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विनोद कुमार शुक्ल की रचनाएँ

कोई अधूरा पूरा नहीं होता

कोई अधूरा पूरा नहीं होता
और एक नया शुरू होकर
नया अधूरा छूट जाता
शुरू से इतने सारे
कि गिने जाने पर भी अधूरे छूट जाते

परंतु इस असमाप्त –
अधूरे से भरे जीवन को
पूरा माना जाए, अधूरा नहीं
कि जीवन को भरपूर जिया गया

इस भरपूर जीवन में
मृत्यु के ठीक पहले भी मैं
एक नई कविता शुरू कर सकता हूं
मृत्यु के बहुत पहले की कविता की तरह
जीवन की अपनी पहली कविता की तरह

किसी नए अधूरे को अंतिम न माना जाए ।

जब बाढ़ आती है

जब बाढ़ आती है
तो टीले पर बसा घर भी
डूब जाने को होता है
पास, पड़ोस भी रह रहा है
मैं घर को इस समय धाम कहता हूं
और ईश्वर की प्रार्थना में नहीं
एक पड़ोसी की प्रार्थना में
अपनी बसावट में आस्तिक हो रहा हूं
कि किसी अंतिम पड़ोस से
एक पड़ोसी बहुत दूर से
सबको उबारने
एक डोंगी लेकर चल पड़ा है

घर के ऊपर चढाई पर
मंदिर की तरह एक और पड़ोसी का घर है

घर में दुख की बाढ़ आती है ।

उपन्‍यास में पहले एक कविता रहती थी

अनगिन से निकलकर एक तारा था।
एक तारा अनगिन से बाहर कैसे निकला था?
अनगिन से अलग होकर
अकेला एक
पहला था कुछ देर।
हवा का झोंका जो आया था
वह भी था अनगिन हवा के झोंकों का
पहला झोंका कुछ देर।
अनगिन से निकलकर एक लहर भी
पहली, बस कुछ पल।
अनगिन का अकेला
अनगिन अकेले अनगिन।
अनगिन से अकेली एक-
संगिनी जीवन भर।

अपने अकेले होने को

अपने अकेले होने को
एक-एक अकेले के बीच रखने
अपने को हम लोग कहता हूँ।
कविता की अभिव्यक्ति के लिए
व्याकरण का अतिक्रमण करते
एक बिहारी की तरह कहता हूँ
कि हम लोग आता हूँ
इस कथन के साथ के लिए
छत्तीसगढ़ी में- हमन आवत हन।

तुम हम लोग हो
वह भी हम लोग हैं।

यह दिन उम्र की रोज़ी है

यह दिन उम्र की रोज़ी है
एक सुभ हुई की तन्ख़ा मिली
और शाम हुई में खर्च हुई
अगले दिन का क्या पता
इस क्या पता दिन की भी सुबह हुई
यह उधारी हुई।
मित्रो, दिनों के उधार को
मैं दूसरों के जीवन से बहुत प्रेम कर चुक दूंगा।
परंतु हम सभी के आजकल के दिनों की यह लूट और हत्या की रपट है
कि मैं किसी भी दिन को जैसे उन्नीस फ़रवरी के दिन को
कविता के रोजनामचे में दर्ज़ कराता हूँ।

राजिम का विष्णु-मंदिर

राजिम का वह आठवीं शताब्दी का
विष्णु-मन्दिर है
गर्भ-गृह में विष्णु को सबने दूर से प्रणाम किया

मन्दिर के मंडप में
दुर्गा की मूर्त्ति है
कठोर पत्थर की अत्यन्त सुन्दर
अंदर से कोमल हो सम्भवत: ।

सबने दुर्गा की प्रतिमा का
चरण-स्पर्श किया
कुछ ने माथा टेका
मैंने देखा
प्रतिमा के पैरों की उंगलियाँ
माथा टेकने और चरण-स्पर्श से
घिसकर चिकनी और सपाट हो चुकी हैं
इसमें मन ही मन का चरण-स्पर्श
और दूर का माथा टेकना भी शामिल है।

विष्णु की प्रतिमा को
समीप से नहीं देख पाया।

अब इस उम्र में हूँ

अब इस उम्र में हूँ
कि कोई शिशु जन्म लेता है
तो वह मेरी नातिनों से भी छोटा होता है

