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ग़ज़लें

इक बर्ग-ए-ख़ुश्क से गुल-ए-ताज़ा तक आ गए

इक बर्ग-ए-ख़ुश्क से गुल-ए-ताज़ा तक आ गए
हम शहर-ए-दिल से जिस्म के सहरा तक आ गए

उस शाम डूबने की तमन्ना नहीं रही
जिस शाम तेरे हुस्न के दरिया तक आ गए

कुछ लोग इब्तिदा-ए-रिफ़ाक़त से क़ब्ल ही
आइंदा के हर एक गुज़िश्ता तक आ गए

ये क्या कि तुम से राज़-ए-मोहब्बत नहीं छुपा
ये क्या कि तुम भी शौक़-ए-तमाशा तक आ गए

बेज़ारी-ए-कमाल से इतना हुआ कि हम
आराम से ज़वाल-ए-तमन्ना तक आ गए

जब समाअत तिरी आवाज़ तलक जाती है 

जब समाअत तिरी आवाज़ तलक जाती है
जाने क्यूँ पाँव की ज़ंजीर छनक जाती है

फिर उसी ग़ार के असरार मुझे खींचते हैं
जिस तरफ़ शाम की सुनसान सड़क जाती है

जाने किस क़र्या-ए-इम्काँ से वो लफ़्ज़ आता है
जिस की ख़ुश्बू से हर इक सत्र महक जाती है

मू-क़लम ख़ूँ में डुबोता है मुसव्विर शायद
आँख की पुतली से तस्वीर चिपक जाती है

दास्तानों के ज़मानों की ख़बर मिलती है
आईने में वो परी जब भी झलक जाती है

श्क पत्तों में किसी याद का शोला है ‘सईद’
मैं बुझाता हूँ मगर आग भड़क जाती है

ज़िक्र मेरा है आसमान में क्या

ज़िक्र मेरा है आसमान में क्या
आ गया हूँ मैं उस के ध्यान में क्या

सब करिश्मे तअल्लुक़ात के हैं
ख़ाक उड़ती है ख़ाक-दान में क्या

चाँद तारे उतर नहीं सकते
रात की रात इस मकान में क्या

फिर चली बाद-ए-साज़गार मगर
कुछ रहा भी है बादबान में क्या

ज़िंदा है इक क़बीला-ए-क़ाबील
मैं रहूँ ऐसे ख़ानदान में क्या

पत्थर को पूजते थे कि पत्थर पिघल पड़ा 

पत्थर को पूजते थे कि पत्थर पिघल पड़ा
पल भर में फिर चट्टान से चश्मा उबल पड़ा

जल थल का ख़्वाब था कि किनारे डुबो गया
तन्हा कँवल भी झील से बाहर निकल पड़ा

आईने के विसाल से रौशन हुआ चराग़
पर लौ से इस चराग़ की आईना जल पड़ा

गुज़रा गुमाँ से ख़त फ़रामोशी यक़ीं
और आइने में सिलसिला अक्स चल पड़ा

मत पूछिए कि क्या थी सदा वो फ़क़ीर की
कहिए सुकूत शहर में कैसा ख़लल पड़ा

बाक़ी रहूँगा या नहीं सोचा नहीं ‘सईद’
अपने मदार से यूँही इक दिन निकल पड़ा

नज़्में

अधूरी नस्ल का पुरा सच

उम्र का सूरज सिवा नेज़े पे आया
गर्म शिरयानों में बहते ख़ून का दरिया भँवर होने लगा
हल्क़ा-ए-मौज-ए-हवा काफ़ी नहीं
वहशत-ए-अब्र-ए-बदन के वास्ते
आग़ोश कोई और हो
वर्ना यूँ मुर्दा सड़क के ख़्वाब-आवर से किनारे
बे-ख़याली में किसी थूके हुए बच्चे की उलझी साँस में लिपटी हुई ये ज़िंदगी !

ज़ेहन पर बार-ए-गिराँ बंद क़बा के लम्स का एहसास भी
और शहर-ए-हब्स में रस्ता कोई खुलता नहीं
शाख़ तन्हा से बीये का घोंसला गिरता नहीं
वहशत-ए-अब्र-ए-बदन की ख़ुश्क-साली
एक चुल्लू लम्स के पानी की मुहताजी को रोती है
मगर !
देखना आवारा किरनें देखना
जिन को रास्तों में बिखरती
तितलियों सी लड़कियों के ज़ेर जामों
और शीरीं जिस्म के हल्के मसामों तक सफ़र का इज़्न है

उम्र का सूरज सिवा नेज़े पे आया
अब किताबों, तख़्तियों की बे-मज़ा छाँव तले घुटता है दम
अब बदन छुपता नहीं अख़बार के मल्बूस में
अब फ़क़त उर्यानियाँ
लेकिन यक़ीनन
मार डालेगी कहीं
इन भरे शहरों की तन्हाई हमें

