डोरी पर घर
आँगन में बंधी डोरी पर
सूख रहे हैं कपड़े
पुरुष की कमीज और पतलून
फैलाई गई है पूरी चैड़ाई में
सलवटों में सिमटकर
टंगी है औरत की साड़ी
लड़की के कुर्ते को
किनारे कर
चढ़ गई है लड़के की जींस
झुक गई है जिससे पूरी डोरी
उस बांस पर
जिससे बांधी गई है डोरी
लहरा रहे हैं पुरुष अंतःवस्त्र
पर दिखाई नहीं देते
महिला अंतःवस्त्र
वो जरूर छुपाए गए होंगे
तौलियों में।
पृथ्वी के साथ भी.
पुरुषों से भरा वह टेम्पो रुका
और कोने की खाली जगह में
सकुचा कर बैठ गई है एक स्त्री
सहसा… थम गऐ हैं
पुरुषों के बेलगाम बोल
सुथर गई है देहभाषा
एक अनकही सुगंध का सूत
रफू कर रहा है पाशविकता के छेद
अनुभूति दूब सी हरी हो चली है
कुछ ऐसा ही तो हुआ होगा
शुरु शुरु में
दहकती पृथ्वी के साथ भी।।
स्त्रियाँ घर लौटती हैं
स्त्रियाँ घर लौटती हैं
पश्चिम के आकाश में
उड़ती हुई आकुल वेग से
काली चिड़ियों की पांत की तरह।
स्त्रियों का घर लौटना
पुरुषों का घर लौटना नहीं है,
पुरुष लौटते हैं बैठक में, फिर गुसलखाने में
फिर नींद के कमरे में
स्त्री एक साथ पूरे घर में लौटती है
वो एक साथ, आँगन से
चौके तक लौट आती है।
स्त्री बच्चे की भूख में
रोटी बनकर लौटती है
स्त्री लौटती है दाल-भात में,
टूटी खाट में,
जतन से लगाई मसहरी में,
वो आँगन की तुलसी और कनेर में लौट आती है।
स्त्री है… जो प्रायः स्त्री की तरह नहीं लौटती
पत्नी, बहन, माँ या बेटी की तरह लौटती है
स्त्री है… जो बस रात की
नींद में नहीं लौट सकती
उसे सुबह की चिंताओं में भी
लौटना होता है।
स्त्री, चिड़िया सी लौटती है
और थोडी मिट्टी
रोज पंजों में भर लाती है
और छोड़ देती हैं आँगन में,
घर भी, एक बच्चा है स्त्री के लिए
जो रोज थोड़ा और बड़ा होता है।
लौटती है स्त्री, तो घास आँगन की
हो जाती है थोड़ी और हरी,
कबेलू छप्पर के हो जाते हैं ज़रा और लाल
दरअसल एक स्त्री का घर लौटना
महज स्त्री का घर लौटना नहीं है
धरती का अपनी धुरी पर लौटना है।।
स्त्री विमर्श
मंच पर आभासी था
स्त्री विमर्श
वो वास्तविक था नेपथ्य में
विद्रूप हँसी की डोर से
खींचे जा रहे
लिप्सा और जुगुप्सा के
पर्दों के बीच
अतृप्त वासनाओं से
धूसर ग्रीन रूम के
उस विमर्श में थे
स्त्री के स्तन ही स्तन
फूले और माँसल
ओंठ थे,जाँघे थीं,नितम्ब थे
न था मस्तिष्क, न ह्रदय
न कविता लिखने को हाथ
न कंचनजंघा पर
चढने को पैर
वहाँ अदीब थे,आला हुक्मरान…थिंकर…
यूनिवर्सिटी के उस्ताद थे
पर सब थे बदजबान लौंडे
नंगे होने की उनमें गजब की होड़ थी
शराब में घोला जा
रहा था भीतर का कलुष
गर्म धुँए में तानी जा रही थी
स्त्री की देह…
वहाँ चर्चा बहुत वैश्विक थी
बड़ा था उसका फलक
उसमें खींची जा रही थी स्त्री
पहली और तीसरी दुनिया के देशों से
न्यूयॉर्क और पेरिस
नेपाल और भूटान
इजराइल और जापान
उस रात विमर्श में
स्त्री बस नग्न लेटी रही
न उसने धान कूटा
न पिलाया बच्चे को दूध
न वो ट्राम पकड़ने दौड़ी
न उसने हिलाया परखनली को
न सेंकी रोटी
रात तीसरे पहर उन सबने
अलगनी पर टँगे
अपने मुखौटे पहने
और चल दिए
वहाँ छूट गई
स्त्री सुबह तक
अपनी इयत्ता ढूँढती रही।।
ताले… रास्ता देखते हैं
चाबियों को याद करते हैं ताले
दरवाज़ों पर लटके हुए…
चाबियाँ घूम आती हैं
मोहल्ला, शहर या कभी-कभी पूरा देस
बीतता है दिन, हफ्ता, महीना या बरस
और ताले रास्ता देखते है।
कभी नहीं भी लौट पाती
कोई चाबी
वो जेब या बटुए के
चोर रास्तों से
निकल भागती है
रास्ते में गिर,
धूल में खो जाती है
या बस जाती है
अनजान जगहों पर।
तब कोई दूसरी चाबी
भेजी जाती है ताले के पास
उसी रूप की
पर ताले अपनी चाबी की
अस्ति (being) को पहचानते हैं
ताले धमकाए जाते हैं,
झिंझोड़े जाते हैं,
हुमसाए जाते हैं औजारों से,
वे मंजूर करते हैं मार खाना
दरकना फिर टूट जाना
पर दूसरी चाबी से नहीं खुलते।
लटके हुए तालों को कभी
बीत जाते हैं बरसों बरस
और वे पथरा जाते हैं
जब उनकी चाबी
आती है लौटकर
पहचान जाते हैं वे
खुलने के लिए भीतर से
कसमसाते हैं
पर नहीं खुल पाते,
फिर भीगते हैं बहुत देर
स्नेह की बूंदों में
और सहसा खुलते जाते हैं
उनके भीतरी किवाड़
चाबी रेंगती है उनकी देह में
और ताले खिलखिला उठते हैं।
ताले चाबियों के साथ
रहना चाहते हैं
वो हाथों से,
दरवाजे की कुंडी पकड़
लटके नहीं रहना चाहते
