मैंने मार्क्स को नहीं पढ़ा
कात्यायनी के लिए जो कहती हैं कि आलोकधन्वा ने मार्क्सवाद ठीक से नहीं पढ़ा
मैंने मार्क्स को नहीं पढ़ा
नहीं जानता कि मार्क्सवाद क्या है
मगर कविताएँ लिखता हूँ
ग़लत करता हूँ क्या
कहाँ जाकर दिखाऊँ
अपनी कविताएँ
क्रेमलिन कहाँ है
कहाँ है बीजिंग
उसका रास्ता नागपुर होकर जाता है क्या
कविता के लिए क्यों जरूरी हैं मार्क्स
कोई समझाए मुझे
मैं जहानाबादी गँवार नहीं जानता
कितने मार्क्स मिलेंगे मेरी कविताओं को
अगर वे लिखी गईं मार्क्सवाद ठीक से पढ़े बगैर
क्या मैं फेल हो जाऊँगा
हे मार्क्सवाद के पारंगत
तुम्हें कितने अंक मिले हैं
किस पत्रिका में छपती है मेरिट-लिस्ट
जानना चाहता हूँ
सुना है मार्क्स के कई पाठ हैं
जैसे पार्टियाँ और उनके दफ़्तर
वह उस्ताद कहाँ बैठता है
जिसे जाकर दिखाऊँ
मैं कसौटियों से डरता हूँ
मेरा लिखा खरा तो क्या
सोना भी नहीं
क्या करें वे
जो मेरी तरह मिट्टी की कविताएँ लिखते हैं
अगर अनामिका सोहर लिखे
तो वह किस वाद की कविता कही जाएगी
काम क्या है
मार्क्स क्या कहते हैं
काम के बारे में
कौन-सा वाद निष्काम है
उर्वशी क्यों पतन का काव्य है
क्या उर्वशी का बलात्कार हुआ
वे शब्द जो मेरे जन्म के पहले सृजित हुए
क्या उन्हें जानना
और उनसे एक महल जैसा बड़ा मकान बनाना
क्या विलासिता है केवल
क्या कोई समझा सकता है
कि रूस की सड़के क्यों इतनी चौड़ी हैं
और मास्को क्यों इतना ख़ूबसूरत
क्या रूस का वैभव मार्क्सवादी है
आलोचना क्या है
वह हस्तिनापुर में ही क्यों रहती है
वह चश्मा क्यों पहनती है
क्या वह हमेशा होश में रहती है
कि कभी कवियों की तरह
शराब भी पीती है
किसी को कहते नहीं सुना आज तक
मुक्तिबोध् जी शमशेर जी
अज्ञेय जी भी नहीं
मगर आलोचक के नाम के साथ जी क्यों लगाया जाता है
मैं प्रलेस में नहीं हूँ
न जलेस में
न जसम में
न संघी हूं न समाजवादी
तो क्या मुझे पारपत्र नहीं मिलेगा
क्या मैं उस पंगत में नहीं बैठ सकता
जहाँ बैठते हैं
आलोधन्वा, अरुण कमल और मदन कश्यप
जिनके करीब बैठकर लगता है
मैं अपने भाइयों के बीच में हूँ
यह कैसी गोष्ठी है
जहाँ सिर्फ़ पाठक जा सकते हैं
यह कैसा तमाम है
जिसमें अनपढ़ आम के लिए
कोई जगह नहीं
द्वार पण्डितों से घिरा यह
कैसा प्रदेश है
वर्जित है क्या
मुकुल जी
आपने तो पढ़ा है मार्क्स को
मगर आप यहाँ क्यों हैं
क्यों नहीें मिला पारपत्र आपको
किसी ब्लैक एन्ड व्हाइट पुरस्कार के टीले पर आप क्यों नहीं हैं
मेरी बात और है
मैंने तो मुहब्बत की है
सबसे उन सबसे
जो काव्य की लय में गरजते भूँकते हैं
तुलसी की भक्ति
रहीम की नीति
रसखान की प्रीति
कुछ भी अछूत नहीं
मैं आलोकधन्वा की नींद के लिए
कुमार मुकुल की सुबह के लिए
अरुण कमल के साथ किसी भी नए इलाके में चला जाऊँगा
बगैर पारपत्र
भले नीम रोशनी में मार डाला जाऊँ
गोलियाँ सबको खींचती हैं
बन्दूकों का आकर्षण अमोघ
