वैसे ही आऊँगा
मंदिर की घंटियों की आवाज़ के साथ
रात के चौथे पहर
जैसे पंछियों की नींद को चेतना आती है
किसी समय के बवंडर में
खो गए
किसी बिसरे साथी के
जैसे दो अदृश्य हाथ
उठ आते हैं हार गए क्षणों में
हर रात सपने में
मृत्यु का एक मिथक जब टूटता है
और पत्नी के झुराए होंठो से छनकर
हर सुबह
जीवन में जीवन आता है पुनः जैसे
कई उदास दिनों के
फाँके क्षणों के बाद
बासन की खड़खड़ाहट के साथ
जैसे अंतड़ी की घाटियों में
अन्न की सोंधी भाप आती है
जैसे लंबे इंतज़ार के बाद
सुरक्षित घर पहुँचा देने का
मधुर संगीत लिए
प्लेटफॉर्म पर पैसेंजर आती है
वैसे ही आऊँगा मैं ।
हिचकी
अमूमन वह उठती है तो
कोई याद कर रहा होता है
बचपन में दादी कहती थीं
आज रात के बारह बजे कौन हो सकता है
जो याद करे इतना कि यह
रुकने का नाम नहीं लेती
मन के पंख फड़फड़ाते हैं उड़ते सरपट
और थक कर लौट आते वहीं
जहाँ वह उठ रही लगातार
कौन हो सकता है
साथ में बिस्तर पर पत्नी सो रही बेसुध
बच्चा उसकी छाती को पृथ्वी की तरह थामे हुए
साथ रहने वाले याद तो नहीं कर सकते
पिता ने मान लिया निकम्मा-नास्तिक
नहीं चल सका उनके पुरखों के पद-चिन्हों पर
माँ के सपने नहीं हुए पूरे
नहीं आई उनके पसन्द की कोई घरेलू बहू
उनकी पोथियों से अलग जब
सुनाया मैंने अपना निर्णय
जार-जार रोईं घर की दीवारें
लोग जिनकी ओट में सदियों से रहते आए थे
कि जिन्हें अपना होना कहते थे
उन्हीं के ख़िलाफ़ रचा मैंने अपना इतिहास
जो मेरी नज़र में मनुष्यता का इतिहास था
और मुझे बनाता था उनसे अधिक मनुष्य
इस निर्मम समय में बचा सका अपने हृदय का सच
वही किया जो दादी की कहानियों का नायक करता था
अन्तर यही कि वह जीत जाता था अन्ततः
और मैं हारता और अकेला होता जाता रहा
ऐसे में याद नहीं आता कोई चेहरा
जो शिद्दत से याद कर रहा हो
इतनी बेसब्री से कि रूक ही नहीं रही यह हिचकी
समय की आपा-धापी में मिला
कितने-कितने लोगों से
छुटा साथ कितने-कितने लोगों का
लिए कितने शब्द उधर
कितने चेहरों की मुस्कान बंधी
कलेवे की पोटली में
उन्हीं की बदौलत चल सका बीहड़ रास्तों
कंटीली पगडंडियों-तीखे पहाड़ों पर
हो सकता है याद कर रहा हो
किसी मोड़ पर बिछड़ गया कोई मुसाफ़िर
जिसको दिया था गीतों का उपहार
जिसमें एक बूढ़ी औरत की सिसकी शामिल थी
एक बूढ़े की आँखों का पथराया-सा इन्तज़ार शामिल था
यह भी हो सकता है
आम मंजरा गए हों- फल गए हों टिकोल
और खलिहान से उठती चइता की
कोई तान याद कर रही हो बेतरह
बारह बजे रात के एकान्त में
कहीं ऐसा तो नहीं कि दुःसमय के ख़िलाफ़
बन रहा हो सुदूर कहीं आदमी के पक्ष में
कोई एक गुप्त संगठन
और वहाँ एक आदमी की सख़्त ज़रूरत हो
नहीं तो क्या कारण है कि रात के बारह बजे
जब सो रही पूरी कायनात
चिड़िया-चुरूंग तक
और यह हिचकी है कि
रूकने का नाम नहीं लेती
कहीं-न-कहीं किसी को तो ज़रूरत है मेरी ।
कविता में लम्बी उदासी
कविताओं से बहुत लम्बी है उदासी
यह समय की सबसे बड़ी उदासी है
जो मेरे चेहरे पर कहीं से उड़ती हुई चली आई है
मैं समय का सबसे कम जादुई कवि हूँ
मेरे पास शब्दों की जगह
एक किसान पिता की भूखी आँत है
बहन की सूनी मांग है
छोटे भाई की कम्पनी से छूट गई नौकरी है
राख की ढेर से कुछ गरमी उधेड़ती
माँ की सूजी हुई आँखें हैं
मैं जहाँ बैठकर लिखता हूँ कविताएँ
वहाँ तक अन्न की सुरीधी गन्ध नहीं पहुँचती
यह मार्च के शुरूआती दिनों की उदासी है
जो मेरी कविताओं पर सूखे पत्ते की तरह झर रही है
जबकि हरे रंग हमारी ज़िन्दगी से ग़ायब होते जा रहे हैं
और चमचमाती रंगीनियों के शोर से
होने लगा है नादान शिशुओं का मनोरंजन
संसद में बहस करने लगे हैं हत्यारे
क्या मुझे कविता के शुरू में इतिहास से आती
लालटेनों की मद्धिम रोशनियों को याद करना चाहिए
मेरी चेतना को झकझोरती खेतों की लम्बी पगडंडियों
के लिए मेरी कविता में कितनी जगह है
कविता में कितनी बार दुहराऊँ
कि जनाब हम चले तो थे पहुँचने को एक ऐसी जगह
जहाँ आसमान की ऊँचाई हमारे खपरैल के बराबर हो
और पहुँच गए एक ऐसे पाताल में
जहाँ से आसमान को देखना तक असम्भव
(वहाँ कितनी उदासी होगी
जहाँ लोग शिशुओं को चित्र बनाकर समझाते होंगे
आसमान की परिभाषा
तारों को मान लिया गया होगा एक विलुप्त प्रजाति)
कविता में जितनी बार लिखता हूँ आसमान
उतनी ही बार टपकते हैं माँ के आँसू
उतनी ही बार पिता की आँत रोटी-रोटी चिल्लाती है
जितने समय में लिखता हूँ मैं एक शब्द
उससे कम समय में
मेरा बेरोज़गार भाई आत्महत्या कर लेता है
उससे भी कम समय में
बहन ‘औरत से धर्मशाला’ में तब्दील हो जाती है
क्या करूँ कि कविता से लम्बी है समय की उदासी
और मैं हूँ समय का सबसे कम जादुई कवि
क्या आप मुझे क्षमा कर सकेंगे ?
बेरोज़गार भाई के लिए
उदास मत हो मेरे भाई
तुम्हारी उदासी मेरी कविता की पराजय है
नहीं मेरे पास तुम्हारे लिए ज़मीन का कोई टुकड़ा
जहाँ उग सकें तुम्हारे मासूम सपने
न कोई आकाश
जहाँ रोटी की नई और निजी परिभाषा तुम लिख सको
अब वह समय भी नहीं
कि दुनियादारी से दूर हम निकल जाएँ
खरगोशों का पीछा करते गंगा की कछार तक
लौटें तो माँ के आँचल में ढेर हो जाएँ
क्या तुम्हें उन शब्दों की स्मृति कचोटती है
जिसे बोया था हमने घर की खोंड़ में
हफ्रतों की थी रखवाली
किया था टोना-टोटका उसे बचाने को बुरी नज़रों से
यह जो उठ जाते हो
आधी-आधी रात किसी दुःस्वप्न की छाया से
पसीने-पसीने होकर
क्या तुम्हें बहुत याद आता है पिता का वह कवच
जिसमें हमारा साथ सुरक्षित था
तुम्हें कैसे समझाऊँ मेरे सहोदर
कि मेरी उदासियों में
कितने धीमे-धीमे शामिल हो रहे हो तुम
यह तुम्हारी नहीं मेरे भाई
यह मेरी कविता में चलते-फिरते
सदियों के एक आदमी की उदासी है
उदास मत हो मेरे अनुज
मेरे फटे झोले में बचे हैं आज भी कुछ शब्द
जो इस निर्मम समय में
तुम्हारे हाथ थामने को तैयार हैं
और कुछ तो नहीं
जो मैं दे सकता हूँ
बस मैं तुम्हें दे रहा हूँ एक शब्द
एक आख़िरी उम्मीद की तरह ।
जीने का उत्सव
(बिहार के एक जातीय नरसंहार के बाद)
खुश है एक लड़की
अपनी कोरी देह में उबटन मलवाती हुई
सगुन गाती हुई अध्ेड़ औरतें
भूल गयी हैं गोलियों की धंय-धंय खून के पफौव्वारे
जो एक कांपते हुए सन्नाटे और बिसुरती हुई रात में उठे थे
एक औरत चुटकी भर चावल से चुमावन करती है
भावी दुल्हन की
खुश रहने की देती है अशीष
हालांकि वह जानती है कि उसकी मनकिया की तरह
इस दुल्हन की खुशियाँ भी रात के अँध्रे में
धन के लाटों की तरह कभी भी लुट सकती हैं
रमजोतिया की गोद में बैठा नादान भविष्य इस इलाके का
तालियाँ पीटता है खिलखिलाता है
वह सचमुच नहीं जानता
कि उसके पथेरे बाप की लाश
भुतहे पीपर पर टंगी हुई क्यों मिली थी
आखिरी बची रह गयी लड़की का पिता
जिम्मेदारियों से झुकी गर्दन लिए पड़ा है
पुआल के नंगे बिस्तर पर
सुनता है झूमर-बन्दे मेरे लंदन में पढ़ि के आय
बेटी को एक नचनिया के साथ ब्याह कर
चैन से मर जाने के सपने देखता हुआ
उरूआ की आवाज सुनकर सोचते हैं जटाध्र पंडित
हरमिया तीन दिन से रो रहा है
पता नहीं इसबार
गाँव के कितने लोग उठने वाले हैं
सबसे अलग अपनी ईया के साथ
आँगन में नन्हें आकाश के नीचे उँघा रहा है ध्ुरखेलुआ
राजा-रानी की एक और कथा सुनने की जिद में
एक समय मर रहा है
और अपने जीने को सीने से चिपटाए
लोग सोने की तैयारी कर रहे हैं।
सपना
गाँव से चिट्ठी आई है
और सपने में गिरवी पड़े खेतों की
फिरौती लौटा रहा हूँ
पथराए कन्धे पर हल लादे पिता
खेतों की तरफ़ जा रहे हैं
और मेरे सपने में बैलों के गले की घंटियाँ
घुंघरू की तान की तरह बज रही हैं
समूची धरती सर से पाँव तक
हरियाली पहने मेरे तकिये के पास खड़ी है
गाँव से चिट्ठी आई है
और मैं हरनाथपुर जाने वाली
पहली गाड़ी के इन्तजार में
स्टेशन पर अकेला खड़ा हूँ ।
हम बचे रहेंगे
हमने ही बनाए वे रास्ते
जिनपर चलने से
डरते हैं हम
