कण्ठ सभी भर्राए
आँखों में सपनों की भरी नदी सूख गई,
और हमें मरुथल के संग-संग बहना है।
गढ़ते वक्तव्य रहे
बस्ती के सीने पर,
खिसकाकर सीढ़ियाँ
चढ़ते ख़ुद ज़ीने पर ।
पान कर हलाहल का कण्ठ सभी भर्राए,
और हमें पीड़ा को गा-गाकर कहना है ।
पर्वत-सा दर्द भले
सुना रही बाँसुरी,
रोम-रोम आग हुई
प्राणों की माधुरी ।
जीवन का फलसफ़ा समझा नहीं पाए हैं,
और हमें दुःख-सुख को साथ-साथ सहना है ।
इस जलते अम्बर से
टूटेंगी बिजलियाँ,
प्यास को बुझाने में
तड़पेंगी मछलियाँ ।
समय की तरंगों से बर्फ़ नहीं हो पाए,
और हमें अग्नि के मुहानों में दहना है ।