तभी तक जब तक जंग एक दूरस्थ सम्भावना है
कितने पाठक मार्क्सवाद के तब गए मास्को
जब लेनिन की मूर्ति ढाही जा रही थी
कहोगे हम बुतपरस्त नहीं
वाह रे द्वारपण्डित
जहाँ जीवन की असहायता और राग
वहाँ मूर्ति की कसौटी
जहाँ मूर्ति पर संकट
वहाँ जीवन के नेपथ्य में रियाजे इन्क़लाब
वह जो रस का व्याकरण था
पिंगल और छन्द का व्याकरण था
कविता के गले में पट्टा बन्धता था
और अब यह नया व्याकरण
जीवन के गले में पट्टा बाँधना चाहता है
चलिए मुकुल जी
हमलोग यहीं ठीक हैं
जीवन में भाषा में
यहीं बोलेगे बतियाएँगे
आपस में लोगों से
पार्टी पारपत्र और व्याकरण
और द्वारपण्डितों
की परवाह किए बग़ैर ।
जंगल से भाग आए थे हम आग के डर से
जंगल से भाग आए थे हम आग के डर से
अब शहर जल रहा है, तो चिपके हैं शहर से।
हमको कहाँ यक़ीं था उन्हें देखकर हुआ
मरता नहीं है साँप कभी अपने ज़हर से।
बाज़ार की आँखों से बहुत देख चुके हो
देखो कभी दरख्त को चिड़िया की नज़र से।
मरने के सिवा और भला रास्ता है क्या
पत्थर की जगह आने लगे फूल उधर से।
सबके कहर से उसने बचाया मुझे मगर
अब कौन बचायेगा मुझे उसके कहर से।
माना, मेरा मुह सी दोगे, उसकी जीभ कतर दोगे
माना, मेरा मुह सी दोगे, उसकी जीभ कतर दोगे।
पर अपनी बड़बोली आँखों को कैसे चुप कर दोगे।
पत्थरबाज़ी से नफ़रत है लेकिन मुझको आती है,
उतने तो लौटा ही दूँगा जितने तुम पत्थर दोगे।
लड़नेवालों को बंकर, मर जानेवालों को क़ब्रें
खुद को क्या दोगे जब हथियारों को अपना घर दोगे।
अंधा मूसल, हाथ मशीनी, उल्टा स्विच, शातिर ऊँगली
ऊखल में चांदी के चावल, लालच में तुम सर दोगे।
एक तरफ़ से धन्वन्तरि, दूसरी तरफ़ से तक्षक हो
काट ज़हर का दोगे तुम हँसकर, लेकिन डँसकर दोगे।
बेटी जैसी गोरैया को तुम से यह उम्मीद न थी
पिंजरे के बाहर, ऊपर अम्बर नीचे सागर दोगे।
रच डाला है कैसा रिश्तों का बागीचा कागज़ पर
ओ लिखनेवाले, बोलो, कितने में यह मंज़र दोगे।
जो भी अपनी गांठे ज़्यादा बाँधेगा कम खोलेगा
जो भी अपनी गांठे ज़्यादा बाँधेगा कम खोलेगा।
कुरूक्षेत्र में धर्मराज सा आधा ही सच बोलेगा।
अगर झील में झांक रहे हो तो पानी को मत छेड़ो
दुख होगा जब तेरा चेहरा भी पानी सा डोलेगा।
यह उत्तर आधुनिक ष्वान है, सीमित निष्ठा रखता है
कार निकालेगा जब मालिक साथ हुलसकर हो लेगा।
सस्ता गुड़ ले लेगा मिसरी देने का वादा कर के
लेकिन यह सौदागर मिसरी को शर्बत में घोलेगा।
इस जंगल में एक तराज़ू मालिक जिसका बंदर है
झगड़ोगे तो बंदर रोटी अपने हक़ में तोलेगा।
शक्कर ढोती हुईं चींटियां उसे घिनौनी लगती हैं
लेकिन उनको शक्कर की खातिर पलकों पर ढो लेगा।
सभी बरी हो जाएँगे सूरज की खुली अदालत में
हर मुज़रिम कल सुबह धूप की बारिश में मुंह धो लेगा।
दिन भर कागज़ से खेलेगा मरहम देगा और रात गये
और सितम, बिजली गुल कर देगा फिर ज़ख्म टटोलेगा।
