Skip to content

विभा रानी श्रीवास्तवकी रचनाएँ

हाइकु -1

झरता पत्ता –
मैं कब्रों के बीच में
निशब्द खड़ी।

चाल में सर्प
श्रृंग से भू पे जल-
सद्यस्नाता स्त्री

मूढ़ हाट में-
अँधा टेकता चले
ड्योढ़ी ,श्रृंग पै ।

दादा व पोते
खेल रहे लागोरी-
बाल दिवस।

बाल दिवस-
रमुआ बना रहा
मिट्टी की रोटी।

वन में आग-
मिट्टी लेप से बचा
खरोंचा नाम ।

वनाग्नि फैली –
हरे से लाल हुए
चिनार पत्ते।

दीपकोत्सव-
दादी ने माँ को सौपा
थाती का तोड़ा।

फाग व जाम-
रंगी चुन्नी ढूढें वो
पेटी के कोने।

अभिसारिका-
ताज बनवायेगी
रेजा की जिद्द।

हाइकु -2 

माँ का बनाया
याद आया स्वस्तिक-
लक्ष्मी पूजन।

जमीं पै फैली
जवाहर की टोपी-
श्रृंग पे बर्फ।

धरा आँचल
अनेक चाँद बने-
सफेद सोना ।

दीन यूँ हर्षा
ढ़ेरों भू चाँद मिले-
सफेद सोना।

भड़भुजनी
भणसार जलाये –
धुंध में रवि।

उड़ा गुलाल
धनक बनी धरा
गगन लाल।

स्वागत भोज-
नक्काशी माँ अक्स पे
इंद्रधनुषी।

आम के गुच्छे-
क्षितिज पै छलके
केसरी धूप।

श्यामा लावण्य
नकफूल का हीरा-
मेघ में चाँद।

कुंभ का मेला–
डुबकी लगा रहे
प्रवासी पक्षी।

हाइकु -3

दीपकोत्सव-
स्याह अँधेरा फैले
साझे दर पै।

मधुयामिनी
संकेतक रौशनी
पर्दे के पास |

चाँद पै मेघ –
दूल्हे मियाँ गायब
रूनुमाइ से।

रास पूर्णिमा-
चौपड़ पर जीती
साले की घड़ी।

ज्ञानदा पूजा-
गूंगे भक्त ने पायी
बांसुरी भेंट ।

पुत्री दिवस-
पँख फड़फड़ाई
चिड़ी मुक्त हो।

पथ पै गड्ढ़े-
तम में बाँह खींचे
गुरु भुवेश ।

पी परदेश-
तलाश रही विभा
सप्तर्षि तारे।

विजयोत्सव-
सिंदूर की रंगोली
कुर्ते(शर्ट) पै सजी।

सूखी छीमियाँ
बाजे झाँझर गूंज
बैसाखी धुन।

छाते में भीड़
पथ पर चलते
छत्रक छाया ।

झड़ा दौंगड़ा
लीपने की खुशबू
चौके से आई ।

ड्योढ़ी पे सुता
थिरकती फांदती-
ताल में बूँदे।

ढूँढे़ सहारा-
चोंच में लिए तृण
मरु में ठूंठ ।

बीरबहूटी-
गाँठ बूटे चुन्नी पे
मुन्नी के काढ़े।

भू शैय्या पे माँ-
लॉकर खंगालते
बेटा बहुयें ।

स्त्री की त्रासदी
स्नेह की आलिंजर
प्रीत की प्यासी ।

पीड़ा मिटती
पाते ही स्नेही-स्पर्श
ओस उम्र सी ।

झटकी बाल
नहाई निशा ज्यूँ ही
ओस छिटके ।

सोना बिखरा-
ड्योढी पर अम्बार
दौनी गेहूँ की ।

क्षण कौंध में
साये लिपटे खड़े-
ड्योढ़ी पे वृक्ष ।

भू पे दरारें
बयाँ न कर पाऊँ
तन तपन ।

नवजाताक्षि
खोलना व मूँदना
मेघ में तारे।

हाइकु -4

हँसती बूंदें
बूढी छतरी देख
आस तोड़ती ।

सर्पीली राहें
रंग रोशन छटा
इन्द्रधनुषी ।

बीज लड़ता
