागत भूगोल
हहराती- घहराती
धड़का जाती गाँव का दिल
बेँध जाती शिलाखंडों के पोर -पोर
अपने सुरमई सौंदर्य, भँवर का वेग
और, विस्तार की स्वतंत्रता के कारण…!
आक्रोशित हो जाती नदी
एक पड़ाव के बाद
जब बर्दाश्त नहीं कर पाती
पुर्वा-पछुवा का दिलफेंक अंदाज़
बहक कर बादलों का उमड़ना – घुमड़ना
और, ठेकेदारों का
बढ़ता हुआ हाथ अपनी ओर
तब, निगल जाती अचानक
सारा का सारा गाँव
व्याघ्रमती की तरह…!
ब्याही जाती नदी
एक पड़ाव के बाद
जब होता उसे औरत होने का एहसास
ख़ामोश हो जाती वह
भावुकता की हद तक
समेट लेती ख़ुद को
पवित्रता की सीमा के भीतर
खोंइचा से लुटाती
कुछ दोमट -बालू
और निकल जाती
अपने गंतव्य की ओर
पिता शिव को प्रणाम कर…!
समा जाती नदी समुंदर के आगोश में
एक पड़ाव के बाद
बंद कर लेती किवाड़ यकायक
छोड़ जाती स्मृतियों के रूप में
अनवरत बहने वाली धाराएँ
और अपना चेतन अवशेष…!
नदी-
एक छोटी सी बच्ची भी है
युवती भी, माँ भी
और, एक पूरा जीवन बोध भी…!
बीमार होता है कोई मज़दूर
बीमार होता कोई सेठ
ज़रूरत महसूस नही होती ओझा-गुणी की
नीम-हकीम से भी ठीक नही होते सेठ
दुआएँ नही भाती उसे
अपने मजदूरों की
दिए जाते कोरामीन / पहुँचाया जाता कोमा में
किसी अमीर शहर के अमीर अस्पताल में
मंत्रियों की सिफारिशों पर
बुलाए जाते चिकित्सकों के दल ग़ैर मुल्कों से
हिदायत दी जाती सेठ को
अय्याशी न करने की
ठीक हो जाने तक ..!
बीमार होता कोई मज़दूर
कुछ सहज होता
वैसे हीं
जैसे सहज होती पृथ्वी
होती चिडिया
होता कुम्हार
चलती हुई चाक पर बर्तन गढ़ते हुए…!
नही बदल जाता शहर का मिजाज अचानक
नही होती मन्त्रियों के कानों में सुनगुनाहट
ठीक हो जाती बीमारी
खुराक वाली पुड़िये से
अगले हीं दिन
निकल जाता वह काम पर
पहले की तरह इत्मीनान से ।
किंतु , कट ही जाती
उसकी एक दिन की दिहाडी
बहाना बनाने के जुर्म में…!
अर्थ-व्यवस्था की नींव होते हैं मजदूर ,
किंतु फ़िर भी
चिंतित नही होते सेठ, जबकि-
दोनों बीमार पड़ते हैं
एक काम करते हुए तो दूसरा काम न करने के एवज में …..
बाबू! औरत होना पाप है पाप
सालों बाद देखा है
धनपतिया को आज
धूप की तमतमाहट से कहीं ज्यादा
उग्र तेवर में
भीतर-भीतर धुआँती
जीवन के एक महासमर के लिए तैयार ।
महज दो-तीन सालों में
कितना बदल गई है वह
भड़कीले चटख रंगों की साडी में भी
अब नहीं दमकता उसका गोरा रंग
बर्फ़ के गोले की तरह
हो चले हैं बाल
और झुर्रियाँ
मरुस्थल के समान बेतरतीब ।
पहले-
बसंत के नव-विकसित पीताभ
नरगिस के फूलों की तरह
निर्मल दिखती थी धनपतिया
हहास बांधकर दौड़ती
बागमती की तरह अल्हड़
आसमानी रंग की साडी में
उमगती जब कभी
पास आती थी
बेंध जाती थी देह का पोर-पोर
अपनी शरारती चितवन से ।
अब पूछने पर
कहती है धनपतिया-
बाबू !
औरत होना पाप है पाप….
कहते-कहते लाल हो जाता है चेहरा
तन आती है नसें
और आँचल में मुँह छुपाकर
बिफ़रने लगती है वह
नारी के धैर्य की
टूटती सीमाओं के भीतर
आकार ले रही
रणचंडी की तरह !
जब शहर से वापस आना
कारखानों का विषैला धुआँ
मौत की मशीन
नदियों का प्रदूषित पानी
जिस्म खरोंचती बेशर्म लड़कियाँ
होटलों की रंगीन शाम
और फिल्मों के –
अश्लील शब्द मत लाना
जब शहर से वापस आना …..!!