सेंध मारने के सारे औज़ार बेचकर आए हैं
चोर जानते हैं कपाट कोई भीतर से खोलेगा।
सुविधा का यह सागर छीन रहा है नींदों के टापू
तुझे वहम है तू इन आवारा लहरों पर सो लेगा।
अक़ल का कब्ज़ा हटाया जा रहा है
अक़ल का कब्ज़ा हटाया जा रहा है।
जिस्म का जादू जगाया जा रहा है।
लाख पी लो प्यास बुझती ही नहीं है क्या पता क्या-क्या पिलाया जा रहा है।
हर तरफ डाकू बसाए जा रहे हैं वक़्त को बीहड़ बनाया जा रहा है।
हद ज़रूरत की उफ़क़ छूने लगी है क़द ज़रूरत का बढ़ाया जा रहा है।
सोचने से मुल्क बूढ़ा हो गया है सोच से पीछा छुड़ाया जा रहा है।
सख्तजां हैं ये हरे फल हरे पत्ते पेड़ को नाहक हिलाया जा रहा है।
नींद धरती की उड़ाई जा रही है चांद को सोना सिखाया जा रहा है।
साजिशें मुझको गिराने की कहीं हैं क्यों मुझे इतना उठाया जा रहा है।
एक सच के मायने सौ कर लिए मुमकिन जनाब
एक सच के मायने सौ कर लिए मुमकिन जनाब।
झूठ को भी आपसे आने लगी है घिन जनाब।
है ज़रा सी जान पर डरती नहीं हैं आपसे
आप में दुखती हुई रग़ खोज लेगी पिन जनाब।
दर्द सब ज़ख्मी ग़ज़ालों के पके, पत्थर हुए
अब ग़ज़ल नाजुक नहीं है अब नहीं कमसिन जनाब।
आपने जिनको उतारा था ज़हर के घाट कल
आज उनको दूध जब बातें हुईं नागिन जनाब।
चांद क्या टेढ़ा करेगा मुंह हमारे सामने
ढल गया है आज दिल में एक उजला दिन जनाब।
ख़ुदपरस्ती के शज़र पर है सियासत की लतर
ख़ूब ग़ुल खिलते हैं फल आते नहीं लेकिन जनाब।
आग ग़ज़लों को पिलाकर सर्दज़ाँ हो जाइए
आग ग़ज़लों को पिलाकर सर्दज़ाँ हो जाइए।
छप गइ छ: सौ किताबे ओढ़ कर सो जाइए।
क्यों जलेंगे आप भी सीली लकिड़यों की तरह
सीकरी में धूप होगी सूखने को जाइए।
लीजिए यह खास लोगों का इलाका आ गया
खास लोगों की उमड़ती भीड़ में खो जाइए।
पेट से निकले समाये पेट में ये कमनसीब
ये कहीं जाते नहीं इनके लिए तो जाइए।
आपको फिर ज़न्नते दिल्ली में बस जाने का हक़
लौटिए वापस न हरगिज़ इस दफ़ा जो जाइए।
आपकी शह पर कुएँ का जल समूचा पी गयी
आपकी शह पर कुएँ का जल समूचा पी गयी।
लीजिए मरती हुई दीवार फिर से जी गयी।
उठ गया है गाँव से पानी पिलाने का रिवाज़
आपके ही रास्ते पर अपकी बस्ती गयी।
दृष्टि की दुखती दरारों से परेशां हम हुए
आप कहते हैं, नदी की रोशनी बेची गयी।
सोचते ही सोचते तलवार का लोहा गया
देखते ही देखते दरबार की चांदी गयी।
शोर का कर्फ्यू सलीबों पर टँगीं खामोशियाँ
कमसुखन हैं जो समझ लें उनकी आज़ादी गयी।
डुबकियाँ महँगी पड़ीं मुझको सुनहरी झील की
हर ग़ुस्ल के साथ रफ़्तारे क़लम घटती गयी।
साथ हैं डालें, हर पत्ते, खिले गुल, पके फल
जड़ मगर मुश्किल अंधरों में अकेली ही गयी।
मैं नदी का शोर हूँ मैं हूँ परिंदों का बयान
मैं नदी का शोर हूँ मैं हूँ परिंदों का बयान।
काट सकते हो अगर तो काट लो मेरी ज़बान।
मैं अगर मिट्टी महज़ होता दफ़न आसान था