वे अकेलेपन और ऊब की दुनिया के बाहर
खुलना चाहते हैं
चाबियों को याद करते हैं ताले
वे रास्ता देखते हैं।
मीठी नीम
एक गंध ऐसी होती है
जो अंतर में बस जाती है
गुलाब सी नहीं
चंदन सी नहीं
ये तो हैं बहुत अभिजात
मीठी नीम सी होती है
तुम … ऐसी ही एक गंध हो।
स्कूल का री-यूनियन
वो सब लौटकर
अपने शहर आए, अपने स्कूल।
आए… फिर से बस गए मोहल्लों में
वो सब आए पोंछने
अपनी यादों की
सिलेट में जमी धूल
उनमें से एक लड़की
अपने पुराने घर पहुँची
जहाँ अब ध्वज की तरह
नहीं लहरा रहा था
उस के पिता का नाम
और कांक्रीट से बदल गया था
घर का नक्श
पर नहीं बदली थी अभी
मिट्टी के आँगन की तासीर
आँगन में चलते लड़की
सहसा रूक गई उस जगह
जहाँ बहुत बरस पहले
दफनाई गई थी
उसकी पालतु बिल्ली
उसे बरबस याद आए वो आँसू
जो ठंड की एक सुबह
बिल्ली को मरा देख निकले थे
उसने उन आँसुओं का जल किया
और सूखती तुलसी पर ढार दिया
उनमें से एक लड़का
सड़क पर पुरानी साइकिल ढूँढता रहा
जिसकी चेन वो चढाता था
वो साइकिल उसके बसंत की थी
उसे याद आया
चेन चढाकर हाथों में ग्रीस लगाए
वो आँखो से ही अच्छा… कहता था
और बिना कुछ कहे ही
उसका बसंत
बहुत दूर चला जाता था
उसने दूर जाते बसंत को याद किया
और सड़क पार करते
छोटे बच्चों के हाथ थाम लिये
वो सब आए और
उन्होंने चौक कर देखीं अट्टालिकाएँ
जो घरों की जगह
उग आँई थीं
उन्होंने शहर से गुजरती नदी को
सूखते देखा और उफ कहा
उन्होंने एक पुराना बरगद
अब भी हरा देखा और खुश हुए
उन्हें पुराना देव प्रतिमाओं को
देखकर विस्मय हुआ
कि बस इनके चेहरे हैं जो नहीं बदले
जिनके घरौंदे बचे थे अब भी
उनने पुरानी खिड़कियाँ और छज्जे देखे
उनको… किसी का इंतजार याद आया
उनकी आँख की कोरें भीग आईं
पर वो मुस्कुराऐ..
वो सब अपने स्कूल भी गए
और बूढ़े हो चले अपने
उस्तादों की झुर्रियों को छुआ
मर चुके चौकीदार को पूछा
और उसकी बेवा को इनाम बख्शा
वो सब चौराहों पर गए
भले बदलीं हों पर
उनने सब गलियाँ पहचानीं
वो गाते रहे,वो हँसे, वो रोए भी
उन्होंने बचपन का शहर देखा
उन्होंने फिर से आसमान में तारे देखे
और फिर
इतने सालों तक ओढ़े
नाम और पहचान को
मँहगे सूटकेसों में बंद किया
बेतरह… नंगे पैर धूल के मैदानों में भागे
अचानक उन्हें मालूम हुआ कि
आदमी पेड़ है
अपनी… जड़ों में रहता है।।
सुनो बाबू.
जो ये बूढ़ा मजदूर
तोड़ रहा दीवार
देखता हूँ
सुलगा रहा है तुम्हारी ही तरह बीड़ी
चमकते लौ में मूँछ के बाल
वैसी ही तो घनी झुर्रियाँ
पोपला मुँह
तुम्हारी ही तरह उसने
भीतरी भरोसे से देखा
जरा ठहरकर
और तोड़ कर रख दिया
हठी कांक्रीट
दोपहर…तुम्हारी ही तरह
देर तक हाथ से
मसलता रहा रोटी
पानी चुल्लु से पिया
धीर दिया तुम्हारी ही तरह
कि मैं हूँ तो सिरजेगा
सब काम ठीक…
अनायास मन पहुंच गया
उस कोठरी में
जहाँ तुम लेटे थे
मूँज की खाट में आखिरी रात
अँधेरे में गुम हो रही थी सांस
खिड़की से झाँक रही थी
एक काली बिल्ली
खड़े थे सब बोझिल सर झुकाए…
घुटी चुप चीर निकल पड़ी थी मेरी हूक
तो आँख खोल तुम कह उठे थे डपटकर
रोता क्यों है बे…मैं नहीं जाऊंगा कँही
और मूँद ली थी आँख…
बाबू…लगा आज
तुमने ठीक ही तो कहा था…
सुनो बाबू…
पिता की याद
भूखे होने पर भी
रात के खाने में
कितनी बार,
कटोरदान में आखिरी बची
एक रोटी
नहीं खाते थे पिता…
उस आखिरी रोटी को
कनखियों से देखते
और छोड़ देते हममें से
किसी के लिए
उस रोटी की अधूरी भूख
लेकर जिए पिता
वो भूख
अम्मा…तुझ पर
और हम पर कर्ज है।
अम्मा… पिता कभी न लाए
कनफूल तेरे लिए
न फुलगेंदा न गजरा
न कभी तुझे ले गए
मेला मदार
न पढ़ी कभी कोई गजल
पर चुपचाप अम्मा
तेरे जागने से पहले
भर लाते कुएँ से पानी
बुहार देते आँगन
काम में झुंझलाई अम्मा
तू जान भी न पाती
कि तूने नहीं दी
बुहारी आज।
पिता थोड़ी सी लाल मुरुम
रोज लाते
बिछाते घर के आस-पास
बनाते क्यारी
अँकुआते अम्मा…
तेरी पसंद के फूल।
पिता निपट प्रेम जीते रहे
बरसों बरस
पिता को जान ही
हमें मालूम हुआ
कि प्रेम ही है
परम मुक्ति का घोष
और यह अनायास उठता है
मुंडेर पर पीपल की तरह।
भोर…होने को है
एक उनींदी रात में
नन्ही बेटी के ठंडे पैर
अपने हाथों में रखकर
ऊष्म करता हूँ
और मेरी जीवन ऊर्जा
न जाने कैसे
विराट हो जाती है
मैं अनुभव करता हूँ
कि भोर मेरे ये हाथ
फैल जाएँगे
मै सूर्य से ऊष्मा लेकर पृथ्वी तक पहुँचाउंगा
