और सुनाओ कैसे हो तुम
और सुनाओ कैसे हो तुम ।
अब तक पहले जैसे हो तुम ।
अच्छा अब ये तो बतलाओ
कैसे अपने जैसे हो तुम ।
यार सुनो घबराते क्यूँ हो
क्या कुछ ऐसे वैसे हो तुम ।
क्या अब अपने साथ नहीं हो
तो फिर जैसे तैसे हो तुम ।
ऐशपरस्ती । तुमसे । तौबा ।
मज़दूरी के पैसे हो तुम ।
तपेगा जो
तपेगा जो
गलेगा वो
गलेगा जो
ढलेगा वो
ढलेगा जो
बनेगा वो
बनेगा जो
मिटेगा वो
मिटेगा जो
रहेगा वो
जैसे बाज़ परिन्दों में
जैसे बाज़ परिन्दों में
मेरा क़ातिल अपनों में
अब इंसानी रिश्ते हैं
सिर्फ़ कहानी-किस्सों में
पढ़ना-लिखना सीखा तो
अब हूँ बंद क़िताबों में
मौसम को महसूस करूँ
ख़बरों से अख़बारों में
मेरे पैर ज़मीं पर हैं
ख़ुद हूँ चांद-सितारों में!
तेरा ही तो हिस्सा हूँ
तेरा ही तो हिस्सा हूँ
ये तू जाने कितना हूँ
अपने हाथों हारा हूँ
वरना किसके बस का हूँ
ख़ुद को ही खो बैठा हूँ
मैं अब क्या खो सकता हूँ
जब से अपने जैसा हूँ
सब कहते हैं, धोखा हूँ
आमादा हूँ जीने पर
और अभी तक ज़िंदा हूँ!
मैं था तन्हा एक तरफ़
मैं था तन्हा एक तरफ़
और ज़माना एक तरफ़
तू जो मेरा हो जात
मैं हो जाता एक तरफ़
अब तू मेरा हिस्सा बन
मिलना-जुलना एक तरफ़
यूँ मैं एक हक़ीकत हूँ
मेरा सपना एक तरफ़
फिर उससे सौ बार मिला
पहला लमहा एक तरफ़!
एक सवेरा साथ रह
बच्चे जब होते हैं बच्चे
ख़ुद में रब होते हैं बच्चे
सिर्फ़ अदब होते हैं बच्चे
इक मकतब होते हैं बच्चे
एक सबब होते हैं बच्चे
ग़ौरतलब होते हैं बच्चे
हमको ही लगते हैं वरना
बच्चे कब होते हैं बच्चे
तब घर में क्या रह जाता है
जब ग़ायब होते हैं बच्चे!
तनहा क्या करता बेचारा
तनहा क्या करता बेचारा
उसको सबने मिलकर मारा
वो जिनको मक़रूज़ नहीं था
उसने उनका कर्ज़ उतारा
जीत के लौटा बाहर से तो
उसको उसके घर ने मारा
कब तक टिकता इस बस्ती में
बंजारा ठहरा बंजारा
सूरज,चांद बहुत कुछ लेकिन
भोर का तारा भोर का तारा!
या तो हमसे यारी रख
या तो हमसे यारी रख
या फिर दुनियादारी रख
ख़ुद पर पहरेदारी रख
अपनी दावेदारी रख
जीने की तैयारी रख
मौत से लड़ना जारी रख
लहजे में गुलबारी रख
लफ़्ज़ो में चिंगारी रख
जिससे तू लाचार न हो
इक ऎसी लाचारी रख!
तुमने जो पथराव जिए
तुमने जो पथराव जिए
हमने उनके घाव जिए
बचपन का दोहराव जिए
हम काग़ज़ की नाव जिए
वो हमसे अलगाव जिए
यानी एक अलाव जिए
सुलझाने को एक तनाव
हमने कई तनाव जिए
जिसको मंज़िल पाना है
वो क्या खाक पड़ाव जिए!
मेरे सपनों का किरदार
मेरे सपनों का किरदार
काश कि मिल जाए इक बार
तू भी जीत न पाएगा
और न होगी उसकी हार
घर का मालिक कोई और
हम, तुम सिर्फ़ किरायेदार
अपनी खोज-ख़बर भी ले
पढ़ता रहता है अख़बार
तुझ पर सबकी नज़रें हैं
जाकर अपनी नज़र उतार!