हमने ही किए वे सारे काम
जिन्हें करने से
अपने बच्चों को रोकते हैं हम
हमने किया वही आज तक
जिसको दूसरे करते हैं
तो बुरा कहते हैं हम
हमने ही एक साथ
जी दो ज़िंदगियाँ
और इतने बेशर्म हो गए
कि ख़ुद से अलग हो जाने का
मलाल नहीं रहा कभी
वे हम ही हैं
जो चाहते हैं कि
लोग हमें समय का मसीहा समझें
वे हम ही हैं
जिन्हें इलाज की सबसे अधिक ज़रूरत
समय नहीं
सदी नहीं
इतिहास और भविष्य भी नहीं
सबसे पहले ख़ुद को ही खंगालने की ज़रूरत
ख़ुद को ख़ुद के सामने खड़ा करना
ख़ौफ़ से नहीं
विश्वास से
शर्म से नहीं
गौरव से
और कहना समेकित स्वर में
कि हम बचे रहेंगे
बचे रहेंगे हम….।
हम बचे रहेंगे-2
सब कुछ के रीत जाने के बाद भी
माँ की आँखों में इन्तजार का दर्शन बचा रहेगा
अटका रहेगा पिता के मन में
अपना एक घर बना लेने का विश्वास
ढह रही पुरखों की हवेली के ध्रन की तरह
तुम्हारे हमारे नाम के
इतिहास में गायब हो जाने के बाद भी
पृथ्वी के गोल होने का मिथक
उसकी सहनशक्ति की तरह ही बचा रहेगा
और हम बचे रहेंगे एक-दूसरे के आसमान में
आसमानी सतरंगों की तरह।
शब्द जो साथ नहीं चलते
शब्द जो साथ नहीं चलते
पेड़ों की ओट से देखते हैं हमारा चलना
और जब हम पहुँच जाते हैं एक जगह
वे चुपके से आ जाते हैं साथ-ऐसे
जैसे कहीं गए ही न हों
लोग जो साथ नहीं रोते
खिड़की की ओट में रोते हैं कातर होकर
धुँधलाई आँखों से
और हमारी ख़ुशी में आ जाते हैं हँसते
जैसे कि कभी रोए ही न हों ।
बूढ़े इन्तज़ार नहीं करते
बूढ़े इन्तज़ार नहीं करते
अपनी हड्डियों में बचे रह गए अनुभव के सफ़ेद कैल्शियम
से
खींच देते हैं एक सफ़ेद और ख़तरनाक लकीर
और एक हिदायत
कि जो कोई भी पार करेगा उसे
वह बेरहमी से क़त्ल कर दिया जाएगा
अपनी ही हथेली की लकीरों की धर से
और उसके मन में सदियों से फेंटा मार कर बैठा
ईश्वर भी उसे बचा नहीं पाएगा
बूढ़े इन्तज़ार नहीं करते
वे काँपते-हिलते उबाऊ समय को बुनते हैं
पूरे विश्वास और अनुभवी तन्मयता के साथ
शब्द-दर-शब्द देते हैं समय को आदमीनुमा ईश्वर का आकार
खड़ा कर देते हैं
उसे नगर के एक चहल-पहल भरे चौराहे पर
इस संकल्प और घोषणा के साथ
कि उसकी परिक्रमा किए बिना
जो क़दम बढ़ाएगा आगे की ओर
वह अन्धा हो जाएगा एक पारम्परिक
और एक रहस्यमय श्राप से
यह कर चुकने के बाद
उस क्षण उनकी मोतियाबिन्दी आँखों के आस-पास
थकान के कुछ तारे टिमटिमाते हैं
और बूढ़े घर लौट आते हैं
कर्त्तव्य निभा चुकने के सकून से
अपने चेहरे की झुर्रियाँ पोंछते हुए
बूढ़े इन्तज़ार नहीं करते
वे धुँधुआते जा रहे खेतों के झुरमुटों को
तय करते हैं सधे क़दमों के साथ
जागती रातों की आँखों में आँखें डाल
बतियाते जाते हैं अँधेरे से अथक
रोज़-ब-रोज़ सिकुड़ती जा रही पृथ्वी के दुःख पर करते हैं
चर्चा
उजाड़ होते जा रहे अमगछियों के एकान्त विलाप के साथ
वे खड़े हो जाते हैं प्रार्थना की मुद्रा में
टिकाए रहते हैं अपनी पारम्परिक बकुलियाँ
गठिया के दर्द भुलाकर भी
ढहते जा रहे संस्कार की दलानों का बचाने के लिए
बूढ़े इन्तज़ार नहीं करते
हर रात बेसुध होकर सो जाने के पहले
वे बदल देना चाहते हैं अपने फटे लेवे की तरह
अजीब-सी लगने लगी पृथ्वी के नक्शे को
और खूटियों पर टंगे कैलेण्डर से चुरा कर रख लेते हें
एकादशी का व्रत
सतुआन और कार्तिक स्नान अपने बदबूदार तकिए के नीचे
अपने गाढ़े और बुरे वक़्त को याद करते हुए
बूढ़े इन्तज़ार नहीं करते
अपने चिरकुट मन में दर-दर से समेट कर रक्खी
जवानी के दिनों की सपनीली चिट्ठियों
और रूमानी मन्त्रों से भरे जादुई पिटारे को
मेज़ पर रखी हुई पृथ्वी के साथ सौंप जाते हैं
घर के सबसे अबोध
और गुमसुम रहने वाले एक मासूम शिशु को
और एक दिन बिना किसी से कुछ कहे
अपनी सारी बूढ़ी इच्छाओं को
अधढही दलान की आलमारी में बन्द कर
वे चुपचाप चले जाते हैं मानसरोवर की यात्रा पर
या कि अपने पसन्द के किसी तीर्थ या धाम पर
और फिर लौट कर नहीं आते….।
यक़ीन
एक उठे हुए हाथ का सपना
मरा नहीं है
ज़िन्दा है आदमी
अब भी थोड़ा-सा चिड़ियों के मन में
बस ये दो कारण
काफ़ी हैं
परिवर्तन की कविता के लिए ।
शब्दों के स्थापत्य के पार
शब्दों के स्थापत्य के पार हर शाम
घर की खपरैल से उठती हुई एक उदास कराह है
एक फाग है भूली बिसरी
एक सिनरैनी है होते होते थम गई
विदेसिया नाच है पृथ्वी की कोख में कहीं गुम गया
और मैं हूँ एक दिन चला आया नादान
रोआईन-पराईन आँखों से दूर
यहाँ इतनी दूर एक बीहड़ में
शब्दों के स्थापत्य के पार
बेबसी के अर्थों से जूझती एक बेबसी है
सवाल हैं कुछ हर बार मेरे सामने खड़े
समय है अपने असंख्य रंगों के साथ
मुझे हर ओर से बांधता
और झकझोरता
कई चीख़ें हैं असहाय मुझे आवाज़ देती
हाथ से लगातार सरकते जा रहे
मासूम सपने हैं कुछ
शब्दों के स्थापत्य के पार
कुछ और शब्द हैं
अपने नंगेपन में बिलकुल नंगे
कुछ अधूरे वाक्य
स्मृतियों के खण्ड-चित्र की तरह
शब्दों के स्थापत्य के पार
कहीं एक अवधूत कोशिश है
आदमी के भीतर डूबते ताप को बचाने की
और एक लम्बी कविता है
युद्ध की शपथ और हथियारों से लैस
मेरे जन्म के साथ चलती हुई
निरन्तर और अथक ।
इन्तज़ार
कुछ अधेड़ औरतें
इन्तज़ार करते-करते
भूल चुकी थीं इन्तज़ार का अर्थ
उनके लिए इन्तज़ार करना
झाड़ू लगाने से लेकर बर्तन मांजने
और रोटी बेलने की तरह ही साधारण था
यह साधारण काम वे सदियों से
साधारणतः करती आ रही थीं
कुछ अपेक्षाकृत जवान औरतें
इन्तज़ार करने के बाद बौखला रही थीं
उनके लिए इन्तज़ार करना
लिपिस्टिक चुनने से लेकर
पार्लर जाने और सौन्दर्य बचाने के लिए
तमाम नुस्ख़ों की खोज की तरह ही
असाधारण था
यह असाधारण काम
वे कुछ दशक पहले से
साधारणतः करती आ रही थीं
कुछ अधेड़ पुरुष ख़ुशी-ख़ुशी दफ्रतर जाते थे
सुबह उमगते हुए
सड़क पर टहलने निकलते थे
और सूरज की पहली किरण का
इन्तजार साधारणतः करते थे
कुछ अपेक्षाकृत युवा पुरुष साधारणतः
अपने चेहरे की चिन्ता सिगरेट के धुएँ में छुपाते थे
और किसी तरल-गरल पार्टी में
सबकुछ भूल जाने का
बेसब्री से इन्तज़ार साधारणतः करते थे
ख़बर
एक सुस्त-सी रात में
सन्नाटा घर की बूढ़ी चारदीवारी के भीतर
ज़ोर-ज़ोर से खाँस रहा था
बाहर दुनिया में दानों की नमी
पाले की मार से काली हो रही थी
दूसरे दिन सुबह
नहीं हुई सुबह की तरह
सूरज की तरह नहीं उगा सूरज
यह ख़बर घर की चारदीवारी से खेत
और खेत से पूरे इलाके में फैल गई
सभी लोग अचम्भे में थे
कि इतनी बड़ी ख़बर की तस्वीर
गाँव के इकलौते टी०वी० पर
किसी को भी नज़र नहीं आई
वही नहीं लिख पाया
मैंने लिखा-कविता
और मैंने देखा
कि शब्द मेरी चापलूसी में
मेरे आगे पीछे घूम रहे हैं
मैंने लिखा-खेत
और मैंने पाया
कि मेरी कलम से शब्दों की जगह
गोल-गोल दाने झर रहे हैं
मैंने लिखा-अन्न
और मैंने महसूस किया
कि मेरी ध्मनियों में
लहू की जगह रोटियों की गन्ध् रेंग रही है
मैंने लिखा-आदमी
और मैंने सुना
कि चीख-चीख कर कई आवाजें
सहायता के लिए मुझे पुकार रही हैं
मैंने लिखा-पृथ्वी
और मुझे लगा
कि मेरे कन्ध्े किसी असहनीय भार से
लगातार झुकते जा रहे हैं
मैंने लिखा-ईश्वर
और मैं डर गया
कि कमरे के साथ मेज पन्ने और कलम
सभी किसी अज्ञात भय से थरथरा रहे हैं
इस तरह उस सुबह, बहुत कुछ लिखा मैंने
बस नहीं लिख पाया वही
जिसे लिखने के लिए रोज की तरह
सोच कर बैठा था
बसन्त
एक लड़की
अपनी माँ की नजरों से छुपाकर
मुट्ठी में करीने से रखा हुआ बसन्त
सौंपती है
कक्षा के सबसे पिछले बेंच पर बैठने वाले
एक गुमसुम
और उदास लड़के को
एक बेरोजगार लड़का
अपनी बचपन की सहेली के होठों पर
पपड़ाया हुआ बसन्त आँकता है
एक बूढ़ा किसान पिता
तस्वीर भर रह गयी पत्नी की
सूनी आँखों से
दसबजिया बसन्त चुनता है
एक दिहाड़ी मजूर
रगों के दर्द भूलाने के लिए
मटर के चिखने के साथ
पीता है बसन्त के कुछ घूँट
एक औरत अँध्ेरे भुसौल घर में
चिरकुट भर रह गयी बिअहुति
