अँधेरे के दिन
बदल गए हैं अँधेरों के दिन
अब वे नहीं निकलते
सहमे, ठिठके, चुपके-चुपके रात के वक्त
वे दिन-दहाड़े घूमते हैं बस्ती में
सीना ताने,
कहकहे लगाते
नहीं डरते उजालों से
बल्कि उजाले ही सहम जाते हैं इनसे
अकसर वे धमकाते भी हैं उजालों को
बदल गए हैं अँधेरों के दिन।
अपने ही हाथों में पतवार सँभाली जाए
अपने ही हाथों में पतवार सँभाली जाए
तब तो मुमकिन है, कि ये नाव बचा ली जाए।
कुछ लुटेरों ने भी, पहना है फरिश्तों का लिबास
इनके बारे में ग़लतफ़हमी न पाली जाए।
पूरे गुलशन का चलन, चाहे बिगड़ जाए मगर
बदचलन होने से, खुशबू तो बचा ली जाए।
ये शमां कैसी है रह-रह के धुआँ देती है
काश ये बुझने से पहले ही बचा ली जाए।
इन धुआँती-सी मशालों को जलाने के लिए
राख के ढेर से, कुछ आग निकाली जाए।
लोग ऐसे भी कई जीते हैं इस बस्ती में
जैसे मजबूरी में, इक रस्म निभा ली जाए।
पहले ही लाख डर हैं हरेक आदमी के साथ
पहले ही लाख डर हैं हरेक आदमी के साथ
उसपे भी मौत जोड़ी गई ज़िंदगी के साथ।
ज़्यादा चमक में लोगों ने देखा न हो मगर।
हैं खूब अँधेरे भी नई रोशनी के साथ।
मुमकिन नहीं कि सबके हमेशा खुशी मिले
होते हैं धूप-छाँव-से ग़म भी खुशी के साथ।
उसकी चिता पे जिस्म ही, उसका नहीं जला
खुशियाँ भी घर की राख हुई थीं उसी के साथ।
सदियों की ले थकन भी निरंतर सफ़र में ही
रहने को रहे लाख भँवर भी नदी के साथ।
इक हादसे में कैसे नशेमन उजड़ गए
देखा था सब शजर ने बड़ी बेबसी के साथ।
पूरा परिवार एक कमरे में
पूरा परिवार, एक कमरे में
कितने संसार, एक कमरे में।
हो नहीं पाया बड़े सपनों का
छोटा आकार, एक कमरे में।
ज़िक्र दादा की उस हवेली का
सैंकड़ों बार, एक कमरे में।
शोरगुल नींद, पढ़ाई टी.वी.
रोज़ तकरार, एक कमरे में।
एक घर, हर किसी की आँखों में
सबका विस्तार, एक कमरे में।
वो दर्द वो बदहाली के मंज़र नहीं बदले
वो दर्द वो बदहाली के मंज़र नहीं बदले
बस्ती में अँधेरे से भरे घर नहीं बदले।
हमने तो बहारों का, महज़ ज़िक्र सुना है
इस गाँव से तो, आज भी पतझर नहीं बदले।
खंडहर पे इमारत तो नई हमने खड़ी की,
पर भूल ये की, नींव के पत्थर नहीं बदले।
बदल है महज़ कातिल और उनके मुखौटे
वो कत्ल के अंदाज़, वो खंजर नहीं बदले।
उस शख़्स की तलाश मुझे आज तलक है,
जो शाह के दरबार में, जाकर नहीं बदले।
कहते हैं लोग हमसे बदल जाओ ऐ शायर
पर हमने शायरी के, ये तेवर नहीं बदले।
कभी कभी जीवन में ऐसे भी क्षण आये
कभी कभी जीवन में ऐसे भी कुछ क्षण आये
कहना चाहा पर होठों से बोल नहीं फूटे।
महज़ औपचारिकता अक्सर होठों तक आयी
रहा अनकहा जो उसको, बस नज़र समझ पायी
कभी कभी तो मौन ढल गया जैसे शब्दों में
और शब्द कोशों वाले सब शब्द लगे झूठे
कहना चाहा पर होठों से शब्द नही फूटे।
जिनसे न था खून का नाता, रिश्तों का बंधन
कितना सारा प्यार दे गए कितना अपनापन
कभी कभी उन रिश्तों को कुछ नाम न दे पाए
जीवन भर जिनकी यादों के अक्स नहीं छूटे
कहना चाहा पर होठों से बोल नहीं फूटे।
कदम कदम दहशत के साये
क़दम क़दम दहशत के साए !