पृथ्वी हो जाएगी एक छोटा अंडा
और मेरे हाथ
शतुरमुर्ग के परों से विशाल…
मैं सेऊँगा पृथ्वी को
और गोल पृथ्वी से निकल आएंगी असंख्य छोटी पृथ्वियाँ
पृथ्वियाँ … जिनमें हैं बस
जंगल,नदी,पहाड़ और चिड़ियाएँ
है आदमी भी,पर बस
अमलतास के फूल की तरह
कहीं कहीं
दानवीय मशीनें नहीं,
न कोई शस्त्र
पूरी पृथ्वी एक सी हरी
न भय,न भूख
न दिल्ली, न लाहौर
न चन्द्रमा पर जाने की हूक
औरत भी सोनजुही के फूल सी खिली
गहाती गेहूँ
धूप के आँगन में
नेह की आँच से सेंकती रोटी
खुले स्तनों से निश्चिंत
पिलाती बच्चे को दूध
बेटी के ठंडे पैरों को
मेरे हाथ की ऊष्मा
मिलने से वो सो चुकी है
और उसके सपनों के
हरे मैदान की बागुड़ को
फाँद कर
छोटी छोटी पृथ्वियाँ
दाखिल हो रही हैं खेलने
हालांकि आकाशगंगा में
घूमते कुछ नए हत्यारे
नन्ही पृथ्वियों को
घूरते आ खड़े हुए हैं
पर बेखबर नन्हीं पृथ्वियाँ
रंगीन फूल वाली
फ्राक पहने सितोलिया
खेल रही हैं
नन्ही बेटी इन्हें देखकर नींद में
मुस्कुरा रही है
भोर… होने को है ।।
दुनिया के लिए जरूरी है
बहुत सी खूबसूरत बातें
मिटती जा रही हैं दुनिया से
जैसे गौरैया
जैसे कुनकुनी धूप
जैसे बचपन
जैसे तारे
और जैसे एक आदमी, जो केवल आदमियत की जायदाद
के साथ जिंदा है।
और कुछ गैरजरूरी लोग न्योत लिए गए हैं
जीवन के ज्योनार में
जो बिछ गई पंगतों को कुचलते
पत्तलों को खींचते
भूख भूख चीखते
पूरी धरती को जीम रहे हैं।
सुनो … दुनिया के लिए जरूरी नहीं है मिसाइल
जरूरी नहीं है अंतरिक्ष की खूंटी पर
अपने अहम को टांगने के लिए भेजे गए उपग्रह
जरूरी नहीं हैं दानवों से चीखती मशीनें
हां … क्यों जरूरी है मंगल पर पानी की खोज ?
जरूरी है तो आदमी … नंगा और आदिम
हाड़-मांस का
रोने-धोने का
योग-वियोग का
शोक-अशोक का
एक निरा आदमी
जो धरती के नक्शे से गायब होता
जा रहा है
उसकी जगह उपज आई हैं
बहुत सी दूसरी प्रजातियां उसके जैसी
पर उनमें आदमी के बीज तो बिलकुल नहीं हैं।
इस दुनिया के लिए जरूरी हैं
पानी, पहाड़ और जंगल
जरूरी है हवा और उसमें नमी
कुनकुनी धूप, बचपन और
तारे … बहुत सारे … ।।
देखो… नर्मदा को देखो
अपनी कुशकाय देह से
पथरीली भूमि पर लेटी हुई है तपस्विनी
माँस, जो जल है क्षीण हुआ है
प्रस्तर खण्ड, जो अस्थियां हैं
दीख पड़ने लगी हैं
देह में विचरते मनुजों पशुओं को
अर्द्धउन्मीलित नेत्रों के
वात्सल्य से देखती है नर्मदा
नर्मदाष्टक और स्तुति पाठ के
घोर कोलाहल से
भग्न हो रहा है उसका ध्यान
उन्मादी आस्तिकों की पूजन समिधा में
उलझ गयी है केश राशि
अगर-धूम्र से म्लान हुआ जाता है शांत मुख
सीपियां, शंख, रेत जो मज्जाएँ हैं
खोद डाली गयी हैं
कोशिकाएं, मीन-कच्छप
दानवी यंत्रों से भयग्रस्त हो विदा हुई हैं
देवी की साधना के साक्षी होने
सुदूर देश से आते थे जो विहग
अब पथ भटक गये हैं
कूलों पर तपनिष्ठ वृक्ष
थे जो संरक्षक मुनि
अकाल मृत्यु को प्राप्त हुए हैं
सूख रहे हैं
काष्ठागार में उनके शव
शांत तटों को अपनी उपस्थिति से
आक्रांत करते मठों से निस्तारित कलुष
कृष्णवर्णी कर रहा है नर्मदा की त्वचा
स्रोतस्विनी की गर्भ नाल से जुड़कर
बसे ग्राम नगरों के समवेत पातकों से
अंर्तधान होने को है यह यति
देखो … नर्मदा को देखो।।
रोज
दिन एक पहाड़ है,
सूरज है सुबह की चाय
सांझ पहाड़ के पार एक झील है
रात है उसमें डूब के मर जाना …
प्रार्थना की सांझ
वो जो दिया बाती के साथ
तुलसी पर
बुदबुदाती थी मां
खुद के सिवा सबका दुख
खोती जा रही है
ऐसी निष्पाप
प्रार्थना की सांझ।
दुनिया भर के बेटों की ओर से
एक दिन सुबह सोकर
तुम नहीं उठोगे बाबू…
बीड़ी न जलाओगे
खूँटी पर ही टंगा रह जाएगा
अंगौछा…
उतार न पाओगे
देर तक सोने पर
हमको नहीं गरिआओगे
कसरत नहीं करोगे ओसारे
गाय की पूँछ ना उमेठेगो
न करोगे सानी
दूध न लगाओगे
सपरोगे नहीं बाबू
बटैया पर चंदन न लगाओगे
नहीं चाबोगे कलेवा में बासी रोटी
गुड़ की ढेली न मंगवाओगे
सर चढ़ेगा सूरज
पर खेत ना जाओगे
ओंधे पड़े होंगे
तुम्हारे जूते बाबू…
पर उस दिन
अम्मा नहीं खिजयाऐगी
जिज्जी तुम्हारी धोती
नहीं सुखाएगी
बेचने जमीन
भैया नहीं जिदयाएंगे
उस दिन किसी को भी
ना डांटोगे बाबू
जमीन पर पड़े अपलक
आसमान ताकोगे
पूरे घर से समेट लोगे डेरा
बाबू …तुम
फोटो में रहने चले जाओगे
फिर पुकारेंगे तो हम रोज़
पर कभी लौटकर ना आओगे।
उस दिन भी.
