सुना आपने
सुना आपने
चाँद बहेलिया
जाल रूपहला कँधे पर ले
चाँवल की कनकी बिखेर कर
बाट जोहता रहा व्यथित हो
क्षितिज-शाख के बिल्कुल नीचे
किन्तु न आई नीड़ छोड़कर
रंग-बिरंगी किरन बयाएँ
सुना आपने
सुना आपने
फाग खेलने
क्वाँरी कन्याएँ पलाश की
केशर घुले कतोरे कर में लिये
ताकती खड़ी रह गईं
ऋतुओं का सम्राट
पहन कर पीले चीवर
बुद्ध हो गया
सुना आपने
सुना आपने
अभी गली में
ऊँची ऊँची घेरेदार घँघरिया पहिने
चाकू छुरी बेचने वाली
ईरानियों की निडर चाल से
भटक रही थी, लू की लपटें
गलत पते के पोस्टकार्ड सी
सुना आपने
सुना आपने
मोती के सौदागर नभ की
शिशिर भोर के मूँगे के पट से छनती
पुखराज किरन सी
स्वस्थ, युवा, अनब्याही बेटी
उषाकुमारी
सूटकेस में झिलमिल करते
मोती, माणिक, नीलम, पन्ने, लाल, जवाहर
सब समेटकर
इक्के वाले सूरज के सँग
हिरन हो गई, हवा हो गई
मोती के सौदागर नभ की
बेशकीमती मणि
यह कवि अपराजेय निराला
यह कवि अपराजेय निराला,
जिसको मिला गरल का प्याला,
ढहा और तन टूट चुका है
पर जिसका माथा न झुका है,
नीली नसें खिंची हैं कैसी
मानचित्र में नदियाँ जैसी,
शिथिल त्वचा,ढल-ढल है छाती,
लेकिन अभी संभाले थाती,
और उठाए विजय पताका
यह कवि है अपनी जनता का !
स्वर्ण रेख-सी उसकी रचना,
काल-निकष पर अमर अर्चना !
एक भाग्य की और पराजय,
एक और हिंदी जन की जय,
परदुखकातर कवि की भाषा,
यह अपने भविष्य की आशा-
‘माँ अपने आलोक निखारो,
नर को नरक-त्रास से वारो !’
भारत के इस रामराज्य पर,
हे कवि तुम साक्षात व्यंग्य-शर !
खो गई
सुना आपने