वेदना संवेदना तुम
वेदना संवेदना तुम, बंदगी परमार्थ हो तुम!
वायु हो तुम प्राण हो तुम, प्रेम का भावार्थ हो तुम!
लिख रही हूँ मैं तुम्हे ही,
मुक्त होकर बन्धनों से!
पढ़ रही हूँ मैं तुम्हे ही,
लो सुनो खुद धड़कनो से!
शब्द के ब्रह्माण्ड में प्रिय, दिव्य-सा शब्दार्थ हो तुम!
वायु हो तुम प्राण—
काव्य की निज साधना में,
प्रेम है प्रियतम तुम्हारा!
मृत्यु का अब भय नहीं है,
मिल गया मुझको किनारा!
प्रेम पथ पर चल पड़ी हूँ, ज़िन्दगी के पार्थ हो तुम!
वायु हो तुम प्राण की—
प्रेम ही है प्राण-धन औ,
धर्म का भी सार है ये!
प्रेम जीवन में नहीं यदि,
तो वृथा संसार है ये!
स्वार्थमय है यह सकल जग, सिर्फ़ प्रिय निस्वार्थ तुम हो!
वायु हो तुम प्राण—
भूमि से लेकर गगन तक,
प्रेम का वातावरण है!
अब प्रणय के गीत गूंजे,
प्रेम का ही व्याकरण है!
जो पढ़े उसको विदित हो, सृष्टि का निहितार्थ हो तुम!
वायु हो तुम प्राण—
आँखों में सागर लहराए
आँखों में सागर लहराए
होठों पर मुस्कान खिली है!
आत्म-कक्ष में भंडारे में
दुख की बस सौगात मिली है!
मन उपवन में किया निरीक्षण
प्रेम-पुष्प सब निष्कासित हैं!
सांसों से धड़कन तक फैले
कंटक सारे उत्साहित हैं!
पीडाओं के कंपन से अब
अंतस की दीवार हिली है!
आत्म-कक्ष के—
उलझ गये रिश्तों के धागे
जगह-जगह पर गाँठ पड़ी है!
द्वार प्रगति के बंद हुए सब
मुश्किल अब हर राह खड़ी है!
सत्य-झूठ की दुविधा में ही
विश्वासों की परत छिली है!
आत्म-कक्ष के—
प्रश्न सरीखा जीवन जैसे
निशदिन उत्तर ढूढ़ रही हूँ!
पर्वत नदियाँ झरनों से अब
पता स्वयं का पूँछ रही हूँ!
सृष्टि करे संवाद भले पर
सबकी आज जुबान सिली है!
आत्म-कक्ष के—