नहीं रहेंगे हम
एक दिन धरती पर
उस दिन भी खिले
हमारे हिस्से की धूप
और गुनगुना जाए
देहरी पर चिड़िया आए
उस दिन भी और
हाथ से दाना चुग जाए
आँगन में उस दिन
न लेटे हों हम
पर छाँव नीम के पेड़ की
चारपाई पर झर जाए
शाम घिरे उस दिन भी
भटक कर आवारा बादल आएँ
मिट्टी को भिगा जाएँ
नहीं रहेंगे हम एक दिन
पर उस दिन भी…
कभी-कभी
कभी-कभी
कितना लुभाता है,
कुछ भी ना होना
बैठना…
तो बस बैठे हो जाना
सरकना सरकंडों को छूकर हवाओं का
बस सुनना
कुछ भी न गुनना
कभी-कभी…
साथी… तुम यहीं तो मिले हो
बरसों बाद आज
तुम्हारे शहर से गुज़रा तो
जो मुझे छूकर गयीं नम हवाएँ
तुम्हारी उदास आँखें ही तो हैं
शहर के आसमान पर
घिरे हैं काले बादल वो
तुम्हारी आँख का काजल है
जो रोते-रोते फैल गया है
रेल की पटरी के दोनों ओर
फूल आए हैं जो कनेर के पीले फूल
तुम्हारी भोली हँसी ही
उनमें बदल गई है
तुम्हारे नन्हें पैर मेंहदी के
छोटे पौधों से उग आए हैं
तुम्हारी धानी कुर्ते से
निकल पड़ा है हरी घास का मैदान
उसमें बच्चे खेल रहे हैंं
कभी कभी तुम जो देती थीं पूजा
वो चौक पर छोटा सा
तुलसीवन हो गई है
तुम्हारी घेरदार स्कर्ट
नहर हो गई है
चुन्नी पर खिली ढेर सारी बिंदियां
स्कूल जाती लड़कियों में दौड़ रही हैं
तुम्हारे पसीने की गंध
काम पर जाती मेहनतकश
मजदूरिनों में बदल गई है
मेरे रोकने पर भी
तुम जो पूछती थीं
सवाल हर जगह
वो अब सड़क पर जाते
जुलूस हो गए हैं
उनींदा नहीं है अब (Continued)
ये शहर जरा चिल्लाता है
ये शहर अब भी तुम्हारी तरह
साइकिल चलाता है
जिसकी चेन उतरती है
तो वो शर्मीला लड़का चढ़ाता है
तुम्हारी ही तरह ये शहर
जंगल की एक सड़क पर
आकर गुम हो जाता है
फिर उसका पता कोई भी
नहीं बताता है
तुम्हारी ही तरह हाथ पकड़ कर
शाम को रोता है शहर
पर रात न जाने कहाँ चला जाता है
बरसों बाद आज तुम्हारे
शहर से गुजरा हूँ तो
साथी… तुम यहीं तो मिले हो
बस अफवाह थी
कि तुम ये शहर छोड़ गए हो।
हमारे आने की खबर सुनकर भी.
कहीं भी जनम जाते हैं बच्चे
रेल में,झुग्गी में,खेत पर,कारखानों में…
जिंदगी की जिद में बच्चे
गर्भ की गुफा के
बंद शिला द्वार को धकेल देते हैं
बच्चे जबर्दस्ती, उपेक्षा,शोषण
और हिंसा की स्याही से रंगे
अखबारों में लिपट कर
हमारे सामने आते हैं,
पर उनके बदन पर
वो बदरंग चस्पा नहीं होता
बच्चे विस्मय भरी आँखों से
हमारी आँखों में देखते हैं
वो अपने
नन्हें हाथों से हमको
झिंझोड़ते हैं -तुमने बुहारी क्यों नहीं
ये दुनिया…
हमारे आने की खबर सुनकर भी।
चुप
किसी रोज़
नदी के निर्जन घाट पर
चुप…बैठ रहेंगे साथी
उस शाम
तुम नहीं कहोगी
…शांत है ये जल
मैं नहीं कहूँगा
…अच्छा है इस शाम यहाँ होना
नदी की धार को
पैरों से छूता
एक पंछी
हू तू तू…बोलता
उड़ जाएगा
हम.. कुछ भी न कहेंगे
बहुत सा जो खूबसूरत
मिट रहा है
इस दुनिया से
चुप…उनमें से एक है साथी।
बहुत नहीं बस ज़रा सा
बहुत नहीं बस जरा सा…
रखे रहना प्यार हमारे बीच
जैसे जरा सा है खट्टे करोंदे में रस
जरा सा है रस भरे खीरे में बीज
जरा सा है गौरैया की चोंच में
जुन्डी का दाना
जरा सी देर है सुबह का सूरज मुलायम
जरा सी दूर ही साथ चलती है नदी
जरा सी देर ही रहेगी ओस
और बस जरा सी ही है
लाल मुरम की सड़क
जो खेत तक जाएगी
खेत में जरा से ईख चुराएँगे
लेटकर चूसेंगे
जरा सा हँसेंगे
जरा सा रो लेंगे
सांझ की गोधूलि तक
बस जरा सा रखे रहना
प्यार हमारे बीच…।
पसीने से भीगी कविता
एक पसीने की कविता है
जो दरकते खेत में उगती है
वहीं बड़ी होती है
जिसमें बहुत कम हो गया है पानी
उस पहाड़ी नाले में नहाती है
अगर लहलहाती है धान
तब कजरी गाती है
इस कविता में रूमान बस उतना ही है
जितनी खेत के बीच
फूस के छप्पर की छाँव है
या खेत किनारे अपने आप बढ़ आए
गुलमोहर का नारंगी रंग है
इस कविता को रेलगाड़ी में चढ़ा
शहर लाने की मेरी कोशिशें नाकाम हैं
ये कविता खलिहान से मंडी
तक बैलगाड़ी में रतजगा करती है
