लांघना मुश्किल है
लांघना मुश्किल है
हमारे बीच पसरे
सन्नाटे को
पर असंभव भी तो नहीं
कभी पुकार कर देखना
या फिर
अपने मौन में ही
सुन सको
तो सुनना
मेरी धड़कन
जानती हूँ
तुम्हारी आंखों की प्यास
गहरी है
पर मेरे
आंसुओं की नदी भी
कभी कहां सूखती है
पलकें झपकाओं तो जरा
मेरी नदी
वहीं कहीं बहती है
तुमने सौंपा था
चुपचाप, सबसे चुरा
एक दहकती दोपहर
और में
अपनी कविताएं रोप आई थी
तुम्हारे धधकते मन में
जरा अपने में झांको
देखना
वहां अग्निफूल खिल रहे होंगे
इतनी बांझ भी तो नहीं थीं
मेरी कविताएं
एक पल
जो कभी ठिठकों तो
अपने पांव देखना
मेरे स्पर्श के गुलमोहर
वहां अब भी दहकते होंगे
बर्फ-सी सुन्न
उंगलियां
उन पर रखना कभी
और महसूसना
मेरा होना
सर से पांव तक
कैसा शहर
कोई भी पूरी तरह पहचाना हुआ नहीं
दोस्तों के
चेहरों पर चढ़े
मुखौटे
चक्रव्यूह
छोटे बड़े
अपने – पराये द्रोणाचार्यों के बनाए
पहली से पांचवीं मंजिल तक पसरे
भीतर जाकर निकलना रोज
महत्वाकांक्षाएं
लील जातीं
संवेदनाएं, शुभेच्छाएं
यह
कैसा शहर
जंगल में
तुमने कहा
” लगता है
छाती में
सूखी सिसकियां
भरी हैं आज भी ” –
सुना मैंने: जैसे जंगल में चीखें –
” जीवन में
जो खोया है
पूर्ति कर दूं उसकी ” –
इच्छा मेरी: जैसे जंगल की आग: देखा मैंने
” आत्मा –
अनश्वर
शरीर से मुक्ति
सबसे बड़ी मुक्ति
मुक्ति का
शोक नहीं
उत्सव मनाओ ” –
और पूरा जंगल भर गया –
भयावनी आवाजों से, दृश्यों से,
आकाश में छितरा गये पक्षी
फिर तुमने कुछ नहीं कहा
मैंने कुछ नहीं सुना
कलकत्ता – 1
भीड़ में
घिरे हुए आदमी को
दबे पांव
आहिस्ता से
हाथ थाम
अलग कर दिया तुमने
और
साथ चलते रहे
कदम – दर – कदम
मील- दर – मील
एक छोर से
दूसरे छोर तक
अंतिम मोड़ पर पहूँच
अचानक
चुपचाप
चले गये तुम
कहा
अब जाओ
तुम्हें जो देना था दिया
कलकत्ता – 2
बिछुड़ कर भी
अनजाने, अनचाहे
समूचे वजूद पर
पसर जाता वह
जिसने
हर छोटी – बड़ी सफलता पर
झूम कर
बाहों में भरा
बहुत लाड़ से सहेजा
हर अभियान में
हमकदम, हमसफर
इतना साझा
रचा – बसा सांसों में जो
कैसे भूलोगे उसे
बार – बार, हर बार
दास्तो के चेहरों में
तब्दील हो जाता
वह शहर
पूरा का पूरा
साथ आयेगा
आपके बाहर
आपके भीतर
अंधे कुएँ में
बुढ़ापे की दस्तक जैसी
एक पर्त और
साफ झलकती
कभी नहीं हंसते
न उड़ाते पतंग
न ही पकड़ते तितलियां ये
न ठुनकते
न मान करते
बस
पेट के लिए –
हाथ फैलाते या करते अदने से काम
चमकाते बूट या कारों के षीषे
दूसरों के लिए करते चोरी और
पकड़े जाते
प्रश्न-उत्तर
यह कैसा
कौन – सा वक्त है ?
किससे पूछूं
कौन बतायेगा
हर आदमी खोया
प्रश्नों के जंगल में
उत्तर किसी के पास
नहीं यहां
धरती पर पांव
टिकाओ तो
दलदल बन जाती है वह
आकाश असीम नहीं
अंधा कुंआ है
सूरज, चांद, हवा, कोई नहीं उबारता
बस डुबोता है
रचता है षडयंत्र
जीवन के विरूद्ध
प्रकृति
मुंह मोड़े आदमी से
थकी दे – देकर
आदमी फैलाये हाथ आज भी
अकेला अपने साये से भी डरता
नहीं मिलते उसे
अपने प्रश्नों के
उत्तर
या फिर
आदमी या
प्रकृति किसी के पास
होते ही नहीं
गलत प्रश्नों के उत्तर
तमाचा
उसका नाम
कुछ भी हो सकता है
नहीं जानती
क्योंकि
पूछ नहीं पायी
बीते दिसम्बर की
एक ठिठुरती शाम
सहमी, दुबकी सड़क पर
बेसब्र गाड़ियों की
उकताई कतारों के बीच
रेड लाइट के
सिगनल पर
वह
अचानक दीखा
उम्र
लगभग नौ-दस
गहरा काला सिकुड़ा शरीर
चेहरा सपाट
धुंधली, अटपटी आंखें
कांपते हाथ
फटी बुशर्ट
बटन टूटे
मैला पायजामा
कोहनी में
दबा पुलिंदा
उंगलियों पर
सरसराते
शाम के अखबार के पन्ने
वह
नन्हा बाजी़गर
मुस्तैदी से
हर कार के
वाइपर पर
अखबार फंसाता
ठक – ठक करता
बंद खिड़कियों पर
किसी कार की