जीते हैं भगवान भरोसे ।
इस दूषित मिलावटी युग में, जो साँसें लीं या जो खाया
नहीं पता जाने अनजाने, दिन भर कितना ज़हर पचाया
हद तो ये है दवा न जाने राहत दे या मौत परोसे
जीते हैं भगवान भरोसे।
घर से बाहर क़दम पड़े तो शंकित मन घबराए
घर में माँ पत्नी पल पल देवी देवता मनाये
सड़क निगल जाती है पल में बरसों के जो पाले पोसे
जीते हैं भगवान भरोसे।
नहीं पता कब कहाँ दरिंदा बैठा घात लगाए
हँसते गाते जीवन के चिथड़े चिथड़े कर जाए
एक धमाका छुपा हुआ लगता है गोशे गोशे
जीते हैं भगवान भरोसे।
रोज़ हादसों की सूची पढ़ सुन कर मन डर जाए
बहुत बड़ी उपलब्धि मृत्यु जो स्वाभाविक मिल जाए
आम आदमी के वश में बस जिसको जितना चाहे कोसे
जीते हैं भगवान भरोसे।
ए वतन के शहीदों नमन
ऐ वतन के शहीदो नमन
सर झुकाता है तुमको वतन।
जिंदगी सामने थी खड़ी
लेके सौगातें कितनी बड़ी
सबको ठोकर लगा चल दिए
मौत का हंस के करने वरण
अपने पूरे ही परिवार के
तुम ही खुशियों के आधार थे
इक वतन की खुशी के लिए
हर खुशी तुम ने कर दी हवन
सर झुकाता है तुमको वतन।
जो उठाई थी तुमने क़सम
देश की आन रक्खेंगे हम
अपने प्राणों की बाज़ी लगा
खूब तुमने निभाया वचन
अपने लहू से तुमने लिखा
इक महाकाव्य बलिदान का
पीढ़ियों तक जो सिखलाएगा
जीने मरने का सबको चलन
सर झुकाता है तुमको वतन।
सिर्फ महोब्बत ही मज़हब है हर सच्चे इंसान का
माँ की ममता, फूल की खुशबू, बच्चे की
मुस्कान का
सिर्फ़ मोहब्बत ही मज़हब है हर सच्चे
इंसान का
किसी पेड़ के
नीचे आकर
राही जब
सुस्ताता है
पेड़ नहीं पूछे है
किस मज़हब से
तेरा नाता है
धूप गुनगुनाहट
देती है चाहे
जिसका आँगन
हो
जो भी प्यासा आ जाता है, पानी प्यास बुझाता है
मिट्टी फसल उगाये पूछे धर्म न किसी किसान का।
ये श्रम युग है जिसमे सबका संग-संग बहे पसीना है
साथ-साथ हंसना मुस्काना संग-संग आंसू पीना है
एक समस्याएँ हैं सबकी जाति धर्म चाहे कुछ हो
सब इंसान बराबर सबका एक सा मरना जीना है
बेमानी हर ढंग पुराना इंसानी पहचान का।
किसी प्रांत का रहनेवाला या कोई मज़हब वाला
कोई भाषा हो कैसी भी रीति रिवाजों का ढाला
चाहे जैसा खान-पान हो रहन सहन पहनावा हो
जिसको भी इस देश की मिट्टी और हवाओं ने पाला
है ये हिन्दुस्तान उसी का और वो हिन्दुस्तान का
तू है बादल
तू है बादल
तो, बरसा जल।
महल के नीचे
मीलों दलदल।
एक शून्य को
कितनी हलचल।
नाम ही माँ का
है गंगा जल।
छाँव है ठंडी
तेरा आँचल।
नन्ही बिटिया
नदिया कलकल।
तेरी यादें
महकें हर पल।
और पुकारो
खुलेगी सांकल।
अमन का नया सिलसिला चाहता हूँ
अमन का नया सिलसिला चाहता हूँ
जो सबका हो ऐसा खुदा चाहता हूँ।
जो बीमार माहौल को ताजगी दे
वतन के लिए वो हवा चाहता हूँ।
कहा उसने धत इस निराली अदा से
मैं दोहराना फिर वो ख़ता चाहता हूँ।
तू सचमुच ख़ुदा है तो फिर क्या बताना
तुझे सब पता है मैं क्या चाहता हूँ।