ये समर्थन मूल्य के बेरूख हो जाने पर
कसमसाती है
खाद बीज के अभाव और
पानी के षड्यंत्रों पर चिल्लाती है
कभी जब ब्लाक का अफसर
बहुत बेईमान हो जाता है
तो साँप-सी फनफनाती है
ये सचमुच अपने समय के साथ खड़ी होती है
ये गाँव से कलारी हटाने के जुलूस में
शामिल होती है
ये कविता आँगन में बैठ
चरखे सा कातती है
रात रात अम्मा की
आँखों में जागती है
जिज्जी के गौने पर
आँखें भिगोती है
बाबू के गमछे को धोती है
कभी ऊसर सी सूख जाती है
कभी सावन सी भीग जाती है
ये पसीने से भीगी काली देह पर
भूसे की चिनमिनाहट है
ये बूढ़े बाबा की लाठी की आहट है
कविता गांव के सूखते पोखरे
के किनारे बैठ रोती है
जहाँ भी पानी चिड़िया पेड़ पहाड़
और आदमी होता है वहाँ
होती है
तुमने लगाया था
तुमने लगाया था
जो मेरे साथ
एक आम का पेड़
तुम्हारा होना उस पेड़ में
आम की मिठास बनके
बौरा गया है
चूसते समय जो उठी है
खट्टी लहर वो मेरी है
आम की गुदाज देह का
पीलापन तुम्हारा है
तुम्हारी ही हैं
घनी हरी पत्तियाँ
और वो जो नन्ही सी नर्म गुही है हम दोनों के बीच
वो अँकुआने को मचलता जीवन है
पेड़ का तना और कठोर छाल मैं हूँ
पर गीली मिट्टी को दूर दूर तक बाँधने वाली जड़ें तो तुम ही हो
आज आसाढ़ की पहली बारिश में भीगकर
ये आम का पेड़ लहालोट हो गया है
पत्तियों की पूरी देह को छूकर टप टप बरस रहा है पानी
छाल तरबतर हो दरक रही है
पर फिर भी हम
कुछ राहगीरों के लिए
इस तेज बारिश में
छत हुए हैं
एक राहगीर के बच्चे की
रस छोड़ती जीभ को पढ़
तुम टप से गिर पड़ी हो
खुल पड़े हैं तुम्हारे ओंठ
बच्चा तुमको दोनों हाथों में थामकर चूस रहा है
और तुम्हारी छातियाँ
किसी अजस्र रस से
उफना गई हैं
एक कोयल ने अभी अभी
कहा है अलविदा
अब वो बसेरा करेगी
जब पीले फागुन सी
बौर आएगी अगले बरस
हम अपनी जड़ों के जूते
मिट्टी में सनाए
खड़े रहेंगे बरसों बरस
मैं अपने छाल होने के खुरदरेपन से तुम्हारी थकी देह सहलाता रहूँगा
पर सो न जाना तुम
कभी रस हो जाएंगे फल
घनी उदासी से लिपट कर
रोने हो जाएगा तना
कभी बहुत बड़ी छाती
ठिठुरती ठंड में सुलगकर आँच हो जाएंगी टहनियां
छाँव हो जाएंगी हरी
पत्तियाँ
कभी सूखकर ये
पतझड़ की आंधियों में उड़ेंगी
उनके साथ हम भी तो
मीलों दूर जाएंगे
गोधूलि… तक हम कितनी दूर जाएंगे
तुमने लगाया था जो मेरे साथ एक आम का पेड़।
पिता
पिता! तुम हिमालय से थे पिता
कभी तो कितने विराट
पिघलते हुए से कभी
बुलाते अपनी दुर्गम चोटियों से
भी और ऊपर
कि आओ- चढ़ आओ
पिता तुममें कितनी थीं गुफाएँ
कुछ गहरी सुरंग सी
कुछ अँधेरी कितने रहस्य भरी
कितने कितने बर्फीले रास्ते
जाते थे तुम तक
कैसे दीप्त हो जाते थे
तुम पिता जब सुबह होती
दोपहर जब कहीं सुदूर किसी
नदी को छूकर दर्द से गीली हवाएँ आतीं
तुम झरनों से बह जाते
पर शाम जब तुम्हारी चोटियों के पार
सूरज डूबता
तब तुम्हें क्या हो जाता था पिता
तुम क्यों आँख की कोरें छिपाते थे
तुम हमारे भर नहीं थे पिता
हाँ! चीड़ों से
याकों से
भोले गोरखाओं से
तुम कहते थे पिता- ‘मै हूँ’
तब तुम और ऊँचा कर लेते थे खुद को
पर जब हम थक जाते
तुम मुड़कर पिट्ठू हो जाते
विशाल देवदार से बड़े भैया
जब चले गए थे घर छोड़कर
तब तुम बर्फीली चट्टानों जैसे
ढह गए थे
रावी सिंधु सी बहनें जब बिदा हुई थीं
फफककर रो पड़े थे तुम पिता
ताउम्र कितने कितने बर्फीले तूफान
तुम्हारी देह से गुजरे
पर हमको छू न सके
आज बरसों बाद
जब मैं पिता हूँ
मुझे तुम्हारा पिता होना
बहुत याद आता है
तुम! कितने हिमालय से थे…पिता!
सभा
वो सभा एक तालाब थी
उसमें थीं बहुत सी
यंत्रचालित मछलियाँ
कुर्सियों से बंधी
कुछ मातहत मछलियाँ
दौड़ती हुईं
जिनके चेहरे पर थी हवाइयाँ
सभा में आमंत्रित बड़े मगर का
रास्ता देखतीं
दो मझौली मछलियाँ
तालाब के मुहाने पर तैनात थीं
सभा की आयोजक बड़ी मछली
तालाब की गहराई से मुहाने तक
बदहवास दौड़ती थी
पूछती बार बार -क्या मगर आ गए?