उन्मादियों के नारे
सायरन वाली गाड़ियों की चीख़
सिसकते फुटपाथ
घटनाओं-दुर्घटनाओं के चित्र
अखबारों के भ्रामक कोलाज़
और दंगे की –
गर्म हवाएँ मत लाना
जब शहर से वापस आना ….!!
मगर-
दादा के दम्मे की दवा
माँ के लिए एक पत्थर की आँख
बच्चों के लिए गुड़ का ढेला
और बहन के लिए
पसीने से तरबितर नवयुवक का रिश्ता
अवश्य लाना
जब शहर से वापस आना …..!!
झिन्गना की राम कहानी
पौ फटने के पहले
बहुत पहले जगता झिन्गना
पराती गाते हुए डालता
सूअरों को खोप में
दिशा-फ़ारिग के बाद
खाता नोन-प्याज-रोटी
और निकल जाता
जीवन की रूमानियत से दूर
किसी मुर्दा-घर की ओर ।
शाम को थक कर चूर होता वह
लौट आता अपने घर
काँख में दबाए
सत्तर-पचास नंबर की देशी शराब
और पीकर भूल जाता
दिन-भर के सारे तनाव ।
रहस्य है कि –
कैसे जुटा लेता वह
सुकून के दो पल
साथ में-
तीज-त्यौहार के लिए
सुपली-मौनी/लड्डू-बतासा
पंडित के लिए
दक्षिणा-धोती
जोरू के लिए
साडी-लहठी-सेनुर आदि ।
अपने परम्परागत पेशे को
ढोता हुआ आज भी वह
वहन कर रहा सलीके से
मर्यादित जीवन को बार-बार
सतही मानसिकता से ऊपर
और, खद्दर-खादी की छाया से दूर
दे रहा अपने काम को अज़ाम
पूरी ईमानदारी के साथ ।
कभी मौज आने पर
सिनेमा से दूर रहने वाला वह
खुद बन जाता सिनेमा
और जुटा लेता अच्छी-खासी भीड़
अपने इर्द-गिर्द
अलाप लेकर –
आल्हा -उदल / सोरठी-बिर्जाभार
सारंगा-सदाब्रिक्ष/भरतरी चरित
या बिहुला-बाला-लखंदर का ।
लगातार –
समय के थपेडों को खाकर भी
नही बदला वह
बदल गया लेकिन समय
फिर, समय के साथ उसका नाम-
पहले अस्पृश्य, पुनः अछूत
कालांतर में हरिजन
और, अब वह –
दलित हो गया है
शायद-
कल भी कोई नया नाम जुटेगा
झिन्गना के साथ ।
लेकिन, झिन्गना –
झिन्गना हीं रहेगा अंत तक
और साथ में उसकी
अपनी राम कहानी ।
बैल नही हो सकता आदमी कभी भी
आदमी कुत्ता हो सकता है
घोड़ा भी, गदहा भी
लेकिन बैल-
नही हो सकता आदमी
कभी भी।
इतिहासकारों ने लिखा इतिहास
कवियों ने कविता
और आलोचकों ने की
आलोचनाएँ खुलकर
विभिन्न मुद्दों पर
किन्तु-
किसी ने नही उठाई उँगली
कुत्ते की वफादारी पर
आदमी की सोचों
और घोडे की बहादुरी पर
कभी भी।
सबने कहा एक स्वर में
कि चिरंतन सत्य है यह
मृत्यु की तरह
कोई अतिश्योक्ति नहीं
और न-
शक की गुंजाइश ही ।
मगर छूट गया
एक किरदार
जिसकी नही की जा सकी चर्चा
इतिहास में/दर्शन में
कभी भी।
महरूम रखा गया
लोकोक्तियों / मुहावरों
और समालोचनाओं से आज तक
क्योंकि, ठेठ गंवई वह –
नही बैठ सका वातानुकूलित कक्ष में
कुत्ते की तरह
नही बँध सका जमींदारों/ राजाओं
महराजाओं के द्वार पर
घोडे की तरह
नही हिला सका दुम
व्यापारियों के आगे-पीछे गदहों की तरह
और आदमी की तरह
नही बन सका
आधा ग्रामीण / आधा शहरी
कभी भी
जबकि मौजूद आज भी
उसके भीतर
कुत्ते की वफादारी / घोडे और गदहे की मज़बूती
और आदमी का आत्मविश्वास
एक साथ ।
बैल-
एक दोस्त की मानिंद
देता साथ
उस किसान का
रहता हर-पल चौकस
जिसके साथ
हल चलाने / पिराई करने
तथा पकी फसल को
मंडी पहुँचाने तक ।
समय आने पर कुत्ता-
काट सकता अपने मालिक को
गिरा सकता अपनी पीठ से घोड़ा भी
मुकर सकता बोझ देखकर गदहा भी
और आदमी मोड़ सकता मुँह
भार ढोने के भय से अचानक
लेकिन बैल-
न काट सकता / न गिरा सकता / न मुकर सकता
और न भाग सकता
भार ढोने के भय से
कभी भी ।
बैल साम्प्रदायिक भी नही होता
आदमी की तरह
अपने स्वार्थ के लिए
गिराने का साहस भी नही जुटा पाता
मंदिर या मस्जिद को
नेतागीरी की मानसिकता से
कोसों दूर रहने वाला वह
विद्यमान है आज भी
गाँव के खेतों में / दालानों में
परिश्रम करते हुए निरंतर ।
बैल नही हो सकता
कुत्ता / घोडा / गदहा
या आदमी कभी भी
क्योंकि आलोचक
गाँव में नही
शहर में निवास करता है।
लौटेगी संवेदनाएँ उनकी भी
आज भी –
रोटी और कविता की
कृत्रिम रिक्तता में खड़े
कुछ अतृप्त-अनुभवहीन मानव
करते हैं बात
जन-आंदोलन की
कभी प्रगतिवाद , कभी जनवाद , कभी समाजवाद तो
कभी संस्कृतिवाद से जोड़कर….!