साड़ी को स्तन से चिपकाए
महसूसती है एक अध्ेड़ बसन्त
एक बूढ़ी माँ
अपने जवान हो रहे बेटे के लिए
सुबह से शाम तक
उंगलियों पर गिनती है एक पियराया बसन्त
एक दढ़ियाल गोरा साहित्यकार
बड़ी मुश्किल से शोध्ता है
निराला के गीतों से कुछ टुकड़े रंगीन बसन्त
और मैं अकेला इस महानगर में
अपनी माँ के गँवई चेहरे की झुर्रियों से
महुए के पूफलों की तरह
बीनता हूँ कुछ उदास बसन्त
और रखता हूँ सहेजकर एक सपेफद कागज के उपर
कहाँ जाऊँ
कहाँ जाऊँ किस जमीन पर
जहाँ बची रहे मेरी कविता में थोड़ी सी हरियाली
जहाँ बैठ कर लिखूँ
लिख सकूँ कि हम सुरक्षित हैं
कहाँ जाऊँ किस दरख्त पर
जहाँ मिल सके एक खुशहाल पफरगुद्दी
चुलबुलाते चुज्जे
और मैं कहूँ कि पृथ्वी पर पर्याप्त अन्न है
कि चिन्ता की कोई बात नहीं
किस बाग में बैठूँ किस बरगद के नीचे
जहां बूढ़े सो रहे हों सकून की नींद
बच्चे खेल रहे हों गुल्ली डंडा
और मेरे रोम-रोम से निकले स्पफोट–
ध्न्यवाद…. ध्न्यवाद
किसी गली से गुजरूँ किस मुहल्ले से
जहां ढील हेरती औरतें
गा रही हों झूमर अपनी पूरी मग्नता में
लड़कियां बेपरवाह झूल रही हों रस्सियों पर झूले
मचल रहे हों जनमतुआ बच्चे अघाए हुए
किस गाड़ी पर चढ़ँू किस एक्सप्रेस में
जो सरकती हो हरनाथपुर के उस चौपाल तक
जहां मंगल मियां के ढोलक की थाप पर
होती है होरी
कान पर हाथ रखे करीमन यादव गाते हैं विरहा
और सजती है निठाली हरिजन की सिनरैनी
कैसी कविता लिखूँ कैसे छन्द
कि समय का पपड़ाया चेहरा हो उठे गुलाब
झरने लगे लगहरों के थनों से झर-झर दूध्
हवा में तैरने लगे अन्न की सोंध्ी भाप
किसकी गोद में सो जाऊँ किस आँचल की ओट में
कि लगे
किस बस मर जाऊँ
और क्षितिज तक गूँज उठे निनाद
ध्न्य हे पृथ्वी… ध्न्यवाद … ध्न्यवाद
लोहा और आदमी
वह पिघलता है
और ढलता है चाकू में
तलवार में बन्दूक में सुई में
और छेनी-हथौड़े में भी
उसी से कुछ लोग लड़ते हैं भूख से
भूखे लोगों के ख़िलाफ़
ख़ूनी लड़ाइयाँ भी उसी से लड़ी जाती हैं
कई बार फ़र्क़ करना मुश्किल होता है
लोहे और आदमी में ।
कविता
जैसे एक लाल-पीली तितली
बैठ गई हो
कोरे काग़ज़ पर निर्भीक
याद दिला गई हो
बचपन के दिन
अकेला आदमी
उसके अकेलेपन में कई अकेली दुनियाएँ साँस लेती हैं
उन अकेली दुनियाओं के सहारे
वह उस तरह अकेला नहीं होता है
अकेले आदमी के साथ चलती हुई
कई अकेली स्मृतियाँ होती हैं
कहीं छूट गए किसी राग की
एक हल्की-सी कँपकँपी की तरह
एक टूट गया खिलौना होता है
कुछ मरियल सुबह कुछ पीले उदास दिन
कुछ धूल भरी शामें
कुछ मुश्किल से बिताई गई रातें
इत्यादि…इत्यादि…
जो हर समय उसके चेहरे पर उभरी हुई दिख सकती हैं
कि उसके चलने में अपने चलने का वैशिष्ट्य
सिद्ध करते हुए स्पष्ट कौंध सकती हैं
लेकिन शायद ही यह बात हमारी सोच में शामिल हो
कि अकेला आदमी जब बिल्कुल अकेला होता है
तब वह हमारी नज़रों में अकेला होता है
हालाँकि उस समय वह किसी अदृश्य आत्मीय से
किसी महत्वपूर्ण विषय पर
ले रहा होता है कोई कीमती मशविरा
उस समय आप उसके हुँकारी और नुकारी को
चाहें तो साफ़-साफ़ सुन सकते हैं
अकेले आदमी की उँगलियों के पोरों में
आशा और निराशा के कई अजूबे दृश्य अटके रहते हैं
एक ही समय किसी जादूगर की तरह
रोने और हँसने को साध सकता है अकेला आदमी
अकेला आदमी जब बिल्कुल अकेला दिखता है
तब वास्तव में वह अकेलेपन के विशेषण को
सामूहिक क्रिया में बदल रहा होता है
और यह काम वह इतने अकेले में करता है
कि हमारी सोच के एकांत में शामिल नहीं हो पाता
और
सहता रहता है किसी अवधूत योगी की तरह वह
हमारे हाथों से फिसलते जा रहे समय के दंश
सिर्फ़ अपनी छाती पर अकेले
और हमारी पहुँच से दूर
अकेला आदमी कत्तई नहीं होता सहानुभूति का पात्र
जैसा कि अक्सर हम सोच लेते हैं
यह हमारी सोच की एक अनपहचानी सीमा है
नहीं समझते हम
कि अकेला आदमी जब सचमुच अकेला होता है
तो वह गिन रहा होता है
पृथ्वी के असंख्य घाव
और उनके विरेचन के लिए
कोई अभूतपूर्व लेप तैयार कर रहा होता है।
कथा
एक समय की बात है
एक तोता और एक मैना थके हुए
बैठ गये
एक तालाब के किनारे पेड़ की डाल पर
शहर अपनी रफ्रतार में
सुबह के ठीक पहले का अँध्ेरा
और तालाब में कुछ तैरता सा दिखता था
कौन है? मैना की आँख में कौतूहल
तोता गम्भीर-
नाम इसका रामध्नी,
पिता टिकधरी पंडित
मकाम पंचपेफड़वा, इंटरपास
इसे तलाश थी एक ऐसी जगह की
जहाँ गाड़ सके गाँव से आई बैरन चिट्ठियाँ
और साथ उसके आए
किसान पिता की कराह माँ की आँखों का ध्ुँआ
पत्नी का एकान्त विलाप
और ग्राईप वाटर की खाली शीशियाँ
स्मृति में बचे रह गए पवित्रा मन्त्रों के साथ
और भटकता रहा रामध्नी
दिन रात हफ्रतों महीनों वर्षों दशकों
इस शहर की गलियों चौराहा नुक्कड़ पुफटपाथों पर
उम्मीद की एक आखिरी रोशनी तक
एक अदद पवित्रा जगह की खोज में
-तोते ने एक ही साँस में कहा और उड़ गया
मैना देर तक डाल पर बैठी रही उदास
देखती रही
पानी पर तैरती और पानी में मिलती जा रही
उस आदमी की लाश
(कथा गया वन में…. सोचो अपने मन में)
रिफ़्यूजी कैम्प
(ज्ञान प्रकाश विवेक की एक कहानी पढ़कर)
अपने मुल्क से बेदखल वे चले आये हैं यहाँ रहने
एक अन्तहीन यु( से थके हुए उनके चेहरों पर
बाकी है अभी भी
जिन्दा रहने की थकी हुई एक जिद
वतनी लोगों की नजर में बेवतनी
वे छोड़ आये हैं
दरवाजों पर खुदे अपने पुरखों के नाम
आलमारी में रखे ढेरों कागजात
हर समय हवा में तैरते अपने छोटे-बड़े नाम
बिस्तर पर अस्त व्यस्त खिलौनों की आँखों के दहशत
और पता नहीं कितनी ही ऐसी चीजें
जिन्हें स्मृतियों में सहेजे रखना
उनके लिए असम्भव है
पृथ्वी पर एक और पृथ्वी बनाकर
वे सोच रहे हैं लगातार
कि इस पृथ्वी पर कहाँ है
उनके लिए एक जायज जगह
जहाँ रख सकें वे पुराने खत सगे-सम्बन्धियों के
छन्दों में भीगे राग सुखी दिनों के
गुदगुदी शरारतें स्कूल से लौटते हुए बच्चों की
शिकायतें काम के बोझ से थक गयी
प्रिय पत्नियों की
एक आदमी के ढेरों बयान जंग के समय के
और किताबों की पेफहरिस्त से चुनकर रखी हुईं
कविताएँ शान्ति के समय की
उनकी नशों में रेंग रही है
अपनों की असहाय चीखें
और उनके द्वारा गढ़े गये
एक नष्ट संसार की पागल खामोशी
जिन्हें टोहती आँखों में लेकर वे बेचैन घूमते हैं
उनकी मासूम पीठों पर लदी हैं
जंगी बारूदों की गठरियाँ
और हृदय में सो रही अनेक ज्वालामुखियाँ हैं
वे चुप आँखों से देख रहे हैं
दूर पहाड़ के पार असहाय और ध्ुँध्लाये सूरज को
जैसे अपने क्षितिजों में उगने की तरह
और रात में टिमटिमाते बत्तियों को
अपने छोटे आसमान में सनसनाते
किसी दहशत की खबर की तरह
उनके सपने में दिख रही हैं
सर्द लोहे की भयानक कानूनी आकृतियाँ
अपने पंजे में दबोचने को आगे बढ़ती हुईं
पर बार-बार कत्ल होने के बाद भी वे जिन्दा हैं
एक अदद जगह
और रोटी के कुछ टुकड़ों के अध्ैर्य इन्तजार में
वे चुप हैं कि उनके बोलने पर पाबन्दी है
उनके रूखे दिलों में
पैफलता जा रहा है एक रेगिस्तान
सिर उनके सामूहिक झुकते जा रहे हैं
पाताल की ओर
मनुष्यता के पार की यात्रा कर रहे वे
सबकुछ होकर भी निकल जाना चाहते हैं कैंपों से
चले जाना चाहते हैं किसी अनन्त यात्रा पर
पहुँच जाना चाहते हैं एक ऐसे पड़ाव तक
जहाँ रोप सकें अपनी पोटली में जिन्दा रह गये
एक आखिरी अध्सूखे पौध्े को
चलते वक्त उखाड़ लाये थे जिसे अपने आँगन से
और सबकुछ होकर भी वे बना लेना चाहते हैं अन्ततः
उम्मीद के रेत पर
छूट गए अपनी-अपनी दुनिया के साबुत नक्शे
पिफलहाल उनके लिए
यह दुनिया की सबसे बड़ी चिन्ता है
जब कुछ भी शेष नहीं रहता सोचने को
जब कुछ भी शेष नहीं रहता सोचने को
एक पेड़ जन्म लेता है
मन की घाटियों में कहीं
बढ़ता है धीरे-धीरे
अपनी आदत में निमग्न
नीचे उसके कबड्डी चीका
सूरजा चमार के साथ गुल्ली डंडा
छुआ-छूत के खेल
बेतहाशा भागते छुपते-छुपाते हम
शरारती बच्चों की टोलियाँ
और….