मैं हवा हूँ, रोशनी हूँ छेक लूंगा आसमान।
बिक रहे है खुशनुमा नक्षे खुले बाज़ार में
खेत में उगता नहीं हँसता हुआ हिंदुस्तान।
बह गया ऐय्याश सूरज रात के सैलाब में
रोशनी के नाम पर हैं शेष कुछ जलते मकान।
खा गया गर वक़्त वहशी फूल की नस्लें तमाम
जो किताबों में दबे हैं फूल खोलेंगे ज़ुबान।
फ़ि़क्र बाढ़ों में शहर के डूबने की कब उसे
वह बचाना चाहता बेदाग़ खतरों के निशान।
बढ़ गयीं नज़दीकियाँ पर दूरियाँ घटतीं नहीं
काँच की दीवार है, शायद हमारे दरम्यान।
पंख की खातिर गवां बैठे हैं अपने पाँव हम
छोड़ना भी चाहते हैं अपने क़दमों के निषान।
बेचता हूँ हौसला, हिम्मत, हँसी, हातिमपना
चाहता हूँ लोग आकर लूट लें मेरी दुकान।
शाम के पहले बहुत पहले हुआ सूरज हलाल
शाम के पहले बहुत पहले हुआ सूरज हलाल।
रात से ज़्यादा बड़ा है सुबहे फ़रदा का सवाल।
फ़ैसले की बात है तो राय मेरी पूछ ले आदमी हूँ, यार सिक्क़ों की तरह तो मत उछाल।
इस चमक में आग भी है जल न जाए तू कहीं खुश बहुत है तू अगर तो आँख से आँसू निकाल।
रोशनी का जुर्म है मुजरिम नहीं है दीदवर खींच सकता है अगर तो रोशनी की खींच खाल।
आईना है तू शहर के लोग है ख़ुद आषना।
मुतमइन रह लोग कर देंगे तुम्हारी देखभाल।
रोशनी में जो खड़े हैं रोशनी उनसे नहीं रोशनी जिनसे पड़े हैं वे अंधेरे में निढाल।
सब मरेंगे सेब, सपने, चांद, पानी और तू कश्तियाँ अपनी जलाकर झील को अब मत उबाल।
रुक सकेंगे ये परिंदे सिर्फ दो हालात में आसमां को मूँद दे या पंख इनके काट डाल।
आततायी जल हटाना चाहते हैं बुलबुले
आततायी जल हटाना चाहते हैं बुलबुले।
हाँ, हवा के साथ जाना चाहते हैं बुलबुले।
कसमसाती झील की सारी कसावट तोड़कर
ताज़गी जल में घुलाना चाहते हैं बुलबुले।
मृत मिथक की जलपरी के गलफड़े से छूटकर
हर किसी के हाथ आना चाहते हैं बुलबुले।
आपने मिटते हुए देखा मगर बनते नहीं
बारहा बन कर दिखाना चाहते हैं बुलबुले।
हाथ होते तो क्षितिज छूकर दिखा देते ज़रूर
सिर्फ पानी पर न छाना चाहते हैं बुलबुले।
कानवालों से गुज़ारिश है कि साहिल तक चलें
राज़ पानी के बताना चाहते हैं बुलबुले।
हो गए तालाब बूढ़े और बूढ़ी आदतें
जिंदगी भर गुड़गुड़ाना चाहते हैं बुलबुले।
आज भूली भैरवी गाती हुई इस भोर में
क्या पता किसको बुलाना चाहते हैं बुलबुले।
जहाँ बर्फ की निर्मम परती रहती है
जहाँ बर्फ की निर्मम परती रहती है।
मित्र, वहाँ भी अपनी धरती रहती है।
पर्वत-पर्वत पर बिछता रहता अपना जल
जब भी उसकी ऊष्मा मरती रहती है।
अम्मा के सपने में आँधी आती थी
बेटी आँधी के कष भरती रहती है।
सन्नाटे मिलते हैं शोर शराबे में
तनहाई तो बातें करती रहती है।
कल से कल तक जाती हुई सदानीरा
जाने क्यों प्यासों से डरती रहती है।
विद्वानों को हज़म न होगी वे घासें
जिन्हें ग़ज़ल बकरी सी चरती रहती है।
रिसता रहता है सुरंग में मीठा जल
