पद / 1
मृग-मन हारे मीन खंजन निहारि वारे,
प्यारे रतनारे कजरारे अनियारे हैं।
पैन सर धारे कारी भृकुटि धनुष-वारे,
सुठि सुकुमारे शोभा सुभग सुढार हैं॥
कैधौं हैं जलज कारे कैधौं ये त्रिगुण युक्त,
चन्द्रमा पै चंचला के चपल सितारे हैं।
‘राम प्रिया’ रामजन-रजन अँगारे कैधौं,
जनक-किशोरी बाँके लोचन तिहारे हैं॥
पद / 2
सिय-मुख चंद त्याग दूजो चन्द मंद कहाँ,
कौन कुण जानि समता में अवलोकों में।
मुख अकलंकी सकलंकी तू प्रसिद्ध जग,
कहि समझाऊँ कैसे वाको जाय रोकों मैं॥
दिवा द्यति-होन घन समय मलीन-खीन,
‘राम प्रिया’ जानै तोहिं जन सब लोकांे मैं।
लली-मुख लालिमा गुलाल सों लखात जैसे,
तैसी दरसावो तो सराहौं तब तोकों मैं॥
पद / 3
किंसुक गुलाब कचनार और अनारन के,
बिकसे प्रसूनन मलिन्द छबि धावै री।
बेली बाग बीथिन बसंत की बहारैं देखि,
‘राम प्रिया’ सियाराम सुख उपजावै री॥
जनक-किशोरी युगकर तें गुलाल रोरी,
कीन्हे बरजोरी प्यारे मुख पै लगावै री।
मानों रूप-सर ते निकसि अरविन्द युग,
निकसि मयंक मकरंद धरि लावै री॥
पद / 4
हरषित अंग भरे हृदय उमंग भरे,
रघुबर आयौ मुद चारों दिसि ब्वै गयो।
सुन्दर सलोने सुभ्र सुखद सिंहासन पै,
जनक सप्रेम जाय आसन जबै दयो॥
‘रामप्रिया’ जानकी को देखत अनूप मुख,
पंकज कुमुद सम दूजे नृप ब्वै गयो।
मानों मणि-मंडित शिखर पै मयंक तापै,
मंजु दिनकर प्रात प्राची सो उदै भयो॥
मच रहे क्यों आज हाहाकार हैं,
मच रहे क्यों आज हाहाकार हैं,
अब नृशंसों के महाउत्पात पर?
क्या न अब कुछ देश का अभिमान है?
खो गई सुखमय सभी स्वाधीनता।
हो रहा कितना अधिक अपमान है?
समुद इसको कौन सकता है बता?
नव-हरिद्रा-रंग-रंजित अंग में,
सर्वदा सुख में तुम्हीं लवलीन हो।
ग्रन्थि-बन्धन के अनूप प्रसंग में,
दूसरे ही के सदा अधीन हो।
बस तुम्हारे हेतु इस संसार में,
पथ-प्रदर्शक अब न होना चाहिये।
सोच लो संसार के कान्तार में,
बद्ध होकर यदि जिये तो क्या जिये?
कर्म के स्वच्छन्द सुखमय क्षेत्र में,
किंकिणी के साथ भी तलवार हो।
शौर्य हो चंचल तुम्हारे नेत्र में,
सरलता का अंग पर मृदु-भार हो।
सुखद पतिब्रत धर्म-रथ पर तुम चढ़ो,
बुद्धि ही चंचल अनूप तुरंग हो।
हार पहनो तो विजय का हार हो,
दुन्दुभी यश की दिगन्तों में बजे।
हार हो तो बस यही व्यवहार हो,
तन चिता पर नाश होने को सजे।
मुक्त फणियों के सदृश कच-जाल हों।
कामियों को शीघ्र डसने के लिए।
अरुणिमायुत हाथ उनके काल हों,
सत्य का अस्तित्व रखने के लिए।
भव्य भारत-भूमि की स्वाधीनता,
भव्य भारत-भूमि की स्वाधीनता,
जब यवन से पद-दलित था हो चुकी।
दीखती सर्वत्र थी अति दीनता,
फूट की विप-बेलि भी थी बो चुकी॥
पूर्व-यश का क्षीण स्मृति ही शेष थी,
वीरता केवल कहानी ही रही॥
बंधुओं में बंधुता निश्शेष थी,
दमन की परिपूर्ण धारा थी बही॥
शत्रुओं को दण्ड देने के लिए,
आर्य-शोभित में न इतनी शक्ति थी।