… कितना पानी घो-घो रानी
… कितना पानी घो-घो रानी
और दवनी करते बकुली बाबा
और खलिहान में रबी की लाटें
और घास चरती बकरियों से
बतियाती बंगटी बुढ़िया
और ढील हेरती औरतें
और खईनी मलते चइता की तान में
मगन दुलार चन काका
और धीरे-धीरे हमारी
मूँछों की गहराती हुई पाम्ही
छाया उसी पेड़ की हमारे
नादान दिनों की साक्षी
जब कुछ भी शेष नहीं रहता सोचने को
अपने अतीत में हम शिशु हो जाते हैं
और एक पेड़ की परिक्रमा करते हुए
गहरे स्मृति के क्षणों में
हम आख़िरी बार जी रहे होते हैं
सच तो यह है
हम वहाँ तो नहीं पहुँच गये हैं
कि समय के चेहरे पर झुरियाँ पड़ गयी हैं
रात हमारे मन में एक दुःस्वप्न की तरह भरी हुई
और हमें इन्तजार कि
कौन सबसे पहले अलविदा कहता है
हम ऐसे तो नहीं हो गए हैं
कि हमारे हृदय की कोख में
संवेदना का एक भी बीज शेष नहीं रह गया
यह सच नहीं है
सच तो यह है और यह सच भी हमारे साथ है
कि मरे से मरे समय में भी कुछ घट सकने की सम्भावना
हमारी साँसों के साथ ऊपर-नीचे होती रहती है
और हल्की-पीली सी उम्मीद की रोशनी के साथ
किसी भी क्षण परिवर्तन के तर्कों को
अपनी घबराई मुट्ठी में हम भर सकते हैं
और किसी पवित्रा मन्त्रा की तरह करोड़ों
लोगों के कानों में पूंफक सकते हैं
कोई भी समय इतना गर्म नहीं होता
कि करोड़ों मुट्ठियों को एक साथ पिघला सके
न कोई अकेली भयावह आँध्ी, जिसमें बह जाएँ सभी
और न सही कोई
एक मुट्ठी तो बच ही रहती है
कोई एक तो बच ही रहता है
जमीन पर मजबूती से कदम जमाए
कोई एक बूढ़ा, कोई एक पाषाण…
न सही कोई और,
एक मुट्ठी तो बच ही रहती है….
ग़नीमत है अनगराहित भाई
अपनी गँवई ध्ूल की सोंध्ी गन्ध् को अपने बस्ते में छुपाए
अपने हिस्से की थोड़ी सी हवा को पेफपफड़े में बाँध्े
हम चले आये थे इतनी दूर
यहाँ आदमी बनने के लिए
छोड़ आये थे अनगराहित सिंह और सूकर जादो को
दूर उस बरगद के नीचे
जो अकेला गवाह था हमारी तोतली जबान का
और दुहराता था हमारी ही लय में
एक दूना दो
दो दूना चार
चार नवा छत्तीस
बाँटता था पँचपाइसी गोलियामिठाई की जगह
मुफ्रत में ऑक्सीजन से लबालब हवा
वही आकाश हमारा
उसी के नीचे ध्रती
नादान समय वह
वहीं रटते थे चार डेढ़े छव का पहाड़ा
और चले आये थे वहीं से इतनी दूर
यहाँ आदमी बनने के लिए
पंडी जी कहते थे
पहाड े़ पहाड ़ पर पहँचु ान े क े सबस े सस्त े आरै उपलब्ध् साध्न हैं
जब भी तुम्हें लगे कि तुम्हारे द्वार पर
नीम तक रोपने की जगह नहीं बची
तो याद करना मिट्टी के स्लेट पर लिखे पहाड़े को
तुम्हे आश्चर्य होगा कि तुम पहाड़ पर हो
और ला सकते हो जमीन का एक टुकड़ा उठाकर
रोप सकते हो उस पर नीम धन गेहूं अमलतास याकि गुलाब
या इनसे अलग
नन्हे-नन्हें प्रेम की नन्ही परिभाषाएँ
अब तो इतना ही याद है कि पंडी जी कुछ कहते थे
समय की इतनी लम्बी पगडंडियों के पार
आज हम ढूंढते हैं बस्ते में छुपाकर लाई वह ध्ूल
वह मिलती है
लोगों के बदरंग चेहरे पर उगे अंकों के रहस्य खोजती हुई
और हमारी खेतिहर बु(ि किताबों के बोझ तले दबी हुई
और नीमकौड़ी जैसे अंक
याकि पहाड़ा
शहर के सबसे बदबूदार परनाले में
पर गनीमत है अनगराहित भाई
और तुम ध्न्य हो सूकर जादो
बची है तुम्हारे पास आज भी पवित्रा ध्ूल
भभूति उपले और सकील की
मन्त्रा की तरह बुदबुदाते हो पहाड़ा
कर आते हो पहाड़ों की सैर रोज ही
और हमारी सुनो
सुन रहे हो न सूकर जादो
आदमी बनने इस शहर में आए हम
अपने पुरखों की हवेली की तरह ढह गये हैं
कि कितने कम आदमी रह गए हैं
गनीमत है अनगराहित भाई
और तू ध्न्य है रे सुकरा
कि तुम्हारे आदमी होने का गवाह
खड़ा है वह बरगद तुम्हारे साथ
और पंड़ी का पहाड़ा आज भी तुम्हें कंठस्थ ह
समय है न पिता
समय है न पिता कि बदलता रहता है
तुम चाहे बैठे रहो देहरी पर अनजान
खोये रहो अपने पटान हो गये खेतों के
दुबारा लौट आने के असम्भव सपने में
पर सूरज है न कि एक बार उगने के बाद
दुबारा वैसे ही नहीं उगेगा
पैफल जाएगी ध्ीरे-ध्ीरे शहर की ध्ूल
तुम्हारे घर के एक-एक कोने तक
तब कैसे बचाओगे पिता तुम
अपनी साँसों में हाँपफ रही
पुरखों की पुरानी हवेली
समय है न पिता कि सबसे बड़ा सबसे बलवान
उसे छोड़कर भाग जाओगे, तो भी कहाँ तक
अन्ततः तो तुम्हें एक जगह रूकना ही पड़ेगा
तुम्हारे आँगन में तुलसी के साथ
गुलाब के पूफल भी रोपे जाएँगे
तुम खिसिया जाओगे
हो सकता है कि गुलाब को देश निकाला दे दो
पर समय पिता, उससे कैसे लड़ोगे
चाहे भूल जाओ तुम समय को
अपने संस्कारों की अन्ध्ी भीड़ में
पर समय पिता
वह तो बदलेगा आगे बढ़ेगा ही उसका रथ
तुम चाहे बैठे रहो
अपने झोले में आदिम स्मृतियाँ संजोए
पर एक बार हुई सुबह दुबारा
वैसी ही नहीं होगी
और हर आने वाला दिन
नहीं होगा बिल्कुल पहले की तरह
कुम्हार का चाक भूख भैरवी और एक प्रश्न
समय उसकी मुट्ठी से
आहिस्ता-आहिस्ता रेत की तरह झर रहा है
आ बैठा है वह अरार पर बेखबर
समय के भूखे पेट में बिलाते जा रहे सूरज के साथ
सुन रहा है वह
पानी को चीरकर दूर देश से आती हुई
बाँसुरी की म(िम तान
राग भैरवी
रूक गया है समय का चाक
या कि वह झर रहा है लगातार
जैसा कि अक्सर होता है भीमसेन जोशी के पागल अलाप में
हालांकि वह नहीं जानता
कि भीमसेन नहीं रोक सकते हैं समय का झरना
और सूरज का ध्ीरे-ध्ीरे गायब हो जाना
या यह कि भैरवी की महक
अध्कि लुभावनी नहीं हो सकती
बाजरे की सोंध्ी महक से
भूल गया है वह एक अकेली मुट्ठी
और उससे झरते जा रहे समय को
चाक रुक गया है उसका
कि समय झरकर रुक गया है उसके लिए
पड़ा है मिट्टी का लोन्दा
वैसे ही चार दिन से
और लगभग नहीं गाया गया है
नाचते चाक की लय पर
माटी का कोई बहुत ही सुरीला आदिम गीत
लगभग उतने ही दिन
और उतनी ही रात से
आ बैठा है वह यहाँ इस एकान्त में
रोटी के सपने को
पत्नी की बिसुरती आँखों में छोड़कर
और भूख को
जनमतुआ के पेट में बिलबिलाता हुआ
कि आज पूछेगा ही गंगिया माई से
कि कैसे बाजरे की रोटी
और प्याज की एक पफारी के बिना
सदियों रह लेते थे साध्ु महात्मा इस गरीब देश के
इस बसन्त में
जंगल के सारे वृक्ष काट दिए गये हैं
सभी जानवरों का शिकार कर लिया गया है
पिफर भी इस बसन्त में
मिट्टी में ध्ँसी जड़ों से पचखियाँ झाँक रही हैं
और पास की झुरमुट में एक मादा खरगोश ने
दो जोड़े उजले खरगोश को जन्म दिया है
बात ऐसी तो नहीं थी
बात ऐसी तो नहीं थी
कि कोई कविता लिखी जाती
हम तीन थे
अपने को ढोते हुए सड़क के बीचो बीच
याद कर रहे थे अपने छूट गये घरों के नक्शे
तंग आ गए बूढ़े पिताओं के निरपराध् चेहरे
सड़क इतनी लम्बी थी कि इन्तजार थी
रात इतनी गहरी कि अन्ध्ी
एक जगह पहुँच जाने की व्यग्रता में
हम चल रहे थे एक दूसरे को सम्हाले
कदम हमारे हाँपफते हुए
हमारी थकी साँसे एक दूसरे को सहारा देती हुईं
तुम्हें क्या लगता है कल दुनिया यह बची रहेगी
µवह निराश था
आजकल अपनी प्रेमिका की जुल्पफों के
अँध्ेरे में मुझे डर लगता है
µदूसरा भयभीत
यार इतनी बड़ी दुनिया में कोई एक नौकरी नहीं
µमुझे रसोई घर के खाली डिब्बे याद आ रहे थे
जीवने जोदि दीप जालाते नाइ पारे…..