संसार में कोलाहल है
किसी ने सबेरा हुआ कहा तो
लड़का हुआ लगता है
सुबह हुई ख़ुशी से चिल्लाकर कहा
तो लड़की हुई की ख़ुशी लगती है

मेरी बेटी की दो बेटियाँ हैं
सबसे छोटी नातिन जाग गई
जागते ही उसने सुबह को
गुड़िया की तरह उठाया

बड़ी नातिन जागेगी तो
दिन को उठा लेगी।

जगह-जगह रुक रही थी यह गाड़ी 

जगह-जगह रुक रही थी यह गाड़ी,
बिलासपुर में समाप्त होने वाली
छत्तीसगढ़ में सवार था।

अचानक गोदिया में
सभी यात्री उतर गए
और दूसरी कलकत्ता तक जाने वाली
आई गाड़ी में चढ़ गए।

एक मुझ से अधिक बूढ़े यात्री ने
उतरते हुए कहा
‘तुम भी उतर जाओ
अगले जनम पहुँचेगी यह गाड़ी’

मुझे जल्दी नहीं थी
मैं ख़ुशी से गाड़ी में बैठा रहा
मुझे राजनांदगाँव उतरना था
जहाँ मेरा जन्म हुआ था।

चार पेड़ के

चार पेड़ों के
एक-दूसरे के पड़ोस की अमराई
पेड़ों में घोंसलों के पड़ोस में घोंसले
सुबह-सुबह पक्षी चहचहा रहे थे
यह पड़ोसियों का सहगान है-
सरिया-सोहर की गवनई।

पक्षी,
पक्षी पड़ोसी के साथ
झुंड में उड़े।
परन्तु मेरी नींद
एक पड़ोसी के नवजात शिशु के रुदन से खुली।

यह नवजात भी दिन
सूर्य दिन को गोद में लिए है
सूर्य से मैंने दिन को गोद में लिया।

कहीं जाने का मन होता है

कहीं जाने का मन होता है
तो पक्षी की तरह
कि संध्या तक लौट आएँ।
एक पक्षी की तरह जाने की दूरी!
सांध्य दिनों में कहीं नहीं जाता
परन्तु प्राण-पखेरू?

पहाड़ को बुलाने

पहाड़ को बुलाने
‘आओ पहाड़’ मैंने नहीं कहा
कहा ‘पहाड़, मैं आ रहा हूँ।
पहाड़ मुझे देखे
इसलिए उसके सामने खड़ा
उसे देख रहा हूँ।
पहाड़ को घर लाने
पहाड़ पर एक घर बनाऊंगा
रहने के लिए एक गुफ़ा ढूँढूंगा
या पितामह के आशीर्वाद की तरह
चट्टान की छाया
कहूंगा यह हमारा पैतृक घर है।

घर-बार छोड़कर संन्यास नहीं लूंगा

घर-बार छोड़कर संन्यास नहीं लूंगा
अपने संन्यास में
मैं और भी घरेलू रहूंगा
घर में घरेलू
और पड़ोस में भी।

एक अनजान बस्ती में
एक बच्चे ने मुझे देखकर बाबा कहा
वह अपनी माँ की गोद में था
उसकी माँ की आँखों में
ख़ुशी की चमक थी
कि उसने मुझे बाबा कहा
एक नामालूम सगा।

कक्षा के काले तख़्ते पर सफ़ेद चाक से बना

कक्षा के काले-तख़्ते पर सफ़ेद चाक से बना
फूलों का गमला है
वैसा ही फूलों का गमला
फ़र्श पर रखा है-
लगेगा कि गमले को देखकर
काले-तख़्ते का चित्र बनाया गया हो
जबकि चित्र को देखकर हूबहू वैसा ही हुआ गमला

फ़र्श पर रखा है
गहरी नदी के स्थिर जल में
उसका प्रतिबिम्ब है
वह नहीं है जबकि
जल में प्रतिबिम्ब देख रहा हूँ।

वह आई बाद में-
प्रतिबिम्ब के बाद में।
अपने प्रतिबिम्ब को देखकर
वह सजी सँवरी
प्रतिबिम्ब में उसके बालों में
एक फूल खुँसा है।

परन्तु उसके बालों में नहीं।
मैंने सोचा काले-तख़्ते के चित्र से
फूल तोड़कर उसके बालों में लगा दूँ
या गमले से तोड़कर
या प्रतिबिम्ब से।