भूमि-गर्भ अँधेरा
वल्लरी देता ।

झर से झरे
मुट्ठी भर जिन्दगी
रेत सी रिसे ।

पीली चुनर
दुल्हन बनी धरा
हल्दी रस्म में ।

चनिया चोली
भू धारे सतरंगी
रचे रंगोली ।

लौटते पात
दिगंबर तरु के-
प्रवासी पूत ।

जीव का रोला
कलासी खिली वल्ली
पंक में पद्म ।

दौड़ लगाता
धावक तन्हा क्षेत्र
रक्तिम लिली।

ढूँढे ले डोरी
झांके द्वार देहरी-
व्यग्र बहना।

मैं

काश !
मैं एक विशाल वृक्ष
और या
छोटे-छोटे पौधे ही होती…!

एक विशाल वृक्ष ही होती जो मैं …,
मेरी शाखाओं-टहनियों पर
पक्षियों का बैठना – फुदकना,
मेरे पत्तों में छिपकर
उनका आपस में चोंच लड़ाना ,
उनकी चह-चहाहट – कलरव को सुनना ,
उनका ,शाखाओं-टहनियों पर ,पत्तों में घर बनाना ,
गिलहरी का पूछ उठाकर दौड़ना-उछलना मटकना ,
मेरी छाया में थके मनुष्य ,
बड़े जीव जंतुओं का आकर बैठना
उनको सुकून मिलना ,
सबको सुकून में और खुश देख कर
मेरी खुशी को भी पंख लग जाते…
मेरे शरीर से निकली आक्सीजन की
स्वच्छ वायु जीवन को सुकून देते ,

छोटे-छोटे पौधे ही होती जो मैं ….
मेरे फूलो से निकले खुशबू ,
वातावरण को सुगन्धमय बनाती ….
मेरे पत्तों-बीजों से
औषधि बनते
सबको नवजीवन मिलते
कितनी खुश होती मैं…
मेरे द्वारा बयाँ करना मुश्किल है…

लेकिन
कन्या , बाला , नारी औरत हूँ मैं
जुझारू और जीवट।
जोश और संकल्पों से लैस मैं!
सामाजिक-राजनीतिक चादर की गठरी में कैद मैं!

सामाजिक ढाँचे में छटपटातीं-कसमसातीं मैं!
नए रिश्तों की जकड़न-उलझन में पड़ कर
पर पुराने रिश्तों को भी निभाकर
हरदम जीती-चलती-मरती हूँ मैं!
रिश्तों में जीना और मरना काम है मेरा ….
ऐसे ही रहती आई हूँ मैं!
ऐसे ही रहना है मुझे ?

उलझी रहती हूँ उनसुलझे सवालों में मैं!
जकड़ी रहती हूँ मर्यादा की बेड़ियों में मैं!
जीतने हो सकते हैं बदनामी का ठिकरा
हमेशा लगातार फोड़ा जाता है मुझ पर
उलझी रहती हूँ मैं!
लेकिन
हँसते-हँसते सब बुझते -सहते
हो जाती हूँ कुर्बान मैं!

कब-कब , क्यूँ-क्यूँ , कहाँ-कहाँ , कैसे-कैसे
छली , कुचली , मसली और तली गई हूँ मैं!
मन की अथाह गहराइयों में
दर्द के समुद्री शैवाल छुपाए मैं!
शोषित, पीड़ित और व्यथित मैं!
मन, कर्म और वचन से प्रताड़ित मैं!

मानसिक-भावनात्मक और
सामाजिक-असामाजिक
कुरीतियों-विकृतियों की शिकार मैं!
लड़ती हूँ पुराने रीति-रिवाजों से मैं!
करती हूँ अपने बच्चों को सुरक्षित मैं!
अंधविश्वासों की आँधी से
खुद रहती हूँ हरदम अभावों में मैं!
पर देती हूँ सबको अभयदान मैं!
हाँ मैं स्त्री हूँ मैं!

