अलग हैं हम कि जुदा अपनी रह-गुज़र में हैं
अलग हैं हम कि जुदा अपनी रह-गुज़र में हैं
वगरना लो तो सारे इसी सफ़र में हैं
हमारी जस्त ने माज़ूल कर दिया हम को
हम अपनी वुसअतों में अपने बाम ओ दर में हैं
यहाँ से उन के गुज़रने का एक मौसम है
ये लोग रहते मगर कौन से नगर में हैं
जो दर-ब-दर हो वो कैसे सँभाल सकता है
तिरी अमानतें जितनी हैं मेरे घर में हैं
अजीब तरह का रिश्ता है पानियों से ‘मलाल’
जुदा जुदा सही एक ही भँवर में हैं
एक रहने से यहाँ वो मावरा कैसे हुआ
एक रहने से यहाँ वो मावरा कैसे हुआ
सब से पहला आदमी ख़ुद हूँ मैं आज तक
तेरे बारे में अगर ख़ामोश हूँ मैं आज तक
फिर तिरे हक़ में किसी का फ़ैसला कैसे हुआ
इब्तिदा में कैसे सहरा की सदा समझी गई
आख़िरश सारा ज़माना हम-नवा कैसे हुआ
चंद ही थे लोग जिन के सामने की बात थी
मैं ने उन लोगों से ख़ुद जा कर सुना कैसे हुआ
जब कि साबित हो चुका नुक़सान होने का ‘मलाल’
फ़ाएदा क्या सोचने से क्यूँ हुआ कैसे हुआ
किसी इंसान को अपना नहीं रहने देते
किसी इंसान को अपना नहीं रहने देते
शहर ऐसे हैं कि तन्हा नहीं रहने देते
दाएरे चंद हैं गर्दिश में अज़ल से जो यहाँ
कोई भी चीज़ हमेशा नहीं रहने देते
कभी नाकाम भी हो जाते हैं वो लोग कि जो
वापसी का कोई रस्ता नहीं रहने देते
उन से बचना कि बिछाते हैं पनाहें पहले
फिर यही लोग कहीं का नहीं रहने देते
जिस को एहसास हो अफ़्लाक की तन्हाई का
देर तक उस को अकेला नहीं रहने देते
वाक़ई नूर लिए फिरते हैं सर पे कोई
अपने अतराफ़ जो साया नहीं रहने देते
ज़िंदगी प्यारी है लोगों को अगर इतनी ‘मलाल’
क्यूँ मसीहाओं को जिंदा नहीं रहने देते
क्यूँ हर उरूज को यहाँ आख़िर ज़वाल है
क्यूँ हर उरूज को यहाँ आख़िर ज़वाल है
सोचें अगर तो सिर्फ़ यही इक सवाल है
बाला-ए-सर फ़लक है तो ज़ेर-ए-क़दम है ख़ाक
उस बे-नियाज़ को मिरा कितना ख़याल है
लम्हा यही जो इस घड़ी आलम पे है मुहीत
होने की इस जहान में तन्हा मिसाल है
आख़िर हुई शिकस्त तो अपनी ज़मीन पर
अपने बदन से मेरा निकलना मुहाल है
सूरज है रौशनी की किरन इस जगह ‘मलाल’
वुसअत में काएनात अंधेरे का जाल है
ख़ाक में मिलती हैं कैसे बस्तियाँ मालूम हो
ख़ाक में मिलती हैं कैसे बस्तियाँ मालूम हो
आने वालों को हमारी दास्ताँ मालूम हो
जो इधर का अब नहीं है वो किधर का हो गया
जो यहाँ मादूम हो जाए कहाँ मालूम हो
मरहला तस्ख़ीर करने का इसे आसान है
गर तुझे अपना बदन सारा जहाँ मालूम हो
जो अलग हो कर चले सब घूमते हैं उस के गिर्द
यूँ जुदा हो कर गुज़र कि दरमियाँ मालमू हो
कितनी मजबूरी है ला-महदूद और महदूद की
