पिता
बरसों हो गए
/ कोशिश जारी है /
उसकी तरह बनने की
उसकी तरह सोचने की
परिवार के लिए, उसीकी तरह कमाऊ और रक्षक बनने की
अपनी बात रखने की
जिंदगी के दर्द को
इसके संघर्ष को
जीतने की
फिर भी उसकी तरह होना नहीं आया / आज तक
कि, पिता बकोशिश बना नहीं जाता
पिता उमगता है आदमी में
परिचय
आईने में
अपने आप को
देखते हुए
अक्सर सोचा करती हूँ,
क्या हूँ मैं?
वह जो है हिमालय
उसकी अटलता
या उसकी सबसे बड़ी
ऊपरी चोटी से
टपकती बर्फ की बूंद
जो बन जाती है गंगा
या,
धरती के आखिरी कोने पर
पड़ा हुआ जीवाश्म
जहाँ नहीं पड़े / अभी आदमी के पैर /
या फिर
न्यूयॉर्क, लंदन, मुंबई जैसे शहरों की
सड़कों पर पड़ी हुई कोई लाश
जहाँ नहीं है
संवेदनाओं के लिए कोई जगह
आखिर क्या हूँ मैं?
जंगल के किसी पेड़ की
किसी शाख की कोई पत्ती हूँ
जो चुपचाप बनाती है
अपना खाना
या बाँस का टुकड़ा
जिससे बाकी है
अभी कोई धुन निकलनी
या, राँची जैसे शहर के
किसी छोटे से अपार्टमेंट के
किसी छोटे से किचन में
शोर करती /
खाना बनाती हुई
कोई स्त्री?
क्या हूँ मैं?
आईने में देखते हुए
अपने आप को
अक्सर सोचा करती हूँ मैं!
उधार
हवाओं में जो नमी है
मेरे आँसुओं से है
ख़ुश्क़ रेत में
धँसते पाँव!
यह रेगिस्तान
मेरे संघर्षों की गाथा है
सूखे पत्तों की
खड़खड़ाहट यूँ ही नहीं,
मेरी न्यौछावर जवानी की
कसमसाहट है
आसमान छूते
चिनार के पेड़ों ने
मेरे सपनों से
चुराया है अपना क़द
उड़ते पंछी जो हैं,
मेरे ही हौसलों से है
इनकी उड़ान
सुनो,
सबने लिया है कुछ न कुछ
उधार मुझसे…
एक औरत से!
यात्रा मर्म
कुछ कविताएँ हैं
जो ढूँढ रही हैं अपना वज़ूद
कुछ मेरी सोचों में
दबी पड़ी हैं
कुछ कविताएँ मेरे दिल की जमीन में हैं
अँकुर जाने की कोशिश में
कुछ मेरे विस्फारित होठों पर हैं
थरथराती हुई
तो कुछ फिसलना चाहती हैं
मेरी उँगलियों से …
सोचती हूँ
अगर इसी क्षण
मैं मर जाऊँ तो?
तो मेरी लाश के साथ
जल जाएँगीं ये कविताएँ भी
और बहा दी जाएगी
इनकी राख भी
मेरी राख के साथ-साथ नदी में / गंगा में या फिर स्वर्णरेखा में /
मिलेंगीं ये कविताएँ भी सागर में
मेरी राख के साथ,
इस सागर से
फिर उठेगें बादल
फिर बरसेंगी
कविताएँ भी
मैं रहूँ न रहूँ
मैं आऊँ
या न आऊँ
कविताएँ करेंगीं
अपना वर्तुल पूरा
कि, कविताओं को पता है
नैसर्गिक यात्रा का मर्म!
सहारा
चाँद, सूरज
और तारे भी
आराम फरमा लेते
अगर मेरी तरह
उन्हें भी
मिल जाता
तुम्हारी पीठ का सहारा…
मुबारक! मुबारक!
ये तुम्हारे दो कदम
मेरे शहर की दहलीज पर
कि ये कदम-बोसी
मुझे मुबारक!
ये तुम्हारी साँसो की महक
मेरे शहर की हवाओं में
कि ये मस्त हवाएँ
मुझे मुबारक!
ये तुम्हारे चेहरे का तेज
मेरे शहर के सूरज में
कि ये आग
मुझे मुबारक!
ये तुम्हारे दो बोल
मेरे शहर के कानों में
कि ये नज़्म
मुझे मुबारक!
ये तुम्हारी ‘हाँ’
ये मेरी ‘हाँ’
और इस शहर की ‘हाँ’
कि ये ‘हाँ’ हमें मुबारक
डिमेन्शिया
न जाने किन खलाओं में गुम हूँ
हूँ अंधेरों में और रोशनी भी है साथ
अभी था मुज्महिल मैं,
अभी नहीं कोई एहसास
ढूँढ रहा हूँ न जाने किसको
और न जाने कौन है मेरे पास
दिखाई दे रहा है अहरमन मुझको
और सबूते-हक भी है मेरे पास
अपनी गुमशुदी की शिकायत कहाँ करूँ
इन्हीं उलझनों में खोया रहता हूँ दिन रात
गुस्ताखी
पेड़ पौधों से
हमारी अनबन हो गई है
विकास की
यह कैसी
हवा बह गई है
नदियों को
छोड़ दिया है
हमने बेपरवाह…
प्लास्टिक, कूड़े-कचरे
और रसायनिक मलबों के लिए
भगीरथ के वंशजों से जाने
कैसी गुस्ताखी हो गई?