दिल भी वो है, धड़कन भी वो
दिल भी वो है, धड़कन भी वो
चेहरा भी वो, दरपन भी वो
जीवन तो पहले भी था
अब जीवन का दर्शन भी वो
आज़ादी की परिभाषा भी
जनम-जनम का बंधन भी वो
बिंदी की ख़ामोशी भी है
खन-खन करता कंगन भी वो
प्रश्नों का हल भी लगता है
और जटिल-सी उलझन भी वो
वो सितमगर है तो है
वो सितमगर है तो है
अब मेरा सर है तो है
आप भी हैं मैं भी हूँ
अब जो बेहतर है तो है
जो हमारे दिल में था
अब जुबाँ पर है तो है
दुश्मनों की राह में
है मेरा घर, है तो है
एक सच है मौत भी
वो सिकन्दर है तो है
पूजता हूँ मैं उसे
अब वो पत्थर है तो है
झगड़े की कुछ वजह न हो तो
झगड़े की कुछ वजह न हो तो
फिर भी ख़ुद से सुलह न हो तो
मन करता है ख़ुद में झाँकूँ
बाहर कोई जगह न हो तो
मेरी सोच बग़ावत ख़ुद से
इसकी कोई वजह न हो तो
जितना तुमने जाना मुझमें
कुछ भी मेरी तरह न हो तो
कब से एक अदालत में हूँ
लेकिन मुझ पर जिरह न हो तो
आज समन्दर है बेहाल
आज समन्दर है बेहाल
फेंक मछेरे अपना जाल
थम जाएगा यह भूचाल
ऐसा कोई वहम न पाल
जिसको दुनिया पहचाने
ख़ुद की वो पहचान निकाल
तू भी ढूंढ़ न पाएगा
अपने जैसी एक मिसाल
मेरे वापिस आने तक
रखना मेरी साज-सम्भाल
आज निशाने जिन पर हैं
आज निशाने जिन पर हैं
वो सब ज़द से बाहर हैं
पिंजरों में महफ़ूज़ रहे
जितने पंछी बेपर हैं
फूलों की तक़दीरों में
क्यों काँटों के बिस्तर हैं
जीकर ये अहसास हुआ
मरने वाले बेहतर हैं
आँगन में है अँधियारा
चाँद-सितारे छत पर हैं !
आग, हवा, पानी का डर था
आग, हवा, पानी का डर था
हाँ, बेचारा कच्चा घर था
उसका अंबर ही अंबर था
एक दिशा थी और सफ़र था
आज यहाँ है एक हवेली
और यहीं ‘होरी’ का घर था
पाग़ल आँधी की नज़रों में
एक वही बूढ़ा छप्पर था
दोनों की ही मज़बूरी थी
मैं प्यासा था, वो सागर था !
दर्द पुराना है अपने घर
दर्द पुराना है अपने घर
एक खज़ाना है अपने घर
घर में सब कुछ तो अपना है
क्या अपनाना है अपने घर
दुनिया को अपनाने वाला
ख़ुद बेगाना है अपने घर
ख़ुद को बाहर भी देखा है
पर पहचाना है अपने घर
अब तो ख़ुद को देखे-भाले
उसको जाना है अपने घर
क्या दहशत क्या मंज़र है
क्या दहशत क्या मंज़र है
सारा शहर छतों पर है
अफ़साना इतना-भर है
बस इक नाम लबों पर है
आँखों में इक अंबर है
और नज़र धरती पर है
ओढ़ें और बिछा भी लें
घर इतनी तो चादर है
दर चुप है, दीवारें चुप
लगता है, वो घर पर है !
अबके ऐसी चाल चलेगा
अबके ऐसी चाल चलेगा
दुश्मन होकर दोस्त लगेगा
जिस दिन ख़ुद को पहचानेगा
क्या वो अपने साथ रहेगा
कोई बात न होगी लेकिन
मुझसे ढेरों बात करेगा
आख़िर आँखें खुल जाएँगी
सपना कितनी देर चलेगा
मेरी ख़ामोशी का आख़िर
कोई तो मतलब निकलेगा !
अपना पीछा करता जाऊँ
अपना पीछा करता जाऊँ
लेकिन ख़ुद के हाथ न आऊँ
उसकी धुन पर नाचूँ, गाऊँ
यानी उनका दिल बहलाऊँ
उनकी शर्तों पर जीने से
बेहतर होगा, मर ही जाऊँ
उसने मुझको कितना समझा
किस-किसको समझाने जाऊँ
मुझमें कुछ औज़ार छिपे हैं
अब उनको हथियार बनाऊँ !