प्रेम की कक्षा में जीवन-भर अटका रहा।

तीनों, और चौथा केन्द्र में 

तीनों, और चौथा केन्द्र में
उसी की घेरे-बन्दी का वृत्त
तीनों वृत्त के टुकड़े थे फरसे की तरह
धारदार तीन गोलाई के भाग
तीनों ने तीन बार मेरा गला काटना चाहा
उन्हें लगता था कि मेरा सिर तना है
इसलिए सीमा से अधिक ऊँचाई है
जबकि औसत दर्ज़े का मैं था।

वे कुछ बिगाड़ नहीं सके
मेरा सिर तीन गुना और तना
उनकी घेरेबन्दी से बाहर निकलकर।

फ़िल्म का एक दृश्य मुझे याद आया
एक सुनसान कबाड़ी गोदाम के
बड़े दरवाज़े को खोलकर
मैं लड़खड़ाता हुआ गुंडों से बचकर निकला हूँ

लोग बाहर खड़े मेरा इंतज़ार कर रहे हैं
पत्नी कुछ अलग रुआँसी खड़ी है
सबसे मिल कर मैं बाद में उससे मिला
वह रोते हुए मुझ से लिपट गई।

अब कभी मिलना नहीं होगा ऎसा था

अब कभी मिलना नहीं होगा ऎसा था
और हम मिल गए
दो बार ऎसा हुआ

पहले पन्द्रह बरस बाद मिले
फिर उसके आठ बरस बाद

जीवन इसी तरह का
जैसे स्थगित मृत्यु है
जो उसी तरह बिछुड़ा देती है,
जैसे मृत्यु

पाँच बरस बाद तीसरी बार यह हुआ
अबकी पड़ोस में वह रहने आई
उसे तब न मेरा पता था
न मुझे उसका।

थोड़ा-सा शेष जीवन दोनों का
पड़ोस में साथ रहने को बचा था

पहले हम एक ही घर में रहते थे।

जब मैं भीम बैठका देखने गया

जब मैं भीम बैठका देखने गया
तब हम लोग साथ थे।

हमारे सामने एक लाश थी

एक खुली गाड़ी में.
हम लोग उससे आगे नहीं जा पा रहे थे.
जब मैं उससे आगे नहीं जा पा रहे थे.
तब हम सब आगे निकल गये.
जब मैं भीम बैठका पहुँचा
हम सब भीम बैठका पहुँच गये.
चट्टानों में आदिमानव के फुरसत का था समय
हिरण जैसा, घोड़े बंदरों, सामूहिक नृत्य जैसा समय.
ऊपर एक चट्टान की खोह से कबूतरों का झुंड
फड़फड़ाकर निकला
यह हमारा समय था पत्थरों के घोंसलों में –
उनके साथ
जब मैं लौटा
तब हम लोग साथ थे.
लौटते हुए मैंने कबूतरों को

चट्टानों के घोंसलों में लौटते देखा.

आकाश से उड़ता हुआ

आकाश से उड़ता हुआ
एक छोटा सा हरा तोता
( गोया आकाश से
एक हरा अंकुर ही फूटा है. )
एक पेड़ में जाकर बैठ गया.
पेड़ भी ख़ूब हरा भरा था.
फ़िर तोता मुझे दिखाई नहीं दिया
वह हरा भरा पेड़ ही दिखता रहा.

आकाश की तरफ़

आकाश की तरफ़
अपनी चाबियों का गुच्छा उछाला
तो देखा
आकाश खुल गया है
ज़रूर आकाश में
मेरी कोई चाबी लगती है!
शायद मेरी संदूक की चाबी!!

खुले आकाश में
बहुत ऊँचे
पाँच बममारक जहाज
दिखे और छुप गए
अपनी खाली संदूक में
दिख गए दो-चार तिलचट्टे
संदूक उलटाने से भी नहीं गिरते!

मैं दीवाल के ऊपर 

मैं दीवाल के ऊपर
बैठा
थका हुआ भूखा हूँ
और पास ही एक कौआ है
जिसकी चोंच में
रोटी का टुकड़ा
उसका ही हिस्सा
छीना हुआ है
सोचता हूँ
की आए!
न मैं कौआ हूँ
न मेरी चोंच है –
आख़िर किस नाक-नक्शे का आदमी हूँ
जो अपना हिस्सा छीन नहीं पाता!!

