फिर से गिरवी मकान है शायद
फिर से गिरवी मकान है शायद
घर में बेटी जवान है शायद।
ये लकीरें सी जो हैं चेहरे पर
उम्र भर की थकान है शायद।
ज़ुल्म सह कर जो चुप हैं सदियो से
उनके मुंह में ज़ुबान है शायद।
शय जिसे दिल कहा है दुनिया ने
कांच का मर्तबान है शायद।
क्या छुपाया है हमसे बच्चों ने
मुट्ठी में आसमान है शायद।
ये हुकूमत है बहरी ये तय है
कौम भी बेज़ुबान है शायद।
लोग अब मिल के भी नहीं मिलते
फासला दरमियान है शायद।
दर्द दिल में न आँखों में पानी रहे
दर्द दिल में न आंखों में पानी रहे
अपने चेहरे पे बस शादमानी रहे
गुफ़्तगू में गिरूं ना मैं मेयार से
मेरा लहज़ा यूं ही ख़ानदानी रहे
छत पे आए परिंदे की ख़ातिर सदा
एक मिट्टी के बर्तन में पानी रहे
मुझको रक्खा गया घर के कोने में यूं
चीज़ जैसे कोई भी पुरानी रहे
राबता यूं रहे आख़री सांस तक
जब भी बिछड़ें तो आँखों में पानी रहे
ज़ख़्म आए तुझे तो मुझे दर्द हो
यूं लहू में हमारी रवानी रहे
मंज़िलें ना मिलें तो कोई ग़म नहीं
हौसला तो मगर आसमानी रहे
मैल मन का छुपाने से क्या फायदा
मैल मन का छुपाने से क्या फ़ायदा
ऐसे गंगा नहाने से क्या फ़ायदा
नेकियां ही कमाई न तुमने अगर
फिर करोड़ों कमाने से क्या फ़ायदा
आग ही आग जब हर तरफ़ है लगी
मोम ख़ुद को बनाने से क्या फ़ायदा
अस्ल में दिल है ये कांच की एक शय
बारह आज़माने से क्या फ़ायदा।
जो हवाओं की साज़िश में शामिल हों ख़ुद
ऐसे दीपक जलाने से क्या फ़ायदा
सिर्फ परतें निकलतीं हैं फिर बात की
बात आगे बढ़ाने से क्या फ़ायदा
ग़मों से बशर को रिहा देखना
ग़मों से बशर को रिहा देखना
सुलगती कोई जब चिता देखना
गुज़रना अक़ीदत से कुछ इस तरह
के पत्थर में अपना खुदा देखना
ये करना दुआ के लगे ना नज़र
शजर जब कोई तुम हरा देखना
न हो मुतमइन सौंप कर कश्तियाँ
डुबा दे न ये नाख़ुदा देखना
बुलंदी पे खुद को भी पाना कभी
समय की बदलती अदा देखना
है मुमकिन नतीजा जुदाई भी हो
मगर इश्क़ की इब्तेदा देखना
न जाने घड़ी कौन हो आखरी
हुए फ़र्ज़ सारे अदा देखना
रवायत निहायत है दुश्वार ये
यूं बेटी की घर से विदा देखना
मशविरे किसी के ना फलसफे
मशविरे किसी के ना फलसफे सिखाते हैं
आदमी को चलना तो तजुर्बे सिखाते हैं
वास्ता वफ़ा से जिनका नहीं है कोई भी
अब वही मुहब्बत के कायदे सिखाते हैं
मुल्क के सियासतदां भाई हैं ये मौसेरे
एक दूसरे को ये पैंतरे सिखाते हैं
खुद गंवा के अपना घर बार ये जो बैठे हैं
वो हमें तिजारत के फायदे सिखाते हैं
यूं जहां में कोई तालीम ही नहीं इसकी
सुर्खरू भी होना तो हौसले सिखाते हैं
ज़िन्दगी की राहों में ठोकरें ज़रूरी हैं
रास्तों पे चलना भी हादसे सिखाते हैं
सफ़र में अब नहीं पर
सफ़र में अब नहीं पर आबलापाई नहीं जाती
हमारी रास्तों से यूं शनासाई नहीं जाती
रहें हम महफ़िलों में या रहें दुनिया के मेले में
अकेला छोड़ कर लेकिन ये तन्हाई नहीं जाती
