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समीर परिमल की रचनाएँ

तमाम शै में वो अक्सर दिखाई देता है 

तमाम शै में वो अक्सर दिखाई देता है
बड़ा हसीन ये मंज़र दिखाई देता है

ग़मों की धूप में जलती हुई निगाहों को
सनम वफ़ा का समंदर दिखाई देता है

तुम्हारे हाथ की इन बेज़ुबाँ लकीरों में
हमें हमारा मुक़द्दर दिखाई देता है

बना लिया है जो शीशे का घर यहाँ मैंने
हर इक निगाह में पत्थर दिखाई देता है

सभी के हाथ सने हैं लहू से रिश्तों के
सभी की पीठ में ख़ंजर दिखाई देता है

उगेंगी अम्न की फ़स्लें कहो भला कैसे
यहाँ तो खेत ही बंजर दिखाई देता है

उसी क़ातिल का सीने में तेरे ख़ंजर रहा होगा 

उसी क़ातिल का सीने में तेरे ख़ंजर रहा होगा
कि जो छुपकर बहुत एहसास के अंदर रहा होगा

न जाने किस तरह ख़ामोश दरिया में मची हलचल
निगाहों में तेरी शायद कोई कंकर रहा होगा

दरो-दीवार से आँसू टपकते हैं लहू बनकर
इसी कमरे में अरमानों का इक बिस्तर रहा होगा

कहीं सिमटा है सन्नाटे की चादर ओढ़कर देखो
कभी बस्ती में वो भी खिलखिलाता घर रहा होगा

तुम्हें भी हो गया धोका ज़मीं की इन दरारों से
समझ बैठे हमेशा ही ये दिल बंजर रहा होगा

रहूँ ख़ामोश मैं फिर भी फ़साना बन ही जाता है
तेरे दिल मे किसी अख़बार का दफ़्तर रहा होगा

मुझे शोहरत अता की ज़हर रुसवाई का पीकर भी
मेरे वालिद के भीतर भी कोई शंकर रहा होगा

तेरी बुनियाद में शामिल कई मासूम चीख़ें हैं
इमारत बन रही होगी तो क्या मंज़र रहा होगा

सुना है आपके दिल मे रवां होने लगी नफ़रत
यकीनन बदगुमां ‘परिमल’ कोई शायर रहा होगा

मैं बनाता तुझे हमसफ़र ज़िंदगी

मैं बनाता तुझे हमसफ़र ज़िंदगी
काश आती कभी मेरे घर ज़िंदगी

मेरे ख़्वाबों के भी पाँव जलने लगे
बनके दरिया नज़र में उतर ज़िंदगी

हर घड़ी आदमी ख़ुद में मरता रहा
इस तरह कट गई बेख़बर ज़िंदगी

हम फ़क़ीरों के क़ाबिल रही तू कहाँ
जा अमीरों की कोठी में मर ज़िंदगी

तू गुज़ारे या जी भर के जी ले इसे
आज की रात है रात भर ज़िंदगी

साज़िशों की भीड़ थी, चेहरा छुपाकर चल दिए 

साज़िशों की भीड़ थी, चेहरा छुपाकर चल दिए
नफ़रतों की आग से दामन बचाकर चल दिए

नामुकम्मल दास्तां दिल में सिमटकर रह गई
वो ज़माने की कई बातें सुनाकर चल दिए

ज़िक्र मेरा गुफ़्तगू में जब कभी भी आ गया
मुस्कुराए और फिर नज़रें झुकाकर चल दिए

मंज़िले-दीवानगी हासिल हुई यूँ ही नहीं
क्या बताएं प्यार में क्या-क्या गंवाकर चल दिए