सभा में कुछ केकड़े थे जो
कभी आगे,कभी पीछे होते थे
कुछ थे बुद्धिजीवी जलचर
जो अपनी सीपों में बंद थे
पूरी सभा में पहचाने जाने वाले
कुछ आक्टोपस थे
कुछ छात्र मछलियाँ
कतारबद्ध बैठाई गई थीं
देखती अपलक
बड़े मगर के लिए तैयार मंच
अनुशासित विचारहीन युवा मछलियाँ
मगर की प्रत्येक मुद्रा पर बजाने को
अभ्यस्त विशेष ताल में तालियाँ
फिर दमकती देह वाली सोनमछली
प्रशस्ति वाचन को सतर्क
सजीले दस्तावेज लिए
कुछ सजावटी मछलियाँ
तयशुदा तथ्यों के दस्तावेज
जिन्हें परोसा जाना है
वहाँ मोटी खाल वाले
विद्रूप कछुए भी थे रेंगते
सभा के बाहर दलदल में लोरती थीं
जो असंख्य छोटी मछलियाँ
ये सभा संविधान में मिले
उनके अधिकारों पर ही थी
पर उनको इस सभा में आने की
इजाजत ना थी
सभा में जो भी कही जानी थीं बातें
वो सब पहले से ही थीं तयशुदा
सभा के पहले ही बांट दी गई थीं
संतोष के आटे की गोलियाँ
स्वीकृति में हिलता सिर
सबसे अनिवार्य मुद्रा थी
बड़ा मगर आया
तो अपनी दुम पर
खड़ी हो गई मछलियाँ
खुरदरे शल्क वाले
तालाब के अधिपति
उस मगर ने कहा-
हम स्वतंत्र हैं
और मछलियां स्वतंत्रता के
उत्सव में लीन हो गईं
मगर ने कहा – बहुत विकास हुआ
इन दिनों
और कुपोषित कमजोर जलचर
मुदित हो गए
मगर कहता गया
और तालियों की ध्वनि बढ़ती गई
बढ़ता गया उन्माद
सभागार के बंद कांच के दरवाजे से झाँकती सच की बूढ़ी माई-मछली
देर तक लाठी ठोकती रही
पर भीतर न आ सकी…
वो सभा एक तालाब थी।
आम का पेड़
कितना चुप है आज
उदास आम का पेड़
आसाढ़ की बारिश से ठीक पहले,
जो था रंग रस गंध
सब दे चुका बैसाख में
अब कितना खाली है
कितना चुप ।
बस अब दे सकेगा जरा सी छाया
सोचता है आम का पेड़
सोचता है कुछ और फल
जने होते मैंने
तो अंधड़ में झूमता लहराता
अमिया ढूंढते बच्चों की
झोली में झर जाता
जब देने को कुछ नहीं होता
कैसा छाल सा खुरदुरा और सख्त
हो जाता है समय ।
चुप रहकर अगले बरस के
फागुन को सोचता है
आम का पेड़
जब कोयल कूक के मांगेगी
अपना दाय
तब उजास भरी बौर सा
बरस जाएगा
और पत्तों सा हरा
हो जाएगा समय।
दुनिया के लिए जरूरी
बहुत सी खूबसूरत बातें
मिटती जा रही हैं दुनिया से
जैसे गौरैया
जैसे कुनकुनी धूप
जैसे बचपन
जैसे तारे
और जैसे एक आदमी, जो केवल आदमियत की जायदाद
के साथ जिंदा है।
और कुछ गैरजरूरी लोग न्योत लिए गए हैं
जीवन के ज्योनार में
जो बिछ गई पंगतों को कुचलते
पत्तलों को खींचते
भूख भूख चीखते
पूरी धरती को जीम रहे हैं।
सुनो दुनिया के लिए जरूरी नहीं है मिसाइल
जरूरी नहीं है अंतरिक्ष की खूंटी पर
अपने अहम को टांगने के लिए भेजे गए उपग्रह
जरूरी नहीं हैं दानवों से चीखती मशीनें
हां क्यों जरूरी है मंगल पर पानी की खोज?
जरूरी है तो आदमी नंगा और आदिम
हाड़-मांस का
रोने-धोने का
योग-वियोग का
शोक-अशोक का
एक निरा आदमी
जो धरती के नक्शे से गायब होता
जा रहा है
उसकी जगह उपज आई हैं
बहुत सी दूसरी प्रजातियां उसके जैसी
पर उनमें आदमी के बीज तो बिलकुल नहीं हैं।
इस दुनिया के लिए जरूरी हैं
पानी, पहाड़ और जंगल
जरूरी है हवा और उसमें नमी
कुनकुनी धूप, बचपन और
तारे बहुत सारे।
कामकाजी औरत की आँख में
टूटते खपरैल से झाँकता है नीला आसमान
वहाँ से धागा निकाल बुन रही है औरत एक कालीन
आँगन में बिछी है लाल मुरम
उससे लाल बटन बनाकर
औरत टाँक रही है बच्चे के अँगरखे में
दरकती दीवारों पर ऊग रहा है जो
पीपल का पौधा
उधर से हरा रंग खींच चढ़ा रही है औरत
लिफाफे के कागज पर
समय का चक्र सबसे
तेज गति से घूम रहा है औरत की सिलाई मशीन में
और आज का सबसे सुंदर और सजीला सपना
दिख रहा है इस कामकाजी
औरत की आँख में।
औरत की बात
लड़की नाचती है तो थोड़ी सी तेज हो जाती है धरती की चाल
औरत टाँक रही है बच्चे के अँगरखे पर सुनहरा गोट
तो तेज हो चली है सूरज की आग
बुढ़िया ढार रही है तुलसी के बिरवे पर पानी
तो और हरे हो चले हैं सारे जंगल
पेट में बच्चा लिए प्राग इतिहास की गुफा में
बैठी औरत
बस बाहर देख रही है
और खेत के खेत सुनहरे
गेहूँ के ढेर में बदलते जा रहे हैं।
बंदिनी
वो चाहती है उसके हाथों से बुना गया है जो सूत का सुआ
वो उड़कर चला जाए उसके देस भरकर चिठ्ठी का भेस
जाकर बैठ जाए वो सुआ बाबू की सूखती परधनी पर
अम्मा के हाथ की परात पर
भैया की साइकिल के हैंडल पर
भाभी के कोठे की खूँटी पर
और अपनी चोंच और पैरों से छू ले वो सुआ सब
जो वो नहीं छू सकेगी अब बरसों बरस।
किसी दिन कोई बरस