निगाहों के इशारे भी मुहब्बत भी अलामत हैं
सभी बातें ज़ुबानी ही तो बतलाई नहीं जाती
बड़ी नाज़ुक सी है डोरी ये रिश्तों की बताऊं क्या
उलझ इक बार गर जाए तो सुलझाई नहीं जाती
लगाए कोई भी कितने यहाँ चेहरों पे चेहरे ही
हक़ीक़त आईने से फिर भी झुठलाई नहीं जाती
न जाने ख्व़ाब हैं कितने तमन्नाएं खिलौनों सी
मगर ये ज़िन्दगी इनसे तो बहलाई नहीं जाती
कहानी ज़िन्दगी की यूं तो दिलकश है मगर ”वाहिद”
कोई इक बार जो पढ़ ले तो दुहराई नहीं जाती
साथ तेरा अगर नहीं होता
साथ तेरा अगर नहीं होता
हमसे इतना सफ़र नहीं होता
धूप है राह में उसूलों की
इसमें कोई शजर नहीं होता
लोग क्या क्या खरीद लेते हैं
बस हमीं से गुज़र नहीं होता
सामना ज़िन्दगी से करने का
हर किसी में हुनर नहीं होता
हम अगरचे सहेजते कुदरत
मौसमों का कहर नहीं होता
अब तो आदी से हो गए हैं हम
हादसों का असर नहीं होता
दिल यूं लगते क़रीब हैं लेकिन
रास्ता मुख़्तसर नहीं होता
गर वफ़ा ही मिली जो होती तो
आदमी दर-ब-दर नहीं होता
बोझ हो तो फिर तअल्लुक़ तोड़ देते हैं
बोझ हो तो फिर तअल्लुक़ तोड़ देते हैं
हम कहानी यूं अधूरी छोड़ देते हैं
जब कभी हमको लगी बोझिल किताबों सी
कुछ वरक़ हम ज़िन्दगी के मोड़ देते हैं
वो निगाहों से पिलाएं तो ये वादा है
हम क़सम सारी पुरानी तोड़ देते हैं
पी के जितनी मय बहकने तुम लगे हो ना
हम तो उतनी ही लबों पे छोड़ देते हैं
जो किसी भी काम के ना थे ज़माने में
रुख हवाओं का वही तो मोड़ देते हैं
गुफ्तगू हमसे जो करता है मुहब्बत की
दिल हमारा हम उसी से जोड़ देते हैं
कुछ सज़ा उनके लिए भी तो मुक़र्रर हो
दोस्त बन के जो भरोसा तोड़ देते हैं
दोस्त है वो तो दिखाता है सचाई बस
लोग आईना मगर क्यूं तोड़ देते हैं
चेहरों पे किरदार लगाए बैठे हैं
चेहरों पर किरदार लगाए बैठे हैं
सब ख़ंजर पे धार लगाए बैठे हैं
फूलों की ख़ुशबू को वो फिर क्या जानें
गमलों में जो ख़ार लगाए बैठे हैं
हक़ अपना हम उनसे कैसे मांगें वो
गर्दन पे तलवार लगाए बैठे हैं
खून से तर रहता है जिसका हर पन्ना
हम ऐसा अखबार लगाए बैठे हैं
गुल है उनके दिल की बत्ती फिर भी हम
दिल से दिल का तार लगाए बैठे हैं
कल तक तलवे चाटे जिसने आका के
आज वही दरबार लगाए बैठे हैं
दौलत वालों को हमसे ये शिकवा है
उम्मीदें हम चार लगाए बैठे हैं
हमको ना बतलाओ किस्से दरिया के
जाने कितने पार लगाए बैठे हैं
इज़्ज़त रखना मौला अब सच्चाई की
दाव पे हम घर बार लगाए बैठे हैं।
एक मुश्किल किताब जैसी थी
एक मुश्किल किताब जैसी थी
ज़िन्दगी इक अज़ाब जैसी थी
हमको तो ख़ार ही मिले लेकिन
ये सुना था गुलाब जैसी थी
घूँट दर घूँट पी तो ये जाना
एक कड़वी शराब जैसी थी
आई हिस्से में जो यतीमों के
वो तो खानाखराब जैसी थी
उम्र भर हम सहेजते थे जिसे
एक ख़स्ता किताब जैसी थी
कोई ताबीर ही न हो जिसकी
इक अधूरे से ख्व़ाब जैसी थी
है शिकस्ता सी आज ये लेकिन
बचपने में नवाब जैसी थी
तुमने देखी नहीं जवानी में