और ट्रेन सी प्यास गुज़रती रहती है।
चांद से नाराज़ हूँ मैं, चांद है मुझ से ख़फ़ा
चांद से नाराज़ हूँ मैं, चांद है मुझ से ख़फ़ा।
देखिए अब क्या निकलता है सुलह का रास्ता।
चांदनी का चांद ने सौदा किया मैं चुप रहा
चांद ग़ैरों से बुरा मैं भी कहाँ अपना हुआ।
ख़त्म होगा एक दिन गूंगे अंधरों का सफ़र
चांदनी से पूछिएगा ज़ुर्म था किसका बड़ा।
रोशनी जैसी हँसी, ताज़ा गुलाबों सा वज़ूद
वस्ल से ज़्यादा हसीं है यह महकता फ़ासला।
एक ही ख्वाहिश कि मेरे बाद सब पूछें सवाल
आग के दरबार में पानी सरीखा कौन था।
चाहते हो वापसी तो छोर पर लटके रहो
अब नहीं होता सियासत के सफ़े पर हाशिया।
सांस की मानिंद मामूली हवा के साथ है
रोज़ पड़ता है ग़ज़ल का आँधियों से साबका।
वक़्त की रफ़्तार में खोयी रदीफे़ जिंदगी
आइये मिलकर बचायें धड़कनों का काफ़िया।
क्या इसमें अब सिज़दा करना
क्या इसमें अब सिज़दा करना, उसमें शीश झुकाना क्या।
दोनों बने हुए हैं मोहरे क्या मिस्ज़द, बुतखाना क्या।
दोनों की आँखों में लालच दोनों के दिल में हथियार
फोटो खिंचवाने कि ख़ातिर हँस कर हाथ मिलाना क्या।
खेतों ने फसलें खोयी हैं लेकिन कोख सलामत है
चिडियों ने जब चुगा नहीं है तुमको तो पछताना क्या।
सच का सूरज नहीं डूबता आँख फेर लेते हैं हम
है सबको यह बात पता अब इसको राज़ बनाना क्या।
लाख हसीन बहाने हों पर तुमको जे़ब नहीं देते
आना था तो आ ही जाते जाते-जाते आना क्या।
दरवाज़े हो गए मुक़फ्फ़ल, हर खिड़की दीवार हुई
तोड़े बिना नहीं निकलोगे चाहोगे मर जाना क्या।
सुख जीवन में ऐसे आता है जैसे पानी में चांद
कहते हैं अनुभवी मछेरे इस धन पर इतराना क्या।
अब फ़िक़रों में फ़ँसने और फँसाने से परहेज़ इसे
फ़िक्रें बदल गयीं शायर की अब उसको समझाना क्या।
लगी है आग हवाओं से बात करता है
लगी है आग हवाओं से बात करता है।
मेरे जुनू का परिंदा उड़ान भरता है।
बुझी ज़मीन पर सूरज उतारने के लिए
हवा में राह बनाता हुआ गुज़रता है।
वो आईना भी बिखरता है टूटकर दिल सा
कि जिसको देखकर ऐ जिस्म तू संवरता है।
लहू लिये हो कि पानी लिए हो सीने में
कभी भी वक़्त का दरिया नहीं ठहरता है।
बिकाऊ कश्तियाँ ठंडे लहू की झीलों में
निगाह डालने में चांद तक सिहरता है।
उठी है लाश सुनहरी गली से फिर यारो
यहाँ गुलाब के कूचे में कौन मरता है।
उफ़क़ को देखकर दिल में ख़याल उठता है
कि जो है आसमाँ वह भी कहीं उतरता है।
हम अपनी बाग़ी चीखों के चलते जो मशहूर हुए
हम अपनी बाग़ी चीखों के चलते जो मशहूर हुए।
ख़ंज़र से कुछ ज़ख्म मिले थे, नश्तर से नासूर हुए।
हम भी मालिक तुम भी मालिक, हर मालिक के मालिक भी
जाने किस मालिक की रहमत से खट्टे अंगूर हुए।
ज़िंदा रहते तो सुरंग में कोई दिया जला लेते
रूहानी ताक़त के झांसे में मरकर मज़बूर हुए।
जिन पर बैठ कभी वे गुम्बद होने का सुख पाते थे
दहशत की उन मीनारों से गिरकर चकनाचूर हुए।