किसी दिन कोई बरस बरसती किसी रात में
तुम खटखटाओगी द्वार एक आकुल वेग से
जैसे कोई खटखटाता हो अपने ही घर का द्वार।
द्वार मैं खोलूँगा और एक निशब्द
विस्मय भर लेगा तुमको, बुला लेगा
उस रात मैं ढूढँूगा तह कर रखे गए कुर्ते और
बिना उनके बड़े-छोटे की बात हुए तुम पहन लोगी उन्हें।
उबालूँगा दाल-चावल तुम्हे खिलाऊँगा
दोनों नहीं पूछेंगे देर रात तक कुछ भी
एक निशब्द समय की गोद में बैठे रहेंगे
बीच में जली होगी आग
फिर तुम्हें सुलाऊँगा मूँज की खाट में
और अपने घुटनों में रखे सिर रातभर तुम्हें सोता हुआ देखूँगा
एक ऐसा दिन यकीनन मेरी डायरी में दर्ज है।
कहाँ हो तुम
बरस गया है
आसाढ़ का पहला बादल
हरी पत्तियाँ जो पेड़ में ही
गुम हो गई थीं
फिर निकल आई हैं
कमरों में कैद बच्चे
कीचड़ में लोट कर
खेलने लगे हैं
दरकने लगा है
आँगन का कांक्रीट
उसमें कैद माटी से
अँकुए फूटने लगे हैं
कहाँ हो तुम
शरद की सुबह
शरद की सुबह
कभी कभी इतनी मुलायम होती है
जैसे सुबह हो खरगोश की गुलाबी आँख
जैसे सुबह हो पारिजात के नन्हें फूल
जैसे सुबह हो झीना सा काँच
कभी कभी सुबह को सुनने और छूने
में डर लगता है
कि जैसे अभी दरक जाएगा एक गुनगुना दिन।
चाँद, औरत और रोटी
आज रात
चाँद के पीछे भागता
एक छोटा सा तारा
नहीं है शुक्र
झूलाघर से मचल कर भागा
बच्चा है
कामकाजी औरत है
चाँद
जिसे दफ्तर पहुँचना है
दफ्तर खेत है
औरत जहाँ दो रोटी
उगाती है।
दीवाली
शहर के बीच वंचित मानुषों की उस बस्ती को
आज दीवाली पर कुछ उपराम देव घेर रहे हैं।
कांतिमय त्वचा वाले, कुंडल मुकुट वाले,
सज्जित वस्त्र वाले, सुगंधित देह वाले देव
अपने भोगों से ऊबे, मृत्यु भय से आक्रांत ये देव
वर्ष में एक दिन-एक पहर
गरीबी, भूख और अभाव की प्रदर्शनी देखने को उत्सुक हैं।
वो इस दीवाली इस बस्ती के बच्चों के लिए
रंगीन कागजों में लिपटे वरदान ला रहे हैं।
ये वरदान, दीवाली की अमावस रात में
जुगनू-से दीप्त होंगे और बुझ जायेंगे
इनकी कोई सुबह नहीं,
जैसी कि इस बस्ती की भी नहीं।
एक उपदेव बस्ती की पथरीली सड़क पर
सन्नद्ध चलता हुआ हर कच्चे घर में पूछताछ करता
वरदान के लिए नियत बच्चों के नाम
दर्ज करता चल रहा है।
अपनी ढीली चड्डियाँ सम्भाले, अधनंगे सूखे मुंह झगड़ते,
चिल्लाते उत्तेजित बच्चों की भीड़
उसके पीछे दौड़ रही है
इस ठहरी हुई बस्ती में एक उत्तेजना,
एक उन्माद आवारा कुत्तों सा फैल गया है।
देवों की सभा बस्ती के मुहाने पर
एक कच्चे मकान की दहलान मंे होनी है
कसा जा रहा है वहाँ रंगीन झालरों वाला शामियाना।
इस दहलान में काॅलेज का एक लड़का
रोज शाम बस्ती के बच्चों को पढ़ाने आता है।
टूटे श्यामपट्ट पर उसने कल शाम ही लिखा था
‘विकास’ और ‘स्वाभिमान’
आज इसे वरदान सभा के दमकते
फ्लैक्स से ढांक दिया गया है।
फोटो जर्नलिस्टों की चमकती फ्लैश लाइटों के बीच
ये देव चमचमाते एसयूवी रथों से बस्ती में उतर रहे हैं।
फैल गई है यहाँ से उनके दर्प की चकाचैंध
उनके अहं की ध्वनि बहुत दूर तक गूँज रही है।
चिकनी चमड़ी वाले ताड़ से ऊँचे और गोरे ये देव
ऊँचाई से देखते हैं और बस्ती के मानुष
घिटकर और बौने होते जा रहे हैं।
बस्ती में पुराने स्कूल के अहाते,
पड़ा रहने वाला बावला
आज बांधा गया है,
जो कभी अच्छे दिनों में रहा है नाटकों में अभिनेता,
न बांधा जाये तो पत्थर लेकर दौड़ायेगा देवों को,
कहेगा – देवों! बदलो भूमिकायें,
तुम बनो इस बस्ती के नागरिक
खड़े हो जाओ हाथ जोड़े, मैं बनूंगा देव।
इस देव दल का अधिपति
एक राजनेता काला चश्मा चढ़ा,
चुनचुनाते तेल वाले, रंगे बाल वाला
तुंदियल देवेन्द,्र वरदान सभा में भाषण दे रहा है
सहमकर दहलान में सिमट आई है बस्ती।
कहता है देवेन्द्र-बच्चों! तुम्हारे लिये हम खुशियाँ लाए हैं
ढेर सारी अनगिनत खुशियाँ
हम देव हैं वरदान लाए हैं।
सामने टेबल पर सजी हैं
रंगीन कागजों में लिपटी
कुछ आतिशी कुछ मिठाइयाँ।
सहमी और चमत्कृत इस भीड़ में हैं सैंकड़ों जोड़ी हाथ,
जो मजदूरी की भट्टी में तपकर सख्त हो चुके हैं।
इन्हीं हाथों से निकला सम्मोहित तालियों का एक शोर है
जो देवों को लुभाता है।
उपराम देवों की इस वरदान सभा में
आया एक युवा देव बार-बार खड़ा होकर
खिन्न प्रश्न जैसा दिख रहा है
कुछ बलशाली देव उसे जबरिया बिठा रहे हैं।
जय हो-जय हो के कोलाहल में ‘रतन’
जिसकी दहलान में यह सभा है,
भूल गया है कि रात उसके खाने के पहले
ही घट गया था बटुलिया में भात,