व्यथा

हाँथ में बंधीं घड़ी पर सरकता समय
और कामों को निपटाते हुए
गृहधुरी से बंधी स्त्री तेज़ी से चलाती हाँथ।
धड़कनों को धीमी गति से चलने को देती आदेश
और सुनती तेज़ कठोर आवाज में आदेश
“अंधेरा होने के पहले लौट आना”…

दोनों तरफ से खड़ी बस
बस! अपहरण की हो जैसे योजना।
साँस लेना दूभर!
गोधूलि के मृदुल झंकार की जगह
महसूस करते उन्नति के यांत्रिक शोर
आधे घन्टे की दूरी को डेढ़ घन्टे में तय करता ऑटो,

घर से निकलते समय वक़्त का हिसाब रखती
घर लौटते समय अनुत्तीर्ण होती जोड़-घटाव में,
पल-पल का रखवाला साथ नहीं होता।
वो ऊपर बैठा एक पक्षीय
फैसला करने में व्यस्त होता।

नवजात से ही उसे बड़े, बूढ़ों
परिवार/समाज के
सुनाते रहते हैं ,
“झुकी रहना…”

औरत के
झुके रहने से ही
बनी रहती है गृहस्थी
ड्योढ़ी के अंदर…

बने रहते हैं संबंध
पिता/भाई के नाक ऊँची रहते!

समझदारी किस लिंग में ज्यादा है
समझदारी
यानी
दर्द सहन कर हँस सकने की कलाकारी
याद करती ड्योढ़ी के अंदर का
जलियांवाला कांड
और बुदबुदाती
ना जाने हमारे लिए
देश कब आज़ाद होगा

जब तक वह खुद से चाहती है,
वरना झटके से हर जंजीर तोड़ उठती है।
पर वक्त को कैसे बाँधे आदेश पै
“अंधेरा होने से पहले लौट आना”…

त्रासदी

ना बहन थी,
ना बेटी हुई,
बहुत नाज़ों से
पाल रही थी ,
एक पोती की
नाज़ुक तमन्ना!
मर्यादित मिठास
जीवन में होता…
अब मुश्किल में
जां आन पड़ी,
कलेज़े में हुक बड़ी!
डर और आतंक के
स्याह समुंदर में,
डूब उतरा रही हूँ,
छ: महीने की पोती को
कैसे लाल-मिर्ची की
पुड़िया पकड़ाऊँगी?
एक साल की बच्ची को
आँखों में डालने वाला
स्प्रे पकड़ाऊँगी?
डेढ़ साल की मुन्नी को स्पर्श ,
कैसा-कैसा
कैसे समझाऊँगी?
दो साल की चुन्नी को
कटार कैसे थमाऊँगी?
ढ़ाई साल की नन्ही को,
तीन साल की,
साढ़े तीन साल की.
चार साल की,
साढ़े चार साल की,
माखौल तो ना उड़ाओ…
बहुत शौक है सलाह देने का?
सलाह कोई कारगर तो सुनाओ?
समझु और समझाऊँ!
नारी होने का शुक्रिया दूँ..!

फिक्र

देख गुलमोहर-अमलतास
ठिठक जाती हूँ!
ठमका देता है
सरी में दिखता जल।

अनेकानेक स्थलों पर
विलुप्तता संशय में डाले हुए है!
बचपन सा छुप गया,
तलाश में हो लुकाछिपी।

है भी तो नहीं
अँचरा के खूँट
कैसे गाँठ बाँध

ढूँढ़ने की कोशिश होगी
जब कभी उन स्थलों पर
पुनः वापसी होगी।

मेरी ईदी

रात में बाहर खुले में मत टहलना
गर्भवती बहू को सासु जी का आदेश,
उबाली गई जल में नीम की पत्तियाँ
नहाने के लिए जच्चा जरूर प्रयोग करे।
धुला कमरा, धुली चादर, साफ बिछावन पर
पूरे पत्तों वाली टहनियाँ नीम की,
अंधविश्वास मान लेते हो!
उनको कसो न वैज्ञानिक
कसौटी पर एक-एक कर।