खिड़की नहीं खुली
कार के अन्दर
बंद खिड़कियों के पीछे
स्वेटर, कोट, मोजे में भी
कांपती
कोट की जेबों में
हथेलियां
छुपाये
उसे देखती रही
असम्पृक्त
अविचल
अपनी भूख की
फिक्र में
सड़क छानता वह
हमारे सभ्य चेहरों पर
उठा
तमाचा
मृत्यु
बार – बार
घर के दरवाजे पर
दस्तक देती
मुहजोर
बुदबुदाती रहती है वह
अब ही आयेगी
तो फटकारेगी
ढीठ को –
इधर का
रुख न करना
तुम से नहीं
जीवन से
प्रेम करती हूँ
शांत होते ही
फिर बैठ जाती है
प्रतीक्षा में वह
सांकल खटखटाने की
जीवन – 1
एक धूल कण
सर्वांग भीगा
खुलता –
परत – दर – परत …
आंखों को
नम करता
औचक गिरी रोशनी में …
जीवन – 2
जहाँ
सब खत्म हो गया, अचानक
वहीं – उसी छोर पर
पल भर में
नयी दुनिया: एक नन्हीं – सी कोंपल
हिलाने लगी हाथ
उस कोंपल की हरियाली में
डूब जाती है
यह डूबना उसे भर देता है
उबरने के
एहसास से
आपाद
नमी से…
जिन्दगी
स्नेह से
दुलराया नहीं कभी
हर दिन
नयी जिम्मेदारी की
पोटली बांध
रख गयी सिर पर
जब मिली
यही कहा
देखो
मांगना मत कभी
और
वह देती रही
देती ही रही
थक कर
जब भी
राहत के दो पल
सिर्फ दो पल चाहे –
किंचित हंस कर बोली
कहा था न
कुछ मत मांगना
आस
रोग
शोक
भय
नहीं रुकी
किसी के भी रोके
उसके लिए
मन से भी तेज
भागता रहा
प्रतीक्षाकुल मन
अंत तक
परिवर्तन
उम्मीद और
नाउम्मीद के बीच
जो कुछ भी था
धंस गया
संशय के दलदल में
विष्वास की
नन्हीं गौरया को
लील गया कुछ ३
अपरिवर्तित है दिनचर्या
फिर भी
सब कुछ बदल गया है
अभिशप्त
बिलबिलाती भूखों के बीच
कोई सुरक्षित नहीं
भरोसा नहीं किसी का
चौदह साल की मासूम उम्र
मित्रों द्वारा अपहृत और फिर
मौत के घाट उतारा जाना
बच्चे कहां जायें,
किसके साथ खेलें
यह कैसे
युग, काल में
जी रहे हैं हम
छः बरस की बच्ची हो या
अस्सी की
स्त्री मादा है बस
कोई भी नर
कभी भी भूखा
सिर्फ भूखा हो जाता है
नहीं रहता बाप, भाई, बेटा या दोस्त
यह कैसे
युग, काल में
जी रहे हैं हम
अंतहीन भूख
और अशेष वासनाओं, लिप्साओं ने
लील लिया
वह सब जो सत्य था,
शिव था, सून्दर था
आदमखोरों के गिरोह ने
लूट ली हमारे
विवेक की धरोहर
सोख लिया हमारी
आस्थाओं का सागर
कुछ भी तो नहीं बचा
हमारे पास
सब कुछ देख रहे हम,
फिर भी
जुबान नहीं खुलती
इस कदर
दहशत से सिले हैं
हमारे ओंठ
कुछ कर नहीं सकते
इस तरह बंधे हैं
खौफ की रस्सियों से पैर
हर पल मरते हुए
एक पूरे दौर को देखना, उफ
यह कैसे
युग, काल में
जीने को विवश
अभिशप्त हम
मुक्तिबोध
स्वयं की
सीमाएं लांघ
चल पड़ता
कोई
बेपरवाह
अनजान
अकेले
निर्द्वन्द
निर्बाध
यह रास्ता भी
मुक्ति की ओर कहां जाता है
संघर्ष नहीं रुकता
चलता रहे
अन्दर
असमाप्त – रुदन
होता रहे – विध्वंस
जलती रहे – आस्थएं
धधकता रहे – विश्वास
पिघलते रहे – सपने
खोती रहें – उम्मीदें
चुकती रहें – ऊर्जा
मिटता रहे – उत्साह
रुकना नहीं है कुछ
चलनें दो सतत, अबाध, शाश्वत
अंतहीन यात्राओं का अंत
मन झूम रहा
जाना है
यात्रा पर
बरसों की तलाष,
यहाँ से वहाँ
भटकने की त्रासदी,
षेश कर देगी दोनों को
यात्रा पर जाना है
जानती है वह
उस तक पहुँच
अंतहीन यात्राओं का ही
अंत
फिर भी
मन झूम रहा है
अभिमन्यु की नियति लेकर
अभिमन्यु के समान
नियति वालों
पर वार
सदा
अपने ही करते
चक्रव्यूह से
निकलने की राह से
अनभिज्ञ के लिए
निकलने की
मृत्युपर्यन्त चेष्टा
ही महत्वपूर्ण
जय
पराजय
या मृत्यु
नहीं
जूझने की
अदम्य जिजीविषा
अभिष्ट होता उनका
जो अभिमन्यु की
नियति लेकर
जन्मते
क्या सूरज छुआ जा सकेगा
आकाश को
छूना है
सूरज से
मिलना है
कब रुकते हैं वे ?
कोई
साथ चले
न चले
सूरज की उजास
कालजयी
क्या कभी छुआ जा सकेगा ?
क्या सूरज छुआ जा सकेगा ?
शायद हाँ
शायद नहीं