कार्बन पेपर
सुनो न
कहीं से कोई
कार्बन पेपर ले आओ
खूबसूरत इस वक़्त की
कुछ नकलें निकालें
कितनी पर्चियों में
जीते हैं हम
लम्हों की बेशकीमती
रशीदें भी तो हैं
कुछ तो हिसाब
रक्खें इनका
किस्मत
पक्की पर्ची तो
रख लेगी ज़िंदगी की
कुछ कच्ची पर्चियां
हमारे पास भी तो होनी चाहिए
कुछ नकलें
कुछ रशीदें
लिखाइयां कुछ
मुट्ठियों में हो
तो तसल्ली रहेगी
सुनो न
कहीं से कोई
कार्बन पेपर ले आओ
मोहब्बत का घर
याद रहे
चाहतों का ये शहर
ख़्वाबों का मोहल्ला
इश्क़ की गली
और कच्चा मकां मोहब्बत का
जो हमारा है
खुशबुओं की दीवारें हैं जहाँ
एहसासों की छतें
हंसी और आंसूओं से
लिपा-पुता आँगन
हरा-भरा
गहरी छाँव वाला
प्यार का एक पेड़ है जहां
किस्सों के चौके में
बातों के कुछ बर्तन
औंधे हैं शर्मीले से
तो कुछ सीधे मुस्कुराते हुए
शिकायतों के धुंए से
काले कुछ बर्तन
हमारा मुँह ताकते हैं
कि क्यों नहीं उन्हें साफ़ किया
रगड़कर हमने
भीतर एक ट्रंक भी है
लम्हों से भरा
रेशमी चादरों में
यादों की सलवटें हैं
आले में जलता चिराग़
वो खूंटियों पर लटकते
दो जिस्म
जंगलों और खिड़कियों से
झांकती चाहतें हमारी
दरवाज़े की चौखट से
टपकती हुई
बरसात की पागल बूँदें कुछ
हवा के कुछ झोंके
और न जाने क्या क्या
सब बिक जाएगा इक दिन
समाज के हाथों
रिवाज़ें बोलियाँ लगाएंगी
ज़ात भाव बढ़ाएगी अपना
और खरीद लेंगे
जनम के जमींदार
वो मकां हमारा
ऐसा होगा क्या कभी
वो सहर होगी क्या कभी
जब कौमें
अपने काफिले छोड़
इंसानों से हाथ मिलाएगी
कबीले होंगे क्या कभी
चाहतों के
क्या मोहब्बत
मंदिरों की घंटियों
या
मस्जिदों के नमाज़ों में
सुनाई देगा किसी दिन
क्या हम खदेड़ पाएंगे
मज़हबों को
किसी रोज़
कह्कशाओं से पर
जहाँ न आरती सुनाई दे
न अज़ान का भ्रम हो
क्या ऐसा होगा
कि
मोहब्बत और इंसानियत की
फ़तह हो
ऐसा होगा क्या कभी
चूड़ियां
जानते हो तुम?
मुझे चूड़ियाँ पसंद हैं
लाल, नीली, हरी, पीली
हर रंग की चूड़ियाँ
जहाँ भी देखती हूँ चूड़ियों से भरी रेड़ी
जी चाहता है
तुम सारी खरीद दो मुझे
मगर तुम नही होते
ना मेरे साथ ना मेरे पास
खुद ही खरीद लेती हूँ
नाम से तुम्हारे
पहनती हूँ
छनकाती हूँ उन्हें
बहुत अच्छी लगती है हाथो में मेरे
कहते रहते हो तुम
कानो में मेरे चुपके से
जानते हो तुम?
कान्हा
आओ न किसी दिन
यमुना किनारे
कभी किसी बड़
या पीपल पर चढ़ें
कोई पीला सा आँचल
क्यूँ नहीं देते
सौगात में मुझे भी
दूर-दूर चलें चारागाहों में
खेलें मिलकर दोनों
मीठा सा राग
क्यूँ नहीं सुनाते मुझे
कभी तो सताओ
कभी तो मटकी फोड़ो
चुरा लो मक्खन कभी तो
कान्हा कहाँ हो तुम
आओ न
रास लीला करो
कभी मेरे साथ भी