बे-कराँ जब हो सकें तब बे-कराँ मालूम हो
एक दम हो रौशनी तो क्या नज़र आए ‘मलाल’
क्या समझ पाऊँ जो सब कुछ ना-गहाँ मालूम हो
ख़ुद से निकलूँ तो अलग एक समाँ होता है
ख़ुद से निकलूँ तो अलग एक समाँ होता है
और गहराई में उतरूँ तो धुआँ होता है
इतनी पेचीदगी निकली है यहाँ होने में
अब कोई चीज़ न होने का गुमाँ होता है
इक तसलसुल की रिवायत है हवा से मंसूब
ख़ाक पर उस का अमीं आब-ए-रवाँ होता है
सब सवालों के जवाब एक से हो सकते हैं
हो तो सकते हैं मगर ऐसा कहाँ होता है
साथ रह कर भी ये एक दूसरे से डरते हैं
एक बस्ती में अलग सब का मकाँ होता है
क्या अजब राज़ है होता है वो ख़ामोश ‘मलाल’
जिस पे होने का कोई राज़ अयाँ होता है
जब सामने की बात ही उलझी हुई मिले
जब सामने की बात ही उलझी हुई मिले
फिर दूर देखती हुई आँखों से भी हो क्या
हाथों से छू के पहले उजाला करें तलाश
जब रौशनी न हो तो निगाहों से भी हो क्या
हैरत-ज़दा से रहते हैं अपने मदार पर
उस के अलावा चाँद सितारों से भी हो क्या
पागल न हो तो और ये पानी भी क्या करे
वहशी न हों तो और हवाओं से भी हो क्या
जब देखने लगे कोई चीज़ों के उस तरफ़
आँखें भी तेरी क्या करें बातों से भी हो क्या
यूँ तो मुझे भी शिकवा है उन से मगर ‘मलाल’
हालात इस तरह के हैं लोगों से भी हो क्या
जिस को तय कर न सके आदमी सहरा है वही
जिस को तय कर न सके आदमी सहरा है वही
और आख़िर मिरे रस्ते में भी आया है वही
ये अलग बात कि हम रात को ही देख सकें
वर्ना दिन को भी सितारों का तमाशा है वही
अपने मौसम में पसंद आया है कोई चेहरा
वर्ना मौसम तो बदलते रहे चेहरा है वही
एक लम्हे में ज़माना हुआ तख़्लीक़ ‘मलाल’
वही लम्हा है यहाँ और ज़माना है वही
जिसे सुनाओगे पहले ही सुन चुका होगा
जिसे सुनाओगे पहले ही सुन चुका होगा
मुझे यक़ीन है ये ऐसा वाक़िआ होगा
यहाँ तो अब भी हैं तन्हाइयाँ जवाब-तलब
वो पहले-पहल यहाँ किस तरह रहा होगा
जो आज तक हुआ कुछ कुछ समझ में आता है
कोई बताए यहाँ इस के बाद क्या होगा
ख़ला में पाएँगे तारा जो दूर तक निकलें
फिर इस के बाद बहुत दूर तक ख़ला होगा
समझता हूँ मैं अगर सब अलामतें उस की
तो फिर वो मेरी तरह से ही सोचता होगा
क़दीम कर गई ख़्वाहिश जदीद होने की
किसी ख़बर थी यहाँ तक वो दायरा होगा
शिकस्ता-पाई से होती हैं बस्तियाँ आबाद
जो अब क़बीला हुआ पहले क़ाफ़िला होगा
पसंद होंगी अभी तक कहानियाँ उस को
वो मेरे जैसा कोई अब भी ढूँढता होगा
फ़ज़ा ज़मीन की थी इतनी अजनबी कि ‘मलाल’
सितारा-वार कहीं राख हो गया होगा
न जाने क्यूँ सदा होता है एक सा अंजाम
न जाने क्यूँ सदा होता है एक सा अंजाम