ज़िन्दगी आफ़ताब जैसी थी
हम अलग सी एक ख़ुशबू जानते हैं
हम अलग सी एक ख़ुशबू जानते हैं
हैं बरहमन और उर्दू जानते हैं
काम चुप रह के किया करते हैं लेकिन
रात के सब राज़ जुगनू जानते हैं
बात उनसे दोस्ती की राएगां है
जो फ़क़त ख़ंजर-ओ-चाकू जानते हैं
ख़ामुशी से आ गिरे दामन पे अक्सर
दर्द की शिद्दत को आंसू जानते हैं
क्यूं महकता है चमन आमद से तेरी
फूल भी क्या तेरी ख़ुशबू जानते हैं
अर्ज़ियाँ कब रोकना है कब बढ़ाना
ये हुनर दफ्तर के बाबू जानते हैं
मुश्किलों में मुस्कुरा के जीने वाले
फिर यक़ीनन कोई जादू जानते हैं
नज़र में रहा ना ख़बर में रहा
नज़र में रहा ना ख़बर में रहा
मुसाफ़िर था मैं तो सफ़र में रहा
मिला ना मुझे मुझसा कोई कहीं
सदा अजनबी सा नगर में रहा
थे हैरत में ये सोच दुश्मन मेरे
मैं किस की दुआ के असर में रहा
है मुमकिन भुलाया हो मैंने उसे
मगर मैं तो उसकी नज़र में रहा
हज़ारों तमन्नाओं का बोझ भी
अज़ल से दिले मुख़्तसर में रहा
गिला है यही ज़िन्दगी से मुझे
किनारा मिला ना भंवर में रहा
तिजारत मुहब्बत या हो दोस्ती
ये है तजुर्बा मैं ज़रर में रहा
भरोसा भी करना उठाना फरेब
यही ऐब मेरे हुनर में रहा
चोट खा के भी मुस्कुराए हैं
चोट खा के भी मुस्कुराए हैं
ज़िन्दगी हम तेरे सताए हैं
ढूंढता है वो मेरी आँखों में
मैंने आंसू कहां छुपाए हैं
इक तेरी याद रह गई है बस
जिसको सीने से हम लगाए हैं
कैसे हम छोड़ दें ये घर अपना
हमने बचपन यहां बिताए हैं
ज़िन्दगी का सुलूक ऐसा था
जैसे के हम कोई पराए हैं
ज़िक्र हरगिज़ नही किया हमने
ज़ख्म अपनों से कितने खाए हैं
चल रहे दूर दूर जो हमसे
ये हमारे उदास साए हैं
खौफ़ सैलाब का अगर था तो
क्यूं किनारों पे घर बसाए हैं
ओंठ जलना तो लाज़मी था फिर
अश्क़ क्यूँ जाम में मिलाए हैं
क्यूं दिल में कुछ अरमान नहीं
यूं तो मुश्किल थी ये दुनिया हम मगर आसान थे
जानते थे जबकि हम इसमें कई नुक्सान थे
जिस्म मिट्टी का लिए हम तब सफ़र के हो लिए
बादलों के जब बरसने के बहुत इमकान थे
हम वफ़ा करते रहे उस बेवफ़ा से उम्र भर
हम ज़माने की बदलती रस्म से अनजान थे
यूं तो थे आबाद सच के रास्ते यारों मगर
चल के देखा हमने तो पाया के सब वीरान थे
दर्द आहें ग़म पहेली अश्क़ दुःख मजबूरियां
ये किताबें ज़ीस्त के सब मुख्तलिफ़ उन्वान थे
गुफ़्तगू के तौर से वाक़िफ नहीं थे वो मगर
उनको है शिकवा ये की दीवार के भी कान थे
ज़िन्दगी भर की हिफ़ाज़त सबने इस सरमाए की
ये बदन तो था अमानत हम फ़क़त दरबान थे
बुलंदी तू चाहे कहीं पे रखा कर
क्यूं दिल में कुछ अरमान नहीं
क्या पत्थर हो इंसान नहीं
बस तुझसे है हस्ती मेरी
अपनी कोई पहचान नहीं
पिघले अश्कों की गर्मी से
वो मोम हूँ मैं चट्टान नहीं
बातों बातों में सहर हुई
कब आंख लगी फिर ध्यान नहीं
दम लेने दो पल बैठा हूँ
मैं बेहिस हूँ बेजान नहीं
दिल से दिल का ये रस्ता भी
है छोटा पर आसान नहीं
दुनिया ने जितना समझा था