घट गया था उसकी टूटी बाल्टी में चूना
वो नहीं पोत पाया है पूरा अपना डेढ़ कमरे का घर।
भीड़ पर अब आशा का उन्माद तारी है
निकट ही है वरदान मिलने का मुहूर्त।
विद्रूप हंसी हंस रहे हैं देव,
दिख रहे हैं उनके दांत
एक-एक कर पुकारे जा रहे हैं नाम
दोनों हाथ उठाए अधनंगे नाम,
दौड़कर आगे आ रहे हैं
दिए जा रहे हैं वरदान।
खींचे जा रहे हैं चित्र, उनमें जगह बनाने देवों में ठेलमपेल है।
अब बांट दिये गये हैं वरदान,
अपने अहं को पोषित कर
रथों में सवार होकर जा रहे हैं देव,
यहाँ से सीधे अखबार की इमारतों में घुसेंगे
और कुल सुबेरे के अखबार में प्रकट होंगे।
देवों के जाते ही उखाड़ा जा रहा है शामियाना
चैंधियाते रोशनी वाले हेलोजन बल्ब उतार लिये गये हैं
देवों के लिए बिछे सिंहासन समेटे जा रहे हैं
शहर के बीच इस बस्ती में
आज दीवाली है।
बचपन की जेल
मेरा बचपन एक जेल में बीता
जिसके दरवाजे से मेरी बहनें मुझे
रोज ढकेल देती थीं भीतर
और निष्ठुर और कठोर ‘ना’ लिए
पिता खड़े रहते थे।
हम सबको भीतर कर अल सुबह
बंद होते जेल के उस हाथी दरवाजे
की किर्रर आज तक मेरे भीतर
गूंजती है
क्या कुछ नहीं बंद और खत्म हुआ
उस दरवाजे के साथ।
रावण
रावण शताब्दियों से गूंजता है
जिसका खल
रावण जो छल से चुरा लाया है
एक स्त्री के दिन पर रातें नहीं
पर क्या
रावण
हमसे अधिक नहीं जानता
स्त्री देह का राग?
जानता है रावण!
तुम बलात नहीं कर सकते
एक स्त्री को सितार
स्त्री जब चाहेगी
सच में तुमसे संगीत
तब कसेगी
अपनी देह के तार
वो अपने हाथ में थाम लेगी
तुम्हारा मिजराब
और खुद तुम्हें
देह की रहस्यमयी गोलाइयों
और गहराइयों तक ले जाएगी
जब स्त्री खोलेगी
अबूझ गुफाओं के द्वार
और दीप्त हो जाएगा देहराग
असीम धैर्य असीम प्रतीक्षा
जानता है रावण
चाहता है अशोक रहे वाटिका
जानता है एक दुर्ग है स्त्री देह
जीता गया है जो छल से
पर बल से चढ़ी नहीं जा सकती उसकी प्राचीर
जब तक सीढ़ी न हो जाए स्त्री
चाहता है रावण
एक स्त्री कुटिया तक होना चाहिए
एक लाल मुरम की राह
पर लाल मुरम तो उस स्त्री के पास है
सुनो!इस सदी में
कितने कितने पुरूषों ने
देखी है लाल मुरम बिछने की राह
ये जो स्त्री सो रही है तुम्हारे बगल में
तुम्हारे तप्त चुम्बन से घुट रही है
जिसकी साँस
क्या लाए थे इसे तुम इसे
लाल मुरम की सड़क से
नहीं तुम लाए थे इसे
धन, प्रतिष्ठा, पद, बल या छल से
तुम इस स्त्री के बंद दुर्ग में
प्रवेश कर गए
तुमने खटखटाकर देखी न राह
अब तुम साभिमान रहते हो इस दुर्ग में
जिसके द्वार शिलाओं से बंद हैं
तुमको पता नहीं
तुम दुर्ग की दीवारों और देहरी
पर रहते हो
कल दशहरे की रात
आग और धुँए के बीच
इन शताब्दियों में
रावण पहली बार मेरे साथ बैठा
तब उसके कंधे पर हाथ रख
जानी मैंने स्त्री संवेदना
राम की शताब्दियों मुझे क्षमा करना।
माँ को खत
माँ! अक्टूबर के कटोरे में
रखी धूप की खीर पर
पंजा मारने लगी है सुबह
ठंड की बिल्ली
अपना ख्याल रखना माँ!
आज
दिन एक पहाड़ है,
सूरज है सुबह की चाय
सांझ पहाड़ के पार एक झील है
रात है उसमें डूब के मर जाना
स्कूल से छूटे बच्चे
इस आसमान के मैदान पर
ये जो उतर आए हैं बहुत से तारे
ये तारे नहीं हैं अभी अभी स्कूल से छूटे बच्चे हैं
जो बेतरह बस्तों को घसीटते
साथियों को च्यूँटी खींचते
हाँफते दौड़ते
खुद के बौने कदों से आगे निकलते
भाग आए हैं बाहर।
इनके पास हैं अनन्त कहानियाँ
गिर गए टिफिन की
सहेली के रिबन की
ज्यादा मिले सबक की
नेम स्लिप की चमक की
रोने की, हँसने की
गिनने की गुनने की
गुणा की, भाग की
सर्दी में आग की
छड़ी मंगाने की
गुड्डी तनाने की
रोज देर से आने की
गणित से भाग जाने की
लँगड़ी की, टँगड़ी की
हेडमास्टर की पगड़ी की
कहानियाँ जो बड़ी हैं छोटी भी
कहानियाँ जो सच्ची हैं झूठी भी
कुछ नई हैं अभी कुछ पुरानी हैं
कुछ तो आ गयी हैं कुछ अभी लानी हैं
ये हँसी की हैं इसमें रोना है
डर है इसमें जादू भी है टोना है
ये सितारे, सुबह की राह पर
इन कहानियों को गाऐंगे
कुछ चमकेंगे, कुछ डूबेंगे, टूट जाऐंगे
टूटेंगे भी तो तुम्हारी मन्नत को रख लेंगे
और जलेंगे तो पूरी धरती को आँच देंगे
हो सके तो तुम चुप से, इनको सुन लेना
जो तुमको मालूम नहीं है वो इनसे मत कहना
इनके पास आँख है चमक है उजाला है
हवा ने झुलाया है इन्हें बादलों ने पाला है
बढने दोगे तो ये भोर के पहाड़ तक पहुँच जाऐंगे
कसमसाते सूरज को अँधी सुरंग से बाहर लाऐंगे।