हम एक सी तो कहानी सदा नहीं कहते
जिधर पहुँचना है आग़ाज़ भी वहीं से हुआ
सफ़र समझते हैं इस को सज़ा नहीं कहते
नया शुऊर नए इस्तिआरे लाता है
अज़ल से लोग ख़ुदा को ख़ुदा नहीं कहते
जो गीत चुनते हैं ख़ामोशियों के सहरा से
वो लब-कुशाओं को राज़-आश्ना नहीं कहते
फ़ज़ा का लफ़्ज़ है उस के लिए अलग मौजूद
जो घर ठहरती है उस को हवा नहीं कहते
ज़माने भर से उलझते हैं जिस की जानिब से
अकेले-पन में उसे हम भी क्या नहीं कहते
जो देख लेते हैं चीज़ों के आर-पार ‘मलाल’
किसी भी चीज़ को इतना बुरा नहीं कहते
निकल गए थे जो सहरा में अपने इतनी दूर
निकल गए थे जो सहरा में अपने इतनी दूर
वो लोग कौन से सूरज में जल रहे होंगे
अदम की नींद में सोए हुए कहाँ हैं वो अब
जो कल वजूद की आँखों को मल रहे होंगे
मिले न हम को जवाब अपने जिन सवालों के
किसी ज़माने में उन के भी हल रहे होंगे
बस इस ख़याल से देखा तमाम लोगों को
जो आए ऐसे हैं कैसे वो कल रहें होंगे
फिर इब्तिदा की तरफ़ होगा इंतिहा का रूख़
हम एक दिन यहाँ शक्लें बदल रहें होंगे
‘मलाल’ ऐसे कई लोग होंगे रस्ते में
जो तुम से तेज़ या आहिस्ता चल रहे होंगे
फ़क़त ज़मीन से रिश्ते को उस्तुवार किया
फ़क़त ज़मीन से रिश्ते को उस्तुवार किया
फिर उस के बाद सफ़र सब सितारा-वार किया
बस इतनी देर में आदाह हो गए तब्दील
कि जितनी देर में हम ने उन्हें शुमार किया
कभी कभी लगी ऐसी ज़मीन की हालत
कि जैसे उस को ज़माने ने संगसार किया
जहान-ए-कोहना अज़ल से था यूँ तो गर्द-आलूद
कुछ हम ने ख़ाक उड़ा कर यहाँ ग़ुबार किया
बशर बिगाड़ेगा माहौल वो जो उस के लिए
न जाने कितने ज़मानों ने साज़गार किया
तमाम वहम ओ गुमाँ है तो हम भी धोका हैं
इसी ख़याल से दुनिया को मैं ने प्यार किया
न साँस ले सका गहराइयों में जब वो ‘मलाल’
तो उस केा अपने ज़जीरे से हम-कनार किया
फिर इस के बाद रास्ता हमवार हो गया
फिर इस के बाद रास्ता हमवार हो गया
जब ख़ाक से ख़याल नुमूदार हो गया
इक दास्तान-गो हुआ ऐसा कि अपने बाद
सारी कहानियों का वो किरदार हो गया
साया न दे सका जिस दीवार का वजूद
उस का वजूद नक़्श-ब-दीवार हो गया
आँखें बुलंद होते ही महदूद हो गईं
नज़रें झुका के देखा तो दीदार हो गया
वो दूसरे दयार की बातों से आश्ना
वो अजनबी क़बीले का सरदार हो गया
सोए हुए करेंगे ‘मलाल’ उस का तजज़िया
इस ख़्वाब-गाह में कोई बेदार हो गया
बराए नाम सही साएबाँ ज़रूरी है
बराए नाम सही साएबाँ ज़रूरी है
ज़मीन के लिए इक आसमाँ ज़रूरी है
तअज्जुब उन को है क्यूँ मेरी ख़ुद-कलामी पर
हर आदमी का कोई राज़-दाँ ज़रूरी है
ज़रूरत उस की हमें है मगर ये ध्यान रहे
