मातॄवंदना-1
सब मिलि पूजिय भारत-माई।
भुवि विश्रुत, सदवीर-प्रसूता, सरल सदय सुखदाई।।
बाकी निर्मल कीर्ति कौमुदी, छिटकी चहुँ दिशि छाई।
कलित केन्द्र आरज-निवास की, वेद पुरानन गाई।।
आर्य-अनार्य सरस चाखत जिह, प्रेम भाव रुचिराई।
अस जननी पूजन हित धावहु, वेला जनि कढ़ि जाई।।
सुभट सपूत, अकूत साहसी, आरजपूत कहाई।
मातृभक्त सुप्रसिद्ध जगत मधि, प्रिय प्रताप प्रकटाई।।
क्यों न जगत अब वीर केसरी, बैठे अस अलसाई।
ऐक्य नखन सों द्रोह-गयन्दहि भल विदारि रिसियाई।।
चकित भयाकुल भारत-भुवि की, नासि सकल दुचिताई।
विरचि आत्म-अवलम्बन-आसन माँ को तहँ पधराई।।
साजि स्वधर्म मुकुट तिह सिर पर दृढ़ता चौंर डुलाई।
ईश-भक्ति की छत्र-छाँह करि, तजि निज कुमति कमाई।।
विजय वैजयन्ती गर डारहु, प्रेम प्रसून गुहाई।
अनुभव अमल आरती कीजै, मंजुल हिय हरखाई।।
प्रिय-स्वदेश व्यापार अर्ध-जल, सिंचन करहु बनाई।
जयहु मुदित मन सत्यमंत्र ‘वन्दे मातरम’ सुहाई।।
रचनाकाल : 1918
मातॄवंदना-2
जय जय भारतमातु मही।
द्रोण, भीम, भीषम की जननी, जग मधि पूज्य रही॥
जाकें भव्य विशाल भाल पै, हिम मय मुकुट विराजै।
सुवरण ज्योति जाल निज कर सों, तिहँ शोभा रवि साजै॥
श्रवत जासु प्रेमाश्रु पुंज सों, गंग-जमुन कौ बारी।
पद-पंकज प्रक्षालत जलनिहि, नित निज भाग सँवारी॥
चारु चरण नख कान्ति जासु लहि यहि जग प्रतिभा भासै।
विविध कला कमनीय कुशलता अपनी मंजु प्रकासै॥
स्वर्गादपि गरीयसी अनुपम अम्ब विलम्ब न कीजे।
प्रिय स्वदेश-अभिमान, मात, सतज्ञान अभय जय दीजै॥
रचनाकाल : 1918
नवयुवक चेतावनी
देश के कोमल हृदय कुमार,
सरल सहृदयता के अवतार।
तुम्हीं हो ऋषियों की संतान;
आर्य जन जीवन, धन अरु प्रान।
भारती गुण गौरव अभिमान,
कीजिए मातृभूमि उद्धार।
देश के कोमल हृदय कुमार।।1।।
प्रबल पुनि सज्जनता के सद्म,
प्रेम पद्माकर के प्रिय पद्म,
सदय सुंदर सब भाँति अछद्म,
कीजिए नवजीवन संचार।
देश के कोमल हृदय कुमार।।2।।
सभ्यता के शुचि आदि स्वरूप,
मनोरंजन प्रतिभा के भूप,
विमल मति पावन परम अनूप,
कीजिए भातृप्रेम विस्तार।
देश के कोमल-हृदय कुमार।।3।।
लीजिए ब्रह्मचर्य का नेम,
पालियै अखिल विश्व का प्रेम,
परस्पर होवें जिससे क्षेम,
कीजिए हिन्दी सत्य प्रचार।
देश के कोमल-हृदय कुमार।।4।।
रचनाकाल : 1905
चेतावनी
उठौ उठौ हो भारत सोइए ना, सोइए ना मुख जोइए ना।
बीति गई जो ताहि बिसारौ, व्यर्थ समय निज खोइए ना।
देखहु उठि परदेशनि-उन्नति, आलस बीजनि बोइए ना।
कटि कसि करहु देश-उद्धारहि, भौज मनोजन भोइए ना।
पश्चिमीय विधा जुगुनू की, देखि प्रभा प्रिय मोहिए ना।
लखि निज ओर चेत करि चित में, साहसहीन जु होइए ना।
नैन खोलि प्राण पियारै, बाट रसातल टोहिए ना।
घाती घात लगैं चहु ओरन, झूठ और साँच समोइए ना।
सत्यनारायण बोझिल कामरि, जाकों और भिजोइए ना।
रचनाकाल : 1905