अगले जन्म में मैं पेड़ बनूंगा
एक चिड़िया घोसला बनाएगी गाएगी बहुत ही मध्ुर स्वर में
दुनिया चाहे न बचे पेड़ तो बचे रहेंगे न
मैं नशे में हूँ यदि मर जाऊं तो क्या कहोगे मेरी प्रेमिका से
जीवने जोदि दीप जालाते नाइ पारो….
क्या सचमुच दुनिया यह बची रहेगी
कितनी दारूण है यह कल्पना
जीवने जोदि दीप जालाते नाइ पारो
हम एक पेड़ के नीचे बैठ गये थे
सड़क अन्तहीन
हमारे घर के दरवाजे लगभग बन्द
बात ऐसी तो न थी
कि कोई कविता लिखी जाती
दूर शायद मुर्गे ने बांग दिया था
रात नशे की तरह उतर चली थी
हम एक दूसरे की आँख में एकटक देखते हुए
एक अच्छी सुबह
कि किसी अनहोनी घटना का इन्तजार कर रहे थे
वैसे बात ऐसी तो नहीं थी
कि कोई कविता लिखी जाती….
थके हुए समय में
रात अपनी बाजुओं में
जकड़ती गयी
थकी हुई देह पर
अँध्ेरा बिछ गया
सन्नाटा सिर पर
सरकता रहा
तारे चेतना में बीतते रहे
शायद एक चिड़िया ने ध्ीरे से
कहा था
कि संकट से पटा समय
दरअसल
संकट में नहीं था
कहीं कोई नहीं हुई थी दुर्घटना
मरा नहीं था कोई
कड़कड़ाती ठंढ से
भूख ने विवश नहीं किया था
किसी बच्चे को
सड़क पर
भीख मांगने के लिए
कुल मिलाकर
रात गाभिन गाय की तरह अलसाई थी
और थके हुए समय में
उसे सचमुच
झपकी आ गयी थी
एक कविता जन्म ले रही है
अभी-अभी खिला है
)तु बसन्त का एक आखिरी पलाश
मेरे बेरोजगार जीवन के
झुर्रीदार चेहरे पर
उसकी छुअन में मन्त्रों की थरथराहट
भाषा में साँसों के गुनगुने छन्द
स्मित होठों का संगीत
ध्रती के इस छोर से
उस छोर तक
लगातार हवा में तैर रहा है
मैं आश्वस्त हूँ
कि रह सकता हूँ
इस निर्मम समय में अभी
कुछ दिन और
उग आए हैं कुछ गरम शब्द
मेरी स्कूली डायरी के पीले पन्ने पर
और एक कविता जन्म ले रही है
अँधेरे में एक आवाज़
अँध्ेरे में एक आवाज है
अँध्ेरे को
रह-रह कर बेध्ती
अँध्ेरे में तुम हो
अँध्ेरे से लड़ती
तुम्हारे होने को
झंकझोरता हुआ बार-बार
मैं हूँ अँध्ेरे में
हम सभी हैं
अँध्ेरे में
और अँध्ेरे में
अँध्ेरा है
एक आवाज के साथ
जब प्रेम
नींद के साथ अभी-अभी रात का जादू टूटा है
सूरज मुझे नरम हाथों से सहला रहा है
और मेरे दोनों हाथ
पलाश की पंखुडी में अटके
एक मोती की अभ्यर्थना में उठ गए हैं
सुबह की सफ़ेद झालर से छिटका
रोशनी का एक कतरा
मेरी चेतना में टपका है
और मेरी बासी देह
एक असीम शक्ति से फैलती जा रही है
एक दूधिया कबूतर
आकाश की नीलिमा को पंखों में बाँधने
उड़ान भरता है
साथ उसके उड़ता मैं
दिगंत में अदृश्य हो जाता हूं
मंत्रों की सोंधी वास धीरे-धीरे
मेरे मन के उलझे रेशों को गूंथ रही है
और सदियों से दुबका एक स्वप्न
चारों ओर उजाले की तरह फैल रहा है
ज़मीन सोनल धूप में उबल रही है
आहिस्ता-आहिस्ता
पृथ्वी के बचे रहने की गंध में
पूरा इलाका मदहोश है
हो रहा यह सब मेरे समय के हिस्से में
कि जब प्रेम एक पूरा ब्रह्मांड
और मैं
इस होने का
एकांत साक्षी…
ईश्वर हो जाऊँगा
शब्दों में ही खोजूँगा
और पाऊँगा तुम्हें
वर्ण-वर्ण जोड़कर गढूँगा
बिल्कुल तुम्हारे जितना सुन्दर
एक शब्द
और आत्मा की सम्पूर्ण शक्ति भर
पूँफक दूँगा निश्छल प्राण
जीवन्त कर तुम्हें कवि हो जाऊँगा
कि ईश्वर हो जाऊँगा
कठिन समय में प्रेम
एक कठिन समय में मैंने कहे थे
उसके कानों में
कुछ भीगे हुए-से शर्मीले शब्द
उसकी आँखों में मुरझाए अमलतास की गन्ध् थी
वह सुबक रही थी मेरे कान्ध्े पर
आवाज लरजती हुई-सी
कहा था बहुत ध्ीमे स्वर में-
यह ध्रती मेरी सहेली है
और ध्रती को रात भर आते रहते हैं डरावने सपने
कई पूफल मेरे आँगन के, दम घुटने से मर गये हैं
खामोशी मेरे चारों ओर ध्ुएँ की तरह पसरी रहती है
वह चुप थी
भाषा शब्दों से खाली
एक ऐसा क्षण था वह हमारे बीच
कि उसकी नींद में खुलता था
और पैफल जाता था चारों ओर एक ध्ुँध् की तरह
हम बीतते जाते थे रोज
हमारे चेहरे की लकीरें बढ़ती जाती थीं
पिफर एक दिन
लौटाया था उसने
मेरे भीगे हुए वे शब्द
हू-ब-हू वैसे ही
चलते-चलते उसकी आँखों के व्याकरण में
कौंध्ी थी कुछ लकीरें
शायद उसे कहना था
सुनो, मैं ध्रती हूँ असंख्य बोझों से दबी हुई
शायद उसे यही कहना था
वह हमारी आखिरी मुलाकात थी
स्कूल की डायरी से
तब देर रात गए एक पागल तान
अँधेरे के साँवर कपोलों पर फेनिल स्पर्श करती थीं
बसंती झकोरों में मदहोश एक-एक पत्तियाँ
लयबद्ध नाचती थीं
जंगल में बजते थे घुँघरू
चाँद चला आता था तकिए के पास
कहने को कोई एक गोपनीय बात
नींद खुलती थी पूरबारी खिड़की से चलकर
सुबह का सूरज सहलाता था गर्म कानों को
और माँ के पैरों का आलता
फैल जाता था झनझन पूरे आँगन में
तब पहली बार देखी थी मैंने
नदी की उजली देह
भर रही थी मेरी साँसों में
पहली बार ही
झँवराए खेतों की सोंधी-सोंधी हँसी
दरअसल वह ऐसा समय था
कि एक कविता मेरी मुट्ठी में धधकती थी
मैं भागता था
घर की देहरी से गाँव के चौपाल तक
सौंपने के लिए
उसे एक मासूम-सी हथेली में
सूरज डूबता था
मैं दौड़ता था
रात होती थी
मैं दौड़ता था
अंततः हार कर थक गया बेतरह मैं
अपनी स्कूल की डायरी में लिखता था एक शब्द
और चेहरे पर उग आई लालटेन को
काँपते पन्नों में छुपा लेता था ।
अन्ततः बस.
एक बहुत ध्ीमी बून्द
अमलतास के ललछौहूं झोंझ पर
और एक सर्द अलसाये मानस पर
एक बून्द सिरिस के छतनार माथे पर
और एक
हमारे घरौंदे की दहलीज पर
हमारे वजूद के बीच भी
एकदम शान्त
एक बून्द
आकाश की छाती पर घनघोर
ध्रती की कोख में एक आखिरी
बस अन्तिम
एक ध्ध्कती कविता के
बिल्कुल अन्तिम शब्द की तरह
अकेली एक बून्द
और अन्ततः
सापफ सोनल आकाश की दीर्घ विस्तार
अन्ततः बस…
तुम्हारे लिए
छान्ही पर रोज ही बैठती है एक चिड़िया
चहकती है कुछ देर
और लौट जाती है
नीम के पेड़ की ओर
बहुत देर तक बजता है एक सन्नाटा
पिफर मन के डैने
पफड़पफड़ाते हैं
और बार-बार
मैं लौट जाना चाहता हूँ
एक छूट गए घरौंदे में
सिर्पफ तुम्हारे लिए
एक तस्वीर देखकर
झर रहे हैं पियराये पूफलों के गुच्छे
आहिस्ता-आहिस्ता
बादलों के उजास को चीरकर
अल्लढ़ खड़े हैं कुछ जंगली पौध्े
नशेबाज दरवानों की तरह
दुनिया के सबसे सुन्दर दिखने वाले
इस घर के चारों ओर
लॉन में गोलमेज पर पड़ी
उदास प्यालियों को
इन्तजार है कुछ काँपते होठों का
और अन्हुआई हुई खाली कुर्सियों को
मानुष गन्ध् की शान्त प्रतीक्षा है
और बेतरह परेशान कर रहा है मुझे
यह सवाल
कि एक सि( कविता की तरह मुकम्मल
इस अकेले घर में
कोई नहीं रहता
या कि कोई नहीं रहेगा… ???
