प्रतिरोध
पर्वत देता सदा उलाहने
पत्थर से सब बन्द मुहाने
मगर नदी को ज़िद ठहरी है
सागर तक बह जाने की
गिरवी सब कुछ ले कर बैठा
संघर्षों का कड़क महाजन
कर्तव्यों की अलमारी में
बन्द ख़ुशी के सब आभूषण
मगर नींद को अब भी आदत
सपना एक दिखाने की
मर्म छुपा है हर झुरमुट में
हर जड़ में इक दर्द गड़ा हैं
लेकिन मौसम की घुड़की पर
जंगल बस चुपचाप खड़ा है
मगर आज आँधी की मंशा
सब कुछ तुम्हें बताने की
सभी प्रार्थना-पत्र पड़े हैं
घिसी रूढ़ियों के बस्ते में
पता नहीं है लक्ष्य दूर तक
जीवन बीत रहा रस्ते में
पर पैरों ने शपथ उठाई
मंज़िल तक पहुँचाने की
रीते घट सम्बन्ध हुए
सूख चला है जल जीवन का
अर्थहीन तटबन्ध हुए
शुष्क धरा पर तपता नभ है
रीते घट सम्बन्ध हुए
सन्देहों के कच्चे घर थे
षड्यन्त्रों की सेन्ध लगी
अहंकार की कंटक शैया
मतभेदों में रात जगी
अवसाद कलह की सत्ता में
उत्सव पर प्रतिबन्ध हुए
ढाई आखर वेद छोड़ कर
हम बस इतने साक्षर थे
हवन कुण्ड पर शपथ लिखी थीं
वादों पर हस्ताक्षर थे
हुईं रस्म सब कच्चा धागा
जर्जर सब अनुबन्ध हुए
समय-नदी
समय-नदी ले गई बहाकर
पर्वत जैसी उम्र ढहाकर
लेकिन छूट गए हैं तट पर
कुछ लम्हें रेतीले
झौकों के संग रह-रह हिलती
ठहरी हुई उमंगें
ठूँठ-वृक्ष पर ज्यों अटकी हों
नाज़ुक चटख पतंगें
बहुत निकाले फँसे स्वप्न पर
ज़िद्दी और हठीले
कुछ साथी सच्चे मोती से
जीवन खारा सागर
रहे डूबते-उतराते हम
शंख-सीपियाँ ला कर
अभिलाषाओं के उपवन को
घेरें तार कँटीले
रूखे सूखे व्यस्त किनारे
लहरें बीते पल की
ज्यों खण्डहर के तहख़ाने में
झलकी रंगमहल की
शब्द गीत के कसे हुए हैं
तार सुरों के ढीले
ये कैसे बँटवारे ग़म के
आँसू और मुस्कान मिले हैं
यहाँ किसी को बिना नियम के
ये कैसी तक़सीम सुखों की
ये कैसे बँटवारे गम के
कहीं अमीरी के लॉकर में
जाने कितने ख़्वाब धरे हैं
कहीं ग़रीबी के पल्लू में
सिक्का-सिक्का स्वप्न मरे हैं
जहाँ दिहाड़ी पर नींदें हों
वहीं फिक्र के डाकू धमके
कहीं कुतर्कों से ‘आज़ादी‘
नित्य नई परिभाषा लाती
कहीं रिवाजों के पिंजरे में
चिड़िया पंख लिए मर जाती
जहाँ भूख से आँत ऐंठती
वहीं पहाड़े हैं संयम के
जहाँ लबालब नदिया बहती
वहीं बरसते बादल आ कर
जहाँ धरा की सूखी छाती
धूप बैठती पाँव जमा कर
जहाँ थकी हो प्यास रेत में
वहीं भरम का पानी चमके
ये कैसी तक़सीम सुखों की
ये कैसे बँटवारे ग़म के
मन में नील गगन
खण्डहर जैसे जर्जर तन में
जगमग एक भवन
रेंग-रेंग चलने वालों के
मन में नील गगन
निपट अन्धेरी मावस में भी
भीतर जुगनू चमके
ढके चाँदनी काले मेघा
मगर दामिनी दमके
अन्धियारे का चीर समन्दर
तैरे एक किरन
स्वार्थ-साधना के पतझड़ में
ख़ुशबू तिल-तिल मरती
हरी पत्तियाँ सौगन्धों की
रोज़ टूट कर झरतीं
जब ढोया एकाकीपन को
ख़ुद से हुआ मिलन
कर्तव्यों के मेघ गरजते
चिड़िया-सी इच्छाएँ
दुनियादारी के जंगल में
सहमी अभिलाषाएँ
भरी दुपहरी ठूँठ वनों में
ढूँढ़ें नदी हिरन
अन्तर्द्वन्द्व
किसने धूमिल किया नगीना
किसने मुझको मुझसे छीना
मेरे भीतर मेरे मन का
कौन विरोधी आन बसा
जब आशा का कलश उठाया
आशंका ने ज़हर भरा
जब भी निर्भय होना चाहा
भीतर-भीतर कौन डरा
जब भी ख़ुद के बन्धन खोले
जाने किसने और कसा
जब भी थक कर सोना चाहा
भीतर-भीतर कौन जगा
जब भी अपनी कसी लगामें
भीतर सरपट कौन भगा
बीच नदी मेरे काँटे में
मेरा ही प्रतिबिम्ब फँसा
उसकी सारी ठोस दलीलें
मेरे निर्णय पिघल गए
दाँव नेवले और साँप से
टुकड़ा-टुकड़ा निगल गए
मेरी हार निराशाओं पर
मुझमे ही ये कौन हँसा
दिशा-भरम
दुविधाओं की पगडण्डी पर
भटके जनम-जनम
जितने जीवन में चौराहें
उतने दिशा-भरम
धीरज, संयम और सबूरी
शब्द बहुत हैं हल्के
अधरों में जब पीर छुपाओ
आँखों से क्यूँ छलके
ऊपर-ऊपर बर्फ़ भले हो
भीतर धरा गरम
जितने मन में हैं चौराहें
उतने दिशा-भरम
सीधी समतल राह देखकर
चंचल मन मुड़ जाए
ऊँच-नीच पर उछल-कूद कर
मृग जैसा भरमाए
जितना बाहर तेज़ उजाला
उतना भीतर तम
भीतर पानी में कम्पन है
भले जमी हो काई
पिंजरे की चिड़िया सपने में
अम्बर तक हो आई
मन की अपनी मुक्त छलांगे
तन के सख़्त नियम