मैं थोड़ा जल्दी में था
मैं थोड़ा जल्दी में था
वरना ख़ुद को भी लाता
मैं किसको क्या समझाता
कोई भी तो साथ न था
एक पड़ोसी अपना-सा
घर से कितनी दूर मिला
इतने दिन वो साथ रहा
लेकिन उसका नाम-पता !
ख़ामोशी ने जो बोला
मैंने बिल्कुल साफ़ सुना !
सीधी-सादी बात इकहरी
सीधी सादी बात इकहरी।
हम क्या जाने लहजा शहरी।
एक सभ्यता गूंगी बहरी
आकर मेरी बस्ती ठहरी।
जबसे बैठा बाहर प्रहरी
और डरी है घर की देहरी।
मैदानों में सिर्फ कटहरी
रातों उडकर थकी टिटहरी।
कौन दिखाता ख्वाब सुनहरी
अब तक जिंदा बूढी महरी।
जाने किसकी साजिश गहरी
मुझमें लगती रोज कचहरी।
सर पर ठहरी भरी दुपहरी
हाथ न आये छांव गिलहरी।
आज बग़ावत सच कहना
आज बग़ावत सच कहना
मेरी फ़ितरत सच कहना
कैसे बोले झूठ भला
जिसकी आदत सच कहना
आप बचे हैं कहने को
आप तो हज़रत सच कहना
गर उसको अल्फ़ाज़ मिलें
उसकी हसरत सच कहना
चुप रहना मर जाना है
और क़यामत सच कहना !
यूँ चेहरा-दर-चेहरा भी वो
यूँ चेहरा-दर-चेहरा भी वो
लेकिन अपने जैसा भी वो
भीतर बेहद टूटन-बिखरन
बाहर एक करीना भी वो
ख़ुद से एक मुसलसल अनबन
ख़ुद से एक समझौता भी वो
उगते सूरज की गरमाहट
दोपहरी में साया भी वो
ख़ुद में एक फ़कीर मुकम्मल
पुश्तैनी सरमाया भी वो !
जुगनू ही दीवाने निकले
जुगनू ही दीवाने निकले
अँधियारा झुठलाने निकले
ऊँचे लोग सयाने निकले
महलों में तहख़ाने निकले
वो तो सबकी ही ज़द में था
किसके ठीक निशाने निकले
आहों का अंदाज नया था
लेकिन ज़ख़्म पुराने निकले
जिनको पकड़ा हाथ समझकर
वो केवल दस्ताने निकले
मुझको अपने पास बुलाकर
मुझको अपने पास बुलाकर
तू भी अपने साथ रहा कर
अपनी ही तस्वीर बनाकर
देख न पाया आँख उठाकर
बे-उन्वान रहेंगी वरना
तहरीरों पर नाम लिखाकर
सिर्फ़ ढलूँगा औज़ारों में
देखो तो मुझको पिघलाकर
सूरज बनकर देख लिया ना
अब सूरज सा रोज जलाकर
मैं कुछ बेहतर ढूँढ़ रहा हूँ
मैं कुछ बेहतर ढूँढ़ रहा हूँ
घर में हूँ घर ढूँढ़ रहा हूँ
घर की दीवारों के नीचे
नींव का पत्थर ढूँढ़ रहा हूँ
जाने किसकी गरदन पर है
मैं अपना सर ढूँढ़ रहा हूँ
हाथों में पैराहन थामे
अपना पैकर ढूँढ़ रहा हूँ
मेरे क़द के साथ बढ़े जो
ऐसी चादर ढूँढ़ रहा हूँ
तुम हो तो ये घर लगता है
तुम हो तो ये घर लगता है
वरना इसमें डर लगता है
कुछ भी नज़र ना आए मुझको
आईना पत्थर लगता है
उसका मुझसे यूँ बतियाना
सच कहता हूँ डर लगता है
जो ऊँचा सर होता है ना
इक दिन धरती पर लगता है
चमक रहे हैं रेत के ज़र्रे
प्यासों को सागर लगता है
सुन लो जो सय्याद करेगा
सुन लो जो सय्याद करेगा
वो मुझको आज़ाद करेगा
आँखों ने वो कह डाला है
तू को कुछ इरशाद करेगा
एक ज़माना भूला मुझको
एक ज़माना याद करेगा
काम अभी कुछ ऐसे भी हैं
जो वो अपने बाद करेगा
तुझको बिल्कुल भूल गया हूँ
जा तू भी क्या याद करेगा
सारा ध्यान खजाने पर है
सारा ध्यान खजाने पर है
उसका तीर निशाने पर है
अब इस घर के बंटवारे में
झगड़ा बस तहखाने पर है
होरी सोच रहा है उसका