प्यार करते हुए
शब्दों से मसले हल करने वाले बहरूपिए समय में
मैं तुम्हें शब्दों में प्यार नहीं करूँगा
नीम अँधेरे में डूबे कमरे के रोशन छिद्र से
नहीं भेजूँगा वह ख़त
जिस पर अंकित होगा
पान के आकार का एक दिल
और एक वाक्य में
समाए होंगे सभ्यता के तमाम फ़लसफ़े
कि मैं तुम्हें प्यार करता हूँ
मैं खड़ा रहूँगा अनंत प्रकाश वर्षों की यात्रा में
वहीं उसी खिड़की के समीप
जहाँ से तुम्हारी स्याह ज़ुल्फ़ों के मेघ दिखते हैं
हवा के साथ तैरते-चलते
चुप और बेआवाज़
नहीं भेजूँगा हवा में लहराता कोई चुंबन
किसी अकेले पेड़ से
पालतू खरगोश के नरम रोएँ से
या आइने से भी नहीं कहूँगा
कि कर रहा हूँ मैं
सभ्यता का सबसे पवित्र
और सबसे ख़तरनाक कर्म…
अर्थ-विस्तार
जब हम प्यार कर रहे होते हैं
तो ऐसा नहीं
कि दुनिया बदल जाती है
बस यही
कि हमें जन्म देने वाली माँ के
चेहरे की हँसी बदल जाती है
हमारे जन्म से ही
पिता के मन में दुबका रहा
सपना बदल जाता है
और
घर में सुबह-शाम
गूँजने वाले
मंत्रों के अर्थ बदल जाते हैं
पहली बार
जब पहली बार मैंने प्यार किया
तो सोचा-
इसे सच कर रख दूँगा
जैसे दादी अपने नैहर वाली बटलोही में
चोरिका संचती थी
उछाह में दुलारूँगा, जैसे अपने रूखर हाथों से
दुलारते थे बकुली बाबा, झंवराये हुए ध्नहा जजाति को
जीवन भर निरखूँगा निर्निमेष
आँखों में मोतिया के ध्ब्बे बनने के बाद भी
अमगछिया के रखवारे
टूंआ हरिजन की तरह
जब पहली बार मैंने प्यार किया
तो समझा-
सपना केवल शब्द नहीं, एक सुन्दर गुलाब होता है
जो एक दिन
आँखों के बियाबान में खिलता है
और हमारे जीने को
देता है एक नया अर्थ
- अर्थ, कि आत्महत्या के विरू( एक नया दर्शनद्ध
जब पहली बार मैंने प्यार किया
तो महसूस हुआ
कि हर सुबह पूरबारी खिड़की से
सूरज की जगह, अब मैं उगने लगा हूँ
और कोईरी डोमिन की रहस्यमय मुस्की में
कहीं-न-कहीं मेरी सहमति शामिल है
हर सुबह बिनने लगी है
महुए के पूफलों की जगह वह
क्षण के छोटे-छोटेू महुअर
याकि मन के छोटे-छोटे अन्तरीप
राजघाट पर घूमते हुए
दूर-दूर तक फैली इस परती में
बेचैन आत्मा तुम्हारी
पोसुए हरिनों की तरह नहीं भटकती ?
कर्मठ चमड़ी से चिपटी तुम्हारी सफ़ेद इच्छाएँ
मुक्ति की राह खोजते
जल कर राख हो गईं
चंदन की लकड़ी और श्री ब्राँड घी में
और किसी सफ़ेदपोश काले आदमी के हाथों
पत्थरों की तह में गाड़ दी गईं
मंत्रों की गुँजार के साथ
…पाक रूह तुम्हारी काँपी नहीं??
अच्छा, एक बात तो बताओ पिता-
विदेशी कैमरों के फ्लैश से
चौंधिया गई तुम्हारी आँखें
क्या देख पा रही हैं
मेरे या मेरे जैसे
ढठियाए हुए करोड़ो चेहरे???
तुम्हारी पृथ्वी के नक्शे को नंगा कर
सजा दिया गया
तुम्हारी नंगी तस्वीरों के साथ
सजा दी गई
तुम्हे डगमग चलाने वाली कमर घड़ी
(तुम्हारी चुनौती)
रूक गई वह
और रूक गया सुबह का चार बजना??
और पिता
तुम्हारे सीने से निकले लोहे से नहीं
मुँह से निकले ‘राम’ से
बने लाखों हथियार
जिबह हुए कितने निर्दोष
क्या दुख नहीं हुआ तुम्हे?
शहर में हुए
हर हत्याकाण्ड के बाद
पूरे ग्लैमर के साथ गाया गया-
रघुपति राघव राजा राम
माथे पर तुम्हारे
चढ़ाया गया
लाल-सफेद फूलों का चूरन
बताओं तुम्हीं लाखों-करोड़ों के जायज पिता
आँख से रिसते आँसू
पोंछे किसी लायक पुत्र ने??
तुम्हारे चरखे की खादी
और तुम्हारे नाम की टोपी
पहन ली सैकड़ों -लाखों ने
कितने चले
तुम्हारे टायर छाप चप्पलों के पीछे…??
भरोसे के तन्तु
ऐसा क्या है कि लगता है
शेष है अभी भी
ध्रती की कोख में
प्रेम का आखिरी बीज
चिड़ियों के नंगे घोंसलों तक में
नन्हें-नन्हें अण्डे
अच्छे दिनों की प्रार्थना में लबरेज किंवदंतियाँ
चूल्हे में थोड़ी सी आग की महक
घर में मसाले की गन्ध्
और जीवन में
एक शर्माती हुई हँसी
क्या है कि लगता है
कि विश्वास के
एक सिरे से उठ जाने पर
नहीं करना चाहिए विश्वास
और हर एक मुश्किल समय में
शिद्दत से
खोजना चाहिए एक स्थान
जहाँ से रोशनी के कतरे
बिखेरे जा सकें
अँध्ेरे मकानों में
सोच लेना चाहिए
कि हर मुश्किल समय लेकर आता है
अपने झोले में
एक नया राग
बहुत मध्ुर और कालजयी
कोई सुन्दर कविता
ऐसा क्या है कि लगता है
कि इतने किसानों के आत्महत्या करने के बाद भी
कमी नहीं होगी कभी अन्न की
कई-कई गुजरातों के बाद भी
लोगों के दिलों में
बाकी बचे रहेंगे
रिश्तों के सपेफद खरगोश
क्या है कि ऐसा लगता है…
और लगता ही है…..
एक ऐसे भयावह समय में
जब उम्मीदें तक हमारी
बाजार के हाथ गिरवी पड़ी हैं
कितना आश्चर्य है
कि ऐसा लगता है
कि पूरब से एक सूरज उगेगा
और पैफल जाएगी
एक दुध्यिा हँसी
ध्रती के इस छोर से उस छोर तक…
और हम एक होकर
साथ-साथ
खड़े हो जाएँगे
इस पृथ्वी पर ध्न्यवाद की मुद्रा म
किसान
गेहूँ की लहलाहती
बालियों के बीच
वह खड़ा है
सरसों के पूफल की तरह
एकदम पियराया हुआ
गुजरात
दब गयी हैं ईश्वर की मूर्तियाँ
पैगम्बरों की आत्माएँ
सुलग रहे
मलवों के नीचे
शहर की साँस पूफल रही है
एक अन्ध
हाथ में कटोरा लिये
सरक रहा है सूनी सड़क पर
ईश्वर-अल्लाह के नाम पर
भीख मांगते हुए
तो समझना
जहाँ सबकुछ खत्म होता है
सबकुछ वहीं से शुरू होता है
तुम्हें जब भी लगे-
कि तुम्हारे हिस्से की सारी जमीन
छीन ली गयी है
तुम्हारे सपनों को
किसी महान आदमी के पुतले के साथ
जला दिया गया है
और खड़ा कर दिया गया है तुम्हें
शरणार्थी का नाम देकर
एक अजनबी दुनिया में
विज्ञापन की तरह
तो समझना ;जैसे कि मैंने समझा हैद्ध
कि तुम्हारे हिस्से की हवा में
एक निर्मल नदी बहने वाली है
तुम्हारे हृदय के मरूथल में
इतिहास बोया जाना है
और ध्मनियों में शेष
तुम्हारे लहू से
सदी की सबसे बड़ी कविता लिखी जानी है
आग, सभ्यता, चाय और स्त्रियाँ
सदियों पहले आग के बारे में
जब कुछ भी नहीं जानते थे लोग
तब चाय के बारे में भी
उनकी जानकारी नहीं थी
स्त्रिायाँ नहीं जानती थीं
चाय की पत्तियाँ चुनना
और आँसुओं के खामोश घूँट
बून्द-बून्द पीना भी
ठीक से नहीं मालूम था उन्हें
पिफर कुछ दिन गुजरे
और आग की खोज की किसी मनुष्य ने
और ऐसे ही सभ्यता के किसी चौराहे पर
बहुत कुछ को पीने के साथ
उसे चाय पीने की तलब लगी
तब तक आग से
स्त्रिायों की घनिष्ठ रिश्ता बन गया था
और सीख लिया था स्त्रिायों ने
अपने नरम हाथों से पत्तियाँ चुनना
तब तक सीख लिया था
स्त्रिायों ने
किवाड़ों की ओट में
चाय की सुरकी के साथ
बून्द-बून्द नमकीन
ओर गरम आँसू चुपचाप पीते जाना
उन्हीं दिनों
तब उसकी आँखों में अटके रहते थे
बसन्त के शुरुआती कोंपल
सर्द मौसम की नमी अशेष होती थी
पीले हृदय के रोएँदार जंगलों में
रोहिणी की आखिरी बूँदें
झरकर चुपचाप