जिनके पास –
न सभ्यता-असभ्यता का बोध है
और न स्वाभिमान का
कोमल एहसास
जिनके इर्द-गिर्द व्याप्त है
क्रूर अथवा अनैतिक मानवीय
सवेदनाओं का संसार
और पारम्परिक मान्यताओं की त्रासदी ।
प्यारी लगती है उन्हें –
केवल अपनी ही गंदी बस्ती
और बरसात में बजबजाती झोपड़ी
फैले होते आसपास
कल्पनाओं के मकड़जाले
और अधैर्य की विशाल चादर ।
यकीनन –
अपनी टुच्ची दलीलें
और पूर्वाग्रह के घटाटोप से
जूझते हुए सभी
छुप जाएँगे एक दिन
धुंध के सुरमई आँचल में
फिर चुपके से निकल जाएँगे
किसी बियाबान की ओर
जीवन के –
सुन्दर मुहावरे की खोज में ।
किसी न किसी दिन
लौटेंगी उनकी भी संवेदनाएँ
रचने के लिए कोई कविता
और करने के लिए विजय-नाद
वर्षों से चली आ रही
अभिव्यक्ति की लड़ाई का …..।।
चुनाव जब भी आता है दोस्त
चुनाव जब भी आता है दोस्त !
सजते हैं वन्दनवार हमारे भी द्वार पर
और हम-
माटी के लोथड़े की मानिंद
खड़े हो जाते हैं भावुकता की चाक पर
करते हैं बसब्री से इंतज़ार
किसी के आने का …..!
कोई न कोई अवश्य आता है मेरे दोस्त
और ढाल जाता है हमें –
अपनी इच्छाओं के अनुरूप
अपना मतलब साधते हुए
सब्ज़बाग दिखाकर …..!
उसके जाने के बाद –
टूटते चले जाते हैं हम
अन्दर हीं अन्दर
और फूटते चले जाते हैं थाप-दर-थाप
अनहद ढोल की तरह …..
यह सोचते हुए कि-
“वो आएँगे बेशक किसी न किसी दिन , अभी ज़िंदगी की तमन्ना है बाक़ी….!”
उसी प्रकार जैसे ख़त्म हो गयी समाज से सादगी आदमी भी ख़त्म हो गया और आदमीयत भी
बहुत पहले-
लिखे जाते थे मौसमो के गीत जब
रची जाती थी प्रणय की कथा और –
कविगण करते थे
देश-काल की घटनाओं पर चर्चा
तब कविताओं में ढका होता था युवतियों का ज़िस्म….!
सुंदर दिखती थी लड़कियाँ
करते थे लोग
सच्चे मन से प्रेम
और जानते थे प्रेम की परिभाषा….!
बहुत पहले-
सामाजिक सड़ान्ध फैलाने वाले ख़टमलों की
नहीं उतारी जाती थी आरती
अपने कुकर्मों पर बहाने के लिए
शेष थे कुछ आँसू
तब ज़िंदा थी नैतिकता
और हाशिए पर कुछ गिने – चुने रक़्तपात….!
तब साधुओं के भेष में
नहीं घूमते थे चोर-उचक्के
सड़कों पर रक़्त बहाकर
नहीं किया जाता था धमनियों का अपमान
तब कोई सम्बन्ध भी नहीं था
बेहयाई का बेशर्मी के साथ….!