बुझे नहीं कह कर दादी ने सच की जो सिगड़ी दी थी
उसे जलाए रखने की कोशिश में कई क़सूर हुए।
‘क’ से पहले कौन बोलता हूँ तब कहता हूँ काकी
पास हुई हैं जबसे दीवारें, दरवाज़े दूर हुए।
बँधने के राज़ीनामे से बँधी नदी की कौन सुने
बहने लगी इशारे पर तो नखरे नामंज़ूर हुए।
भुज की भुजा उठाकर पूछ रहा हूँ पालनहारों से
दिन ही क्या बीते थे मेरे सीने में लातूर हुए।
ऊंची उलटबाँसियाँ वाले बाँस पकड़ कर उलट गए
कुछ दल-दल के दास हुए बाक़ी सत्ता के सूर हुए।
दावे कहाँ तोड़ पाते हैं दाँत समय की आरी के
कटने तक कैलाश कई थे, कटते ही काफ़ूर हुए।
हौदे में बैठे कानों को अंधे अच्छे लगते हैं
जिनके सपनों के हाथी में बैठे और हुज़ूर हुए।
छत तक जाना कभी नहीं है छत पर जाना या होना
जो भी क्षत्रप हुए छतों के सीढ़ी के तंदूर हुए।
आ गया सूरज बहुत नज़दीक अब कुछ सोचिए
आ गया सूरज बहुत नज़दीक अब कुछ सोचिए।
आँख रौशन और दिल तारीक़ अब कुछ सोचिए।
आप के हम्माम मलमल के चंदोवे क्यों हुए छत दरो दीवार क्यों बारीक़ अब कुछ सोचिए।
आपकी ईमानदारी भी कमीज़ें तय करें बात कुछ लगती नहीं है ठीक अब कुछ सोचिए।
यह करिष्मा सिर्फ बातों से नहीं होगा जनाब तोड़नी है चुप्पियों की लीक अब कुछ सोचिए।
कठघरे में धूप, जकड़ी बेडियों में चांदनी है धुएँ के हाथ में तहक़ीक़ अब कुछ सोचिए।
आपने गर्दन झुकायी थी अक़ीदत से मगर तन गयी तलवार सी तौफ़ीक़ अब कुछ सोचिए।
तेरी आँख नम तू बुझा हुआ
तेरी आँख नम तू बुझा हुआ तुझे क्या किसी की तलाश है।
तू मुझे जला ले चिराग़ सा तुझे रोशनी की तलाश है।
तुझे रोशनी की तलाश है तुझे देखना है जहान को
मुझे कोख होना क़बूल है, मुझे तीरग़ी की तलाश है।
मुझे खुशबुओं की तलाश थी, मैं गुलों के पास नहीं गया
वही जाके नोचे गुलाब को जिसे पंखुड़ी की तलाश है।
जहाँ हँस सकूँ, जहाँ रो सकूँ, जहाँ लम्बी तान के सो सकूँ
जहाँ अपनी बातों को बो सकूँ, मुझे उस ज़मीं की तलाश है।
जहाँ खो सकूँ, जहाँ पा सकूँ, जहाँ दोस्त सबको बना सकूँ
जहाँ पहला शेर सुना सकूँ, मुझे उस गली की तलाश है।
जिसे पी सकूँ, जिसे जी सकूँ, जो फटे अगर तो मैं सी सकूँ
पसे ज़िंदगी मैं पडा हुआ मुझे जिं़दगी की तलाश है।
जो चढे़ तो उतरे बिखर-बिखर कि ज़मीन जाए संवर-संवर
जिसे सागरों की तलब नहीं उसे मुझे उस नदी की तलाश है।
जो शुरू हो आबे हयात से जो खतम हो बाग़े निषात में
जहाँ खंजरों का चलन न हो मुझे उस सदी की तलाश है।
तू जहाँ कहेगा झुकाओ सर, वहाँ सर कभी न झुकाएँगें
वो ख़ुदा नहीं न वो देवता जिसे बंदगी की तलाश है।
ज़हरवाले न हों कोई जगह ऐसी नहीं होती
ज़हरवाले न हों कोई जगह ऐसी नहीं होती।
कहीं जंगल नहीं होता, कहीं बस्ती नहीं होती।
छतों के बीच अम्बर छेंकने की जंग छिड़ती है
पहल जब आसमां को छत बनाने की नहीं होती।
अमीरी का सफ़र बाहर, फ़कीरी का सफ़र भीतर