मुझे ग़म ही बांटे मुक़द्दर ने लेकिन
मैं सबको ख़ुशी बांटना चाहता हूँ।
बहुत हो चुका छुप के डर डर के जीना
सितमगर से अब सामना चाहता हूँ।
किसी को भंवर में न ले जाने पाए
मैं दरिया का रुख़ मोड़ना चाहता हूँ।
खूब नारे उछाले गए
खूब नारे उछाले गए
लोग बातों में टाले गए।
जो अंधेरों में पाले गए
दूर तक वो उजाले गए।
जिनसे घर में उजाले हुए
वो ही घर से निकाले गए।
जिनके मन में कोई चोर था
वो नियम से शिवाले गए।
पाँव जितना चले उनसे भी
दूर पांवों के छाले गए।
इक ज़रा सी मुलाक़ात के
कितने मतलब निकाले गए।
कौन साज़िश में शामिल हुए
किनके मुंह के निवाले गए।
अब ये ताज़ा अँधेरे जियो
कल के बासी उजाले गए।
ज़हर से जैसे वो अमृत निकाल देता है
ज़हर से जैसे वो अमृत निकाल देता है।
दरख़्त धूप को साए में ढाल देता है।
अवाम आँखे बिछाता है कि हल होंगे सवाल
अजब निज़ाम है उलटे सवाल देता है।
हमेशा ख़ुद पे लगी तोहमतें छुपाने को
वो अपने रौब का सिक्का उछाल देता है।
ख़ुद ही फँस जाते हैं आ आ के परिंदे उसमे
इतने रंगीन वो रेशम के जाल देता है।
उसी को सौंप दो सारी मुसीबतें अपनी
वो एक लम्हे में सब कुछ संभाल देता है।
वो ज़ुल्म करते रहें हम कोई गिला न करें
ये एहतियात तो मुश्किल में डाल देता है।
उसी को मिलते हैं मोती भी यक़ीनन इक दिन
जो गहरे जा के समंदर खंगाल देता है।
जो अपने वक़्त में नफ़रत से मार डाले गए
उन्ही की आज ज़माना मिसाल देता है।
भीगे थे साथ साथ कभी जिस फुहार में
भीगे थे साथ साथ कभी जिस फुहार में
ये उम्र कट रही है उसी के खुमार में।
तकते हैं खड़े दूर से सैलाब के मारे
मग़रूर नदी आयेगी कब तक उतार में।
मजबूर थी बिचारी दिहाड़ी की वजह से
आई तड़पता छोड़ के बच्चा बुखार में।
ये साज़ भी इंसानी हुनर की मिसाल हैं
संगीत उतर आता है लोहे के तार में
अपराध पल रहा है सियासत की गोद में
बच्चा बिगड़ने लगता है ज्यादा दुलार में।
फ़रियाद अगर रब ने तुम्हारी नहीं सुनी
कोई कमी तो होगी तुम्हारी पुकार में।
खूब हसरत से कोई प्यारा-सा सपना देखे
खूब हसरत से कोई प्यारा-सा सपना देखे
फिर भला कैसे उसी सपने को मरता देखे।
अपने कट जाने से बढ़कर ये फ़िक्र पेड़ को है
घर परिंदों का भला कैसे उजड़ता देखे।
मुश्किलें अपनी बढ़ा लेता है इन्सां यूँ भी
अपनी गर्दन पे किसी और का चेहरा देखे।
बस ये ख्वाहिश है, सियासत की, कि इंसानों को
ज़ात या नस्ल या मज़हब में ही बंटता देखे।
जुर्म ख़ुद आके मिटाऊंगा कहा था, लेकिन
तू तो आकाश पे बैठा ही तमाशा देखे।
छू के देखे तो कोई मेरे वतन की सरहद
और फिर अपनी वो जुर्रत का नतीजा देखे।
दर्द जब बेजुबान होता है
दर्द जब बेजुबान होता है
कोई शोला जवान होता है।
आग बस्ती में सुलगती हो कहीं
खौफ में हर मकान होता है।
बाज आओ कि जोखिमों से भरा
सब्र का इम्तिहान होता है।
ज्वार-भाटे में कौन बचता है
