हुकूमत पर ज़वाल आया तो
हुकूमत पर ज़वाल आया तो फिर नामो-निशां कब तक
चराग़े-कुश्त:-ए-महफ़िल से उट्ठेगा धुऑं कब तक
क़बाए-सल्तनत के गर फ़लक ने कर दिये पुर्ज़े
फ़ज़ाए-आस्मानी से उड़ेंगी धज्जियां कब तक
मराकश जा चुका, फ़ारस गया, अब देखना यह है
कि जीता है यह टर्की का मरीज़े-सख़्त जां कब तक
यह वह हैं, नाल:-ए-मज़लूम की लै जिनको भाती है
यह राग उनको सुनायेगा यतीमे-नातवां कब तक
कोई पूछे कि अय तहज़ीबे-इंसानी के उस्तादो !
यह ज़ुल्म आराइयां ताके, यह हश्र अंगेजियां कब तक
यह माना तुमको तल्वारों की तेज़ी आज़मानी है
हमारी गर्दनों पर होगा इसका इम्तिहां कब तक
निगारिस्ताने-ख़ूं की सैर गर तुमने नहीं देखी
तो हम दिखलायें तुमको ज़ख़्म हाए-ख़ूं चकां कब तक
यह माना गर्मिए-महफ़िल के सामां चाहिएं तुमको
दिखायें हम तुम्हें हंगाम:-ए-आह-ओ-फ़ुगां कब तक
यह माना तुमको शिकवा है फ़लक से ख़ुश्कसाली का
हम अपने ख़ून से सींचें तुम्हारी खेतियां कब तक
उरूसे-बख़्त की ख़ातिर तुम्हें दरकार है अफ़शां
हमारे ज़र्र:हाए-ख़ाक होंगे ज़र फ़शां कब तक
कहाँ तक लोगे हमसे इंतिक़ामे-फ़तहे-अय्यूबी
दिखाओगे हमें जंगे-सलीबी का समां कब तक
समझकर यह कि धुंदले से निशाने-रफ़्तगां हम हैं
मिटाओगे हमारा इस तरह नामो-निशां कब तक
ज़वाले-दौलते उस्मां ज़वाले-शरओ-मिल्लत है
अजीज़ो फ़िक्रे-फ़र्ज़न्द-ओ-अयाल-ओ-ख़ानमां कब तक
परस्ताराने-ख़ाके-काबा दुनिया से अगर उट्ठे
तो फिर यह एहतरामे-सज्दागाहे-क़ुदसियां कब तक
बिखरते जाते हैं शीराज़:-ए-औराक़े-इस्लामी
चलेंगी तुन्द बादे-कुफ़्र की यह आंधियां कब तक
कहीं उड़कर यह दामाने-हरम को भी न छू आये
ग़ुबारे-कुफ़्र की यह बेमुहाबा शोखियां कब तक
हरम की सम्त भी सद अफ़गनों की जब निगाहें हैं
तो फिर समझो कि मुर्ग़ाने-हरम का आशियां कब तक
जो हिज्रत करके भी जायें तो शिबली अब कहां जायें
कि अम्नो -आमाने -शामो -नजदो -क़ीरवां कब तक