नाम यहाँ किस दाने पर है
सबकी नजरों में हूँ जब से
मेरी आँख जमाने पर है
कांप रहा है आज शिकारी
ऐसा कौन निशाने पर है
मुझको जब ऊँचाई दे
मुझको जब ऊँचाई दे
मुझको जमीं दिखाई दे
एक सदा ऐसी भी हो
मुझको साफ सुनाई दे
दूर रहूँ मैं खुद से भी
मुझको वो तनहाई दे
एक खुदी भी मुझमें हो
मुझको अगर खुदाई दे
ख़ुद से आँख मिलाता है
खुद से आंख मिलाता है
फिर बेहद शरमाता है
कितना कुछ उलझाता है
जब खुद को सुलझाता है
खुद को लिखते लिखते वो
कितनी बार मिटाता है
वो अपनी मुस्कानों में
कोई दर्द छुपाता है
मजदूरी के पैसे हो तुम
और सुनाओ कैसे हो तुम।
अब तक पहले जैसे हो तुम।
अच्छा अब ये तो बतलाओ
कैसे अपने जैसे हो तुम।
यार सुनो घबराते क्यूं हो
क्या कुछ ऐसे वैसे हो तुम।
क्या अब अपने साथ नहीं हो
तो फिर जैसे तैसे हो तुम।
ऐशपरस्ती। तुमसे। तौबा।
मजूदरी के पैसे हो तुम।
तल्ख़ नजारे गांवों में
तल्ख नजारे गांवों में।
रोज हमारे गांवों में।
अक्सर लाशें मिलती हैं
नहर किनारे गांवों में।
गलियों को धमकाते हैं
सब चौबारें गांवों में।
हर मौसम भिखमंगा सा
हाथ पसारे गांवों में।
रैन बसेरा करते हैं
चांद सितारे गांवों में।
ताबीरें शहरों में हैं
सपने सारे गांवों में।
बस अपना ही ग़म देखा है
बस अपना ही गम देखा है।
तूने कितना कम देखा है।
उसको भी गर रोते देखा
पत्थर को शबनम देखा है।
उन शाखों पर फल भी होंगे
जिनको तूने खम देखा है।
खुद को ही पहचान न पाया
जब अपना अल्बम देखा है।
हर मौसम बेमौसम जैसे
जाने क्या मौसम देखा है।
उनसे मिलने जाना है
उनसे मिलने जाना है।
खुद से मिलकर आना है।
सूरज को घर जाने दो
उसको कल फिर आना है।
मुझको सुबह से पहले ही
बस्ती बस्ती जाना है।
जाने किसका खत हूं मैं
नाम पता अनजाना है।
मैं तो अपने साथ रहूं
उसके साथ जमाना है।
एक ज़रा सी दुनिया घर की
एक जरा सी दुनिया घर की
लेकिन चीजें दुनिया भर की
फिर वो ही बारिश का मौसम
खस्ता हालत फिर छप्पर की
रोज सवेरे लिख लेता है
चेहरे पर दुनिया बाहर की
पापा घर मत लेकर आना
रात गये बातें दफ्तर की
बाहर धूप खड़ी है कब से
खिड़की खोलो अपने घर की
चुप रहता था क्या करता
चुप रहता था क्या करता
वो तनहा था क्या करता
कोई भी पहचान नहीं
शहर नया था क्या करता
उसका कोई नाम न था
सिर्फ़ पता था क्या करता
आखिर उसको मौत मिली
सच कहना था क्या करता –
वैसे वो सुकरात न था
जहर बचा था क्या करता
बरसों ख़ुद से रोज ठनी
बरसों ख़ुद से रोज़ ठनी
तब जाकर कुछ बात बनी
वो दोनों हमराह न थे
पर दोनों में खूब छनी
घटना उसके साथ घटे
और लगे मुझको अपनी
इतने दिन बीमार रहा
ऊपर से तनख़ा कटनी
उसने ख़ुद को ख़र्च किया
और बताई आमदनी
अपने मुँह पर ताले रखना
अपने मुँह पर ताले रखना
खुद को आज संभाले रखना
शहर बहुत हैं सूरज तनहा
अपने पास उजाले रखना
खुद से दूर न होना, अपनी
बाँह गले में डाले रखना
देख तुझे उलझाएंगे वो
तू भी प्रश्न उछाले रखना
कल ये पिंजरा ही न रहेगा
कुछ पंछी पर वाले रखना