किसी लम्बे सफ़र की रहगुज़र सीधी नहीं होती।
खुशी खरगो श है, शा तिर हवा है, शेख चिड़िया है
खुशी लंगड़ी भिखारिन सी कहीं बैठी नहीं होती।
नयी मिट्टी, नया पानी, मछलियों के नये कुनबे
नदी बासी नहीं होती, नदी बूढ़ी नहीं होती।
न तो अम्बर पिघलता है न दरिया खून रोता है
दिलों के डूबने की शाम सतरंगी नहीं होती।
न दिल बनते न ज़ाँ बनते, दिलोज़ाँ से न माँ बनते
हमारी गोद में ग़र फूल सी बेटी नहीं होती।
अमा तुम चोंचले छोड़ो हमें भी सांस लेने दो
किसी के सांस लेने से हवा जूठी नहीं होती।
स्याहियों में घुली फिज़ा मानो
स्याहियों में घुली फिज़ा मानो।
चांद उल्टा हुआ तवा मानो।
साँस लेता नहीं कहीं कोई
हो गई है हवा हवा मानो।
सब दुखों का इलाज है अंतिम
राम के वाण को दवा मानो।
सच बताने की क़सम खाता है
क़त्ल उस शख़्स का हुआ मानो।
पहले ख़ुद को अगस्त्य में बदलो
तब किसी झील को कुआँ मानो।
क्या पता क्या उगल गया सूरज
आँख में भर गया धुआँ मानो।
एक इल्ज़ाम सर गया मेरे
बोझ दिल से उतर गया मानो।
एक क़तरा भी जहाँ बेमौत मारा जाएगा
एक क़तरा भी जहाँ बेमौत मारा जाएगा।
जायज़ा लेने वहाँ दरिया दुबारा जाएगा।
आदमी के फ़ल्सफ़े दरिया समझ सकता नहीं
आपका हर लफ़्ज़ पानी से सुधारा जाएगा।
तोड़ता हूँ रोज़ गांधी को ज़रा सा खीझकर
कह गए थे, नाम मेरा भी पुकारा जाएगा।
सब ज़मीनें तो नहीं हमने बुहारीं आज तक
अहद है, अब आसमानों को बुहारा जाएगा।
छटपटाएंगे तुम्हारे हाथ सोने के लिए
ज़हन में पिघला हुआ सोना उतारा जाएगा।
तख़्त के नीचे पड़े उस एक बटुए के लिए
सोच भी सकते नहीं थे, ताज हारा जाएगा।
सब दिए देने लगे शातिर अंधेरों को पनाह
अब इन्हीं की रोशनी में चांद मारा जाएगा।
जंग की तैयारियाँ होने लगीं
जंग की तैयारियाँ होने लगीं।
फौज़ में बीमारियाँ होने लगीं।
यूँ समिझए जंग के दिन आ गए
दुश्मनों से यारियाँ होने लगीं।
चांद तन्हा चांद के आशिक हज़ार
इश्क में हो ऐय्यारियाँ होने लगीं।
धूप क्यों पीती नहीं है कोहरा
क़त्ल की लाचारियाँ होने लगीं।
सच कटीला था मगर कल मर गया
ख़ूब दावेदारियाँ होने लगीं।
इक बियाबान में सपनों के सफ़र होता है
इक बियाबान में सपनों के सफ़र होता है।
देख लेना सुबह चेहरे पे असर होता है।
लैला मजनू सी मुहब्बत है मुझे दुनिया से
चोट लगती है उधर, दर्द इधर होता है।
साँप बाज़ार में आए हैं देखने के लिए
कैसा इंसान के दातों का ज़हर होता है।
छत फ़लक, फर्श ज़मीं और उफ़क़ दीवारें
बेघरों के लिए अल्लाह का घर होता है।
‘स’ सियासत की सुने ‘च’ को लगे चाल भली
सच को अंदर से बिखर जाने का डर होता है।
दिल कटे खेत में मुस्तैद वह बिजूका है
जिसकी यादों में परिंदों का शहर होता है।
दूध के धोए दरिंदों की हुक़ूमत का दौर
अब कहाँ कांधे पर अब हाथ पर सर होता है।
क्या विरासत की नुमाइश है, क्या सदाक़त है