चिता में बैठी ख़्वाहिश 

कि जलते बदन की सराए से
कुछ फ़ासले पर
अगर आँख में एक आँसू लिए
तुम ये सोचो
कि दश्त-ए-तमन्ना में जलता हुआ ये पड़ाव
तुम्हारी थकन का पड़ाव है शायद
तो होने की होनी से पूछूँ
बता अब तिरी ख़ाक के नम में ज़र-ख़ेज़ियाँ किस क़दर हैं

जब बीनाई सावन ने चुराई हो

ख़स्तगी शहर-ए-तमन्ना की न पूछ
जिस की बुनियादों में
ज़लज़ले मौज-ए-तह-ए-आब से हैं
देख उम्मीद के नश्शे से ये बोझल आँखें
देख सकती हैं जो
आइंदा का सूरज ज़िंदा
धूप के प्याले में
ज़ीस्त की हरियाली
ज़र्द चेहरे पे ये कैसा है परेशान लकीरों का हुजूम
और क्यूँ ख़ौफ़ की बद-शक्ल पछल-पाई कोई
तुझे बाहों में जकड़ने को है

ज़लज़ले नींद से बेदार हुआ चाहते हैं क्या’ तो क्या
छोड़ भी शहर तमन्ना का ख़याल
देख उम्मीद के नशे से ये बोझल आँखें
शहर मिस्मार कहाँ होता है
शहर आसार-ए-क़दीमा में बदल जाएगा

ज़वाल के आईने में ज़िंदा अक्स 

झुटपुटे के शहर में
बेगानगी की लहर में
मादूम होती रौशनी के दरमियाँ
ज़ीस्त के पाँव तले आए हुए
लोग हैं या च्यूंटियाँ

तन बदन की रेहल पर
मोहमल किताबें ज़र्द चेहरों की खुलीं
मंज़रों की खोजती बीनाइयाँ माज़ूर हैं
याद रखने की तमन्ना
भूलने की आरज़ू
हाफ़िज़े की बंद मुट्ठी में ठहरता कुछ नहीं
हर क़दम ख़्वाब ओ ख़याल वस्ल की लज़्ज़त लिए
ज़ात के नीले समुंदर में कहीं
इन जज़ीरों की हवा में साँस लेते जो मुकद्दर में नहीं
ढूँढते हैं कश्तियों का रास्ता
हर सुब्ह के अख़बार में

ख़ुद-कलामी की सड़क पर दूर तक
(लड़खड़ाते ज़र्द पत्तों की तरह)
खोलते हैं कशमकश की गठरियाँ
खुलती नहीं
भीगते हैं तेज़ बारिश में नदामत की मगर
रूह की आलूदगी धुलती नहीं

ज़ात की काल कोठरी से आख़िरी नश्रिया

अब कोई सहरा न ऊँटों की क़तारें
घंटियाँ सी जगमगाती ख़्वाहिशों की
ध्यान के कोहरे में लिपटी
गुनगुनाती हैं मगर मिज़राब-ए-आइंदा के सफ़र के
रास्तों के साज़ से नाराज़ हैं

मैं उसी अंधी गली की क़ब्र में मरने लगा
भाग निकली थी जहाँ से
ज़ीस्त पैदाइश के दुख दे कर मुझे

आँख से चिपके नज़ारों के हज़ारों दाग़ हैं
जो वक़्त की बारिश से भी धुलते नहीं
कौन सी दीवार में रख्ने हैं कितने
कौन दरवाज़ों को कैसी चाट दीमक की लगी हैं
कौन सी छत तक किसी ने
सीढ़ियों में ठोकरें कितनी रखी हैं
हर कहानी याद है

सुन मिरे हम-ज़ाद सुन!
ज़िंदगी के खोज में अब
हिजरतें वाजिब हैं लेकिन
सरहदों से मावरा हैं
या हवाएँ या सदाएँ या परिंदे
मैं तमन्ना के जहाज़ों का मुसाफ़िर
या पासर्पोटो और विज़ों के एअर पॉकेट डराते हैं मुझे

तज़ादों से इबारत

दुखों के ख़ेमे में बैठ कर
ना-रसा ख़ुशी की ख़ुशी में हँसना
तवील ओ अंजान हिज्र की ख़ार-ज़ार पगडंडियों पे चलते
विसाल लम्हों की ख़ुशबुओं में रची
कोई नज़्म कह के रोना
हवास की दस्तरस में होना
कभी न होना
इन्हीं तज़ादों से ज़ात के हाथ की लकीरों में रम्ज़-ए-मआनी
इन्ही पे क़ाएम मिरे तफ़क्कुर के सिलसिले सब
कलाम ओ हुस्न-ए-कलाम के ढब

निस्फ़ हिज्र के दयार 

हवा के हाथों में हाथ दे कर
जुदाइयों के सफ़र निकले थे तुम
मगर क्यूँ
रूके हुए हो
यक़ीन-ए-ख़ुफ़्ता गुमान-ए-पुख़्ता के पानियों पर
जहाँ पे अव्वल मोहब्बतों के कँवल खिले थे
अभी वहीं हो !
जुदाइयों के सफ़र पे जा कर भी अब तलक तुम
गए नहीं हो !
चले भी जाओ
चले भी जाओ
कि गुम-शुदा ज़ात के ख़ज़ीने की कुजियाँ ढूँढनी हैं मैं ने
सुकूत-ए-सौत-ओ-सदा के पर्दे में तर्ज़-ए-गुफ़्तार सीखनी है
निकल के मौजूदा वक़्त के बे-दरीचा बे-दर हवेलियों से
मुझे मुलाक़ात सोचनी है
बहुत सी बे-नाम ग़ैर महदूद साअतों की सहेलियों से