वक़्त से पहले बड़ा होने का ये हासिल हुआ
तिश्नगी में हम समन्दर को उठाकर चल दिए

रंग काला पड़ गया है मरमरी तक़दीर का
मुफ़लिसी की धूप में अरमां जलाकर चल दिए

भरी महफ़िल में रुसवा क्यूँ करें हम 

भरी महफ़िल में रुसवा क्यूँ करें हम
तेरी आँखों को दरिया क्यूँ करें हम

ज़रूरी और भी हैं मस’अले तो
मुहब्बत ही का चर्चा क्यूँ करें हम

गिले सुलझाएँगे दोनों ही मिलकर
भला सबको इकठ्ठा क्यूँ करें हम

सियासत तोड़ देना चाहती है
मगर भाई से उलझा क्यूँ करें हम

हमारे दिल में ही रावण है यारों
ज़माने भर को कोसा क्यूँ करें हम

तुम्हारी दोस्ती काफ़ी नहीं क्या
किसी दुश्मन को ज़िंदा क्यूँ करें हम

नहीं मिलते यहाँ इंसान ‘परिमल’
तेरी दुनिया में ठहरा क्यूँ करें हम

मुहब्बत की निशानी को कुचल कर

मुहब्बत की निशानी को कुचल कर
वो ख़ुश हैं इक कहानी को कुचल कर

ये दहशत की जो आँधी चल रही है
रुकेगी ज़िन्दगानी को कुचल कर

करेंगे शुद्ध गंगा को लहू से
सभी आँखों के पानी को कुचल कर

भला क्या झूठ काबिज हो सकेगा
हमारी सचबयानी को कुचल कर

क़लम की धार पैनी हो रही है
तुम्हारी बदगुमानी को कुचल कर

बड़ा जबसे घराना हो गया है 

बड़ा जबसे घराना हो गया है
ख़फ़ा सारा ज़माना हो गया है

हुई मुद्दत, किये हैं ज़ब्त मोती
निगाहों में ख़ज़ाना हो गया है

जड़ें खोदा किये ताउम्र जिसकी
शजर वो शामियाना हो गया है

करेंगे ख़र्च अब जी भर के यारों
बहुत नेकी कमाना हो गया है

मुहब्बत की नज़र मुझपे पड़ी थी
वो ख़ंजर क़ातिलाना हो गया है

हमें फ़ुरसत कहाँ अब शायरी से
बड़ा अच्छा बहाना हो गया है

दिवाली-ईद पर भाई से मिलना
सियासत का निशाना हो गया है

चलो परिमल की ग़ज़लें गुनगुनायें
कि मौसम आशिक़ाना हो गया है

वही है बस्ती, वही हैं गलियाँ 

वही है बस्ती, वही हैं गलियाँ, बदल गया है मगर ज़माना
नए परों के नए परिंदे, नई उड़ानें, नया फ़साना

चलो भुला दें तमाम वादे, तमाम क़समें, तमाम यादें
न मैं मुहब्बत, न तुम इबादत, न याद करना, न याद आना

करीब आ के, नज़र मिला के, मुझे चुरा के चला गया वो
पता न उसका, ख़बर न ख़ुद की, भटक रहा है कोई दिवाना

दुआ किसी की बनी मुहाफ़िज़, उसी के साए में हम खड़े हैं
गुज़र चुकी है यहाँ से आँधी, मगर सलामत है आशियाना

न सुब्ह ही अब तो शबनमी है, न शाम ही अब वो सुरमई है
हवाएँ गुमसुम, फिज़ाएँ बेदम, रहा न मौसम वो आशिक़ाना