तख़्त चांदी का है, खादी से कवर होता है।
नम अंधेरे से निकलती है दबे पाँव ग़ज़ल
रोज़ जब रात को बारह का गजर होता है।
(फ़ैज़ और दुष्यन्त कुमार के लिए)
संतों ने साहिबान ने छोटा किया मुझे
संतों ने साहिबान ने छोटा किया मुझे।
मलवा हुए मकान ने छोटा किया मुझे।
यह ज़ुर्म किया ज़ुर्म की मुखालफ़त न की
इस ज़ु़र्म की थकान ने छोटा किया मुझे।
कुछ क़द खरीदने के लिए जब भी गया मैं
रब की बड़ी दुकान ने छोटा किया मुझे।
सबसे बड़ी लकीरे सुख़न खींच रहा था
खुद से बड़े बयान ने छोटा किया मुझे।
कुछ अपनी तबीयत को दलदलों से था लगाव
कुछ तेरे आसमान ने छोटा किया मुझे।
छोटा हूँ सर झुका के मगर अब उठाऊंगा
अब के जो मेहरबान ने छोटा किया मुझे।
ज़िद में बसने की भटकना होगा अब बसेरा कहीं नहीं दिखता
ज़िद में बसने की भटकना होगा अब बसेरा कहीं नहीं दिखता।
बात करते हो तुम फुफेरों की जब चचेरा कहीं नहीं दिखता।
जिस पिटारी का खोलता हूं मुंह सांप फन काढ़े हुए दिखते हैं
जिसने सांपों को बसाया हरसू वह संपेरा कहीं नहीं दिखता।
अब न आँखों में नमी आती है, बर्फ़ भीतर से जमी आती है
तू है मेरा मगर न मैं तेरा कुछ भी तेरा कहीं नहीं दिखता।
जिसके पकने से फ़लक फबता था, जिसके फटने से सुबह होती थी
जिस अंधेरे में कुछ हरापन था वह अंधेरा कहीं नहीं दिखता।
फ़ौज, हाक़िम, वज़ीर, शहंशाह सब हैं आगाह और हैं मुस्तैद
लम्हा लम्हा है ख़बर है लुटने की पर लुटेरा कहीं नहीं दिखता।
मौत से था डर जिन्हें सब घर गए
मौत से था डर जिन्हें सब घर गए।
क्या पता ज़िन्दा बचे या मर गए।
हारने वाले शरीक़े जंग है जीतने वाले उधर डर कर गए।
थी वजह कोई हुए मुजरिम फ़रार जेल में उठते हुए कुछ सर गए।
सर फ़लक लौटा दिये सरकार ने मुफ़्त में इन पंछियों के पर गए।
लीजिए अब खेल का खुलकर मज़ा कुछ नियम मैदान से बाहर गए।
खून ताज़ा ज़ख्म का मरहम हुआ ज़ख्म थे जितने पुराने भर गए।
वो ग़ज़ल जो कह न पाएँगे कभी नस्ले नौ के नाम उसको कर गए।
दे गई है पाक पुड़ियों में ज़हर तिरछी हँसी
दे गई है पाक पुड़ियों में ज़हर तिरछी हँसी।
अब हंसेगा आपका सीधा शहर तिरछी हँसी।
स्याह बादल से ढंके हैं आजकल सातों फ़लक
है ख़ुदा के होठ पर आठों पहर तिरछी हँसी।
बेचने वाले इसे पर्वत बनाने लग गए
दे गयी सरसों बराबर एक डर तिरछी हँसी।
जोंक है डालो पसीने का नमक मारो इसे
मार सकती है लहू को चूसकर तिरछी हँसी।
ख़ूब भाते हैं इसे जनतंत्र के ढीले लिबास
फैल सकती है कि जिसमें उम्र भर तिरछी हँसी।
छेद कर हर जिल्द को दिल का लहू पीने लगी
होठ से झरकर गिरी थी कोट पर तिरछी हँसी।
फिर रहे हैं माँगते दिलक़श ठहाके ठौर अब
कर गई अच्छे मकीं को दर ब दर तिरछी हँसी।
प्यास बाँटी, कुएँ बेचे, दे गयी है फाव में
अक्ल को मेढ़क बनाने का हुनर तिरछी हँसी।
उफ़ ख़बर लेती नहीं है और देती भी नहीं
पर सितम यह रोज़ बनती है ख़बर तिरछी हँसी।