चले भी जाओ
बस इस से पहले
कि मोम-लम्हा पिघल ही जाए
कि जब्र आग़ाज़ हो शबों का
कि सोच रस्ता बदल ही जाए
चले भी जाओ

और दिया जलता है ख़्वाब में

वही काएनात की फैलती हुई ज़ुल्मतें
वही सूरजों की है बेबसी
यही एक मंज़र-ए-रू-ब-रू
मिरे शष जिहात की दास्ताँ
मुझे लम्हा लम्हा निगल रहा है
मगर कहीं
मिरी ख़्वाब रात के आसमान पे कोई हाल-ए-नूर है
जो अज़ल से ता-ब-अबद फ़ज़ा-ए-फ़ना में दर्ज है ऐसी सत्र दवाम की
जिसे मस्जिदों के उजाड़ ताक़ तरस गए
जिसे ढूँढते कई दिन महीने बरस गए

मआनी की तलाश में मरते लफ़्ज़

सेहन में फैली है
तल्ख़-तर रात की रानी की महक
कमरा-हैरत में
ख़्वाब की शहज़ादी
बाल बिखराए मिरे सीने पर
कब से इक ख़्वाब-ए-अबद में गुम है

लम्स की आँखों में
क़ोस-दर-क़ोस तिलिस्मात अजब ज़िंदा हैं
झड़ चुका है लेकिन
जिस्म की शाख़ से चेहरे का फूल
ज़ीस्त के जोहड़ में
ख़्वाहिश-ए-दरिया के
एक अम्र लम्हे को
सोचने की ये सज़ा कुछ कम है
कि जली हर्फ़ों में
लिख चुका है कोई
तीरा-ओ-तार अज़ल के किसी पस-ए-मंज़र में
जश्न-ए-नौरोज़ पे मामूल की इक मौत
हमारी ख़ातिर

सफ़र ला सफ़र

वक़्त की ज़ंजीर तो कट नहीं सकती मगर

खोल घड़ी दो घड़ी
क़ुफ़्ल दर-ए-ज़ात का
आईना-ए-ज़ब्त को संग-तमन्ना से तोड़
और ख़ुशी से बहा दिल में रूका सैल-ए-दर्द

सोच ज़रा देर को
गोश्त के मल्बूस में पिंजरा हैं ये पिसलियाँ
जिस के अजब सेहर में
क़ैद तिरी रूह का ताएर-ए-ख़ुश-रंग है
आँख उठा कर तो देख
बाज़ू कुशादा किए वो शजर-ए-शष-जिहत
कितने ज़मानों से है सिर्फ़ तिरा मुंतज़िर

ताएर-ए-ख़ुश-रंग की हमराही-ए-शौक़ में
पिंजरे समेत उड़ ज़रा
हैरत ओ इम्कान की वादी-ए-ना-मुख़्ततिम
लम्हा-ए-ला की तरफ़

डूबते सूरज की सरगोशी

ढेर किरचियों के
आँख में हैं लेकिन
आईने नौहा
हर किसी क़लम की दस्तरस से बाहर
रौशनी के घर में
तीरगी का पत्थर
किस तरफ़ से आया
कौन है वो आख़िर
जो पस-ए-तमाशा मुस्कुरा रहा है
इक सवाल होती है
ज़िंदगी नगर की
सुर्ख़ियाँ ख़बर की खोजती है लेकिन
ख़्वाब के सफ़र की साअतों पे क़दग़न
सोच रहन-ए-सर है
नींद की सहर जो
क़र्या-ए-तमन्ना लूट ले गया
उस के नक़्श-ए-पा भी
चुन लिए हवा ने
मुंसिफ़ी के दाई
बे-यक़ीन मौसम बाँटते हैं घर घर
और हड्डियों के ना-तवाँ से पंजर
सुर्ख़ बत्तियों के ख़ौफ़ की सड़क पर
साइरन बजाती एक ना-गहानी
ता-अबद तआकुब
ख़त्म है कहानी

हम ज़ात से हम कलामी और फ़िराक

सच्चे ख़्वाब और झूठी आँखें
अंधे रस्तों की हमराही
अंजान तहय्युर का पानी
और इस्तिफ़्हामी लहजों की
दो-धारी तलवारें
तेरी क़ुर्ब-सराए से
ये ज़ाद-ए-सफ़र साथ लिया है

रूख़्सत के रूख़्सारों पर
आँसू बन कर गिरते
लम्हे के हाथों में
अपने होने का आईना दे
मैं उस काँच बदन से
बे-नाम अंदेशों का
ज़ंगार खुरच डालूँ
और उजले पानी में देख सकूँ
हिज्र-नगर के तपते सूरज के नीचे
उम्र सफ़र का सहरा कितने कोस पड़ा है

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