हर लहर पर उफान होता है।
जुगनुओं की चमक से लोगों को
रोशनी का गुमान होता है।
वायदे उनके खूबसूरत हैं
दिल को कम इत्मिनान होता है।
पूछा था रात मैनें ये पागल चकोर से
पूछा था रात मैंने, ये पागल चकोर से
पैग़ाम कोई आया है, चंदा की ओर से।
बरसों हुए मिला था, अचानक कभी कहीं
अब तक बँधा हुआ है, जो यादों की डोर से।
मुझको तो सिर्फ़ उसकी खामोशी का था पता
हैरां हूँ पास आ के, समंदर के शोर से।
मैं चौंकता हूँ, जब भी नज़र आए हैं कोई
इस दौर में भी, हँसते हुए ज़ोर-ज़ोर से।
ये क्या हुआ है, उम्र के अंतिम पड़ाव पर
माज़ी को देखता हूँ मैं, बचपन के छोर से।
भूली यादों के इक ख़ज़ाने से
भूली यादों के इक ख़ज़ाने से
दर्द निकले कई पुराने से।।
उड़ के जाऊँ ये मन करे हरपल
जब रहूँ दूर आशियाने से।
जैसा वादा था आपसे मेरा
आ गए आपके बुलाने से।
रोज़ मिलने की भी तलब जिनको
अब ख़बर तक नहीं ज़माने से।
आप कैसी बहार ले आए
फूल मुरझाए जिसके आने से।
काग़ज़ी फूल कब बने असली
उनमें नकली महक बसाने से।
कुनबा पलता था इक कमाई से
अब कमी सबके भी कमाने से।
दर्द घटता है बाँट लेने से
और गहराता है छुपाने से।
लोग पगडंडियाँ बनाएँगें
रास्ते जब नज़र न आएँगे।
लोग पगडंडियाँ बनाएँगे।
खुश न हो कर्ज़ के उजालों से
ये अँधेरे भी साथ लाएँगे।
ख़ौफ़ सारे ग्रहों पे है कि वहाँ
आदमी बस्तियाँ बसाएँगे।
सुनते-सुनते गुज़र गई सदियाँ
मुल्क़ से अब अँधेरे जाएँगे।
जीत डालेंगे सारी दुनिया को
वे जो अपने को जीत पाएँगे।
दूध बेशक पिलाएँ साँपों को
उनसे लेकिन ज़हर ही पाएँगे।
टूटते लोगों को उम्मीदें नयी देते हुए
टूटते लोगों को उम्मीदें नई देते हुए
लोग है कुछ, ज़िंदगी को ज़िंदगी देते हुए।
नूर की बारिश में जैसे, भीगता जाता है मन,
एक पल को भी किसी को इक खुशी देते हुए।
याद बरबस आ गई माँ, मैंने देखा जब कभी
मोमबत्ती को पिघलकर, रोशनी देते हुए।
आज के इस दौर में, मिलते है ऐसे भी चिराग़
रोशनी देने के बदले, तीरगी देते हुए।
इक अमावस पर ये मैंने, रात के मुँह से सुना
चाँद बूढ़ा हो चला है, चाँदनी देते हुए।
दर्द से दामन खूब भरा है
दर्द से दामन खूब भरा है।
जीने का भरपूर मज़ा है।
ज़ुल्म का परचम ऊँचा क्यों है
ग़र दुनिया का कोई खुदा है।
कुछ कर लो उतना ही मिलेगा
जो उसने किस्मत में लिखा है।
दुख क्या छू पाएगा उसको
साथ में जिसके माँ की दुआ है।
रात में चीखा एक मछेरा
चाँद नदी में डूब रहा है।
जिस पे उसूलों की दौलत है
उसका कद औरों से बड़ा है।
बेबस होकर जीने वाला
सच पूछो तो रोज़ मरा है।
ढिठाई
वो एक मरियल-सा चींटा था
बल्कि चींटे का बच्चा था
तीन बार फेंका मैंने उसे दूर
उँगली से छिटककर
पर वह ढीठ चौथी बार भी
उसी रास्ते लौटकर बढ़ा मेरी ओर
और तब अचानक आया मुझे खयाल
हो सकता है, इसे पता हो
यही एकमात्र रास्ता अपने घर लौटने का
जहाँ प्रतीक्षा में बैठी हो उसकी
माँ!