कहाँ वो ग़ैर-ज़रूरी कहाँ ज़रूरी है
कहीं पे नाम ही पहचान के लिए है बहुत
कहीं पे यूँ है कि कोई निशाँ ज़रूरी है
कहानियों से मलाल उन को नींद आने लगी
यहाँ पे इस लिए वो दास्ताँ ज़रूरी है
मैं ढूँड लूँ अगर उस का कोई निशाँ देखूँ
मैं ढूँड लूँ अगर उस का कोई निशाँ देखूँ
बुलंद होता फ़ज़ा में कहीं धुआँ देखूँ
अबस है सोचनरा ला-इंतिहा के बारे में
निगाहें क्यूँ न झुका लूँ जो आसमाँ देखूँ
बहुत क़दीम है मतरूक तो नहीं लेकिन
हवा जो रेत पे लिखते हैं वो ज़बाँ देखूँ
है एक उम्र से ख़्वाहिष कि दूर जा के कहीं
मैं ख़ुद को अजनबी लोगों के दरमियाँ देखूँ
ख़याल तक न रहे राएगाँ गुज़रने का
अगर ‘मलाल’ इन आँखों को मेहरबाँ देखूँ
रात अंदर उतर के देखा है
रात अंदर उतर के देखा है
कितना हैरान-कुष तमाषा है
एक लम्हे को सोचने वाला
एक अर्से के बाद बोला है
मेरे बारे में जो सुना तू ने
मेरी बातों का एक हिस्सा है
शहर वालों को क्या ख़बर कि कोई
कौन से मौसमों में ज़िंदा है
जा बसी दूर भाई की औलाद
अब वही दूसरा क़बीला है
बाँट लेंगे नए घरों वाले
इस हवेल का जो असासा है
क्यूँ न दुनिया में अपनी हो वो मगन
उस ने कब आसमान देखा है
आख़िरी तजज़िया यही है ‘मलाल’
आदमी दाएरों में रहता है
वो हक़ीक़त में एक लम्हा था
वो हक़ीक़त में एक लम्हा था
जिस का दौरान ये ज़माना था
मेरी नज़रों से गिर पड़ी है ज़मीं
क्यूँ बुलंदी ने इस को देखा था
कैसी पैवंद-कार है फ़ितरत
मुंतशिर हो के भी मैं यकजा था
रौशनी है किसी के होने से
वर्ना बुनियाद तो अंधेरा था
जब भी देखा नया लगा मुझ को
क्या तमाशा जहान-ए-कोहना था
उस ने महदूद कर दिया हम को
कोई हम से यहाँ ज़्यादा था
जब कि सूरज था पालने वाला
चाँद से क्या लहू का रिष्ता था
मर गया जो भी उस के बारे में
ध्यान पड़ता नहीं कि ज़िंदा था
यहीं पैदा यहीं जवान हुआ
उस के लब पर कहाँ का क़िस्सा था
कोई गुंजान था कोई वीरान कोई
जंगल किसी में सहरा था
उम्र सारी वो नींद में बोला
चंद लम्हों को कोई जागा था
कहीं जाने की सब ने बातें कीं
कैसे आते हैं कौन बोला था
सारी उलझन उसी से पैदा हुई
वो जो वाहिद है बे-तहाषा था
दौड़ते फिर रहे थे सारे लोग
जब कि उन को यहीं पे रहना था
तुझ को लाना हिसार में अपने
मेरा अदना सा इक करिष्मा था
फ़र्क़ गहराई और पस्ती में
किसी बुलंदी से देख पाया था
उस की तफ़्सील में था सरगदों
ज़ेहन में मुख़्तसर सा ख़ाका था
पास आ कर उसे हुआ मालूम
मैं अकेला नहीं था तन्हा था
कितने फ़ीसद थे जागने वाले
कितने लोगों को होश आया था
किस को इब्नुस-सबील कहते ‘मलाल’
नए रास्तों का कौन बेटा था