मैं उतना भी नादान नहीं।
हर क़दम पे दार मक्तल था मुक़ाबिल
बुलंदी तू चाहे कहीं पे रखा कर
मगर पांव अपने ज़मीं पे रखा कर
नुमायां न कर दर्द दिल के ज़ुबां पर
जो शै है जहां की वहीं पे रखा कर
वो ना पूछ बैठें हिसाबे मशक्कत
सजा के पसीना जबीं पे रखा कर
भले लूट ले तू अमानत मेरी सब
मगर हक़ मेरा सब यहीं पे रखा कर
बशर हैं के हम भी न जाएं बहक यूं
निशाने तेरे तू हमीं पे रखा कर
तेरी मुन्तज़िर मंज़िलें राह में हों
हमेशा कदम इस यकीं पे रखा कर
ये मोती हैं चाहत के आंसू नहीं हैं
हिफाज़त से तू आसतीं पे रखा कर
मुस्कुराए सदी हो गई है
बुलंदी तू चाहे कहीं पे रखा कर
मगर पांव अपने ज़मीं पे रखा कर
नुमायां न कर दर्द दिल के ज़ुबां पर
जो शै है जहां की वहीं पे रखा कर
वो ना पूछ बैठें हिसाबे मशक्कत
सजा के पसीना जबीं पे रखा कर
भले लूट ले तू अमानत मेरी सब
मगर हक़ मेरा सब यहीं पे रखा कर
बशर हैं के हम भी न जाएं बहक यूं
निशाने तेरे तू हमीं पे रखा कर
तेरी मुन्तज़िर मंज़िलें राह में हों
हमेशा कदम इस यकीं पे रखा कर
ये मोती हैं चाहत के आंसू नहीं हैं
हिफाज़त से तू आसतीं पे रखा कर
ख़िज़ाँ के उजड़ते शजर
मुस्कुराए सदी हो गई है
दर्द में क्या कमी हो गई है ?
इस तरह से मिली है वो जैसे
ज़िन्दगी अजनबी हो गई है
जी रहे खुद की खातिर यहां सब
क्या अजब बेबसी हो गई है
इक तेरे छत पे आ जाने से ही
हर तरफ चांदनी हो गई है
ज़ोर खामोशियों का है लेकिन
इक हंसी लाज़मी हो गई है
मुन्तज़िर हूँ इधर मैं ख़ुशी का
वो उधर मुल्तवी हो गई है
जो थीं मजबूरियां उम्र भर की
अब मेरी सादगी हो गई है
पढ़ सको तो पढो चेहरे को
दास्ताँ अनकही हो गई है
ढूंढ लेगी मुझे वक़्त पर वो
मौत भी मतलबी हो गई है
कभी आ के चुपके से सौगात रख दे
ख़िज़ाँ के उजड़ते शजर दे दिए
परिंदों को हमने ये घर दे दिए
सफ़ाई में हम और देते भी क्या
कटे जो सदाक़त में सर दे दिए
नवाज़ा है मंजिल से तूने उसे
हमें क्यूं मुसल्सल सफ़र दे दिए
बना के वो शय जिसको कहते है ग़म
उठाने को नाज़ुक जिगर दे दिए
बलाएं बुरी हमको छू ना सकें
तो मां की दुआ में असर दे दिए
फ़ना भी हुए तो महकते रहे
ये फ़ूलों को किसने हुनर दे दिए
दे ख्वाहिश को अंबर की ऊँचाइयाँ
यूं छूने को तितली के पर दे दिए
यूं तो मुश्किल थी ये दुनिया
कभी आ के चुपके से सौगात रख दे
धड़कते हुए दिल पे तू हाथ रख दे
सफ़र काट लूंगा मैं इस ज़िन्दगी का
ज़रा सी मुहब्बत मेरे साथ रख दे
थकन ओढ़ ली उम्र भर की है मैंने
कोई आ के आँखों में अब रात रख दे
मैं पत्थर सा होने लगा पत्थरों में
मेरे दिल में तू चंद जज़्बात रख दे
यूं लगने लगेगा सफ़र मुझको आसां
ज़रा दूर तक हाथ में हाथ रख दे
शजर जिस्म का तू सुलगने से पहले
मेरी खुश्क आँखों में बरसात रख दे
समझ आएगा फलसफा ज़िन्दगी का
कहानी में तू मेरे हालात रख दे
भटकने लगूं मैं जो राहे खुदा से
ज़ेहन में मुक़द्दस ख़यालात रख दे