और मैंने जाने दिया उसे बेरोक-टोक।
रिश्तेदारी
नहीं, यह भी संभव नहीं होता
कि उनके शहर जाकर भी
जाया ही न जाय रिश्तेदारों के घर
अकसर कुछ एहसान लदे होते हैं
उनके बुजुर्गों के अपने बुजुर्गों पर
ऐसा कुछ न भी हो, तो
जरूरी होता है लोकाचार निभाना
किंतु अकसर खड़ी हो जाती है समस्या
कि पत्नी की कुशलक्षेम, बच्चों की
सुचारू पढ़ाई का विवरण दे देने
तथा ’और क्या हाल-चाल हैं‘ का कई-कई बार
उत्तर दे देने के बाद,
कैसे जारी रखा जाय संवाद
अकसर बोझिल हो जाते हैं
चाय आने के बीच के क्षण,
और अकसर देर लगती है चाय आने में
क्योंकि उधर से भी रिश्तेदारी निभाने के प्रयास
प्रकट होते हैं चाय के साथ की सामग्री बनकर
चाय के बाद बनती है कुछ राहत की स्थिति
कि अब कुछ देर बाद
माँगी जा सकती है आज्ञा
और खाना खाकर जाने की मनुहार पर
कुछ बहाने बनाकर
उठा जा सकता है कुछ औपचारिक संबोधनों
तथा फिर मिलने-जुलने
या चिट्ठी लिखने के वादों के साथ!
महानगर की विदाई
नहीं, ये उचित नहीं
कि मैं दरवाजे से ही चिल्लाकर कह दूँ
कि अच्छा मैं चलता हूँ,
और तुम रसोईघर से ही कह दो
अच्छा ठीक है
बेहतर है जाने से पहले
मैं तुम्हें ठीक से देख लूँ
और तुम देख लो अच्छी तरह;
क्योंकि इस खूँखार महानगर में
इतनी निश्चितता से
नहीं दी जा सकती विदाई
नहीं पाली जा सकती
शाम को सकुशल मिलने की आश्वस्ति।
प्रार्थना
उन सारी प्रार्थनाओं का मतलब क्या है
जिनके होने के बाद भी
वही सब होता रहे
जिसके न होने के लिए
की जाती हैं प्रार्थनाएँ
मैं एक कोशिश और करता हूँ
और प्रार्थनाएँ सुनने वालों
और करता हुँ प्रार्थना
कि प्रार्थनाएँ
कभी बेकार न हों!
बेटी
मेरी सबसे बड़ी चिंता
अपनी बेटी के भविष्य को
लेकर है
मेरा बेटा तो हमेशा खेलता है
पिस्तौल, स्टेनगन, मशीनगन से
रचाता है युद्ध, करता है बमवर्षा
लेकिन अपनी बेटी का
क्या करूँ
वो हमेशा गुड़ियों से खेलती है।
बिंदियाँ
कमरे में सजी
तुम्हारी बड़ी-
सी तस्वीर से
कहीं ज्यादा
परेशान करती हैं !