रवि-शशि का दान,
वृक्षों का परिदान।
छठ-चौथ को निहोरा/मनुहार
वट को धागे में लपेट लेना,
कान्हा को मानो जैसे
यशोदा ने बाँधा हो ओखल
यमलार्जुन का शाप-मुक्त होना
सृजक स्त्रियाँ
बखूबी सब समझती हैं।

सागर में बूँदों की तरह,
अनेकानेक हैं जो सालों भर,
पर्यावरण पर सोच-विचार करते हैं।
हम जैसों की नींद खुलती है
जब संकट में खुद को घिरा पाते हैं।
आ जाओ ईदी में वृक्ष लगाते हैं,
सारे रिश्तेदारों को
हम सदा जीवित रखते हैं।
छाल में विष्णु ,जड़ में ब्रह्मा और
शाखाओं में शिव का वास मानने वाले कहते हैं,
सिर्फ और सिर्फ ऑक्सिजन प्रदाता
रोग निवारक वट अक्षय होते हैं।

मेघ के हिस्से बस गिला

तब शिखर ने बाँधा ,
नभ का साफ़ा …

जब क्षितिज पर छाता ,
भाष्कर भष्म होता।
लगता मानो किसी
घरनी ने घरवाले के लिए ,
चिलम पर फूँक मार ,
आग की आँच तेज की है ….।

घरनी को चूल्हे की भी है चिंता ,
जीवन की जंजाल बनी है ,
गीली जलावन, जी जला रही है…

लौटे परिंदों ने पता बता दी है ….
किसान ,किस्मत के खेतो में ,
खाद-पानी पटा घर लौट रहा है…

बैलों के गले में बंधी घंटी ,
हलों के साथ सुर में सुर मिला
संदेसा भेज ही रहे हैं… !!

मेघ अकसर उलझन में होता है
किस की बात सुने और माने
वो सिकुड़ा लाज से पानी-पानी !
कहीं जलावन गीली
कहीं कच्चे मिट्टी-बर्तन के गिले
साजन बिन सावन से गिला
तो मेघ को सब कोसे
बेचारा मेघ उसके हिस्से बस गिला
वो तो ऐसे ही है गीला गीला ।

हौसला कैसे बढ़ाऊँ?

साफ दर्पण में शक्ल देखने का हौसला नहीं बचा।
दिखती है अपनी बेबसी ,व्यथित इंसानों की लाचारगी !
खुद को तसल्ली दे भी लूँ ,क्या कह कर उन्हें तसल्ली दूँ ?
शेर का खाल पहन भी लूँ , खुश हो भी लूँ ,
दहाड़ने का मौसम भी है ,मौका-ये-दस्तुर भी
पूंछ हिलाने से फुरसत कैसे पा लूँ ?
मसाल को मंजिल पर पहुँचाना तो है
मार दिए जाने का ना तो डर ,ना शर्मिंदगी है
लेकिन ,रास्ते ना-वाकिफ हैं ,
लड़ाई के तरीके भूल जाना ,कैसे माफ़ करूँ ?
जिन्हें कोसते-कोसते सुबह-शाम करूँ ,
सब तकलीफों का जिम्मेदार मानूँ ,
जब वे भिक्षाटन में निकले तो मुग्ध हो ,
भिक्षा देने का गर्व क्यूँ न महसूस करूँ ?
न्याय दिलाने के लिए ,कौन सा दरवाज़ा खटखटाऊँ ?
नर-भक्षियों का सामना कर ,सज़ा तक कैसे पहुँचाऊँ?
छुटता जा रहा आस , नील का रंग कैसे उतारूँ ?
आत्मविश्वास के कमान पर स्वाभिमान का तीर कैसे चढ़ाऊँ ?
साफ दर्पण में शक्ल देखने का हौसला कैसे बढ़ाऊँ?

सीख

किस्सा सुना सबनें
विष्णु बने बामन,
नापे तीन डग में त्रिलोक!
नारी ने किया अनुसरण..
स्नेह बेटी रूप में ,
साहस पत्नी रूप में ,
संवेदना बहू रूप में !
स्नेह ,साहस और संवेदना,
पा माँ रूप में ,
नारी नापे त्रिभुवन !