बोलने में कम से कम बोलूँ 

बोलने में कम से कम बोलूँ
कभी बोलूँ, अधिकतम न बोलूँ
इतना कम कि किसी दिन एक बात
बार-बार बोलूँ
जैसे कोयल की बार-बार की कूक
फिर चुप ।

मेरे अधिकतम चुप को सब जान लें
जो कहा नहीं गया, सब कह दिया गया का चुप ।
पहाड़, आकाश, सूर्य, चंद्रमा के बरक्स
एक छोटा सा टिम-टिमाता
मेरा भी शाश्वत छोटा-सा चुप ।

ग़लत पर घात लगाकर हमला करने के सन्नाटे में
मेरा एक चुप-
चलने के पहले
एक बंदूक का चुप ।

और बंदूक जो कभी नहीं चली
इतनी शांति का
हमेशा-की मेरी उम्मीद का चुप ।

बरगद के विशाल एकांत के नीचे
सम्हाल कर रखा हुआ
जलते दिये का चुप ।

भीड़ के हल्ले में
कुचलने से बचा यह मेरा चुप,
अपनों के जुलूस में बोलूँ
कि बोलने को सम्हालकर रखूँ का चुप ।

जितने सभ्य होते हैं

जितने सभ्य होते हैं
उतने अस्वाभाविक ।

आदिवासी जो स्वाभाविक हैं
उन्हें हमारी तरह सभ्य होना है
हमारी तरह अस्वाभाविक ।

जंगल का चंद्रमा
असभ्य चंद्रमा है
इस बार पूर्णिमा के उजाले में
आदिवासी खुले में इकट्ठे होने से
डरे हुए हैं
और पेड़ों के अंधेरे में दुबके
विलाप कर रहे हैं

क्योंकि एक हत्यारा शहर
बिजली की रोशनी से
जगमगाता हुआ
सभ्यता के मंच पर बसा हुआ है ।

अभी तक बारिश नहीं हुई 

अभी तक बारिश नहीं हुई
ओह! घर के सामने का पेड़ कट गया
कहीं यही कारण तो नहीं ।

बगुले झुँड में लौटते हुए
संध्या के आकाश में
बहुत दिनों से नहीं दिखे
एक बगुला भी नहीं दिखा
बचे हुए समीप के तालाब का
थोड़ा सा जल भी सूख गया
यही कारण तो नहीं ।

जुलाई हो गई
पानी अभी तक नहीं गिरा
पिछली जुलाई में
जंगल जितने बचे थे
अब उतने नहीं बचे
यही कारण तो नहीं ।

आदिवासी! पेड़ तुम्हें छोड़कर नहीं गए
और तुम भी जंगल छोड़कर ख़ुद नहीं गए
शहर के फुटपाथों पर अधनंगे बच्चे-परिवार
के साथ जाते दिखे इस साल
कहीं यही कारण तो नहीं है ।

इस साल का भी अंत हो गया
परन्तु परिवार के झुंड में अबकी बार
छोटे-छोटे बच्चे नहीं दिखे
कहीं यह आदिवासियों के अंत होने का
सिलसिला तो नहीं ।

शहर से सोचता हूँ 

शहर से सोचता हूँ
कि जंगल क्या मेरी सोच से भी कट रहा है
जंगल में जंगल नहीं होंगे
तो कहाँ होंगे ?
शहर की सड़कों के किनारे के पेड़ों में होंगे ।

रात को सड़क के पेड़ों के नीचे
सोते हुए आदिवासी परिवार के सपने में
एक सल्फी का पेड़
और बस्तर की मैना आती है
पर नींद में स्वप्न देखते
उनकी आँखें फूट गई हैं ।

परिवार का एक बूढ़ा है
और वह अभी भी देख सुन लेता है
पर स्वप्न देखते हुए आज
स्वप्न की एक सूखी टहनी से
उसकी आँख फूट गई ।

बाल कविताएँ

एक

कौन गाँव का रहने वाला
कहाँ का आदमी कहाँ गया
किसी एक दिन वह आया था
कोई एक दिन रहता था
फिर आएगा किसी एक दिन
किसी गाँव में कुछ दिन
कोई भूल गया था उसको
किसी ने याद किया था।

दो

सौ की गिनती सबको आई
जंगल में था एक शेर
जब अम्मा ने कथा सुनाई
बाकी शेर कितने थे?
बिटिया ने यह बात उठाई
उड़ती चिड़िया को गिनना
तब भी था आसान
जंगल में छुपे घूमते शेरों को
गिनना था कठिन काम
एक शेर सब शेरों जैसा
केवल एक शेर को
यहाँ-वहाँ हर बार
गिना गया था सौ-सौ बार
एक शेर की अम्मा ने भी कथा सुनाई सौ-सौ बार