बाथरूम में चिपकी
तुम्हारी छोटी-
छोटी बिन्दिया।
भीड़ का सैलाब
अच्छा-भला आदमी था
सीधा-सादा, बाल-बच्चेदार, घर-गृहस्थ
कुछ नारे उसे हांक कर भीड़ में ले गए
और उसे भी क्या सूझी
कि अचानक आदमी से
‘भीड़’ में बदल गया
और भीड़ का सैलाब थमने के बाद
उसने पाया अपने आप को
एक अस्पताल के मुर्दाघर में
अपने पहचाने जाने का इंतज़ार करते हुए।
गंदगी
कीड़े ! गंदगी
की तलाश में
चौबीसों घंटे भटकते हैं
जी-जान से
वे हर तरफ़ सूंघते हैं गंदगी
वे जाने कहाँ-कहाँ से ढूँढ़-ढूँढ़ कर लाते हैं
गंदगी
उनमें होड़ है
कि कौन कितनी बड़ी
गंदगी बटोर कर लाए
और कितनी चमक के साथ
परोस दे पूरे देश को
कुछ ढूँढ़ते हैं ‘रंगीन’
गंदगी
कुछ ढूँढ़ते हैं ‘संगीन’
गंदगी
उनका मानना है कि हर इंसान में एक
कीड़ा बसता है
और इस कीड़े को जतन से पाला जाए
तो अच्छा-भला इंसान भुला सकता है
अपनी इंसानियत
अख़बारों की सुर्ख़ियाँ
बताती हैं
कि कीड़े अपनी कोशिशों में
कामयाब होने लगे हैं।
संकेतों की भाषा
वे चार पाँच के समूह में
बातें करते हैं
संकेतों की भाषा में
देखते बनती हैं
उनके हाथों और उंगलियों की
संचालन की मुद्राएँ और उनकी गति
वे डूबे हैं बहुत गहरे
अपने वार्तालाप में
तरह तरह के भाव
उभरते हैं उनके चेहरों पर
उनकी इस बातचीत का दृश्य
बनाता है अजीब कौतुहल का वातावरण
विस्मित हो देखते हैं आसपास के लोग
फिर आपस में फुसफुसाते हैं
दयाभाव से लेकर उपहास तक के
मिश्रित भावों से
गूंगे हैं– फुसफुसाता है कोई
उन्हें दिखाता है सिर्फ गूंगापन
वे सुन ही नहीं पाते
कि इस वार्तालाप में
जिन्दगी कैसे चहक चहक कर बो रही है!
वे लोग
वे लोग
डिबिया में भरकर पिसी हुई चीनी
तलाशते थे चींटियों के ठिकाने
चतों पर बिखेरते थे बाजरा के दाने
कि आकर चुगें चिड़ियाँ
वे घर के बाहर बनवाते थे
पानी की हौदी
कि आते जाते प्यासे जानवर
पी सकें पानी
भोजन प्रारंभ करने से पूर्व
वे निकालते थे गाय तथा अन्य प्राणियों का हिस्सा
सूर्यास्त के बाद, वे नहीं तोड़ने देते थे
पेड़ से एक पत्ती
कि खलल न पड़ जाए
सोये हुए पेड़ों की नींद में
वे अपनी तरफ से शुरु कर देते थे बात
अजनबी से पूछ लेते थे उसका परिचय
जरूरतमन्दों की करते थे
दिल खोल कर मदद
कोई पूछे किसी का मकान
तो खुद छोड़ कर आते थे उस मकान तक
कोई भूला भटका अनजान मुसाफिर
आ जाए रातबिरात
तो करते थे भोजन और विश्राम की व्यवस्था
संभव है, अभी भी दूरदराज किसी गाँव या कस्बे में
बचे हों उनकी प्रजाति के कुछ लोग
काश ऐसे लोगों का
बनवाया जा सकता एक म्यूजियम
ताकि आने वाली पीढ़ियों के लोग
जान सकते
कि जीने का एक अन्दाज ये भी था।
खंडित प्रतिमाएँ
अब वे सब की सब
रख दी गई हैं
एक पुराने बरगद के नीचे
यही तरीका है शायद
कि संभव नहीं हो नदी में विसर्जन
तो रख देते हैं “खण्डित प्रतिमाओं” को
किसी पेड़ के नीचे
कभी पूजाघरों में प्रतिष्ठित
इन्हीं के सामने खड़े होते थे लोग
अपनी सम्पूर्ण दयनीयता, विनम्रता
और भक्तिभाव समेटे
जोड़ कर कातर हाथ!
यही बचाती थीं
बच्चों को रोगों से
दिलाती थीं परीक्षाओं में नम्बर
सुधार देती थीं बिगड़ा हुआ पेपर
सुरक्षित ले आतीं थीं बच्चों के पिता को
दूसरे शहरों से
ढ़्यान रखती थी होस्टल में पढ़ रही बेटी का
पूरी हुई कितनी मन्नतें इन्हीं की पूजा से
अब वे उपेक्षित कर दी गई हैं
सत्ता से उतरे सत्ताधीश की भांति
आते जाते कुछ राहगीर
अभी भी जोड़ देते हैं हाथ श्रद्धावश
तब क्या इन्हें भी मिलती होगी
उतनी ही खुशी
जितनी कि मिलती है
स्वयं को उपेक्षित महसूसते
वृद्ध पिता को
लम्बे अरसे बाद अपने बेटे की चिट्ठी पाकर!