मौसम की अँधेरी सुरंगों में लौट जाती थीं
देहरी पर खड़ा होता था एक पेड़
पेड़ पर बैठती थी एक चिड़िया
वही
जो चली गयी थी एक दिन दबे पंख
लौटने की असम्भव प्रतीक्षा की कूक
आँगन के अकेले ताख पर छोड़कर
शायद उन्हीं दिनों पहली बार
शरमायी थी वह शरमाने की तरह
शायद उन्हीं दिनों
रोती रही थी वह
हफ्तों किवाड़ों की ओट में
महानगर में एक मॉडल
दो दिन पहले उसे देखा गया था रुपहले पर्दे पर
अधनंगी हालत में
एक विदेशी साबुन मलकर नहाते हुए
और चार दिन से चटकल खुलने का इन्तजार करते मजूर
उसकी देह की मांसलता के गुमान में भूल गये थे
पेट की ऐंठन
अपने मासूम बच्चों के बिलबिलाते चेहरे
एक अधबुझी चिनगारी सुलग आयी थी उनकी किंचरी आँखों में
कि देह की कोई एक नस तन गयी थी
ऐन चौबीस घंटे बाद उसे देखा गया
एक प्रसिद्ध चॉकलेटी अभिनेता के साथ
ईख के खेत में अभिसार करते हुए
और क्लोज-अप मुस्कान के सफेद धुन्ध में
अबूतर-कबूतर
तोता-मैना की तरह
ठोर से ठोर मिलाने का खेल खेलते हुए
एक रिक्शे वाले ने
अपनी लुंगी का पोज ठीक करते हुए टिटकारी ली थी
और भूल गया था
पता नहीं और कितने लोगों की तरह
अपनी दुखियारी पत्नी के झुरा गए होठों का नमकीन स्वाद
और झूल गए चेहरे का अर्द्धरूमानी सौन्दर्यशास्त्र
कुछ ही पल गुजरे थे
कि वह देखी गयी झलमल कपड़े में
लपलपाती नजरों की कामुक दुनिया के बीच
कैटवॉक करती हुई
उसकी कसी देह मचलती-सी चारों और फैल जाने को
बादलों को चीर कर निकलने वाली रोशनी की तरह
झिलमिलाते गुलाब खिले हुए हिलते-से
उसके इठलाते कदम पर
और उसके हर स्पंदन पर मदहोश होते लोग
भूल गये थे यह सोचना
कि एक स्त्री ने ही जन्म दिया था उन्हें भी
एक भयानक और पीड़ादायक स्थिति में
उसी रात एक सुनसान सड़क पर वह देखी गयी
लड़खड़ाती हुई
साथ में मिलिन्द सोमण जैसा एक मॉडलनुमा चेहरा
और लड़का अपनी छाती से उसे सम्हालता हुआ
दृश्य बदला तो वह पड़ी थी एक सफेद इण्डिका में
कोई नहीं था वहाँ उसके साथ उस समय
सिवाय माँ की हिदायत भरी चिट्ठियों
और जाम टूटे शराब की तरह बहती एक अपवित्र नहीं के
प्रिय पाठको! कहने वाले कहते हैं
कि आखिरी बार वह एक नर्सिंग होम में देखी गयी
आँखें उसकी असमय मसल दी गयी पंखुड़ियों-सी
और देह का उभार कुछ बढ़ गया था
दर्द के आवेश में चीखने की आवाज उसकी सुनी गयी –
मैं जीना नहीं चाहती
मार डालो मुझे
मेरे खून में इस शहर की मक्कार बदबू रेंग रही है
भर गया है मेरी देह में
महानगरी आधुनिकता का सफेद लांछन
मैं जीना नहीं चाहती…
प्रिय पाठको! उसकी यह अन्तिम आवाज थी
जिसे बहुत कम लोगों ने सुना
अब वह कहाँ है जिन्दा है कि मरी कोई नहीं जानता
उसके बाद आज तक वह कहीं भी नहीं देखी गयी
पीली साड़ी पहनी औरत
सिंदूर की डिबिया में बंद किए
एक पुरूष के सारे अनाचार
माथे की लाली
दफ़्तर की घूरती आँखों को
काजल में छुपाया
एक खींची कमान
कमरे की घुटन को
परफ्यूम से धोया
एक भूल-भूलैया महक
नवजात शिशु की कुँहकी को
ब्लाऊज में छुपाया
एक ख़ामोश सिसकी
देह को करीने से लपेटा
एक पीली साड़ी में
एक सुरक्षित कवच
खड़ी हो गई पति के सामने —
अच्छा, देर हो रही है
एक याचना
.. और घर से बाहर निकल …
स्त्रियाँ
एक
इतिहास के जौहर से बच गयी स्त्रियाँ
महानगर की आवारा गलियों में भटक रही थीं
उदास खुशबू की गठरी लिये
उनकी अधेड़ आँखों में दिख रहा था
अतीत की बीमार रातों का भय
अपनी पहचान से बचती हुई स्त्रियाँ
वर्तमान में अपने लिए
सुरक्षित जगह की तलाश कर रही थी
दो
पुरुषों की नंगी छातियों में दुबकी स्त्रियाँ
जली रोटियों की कड़वाहट के दुःस्वप्न से
बेतरह डरी हुई थीं
उनके ममत्व पर
पुरुषों के जनने का असंख्य दबाव था
स्याह रातों में किवाड़ों के भीतर
अपने एकान्त में
वे चुपचाप सिसक रही थीं सुबह के इन्तजार में
तीन
स्त्रियाँ इल्जाम नहीं लगा रही थीं
कह रही थीं वही बातें
जो बिल्कुल सच थी उनकी नजर में
और अपने कहे हुए एक-एक शब्द पर
वे मुक्त हो रही थीं
इस तरह इतिहास की अन्धी सुरंगों के बाहर
वे मनुष्य बनने की कठिन यात्रा कर रही थीं
माँ
एक
माँ के सपने घेंघियाते रहे
जाँत की तरह
पिसते रहे अन्न
बनती रही गोल-गोल मक्के की रोटियाँ
और माँ सदियों
एक भयानक गोलाई में
चुपचाप रेंगती रही
दो
इस रोज बनती हुई दुनिया में
एक सुबह
माँ के चेहरे की झुर्रियों से
ममता जैसा एक शब्द गुम गया
और माँ
मुझे पहली बार
औरत की तरह लगी
आजकल माँ
आजकल माँ के
चेहरे से
एक सूखती हुई नदी की
भाप छुटती है
ताप बढ़ रहा है
धीरे-धीरे
बस
बर्फानी चोटियाँ
पिघलतीं नहीं
स्त्री थी वह
अपने हिस्से के खामोश
शब्दों की बेचैनी को
उसने बाँध कर रख लिया
खोंईछे में बँधे चावल और हल्दी की तरह
कि छुपा लिया अपनी कविताओं की
पुरानी डायरी में
कहीं छूट गये प्रेम के
आखिरी रंग की तरह
और लगभग बन्द कर दिया
पेड़ को पेड़ साबित करने के पक्ष में तर्क देना
अपने हिस्से के दम्भी शब्दों को मैं साथ ले गया
सड़कों चौराहों चटकलों शेयर बाजारों
नेताओं और दलालों के बीच
पेड़ के अकेलेपन को सिद्ध किया मैंने जंगल
और काली वनस्पतियों को
खेत साबित करने में
अपने जबान की सारी मक्कारी लगा दी
मेज पर रखी पृथ्वी मेरे लिए खिलौना
मैं खेलता रहा कितने ही अजूबे खेल
और वह मौन सहती रही
सारे भार पृथ्वी की तरह
समय को दिया मैंने इतिहास का नाम
उसके हाथों में सौंपा
मानसून के आने का सही महीना
स्त्री थी वह सदियों पुरानी
अपने गर्भ में पड़े आदिम वीर्य के मोह में
उसने असंख्य समझौते किये
मैं उसका लहू पीता रहा सदियों
और दिन-ब-दिन और खूँखार होता रहा…
पत्नी
वह बासन माँजती है
जैसे स्मृतियों का धुँधलका साफ़ करती
खंगालती है अतीत
जैसे चीकट साफ़ करती दुनिया भर के कपड़ों के
चलती कि हवा चलती हो
जलती कि चूल्हे में लावन जलता हो
करती इंतजार अपने हिस्से के आकाश पर टकटकी लगाए
कि खेत मानसून की पहली बूँद की राह तकते हों
हँसती कभी कि कोई मार खाई हँसती हो
रोती वह कि भादो में आकाश बिसुरता हो
याद करती कि बचपन की एक तस्वीर की
अनवरत स्थिर रह गई हँसी याद करती हो
उसके सपने नादान मंसूबे गुमराह भविष्य के
मायके से मिले टिनहे संदूक में बंद
नित सुबह शाम थकी दोपहर
उजाड़ रातों के सन्नाटे में
छूट गए अपने चेहरों की आवाजाही
छूट गए दृश्यों पर एकाकी समय के पर्दे
पहले प्रेम-पत्र के निर्दोष कुँआरे शब्दों पर
गिरती लगातार धूल गर्द
रातें लंबी दिन पहाड़
सब चेहरे अँधेरी गुफ़ा की तरह
अजनबी – भयानक
सहती वह
कि अनंत समय से पृथ्वी सहती हो
रहती वह
सदी और समय और शब्दों के बाहर
सिर्फ अपने निजी और एकांत समय में
सदियों मनुष्य से अलग
जैसे एक भिन्न प्रजाति रहती हो..