बनना नहीं किसी की देवी,
बनना नहीं किसी की दासी।
भुलाना नहीं तुम हो जननी जगतजननी रूपा,
भुलाना नहीं अपने जज्बातों को!
निभाना अपने चुने रिश्तों को,
निभाना अपने मिले दायित्वों को।
डरना नहीं दहलीज़ पार की तो,
डरना नहीं मंजिल नहीं दिख रही तो।
थामना अपने हौसले के पंख को,
थामना मदद मांगने वाले हाथो को।
दहाड़ना दिखे कामुक आँख तो ,
दहाड़ना रोके कोई राह तो।
पकड़ना अपने ऊपर उठे हाँथ को ,
पकड़ना कलम बेलन तलवार को।
जूझना जो झंझावत आये तो ,
जूझना दक्षता का अवसर आये तो।
सीखना नए युग के चलन को ,
सीखना पुराने युग के अनुभव को।
गुर्राना हक़ है तुम्हारा तो ,
गुर्राना सही अवसर हो तो।

मुक्तक

01.
सिंधु जल जो घूंट-घूंट पी लेता।
जीवन के खारेपन से नहीं डरता।
जकड़ी खुद से या हो जो बलात,
उड़ान का सपना स्व नहीं मरता।

02.
कई ने कहा तेरी आदत चुगली की है।
आस्तीन में संभालना अठखेली की है।
चलो पाल रही हूँ तुझे गले लगाकर भी,
हमेशा ही हमारी भक्ति अहिमाली की है।

03.
डर सताता रहता हमसे हमारा सब छीन ले जायेगा कोई।
पल-पल बदलती दुनिया में कितना साथ निभायेंगा कोई।
हमारी कोशिश उतना ही दोष दे लेते जितना हमें दंश देते,
भयावह नहीं ना जो चाहेंगे हम कितना हमें सतायेगा कोई।

04.
दम्भ तृष्णा ना दिमाग रोगग्रस्त करो।
गुम रहकर खल का तम परास्त करो।
दे साक्ष्य सपना चपला धीर अचला है,
स्व का मान बढ़ा रब को विश्वस्त करो।

05.
सबकी राह अलग-अलग औ तरीका जुदा-जुदा।
कोई हँसाता गुदगुदा तो कोई झुँझलाता बुदबुदा।
बुजुर्ग सेवा हो समाज सेवा हो या साहित्य सेवा,
स्वीकार संगी बे-फायदा ना हो जाएं बे-कायदा।

06.
उबलते जज्बात पर चुप्पी ख़ामोशी नहीं होती।
गमों के जड़ता से सराबोर मदहोशी नहीं होती।
तन के दुःख प्रारब्ध मान मकड़जाल में उलझा,
खुन्नस में बयां चिंता-ए-हुनर सरगोशी नहीं होती।

07.
प्रीत की रीत की होती नहीं जीत यहाँ।
ह्रीत के नीत के होते नहीं मीत यहाँ।
शीत यहाँ आगृहीत तड़ीत रूह बसा,
क्रीत की गीत की होती नहीं भीत यहाँ।

08.
असफलता पै नसीहतें नश्तर सा लगता है।
स्याह गुजरता पल शैल-संस्तर सा लगता है।
बढ़ाता आस तारीफ पुलिंदा अग्नि-प्रस्तर सा,
जन्म लेता अवसाद दिवसांतर सा लगता है।

09.
शरारत मिले फौरन आदत बना लेना।
पढ़ कर तीस पारे इबादत बना लेना।
इतफाक न मढ़ा शहादत गले लगाना,
मुस्कुराना हलाक जहालत बना लेना।

10.
प्यार का बदला मिले सम्मान कम से कम हक़ तो होता है।
मृत सम्वेदनाओं वाले पले आस्तीन में सांप शक तो होता है।
अदब-तहज़ीब को भूल कर खुद को ख़ुदा से ऊपर समझे,
हाय से ना डरने वाला जेब से नही दिल से रंक तो होता है।

Leave a Reply

Your email address will not be published.