वीरता का नाम लेने के लिए,
स्यान के सौन्दर्य्य पर ही भक्ति थी॥
ललित ललनाएँ बनी सुकुमार थीं,
अंग पर आभूषणों का भार था।
रत्न-हारों पर समुद बलिहार थीं,
सेज ही संसार का सब सार था।
नेत्र लड़ना ही सुखद रण-रंग था,
चारु चितवन ही अनोखा तीर था।
क्यों न हों? जब प्रियतमों का संग था,
प्रियतमाओं-युक्त हिन्दू वीर था॥
नेत्र-गोपन का चिबुक-चुम्बन जहाँ,
प्रेम की विधि का अनूप विधान है।
मातृ-भू के त्राण की गाथा वहाँ,
पापियों के पुण्यगान समान है॥
किंकिणी की नाद असि-झंकार है,
भ्रू-चपलता है ललित कौशल जहाँ।
वीररस होता जहाँ शृंगार है,
देश-गौरव की शिथिलता है वहाँ॥
श्रीमतीजी का ‘संयुक्ता’ का यह रूप-वर्णन भी सुन्दर है:-
हो रहा कन्नौज में आनन्द है,
हष्र की धारा नगर में है बही।
बैर और विरोध बिलकुल बन्द हैं,
सर्व जनता आज हर्षित हो रही॥
भीड़ भारी हो रही प्रासाद में,
खुल गया है द्वार सारे कोष का।
नर तथा नारी हुए उन्माद में,
गूँज उठता शब्द ऊँचे घोष का॥
नारियाँ सब चल पड़ीं शृंगारकर,
राज-गृह की ओर अनुपम हर्ष से।
मधुरिमा-मय सुखद जय-जयकारकर,
हृदय के आनन्द के उत्कर्ष से॥
थालियों में फूल-मालाएँ सजीं,
गीत गा-गाकर चलीं सुकुमारियाँ।
हाव-भावों में स्वयम् रति को लजा,
मन-सहित कच बाँध सुन्दर नारियाँ॥
मुग्ध मुग्धाएँ चलीं ब्रीड़ा-सहित,
शीघ्र सकुचाकर पुरुष की दृष्अि से।
मंद गति से वे चलीं क्रीड़ा-सहित,
नेत्र चंचलकर सुमन की वृष्टि से॥
था बड़े आनंद का कारण वही,
एक पुत्री थी हुई जयचन्द के।
हर्ष से थी उमगती सारी मही,
आ गये थे दिन अधिक आनन्द के॥
देख उसकी छवि अनूप सुधामयी,
थे चकित सब व्यक्ति नगरी के महा।
सोचते थे हृदय में पुरजन कई,
रूप ऐसा मानवों में है कहाँ?
चन्द्रमा का सार मानो भर दिया,
बालिका को नवल सुन्दर देह में।
स्वयं श्री ने पास मानो कर लिया,
सरल उसके कान्तिमय मुख-गेह में॥
जिस किसी की आँख उस पर पड़ गई,
देखते ही देखते दिन बीतता।
बस उसी के हृदय पर थी चढ़ गई,
बालिका के रूप की लोनी लता॥
चारु चुम्बन से सदन था गूँजता,
समुद राका रुचिर हास-विलास था।
कौन उनके हर्ष को सकता बता,
जननि का उपमा-रहित उल्लास था॥
रुचिर मणिमय पालने की सेज पर,
बालिका कर कंज मंजु उछालती।
जब जननि लखती उसे थी आँखरभर,
बार-बार दुलारकर पुचकारती॥
जन्मादिनी
विषम प्रभंजन के प्रकोप से, बखरँगे जब केश कलाप।
जयोत्स्नातल के प्रखर ताप से, मन में जब होगा सन्ताप।
मधुर अरुणिमा-रहित बनेंगे, शुष्क कपोल आप ही आप।
जब धरणी की ओर देखकर, रह जाऊँगी मैं चुपचाप॥
तब क्या बनमाली आकर, दुख-नद से मुझे उबारेंगे।
अपने कोमल हाथों से मृदु, अलकावली सुधारेंगे॥
मुरली की मृदु तान छोड़कर, शान्ति सुधा बरसावेंगे।
शष्क कण्ठ से कण्ठ मिलाकर, कोमल-ध्वनि से गावेंगे॥
भ्रम है मुझे ललित लतिका का, समझ न जाऊँ मैं बनमाल।
कृष्ण समझकर बड़े प्रेम से, चूम न लूँ मैं कहीं तमाल॥