तीन

घर के बाहर उसका खेल
घर के अंदर उसका खेल
घर के बाहर करके खेल
घर के बाहर करती खेल
घर के अंदर करती खेल

चार

टेढ़ा-मेढ़ा नक्शा
टेढ़े-मेढ़े द्वीप
टेढ़ा-मेढ़ा समुद्र
टेढ़ी-मेढ़ी नदियाँ
इधर-उधर तक फैला
ओर-छोर आकाश
टेढ़े-मेढ़े होंगे
उसके कोर किनार
टेढ़ा-मेढ़ा है सब
चार दिशा दस कोनों के
कहीं कम नहीं अनंत छोटी बच्ची का गढ़ा हुआ सब
कहता था एक बूढ़ा संत

पाँच

तितर-बितर हो गया
घर का सारा सामान
लगी खेलने जैसे ही
बना खेल का घर मैदान
खेल-खेल में घर खुद
खेलने चला गया मैदान
घर के अंदर था मैदान
घर के बाहर था मैदान

छह

सबको प्यारी लगती है
उतनी प्यारी लगती है
जितनी प्यारी लगती है
इतनी प्यारी लगती है
कितनी प्यारी लगती है।

सात

इतनी सारी मुर्रा भैंसें
सारी की सारी जुड़वाँ भैंसें
एक जैसी मुर्रा भैंसें
किसकी-किसकी खोकर
हुई इकट्ठी इनती भैसें
कैसे पहिचानेगा कोई
अपनी-अपनी खोई भैंसें
ले आएगा हर कोई
किसी-किसी की
अपनी जैसी भैंसें।

आठ

मैं वहाँ जाऊँगी बिटिया बोली
कहाँ जाओगी – अम्मा पूछी
‘वहाँ’।
कोई नहीं बता पाता
आखिर वहाँ कहाँ है
सबने पूछा – ‘बिटिया तुम बतला दो’
बिटिया को लगी हुई बस
वहाँ जाने की केवल रट
चलो कहीं भी चलते हैं
आखिर सोचा सबने
कहीं वहाँ था सच में
घूम-घाम कर बहुत खुशी से
लौटी बेटी घर में।

नौ

छोटी-सी एक छुक-छुक
सिया नींद की गाड़ी
पूरा घर सोया
जब नींद सिया को आई
भारी नींद से भरा हुआ
घर-भर का अकेला डब्बा
तभी सिया जागी
छुक-छुक गाड़ी के सामने
सपने में आया एक हाथी
खिंची अचानक चेन
रुकी नींद सबकी
क्या हुआ सिया को
जागे सब बेचैन।

दस

सौ की गिनती उसको आई
सबसे पहले अनगित तारे
गिनने की थी बारी आई
आसमान में भरे हुए पर
कुल उनहत्तर निकले सब
पूरे सौ भी नहीं हुए
वे अनगिन बेचारे।

ग्यारह

मैं नहीं जाऊँगी कहीं खेलने
चले गए सब वहीं खेलने
वहीं-वहीं का खेल
यहीं रहूँगी मैं अकेले
यहीं खेलकर सारी देर
तब तक यहीं रहूँगी
जब तक लौट नहीं आते
चलो कहाँ गए सब
कहीं खेलते सारे खेल
मैं खेलूँगी अपना
यहीं-यहीं का खेल।

बारह

किधर गई है बिटिया
उधर गई है बिटिया
इधर नहीं है बिटिया
जिधर गई है बिटिया
उधर नहीं है बिटिया
इधर-उधर से
उधर-जिधर से
किधर गई है बिटिया।

तेरह

छूट गया घर उसका बाहर
छूट गया बाहर उसके घर
जब होती वह घर के अंदर
जब होती वह घर के बाहर
जब-तब होती घर के अंदर
जब-तब होती घर के बाहर।

चौदह

कितनी छोटी
एक महीने सोलह दिन की बस
जोर-जोर से पैर हिलाकर
पड़े-पड़े ही उसने
जैसे दौड़ लगाई
अम्मा, मामा की गोद में आई
एक-एक गोद से दूसरी गोद उसकी भागम-भाग।

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