हाँ! मैंने लिखी कविताएँ
उसने कहा
तुम्हें तभी लिखनी चाहिए कविताएँ
अगर तुम कर सको
इन सादे कागजों का एहतराम!
अगर तुम दिला सको
समांतर दौड़ती हुई
इन सीधी रेखाओं को मंजिल
अगर तुम दिखा सको
चकोर बंद में बंधे
इन वर्गों को अनंत
हाँ!
मैंने लिखी कविताएँ
मैंने लिखी-करूणा!
मैंने लिखा-प्रेम!
मैंने लिखा-सत्य!
पेपर वेट
शब्दों की सूरत में
भावनाएँ उड़ेली हुई है
कागजों पर
मुझे डर है
कहीं उड़ ना जाए
मेरे शब्द
सो
मैंने रख दिया है
उनके ऊपर पेपरवेट
जिसमें
बनी हुई है
रुपयों की आकृति!
ट्रेडमिल
तुम
मेरे सामने खड़े हो
पर
मैं तुम्हें छू नहीं पाती
तुम तक
पहुँच नहीं पाती
जैसे
ट्रेडमिल पर
चलता हुआ आदमी
चलता तो रहता है
पर कहीं
पहुँचता नहीं
पैसों से कई नुकसान है
एक दिन
एक दिन
कहा था उसने
‘तुम मेरा घर हो’
तब से
एक पैर पर
खड़ी हूँ मैं
और वह
सुस्ताता रहा है मुझ में..
महत्त्व
हम ज़िन्दगी के
कश्ती के सवार थे
जिन्हें जाना था उस पार
उसे उस पार
मुझे उस पार
इस गोल दुनिया में
दिशाओं के महत्त्व को
मैंने अब समझा है
स्वीकृति
हमारे बीच खामोशी है
और चाय की प्याली है
खामोशी की अपनी भाषा है
और चाय की प्याली की
अपनी भाषा
पर हाँ!
इसमें चीनी कम है
समतुल्य
समंदर उलट रहा था
अपने इतिहास के पन्नों को,
ऐसा कब था
जब दो दरिया मिले थे
और तूफान बाहर की बजाय
अंदर उठने लगा था?
रंग भी
स्वाद भी
लगभग एक से थे?
यह पानियों का कैसा दरिया था
जो उसकी गहराई से ज़्यादा था?
वह ज़वाब ढूँढ ही रहा था
तभी उसे महसूस हुईं
मेरी
दो आँखें!
अमृता प्रीतम
अमृता!
तुम्हें आना पड़ेगा…
मेरी सोच से उतरकर
मेरी रूह की गलियों से गुजर कर
मेरी नसों में लहू बनकर
मेरी उँगलियों के पोरों से
कसे कलम से
सफेद कागज पर
सुफियाने नज़्म की तरह
उतरना पड़ेगा
अमृता!
तुम्हें आना पड़ेगा…
प्रेम
कल रात
जिस पौधे से
बातें की थी
तुम्हारे बारे में
सब से चुप कर
माली बता रहा था
आज उस में फूल उगाए हैं
प्रेम छुपाए नहीं छुपता
है न!
पर्यावरण
कल मैं बीज था
फिर मैंने मिट्टी का साथ पाया
मुझसे अंकुर फूटा
बारिश ने
अपना आशीर्वाद बरसाया
मैं पौधा बन गया
फिर मुझे
धूप ने खाना दिया
मैं पेड़ हो गया
अब उनके एक हाथ में आरी है
दूसरे हाथ में मेरा बदन..
बसंत: नेक्सटजेन
उनके जीवन में
आता है बसंत
जब जला दी हो किसी ने
कमरे के बत्तियाँ
ऑन कर दिया हो ए.सी
जब उड़ेल दिया हो
पूरा का पूरा शराब
सोडे और मिनरल वाटर के साथ
पेश किया हो किसी ने कॉकटेल
आते रहे दोस्तों के मैसेज
और जब बजे मोबाइल की घंटी
उभर के आए बस वही एक नाम
बसंत तब आता है उनके जीवन में
हैसियत
उन्होंने कहा, उन्हें चाहिए,
प्रेम करने वाली स्त्रियाँ
हमने प्रेम किया
और पाया दोयम दर्जे का स्थान
घरों में
उन्होंने कहा, उन्हें चाहिए,
पढ़ाई करने वाली स्त्रियाँ
हमने पढ़ाई की,
और पाया दोयम दर्जे का स्थान
विद्यालयों में
उन्होंने कहा, उन्हें चाहिए,
काम करने वाली स्त्रियाँ
हमने की, ऑफिस तक की यात्रा
और पायीं दोयम दर्जे की नौकरियाँ
सुना था,
‘धोबी का कुत्ता, घर का न घाट का’
अब सुनने में आया है,
धोबी ने कुतिया पाल ली है!