तुम्हारे मनुष्य बनने तक
तुमने कभी सोचा नहीं था पार्टनर
कि एक दिन पृथ्वी तुम्हारे मेज पर
ठहर जाएगी चलते-चलते
और तुम जब चाहे घुमा दोगे उसे इशारे से
नाचेगी ऊँगलियों पर वह
थम जाएगी तुम्हारे सोच लेने मात्र से
तुम्हारे सोचने का एक सिवान था
कि रुक जाता था माँ के अलताए पैरों
पिता की बुढ़ाई गहरी आँखों
और एक कजरारी लड़की की
मासूम खिलखिलाहट तक आकर
तब थक जाते थे तुम्हारे नन्हें-नन्हें पाँव
हरियर पगडंडियों से परियों के देश तक की यात्रा में
तुम्हारी अपेक्षा में खड़ी रहती थीं श्वेत परियाँ
बाँटने को वरदान तुम्हारे सूखते खेतों के लिए
और तब कितने मजे के दिन
और कितनी-कितनी खुशियों के दिन
सुबह कानों में फुसफसाती थी
बुतरू अमरूद का हाल
बाग में तुम और सपने में पौधे होते जवान
फलते थे ढेर के ढेर
और थक जाते तुम फल तोड़ते-खाते
अपने खिलन्दड़ दोस्तों के साथ
शामिल थे तुम लयबद्ध लहरों की उपासना में
तुम्हारे बस्ते में गढ़े गए मन्त्र
नदियों और पेड़ों की स्तुति के
दुहराते तुम डेढ़ा सवैया पौना की तरह
तब वह पृथ्वी माँ के आँचल में खेलती थी
बैठती थी किसान पिता के कान्धे पर
हरियाली पहनती थी लहरों पर तैरती थी
एक दुल्हन थी सोच में वह तुम्हारे
लाना था जिसे अपने आँगन पालकी में बैठाकर
पूरे दल-बल के साथ
एक दिन अपनी ही दुनिया में
तब नहीं सोचा था तुमने
कि समय लायेगा एक बवंडर
सूचना के राक्षस पहरेदार कई
चारों और मुस्तैद हो जायेंगे
और विशाल गाँव में
लहूलुहान निर्दोष पृथ्वी तुम्हारी
पड़ी होगी एक मेज पर अपराधी की तरह
परियाँ अन्धी और पौधों की शाखें कतर दी जायेंगी
असाध्य शून्य थरथराता ऊँगलियों के इशारे पर
और सपने कैद तुम्हारे
किसी तानाशाह के तिलस्मी महल में
तब सोचा नहीं था तुमने
कि तुम्हारे मनुष्य बनने तक यह दुनिया
मनुष्यता से खाली हो जाएगी
दौड़ेंगे लोहे के मनुष्य सड़क गली नुक्कड़ों पर
बरसायेंगे गोले
मासूम खिलौनों की शक्ल में
और विवश छटपटाते
अजीब सी बना दी गयी दुनिया में
तुम रह जाओगे अपनी स्मृतियों के साथ एकदम अकेले
तुम्हारे सोचने की सीमा यही थी पाटनर
कि नहीं सोचा था तुमने
किस क्षण तुम बन जाओगे
किसी खतरनाक मशीन का एक अदना सा पुर्जा
कि मनुष्य अकेले इस दुनिया में
किस क्षण तुम मनुष्य नहीं रह जाओगे…
कवि हूँ
एक ऐसे समय में
जब शब्दों ने भी पहनने शुरू कर दिये हैं
तरह तरह के मुखौटे
शब्दों की बाजीगरी से
पहुँच रहे हैं लोग सड़क से संसद तक
एक ऐसे समय में
जब शब्द कर रहे हैं
नायकत्व के सम्मोहक अभिनय
हो रही है उनकी ताजपोशी
शीत ताप नियंत्रित कक्षों में
एक ऐसे समय में
जब शब्दों को सजाकर
नीलाम किया जा रहा है रंगीन गलियों में
और कि नंगे हो रहे हैं शब्द
कि हाँफ रहे हैं शब्द
एक ऐसे समय में
शब्दों को बचाने की लड़ रहा हूँ लड़ाई
यह शर्म की बात है
कि मैं लिखता हूँ कविताएँ
यह गर्व की बात है
कि ऐसे खतरनाक समय में
कवि हूँ… कवि हूँ…
दुःख एक नहीं
दुख एक नहीं यह कि सड़क पर किसी मनचले की तरह
इन्तजार नहीं किया अपनी तीसरी
या चौथी
याकि पाँचवीं प्रेयसी का
दुःख दो नहीं यह
कि क्यों शहर के खुले मिजाज की तरह खुली
लड़कियों को
मेरे पिचके गालों की घाटी
और दाढ़ियों के बीहड़ में गुम हो जाने का डर लगता है
दुःख तीन नहीं यह
कि बस का बदबूदार कंडक्टर
हर बार हमसे ही ताव दिखाता है
जबकि बिना टिकट मैं कभी यात्रा नहीं करता
दुःख चार नहीं यह
कि फूल कर कछुआ हो गया सेठ
अपनी रखनी का गुस्सा हर सुबह
मेरे ही मुँह पर पीचता है
जबकि याद नहीं किस वक्त मैंने कौन कसूर किया था
दुःख पाँच नहीं यह
कि पत्नी के लाख कहने पर भी
खइनी नहीं छोड़ पाया
स्कॉच के साथ क्लासिक के कश नहीं लिये
महानगरी हवाओं से नहीं की दोस्ती
और भुच्चड़ का भुच्चड़ ही बना रहा
दुःख छह नहीं यह
कि खूब गुस्से में भी दोस्तों को गालियाँ नहीं दीं
आजतक सम्बन्धों की एक भारी गठरी पीठ पर लादे
बेतहासा भागता रहा चुपचाप अकेले
दुःख सात दस हजार या लाख नहीं
दुःख यह मेरे बन्धु
कि सदियों हुए माँ की हड्डियाँ हँसीं नहीं
पिता के माथे का झाखा हटा नहीं
और बहन दुबारा ससुराल गयी नहीं
दुःख यह मेरे बन्धु
कि बचपन का रोपा आम मँजराया नहीं
कोयल कोई गीत गायी नहीं
धरती कभी सपने में भी मुस्करायी नहीं
और दुःख यही मेरे साथी
कि लाख कोशिश के बावजूद इस कठिन समय में
कोई भी कविता पूरी हुई नहीं…
यह दुःख
यह दुःख ही ले जायेगा
खुशियों के मुहाने तक
वही बचायेगा हर फरेब से
होठों पे हँसी आने तक
कविता के बाहर
समय की तरह खाली हो गये दिमाग में
या दिमाग की तरह खाली हो गये समय में
कई मसखरे हैं
अपनी आवाजों के जादू से लुभाते
शब्दों की बाजीगरी है
कविता से बाजार तक तमाशे के डमरू की तरह
डम-डम डमडमाती
एक अन्धी भीड़ है
बेतहाशा भागती मायावी अँजोर के पीछे
मन रह-रह कर हो जाता है उदास और भारी
ऐसे में बेहद याद आती हैं वो कहानियाँ
जिसे मेरे शिशु मानस ने सुना था
समय की सबसे बूढ़ी औरत के मुँह से
जिसमें सच और झूठ के दो पक्ष होते थे
और तमाम जटिलताओं के बावजूद भी
सच की ही जीत होती थी लगातार
उदास और भारी मन
कुछ और होता है उदास और भारी
सोचता हूँ कि कहानियों से निकल कर
सच किस जंगली गुफा में दुबक गया है
क्यों झूठ घूमता है सीना ताने
कि कई बार उसे देखकर सच का भ्रम होता है
आजकल जब कविता के बाहर
सच को ढूँढ़ने निकलता हूँ
मेरी आत्मा होती जाती है लहूलुहान
अब कैसे कहूँ
कि वक्त-बेवक्त समय की वह सबसे बूढ़ी औरत
मुझे किस शिद्दत से याद आती है
बारिश
कितनी बेसब्री थी हमारी आँखों में
तब की बात तो शब्दातीत
जब उत्तर से उठती थी काली घटाएँ
हम गाते रह जाते थे
आन्ही-बुनी आवेले-चिरैया ढोल बजावेले
और सिर्फ धूल उड़ती रह जाती हमारे सूखे खेतों में
बाबा के चेहरे पर जम जाती
उजली मटमैली धूल की एक परत
गीत हमारे गुम हो जाते श्वासनलियों में कहीं
उदास आँखों से हम ताकते रह जाते
आकाश की देह
शाम आती और रोज की तरह
पूरे गाँव को ढक लेते धुएँ के गुब्बारे
मंदिर में अष्टयाम करती टोलियों की आवाजें
धीमी हो जातीं कुछ देर
बाबा उस दिन एक रोटी कम खाते
रात के चौथे पहर अचानक खुल जाती बाबा की नींद
ढाबे के बाहर निकलते ही
चली जाती उनकी नजर आकाश की ओर
जब नहीं दिखता शुकवा तारा
तो जैसे उनके पैंरो में पंख लग जाते वे खाँसते जोर
कि पुकारते पड़ोस के रमई काका को
कहते – “सुन रहे हो रमई शुकवा नहीं दिख रहा
शायद सुबह तक होने वाली है बारिश।”
यह दुख
अँटी पड़ी है पृथ्वी की छाती
असंख्य दुःखों से
मेरे दुःख की जगह कितनी कम
जिए जा रहे हैं लोग उजले दिनों की आशा में
रोकर भी-सहकर भी
कि इस जन्म में न सही तो अगले जन्म में
सोचता हूँ इस धरती पर न होता
यदि ईश्वर का तिलिस्म
तो कैसे जीते लोग
किसके सहारे चल पाते
नहीं मिलती कोई जगह रो सकने की
जब नहीं दिखती कोई आँचल की ओट
रश्क होता है उन लोगों पर
जिनके जेहन में आज भी अवतार लेता है
कोई देवता
मन हहर कर रह जाता है
दुःख तब कितना पहाड़ लगता है।
महानगर, लोकतंत्र और मज़दूर
उनके हथौड़े की हर चोट के पहले की स्मृतियाँ
दफन हैं सुरक्षित इन दीवारों की हड्डियों में
एक औरत की देह, बच्चे के हिलते हाथ
हँसी ठिठोली बचपन के दोस्तों की
जिनके सहारे वे चलाते रहते हथौड़ा
उन्हें भूख और प्यास उतनी परेशान नहीं करती
वे भूख से नहीं डरते उतना
जितना कि शरीर में आखिरी खून के रहते बेकार हो जाने से
बेकारी में बैठे काम का इन्तजार करते
उन्हें याद आते पानी के बिना चरचरा गये खेत
कभी-कभी धू-धू कर जलते खलिहानों के बोझे
हर छोटी नींद में सरसराती हुई रेलगाड़ी की सीटी
मुजफ्फरपुर दरभंगा भोजपुर की ओर दौड़ती
वे चौंक-चौक उठते
और उनकी किंचड़ी आँखों में उस समय एक नदी उतर आती
वे कुछ देवताओं की शक्लों के आदेश पर
चलाते हथौड़े, बनती जाती बड़ी-बड़ी बिल्डिंगें फैक्टरियाँ
स्कूल की इमारतें शानदार
बढ़ता देश का व्यापार
बढ़ता जाता मन्दिरों का चढ़ावा
देश हो रहा शिक्षित
लोकतन्त्र की नींव हो रही मजबूत
कविता की भाषा में कहा जाय
तो फर्क यही कि
घट रहे उनकी नींद के सीमान्त
बढ़ता जा रहा रेलगाड़ी की सीटियों का शोर
और ईश्वरीय तिलिस्मों से दूर उनकी आँखों में
शामिल हो रही एक सूखती हुई नदी की चुप्पी
बेआवाज और लगातार…
प्रार्थना
सजानी होती है गोटियाँ
शब्दों से अधिक महत्व अशब्दों का जहाँ
तिकड़मी दुनिया वह
नहीं चाहिए
नहीं चाहिए वह
जिसके होने से कद का ऊँचा होना समझा जाता
चाहिए थोड़ा सा बल, एक रत्ती भर ही त्याग
और एक कतरा लहू, जो बहे न्याय के पक्ष में
उतना ही आँसू भी
थोड़े शब्द
रिश्तों को आँच देते
जिनके होने से
जीवन लगता जीवन की तरह
एक कतरा वही, चाहे वह जो हो
लेकिन जिसकी बदौलत
पृथ्वी के साबुत बचे रहने की सम्भावना बनती है
लौटना
प्यार और सम्बन्ध के बिसर गये अन्तिम संशय
हमारी देह
खड़ी है एक चौराहे पर
प्रयाण को आतुर
गुजरे हुए क्षण की एक घायल चिड़िया
चुप बैठी है
अपने घरौंदे से दूर
और अब हमें
अपनी-अपनी गहराइयों में लौटना है