बहुत पहले-
शाम होते
सुनसान नहीं हो जाती थी सड़कें
गली-मोहल्ले / गाँव-गिराँव आदि
असमय बंद नहीं हो जाती थी खिड़कियाँ
माँगने पर भी नहीं मिलता था
आगज़ला सौगात
तब दर्द उठने पर
सिसकने की पूरी छूट थी
और सन्नाटे में भी
प्रसारित होते थे वक़्तव्य
खुलेआम दर्ज़ा दिया जाता था कश्मीर को
धरती के स्वर्ग का…..!
अब तो टूटने लगा हैं मिथक
चटखने लगी है आस्थाएँ
और दरकने लगी हैं
हमारी बची- खुची तहजीब….!
दरअसल आदमी
नहीं रह गया है आदमी अब
उसी प्रकार जैसे-
ख़त्म हो गई समाज से सादगी
आदमी भी ख़त्म हो गया
और आदमीयत भी….!
देश को अब चाहिए ख़ुशनुमा सा एक प्रभात
अनुभवों का फ़िर नही कोई बहाना चाहिए,
सोच जिसमें है नई वह आजमाना चाहिए।
थक गए हैं जो सफ़र में दीजिये आराम उनको-
एक इंजन जोश से लबरेज आना चाहिए।
बेवज़ह ही ढूँढ़ते हो खोट गमलों में मियाँ-
झुक गया है पौधा उसको एक निवाला चाहिए।
घर में आकर जो हमारे दे गए बेचैनियाँ-
उस पड़ोसी से हमें दूरी बनाना चाहिए।
जल रहा है जो परिंदा चीख़ कर यह कह रहा –
रोशनी से इस कदर ना यूँ नहाना चाहिए।
देश को अब चाहिए ख़ुशनुमा सा एक प्रभात-
जिसके पीछे चल सके पूरा ज़माना चाहिए।
वक़्त आएँगे जिनके वो मर जाएँगे
हर्फ़ में जब तसव्वुर उतर जाएँगे ।
गीत तेरे उसी दिन सँवर जाएँगे ।।
अपने दामन में भरने समंदर चलो
वक़्त साहिल पे सारे गुज़र जाएँगे।।
मन से कोई तरन्नुम अगर छेड़ दो
ज्वारभाटे दिलों में उतर जाएँगे।।
खुलकर अकेले में जब भी हँसोगे
अश्क सारे ग़मों के बिखर जाएँगे!!
अंग में अंग भर के कोई चूम ले
ज़िस्म के पोर सारे सिहर जाएँगे ।।
लाख करले हिफ़ाजत मगर ऐ ’प्रभात’
वक़्त आएँगे जिनके वो मर जाएँगे ।।
अब न हो शकुनी सफल हर दाँव में
भर दे जो रसधार दिल के घाव में,
फिर वही घुँघरू बँधे इस पाँव में !
द्रौपदी बेबस खड़ी कहती है ये
अब न हो शकुनी सफल हर दाँव में!
बर्तनों की बात मत अब पूछिए
आजकल सब व्यस्त हैं टकराव में!
मंहगाई और मेहमान दोनों हैं खड़े
काके लागूँ पाय इस अभाव में?
है हर तरफ़ क्रिकेट की चर्चा गरम
बेडियाँ हॉकी के पड़ गईं पाँव में!
है सफल माझी वही मझधार का
बूँद एक आने न दे जो नाव में!
बात करता है अमन की जो ’प्रभात’
भावना उसकी जुड़ी अलगाव में!
घर को ही कश्मीर बना
कैनवस पर अब चीड़ बना,
घर को ही कश्मीर बना।
सत्ता के दरवाज़े पर ना
बगुले की तसवीर बना।
झूठ-साँच में रक्खा क्या
मेहनत कर तकदीर बना।
रोज़ धूप में निकल मत
चेहरे को अंजीर बना।
एटम-बम से हाथ जलेंगे
प्यार की इक तासीर बना।
सूरज सिर पर आया है
मन के भीतर नीर बना।
अदब के दर्पण में ‘प्रभात’
ख़ुद को ग़ालिब-मीर बना।
हर तरफ़ संत्रास अब मैं क्या करूँ आशा
छल रहा विश्वास अब मैं क्या करूँ आशा?
हर तरफ़ संत्रास अब मैं क्या करूँ आशा?
दर्द का है साज, कोई अब तरन्नुम दे
कह रहा मधुमास अब मैं क्या करूँ आशा?
जिस्म के सौदे में हैं मशगूल पंडित जी
छोड़कर संन्यास, अब मैं क्या करूँ आशा?
तिनका-तिनका जोड़कर मैंने इमारत है गढ़ी
पर मिला बनवास, अब मैं क्या करूँ आशा?
आम-जन के बीच देकर क्षेत्रवादी टिप्पणी वह
बन गया है ख़ास, अब मैं क्या करूँ आशा?
काव्य में खण्डित हुई है छंद की गरिमा
गीत का उपहास, अब मैं क्या करूँ आशा?