मुझसे इस प्यास की शिद्दत न सँभाली जाए

मुझसे इस प्यास की शिद्दत न सँभाली जाए
सच तो ये है कि मुहब्बत न सँभाली जाए

मेरे चेहरे पे नुमायां है यूँ उसका चेहरा,
आइने से मेरी सूरत न सँभाली जाए

आपके शह्र की मगरूर हवाएँ तौबा
इनसे अब हुस्न की दौलत न सँभाली जाए

मुझको ख्वाबों में ही ऐ यार गुज़र जाने दे
इन निगाहों से हक़ीक़त न सँभाली जाए

बोझ उम्मीदों का शानों पे उठाएँ कबतक
घर की दीवारों से ये छत न सँभाली जाए

जहाँ के रिवाजों की ऐसी की तैसी

जहाँ के रिवाजों की ऐसी की तैसी
ज़मीं के ख़ुदाओं की ऐसी की तैसी

जो कहते रहे हैं गुनहगार हमको
वो सुन लें, गुनाहों की ऐसी की तैसी

जवाबों की कोई कमी तो नहीं पर
तुम्हारे सवालों की ऐसी की तैसी

मेरे दिल तड़पकर यूँ ही जान दे दे
तेरी सर्द आहों की ऐसी की तैसी

मसीहा की रग-रग में है ज़ह्र इतना
दवाओं, दुआओं की ऐसी की तैसी

ज़मीं प्यास से मर रही है तड़पकर
गरजती घटाओं की ऐसी की तैसी

बनाएंगे हम राह ख़ुद आसमां तक
सभी रहनुमाओं की ऐसी की तैसी

ग़ज़ल को भी हिन्दू-मुसलमां में बांटें
अदब की दुकानों की ऐसी की तैसी

चराग़े-मुहब्बत जलाते रहेंगे
मुख़ालिफ़ हवाओं की ऐसी की तैसी

ख़्वाबों ने हम पर इतराना छोड़ दिया

ख़्वाबों ने हम पर इतराना छोड़ दिया
दीवारों से सर टकराना छोड़ दिया

एक हवेली रोती है दिल के अंदर
जबसे तुमने आना जाना छोड़ दिया

इतने ग़म, इतने आंसू, इतनी आहें
सबने इस दिल को बहलाना छोड़ दिया

सूख गए हैं पलकों पर कितने सागर
आँखों ने मोती बरसाना छोड़ दिया

सहमी सहमी रहती है ये तनहाई
यादों को इसने उकसाना छोड़ दिया

केसर की क्यारी में रोती है जन्नत
फूलों, कलियों ने मुस्काना छोड़ दिया

ताक़ पर रक्खी मिली मुझको किताबे-ज़िन्दगी

ताक़ पर रक्खी मिली मुझको किताबे-ज़िन्दगी
कुछ फटे पन्ने मिले और कुछ सिसकती शायरी

चंद ज़ख़्मों की विरासत, चंद अपनों के फ़रेब
उसपे दुनिया की रवायत और मेरी आवारगी

मुद्दतें गुज़रीं, कोई पढ़ने को राज़ी भी नहीं
छुप नहीं पाती है लफ़्ज़ों के दिलों की बेकली

हाय वो मासूम आँखें और उन आँखों के ख़्वाब
इक पशेमाँ आदमी, आंसू बहाती बेबसी

साज़िशों में क़ैद है तू, ख़ुद में सिमटा मैं भी हूँ
इक तरफ़ है बेरुख़ी और इक तरफ़ दीवानगी

इस समंदर का किनारा अब नज़र आता नहीं
साथ मेरे जाएगी मेरी ये शौक़े-तिश्नगी

धरती वफ़ा की, इश्क़ का अम्बर तलाश कर

धरती वफ़ा की, इश्क़ का अम्बर तलाश कर
आँखों में मेरी प्यार का मंज़र तलाश कर

बाहर से देखने पे नज़र आ न पाएँगे
रिश्तों को तू ज़मीन के अंदर तलाश कर

कमरे की तीरगी पे यूँ रोना फ़िज़ूल है
जा, चाँदनी के नूर को छत पर तलाश कर

ज़ाया न कर ये वक़्त तू रहबर की आस में
आ मेरे साथ मील का पत्थर तलाश कर

बेहतर तो मिल ही जाएँगे शायर कई तुझे
गर हो सके, ‘समीर’ से बदतर तलाश कर

आपने जुमले गढ़े, वादा समझ बैठे थे हम

आपने जुमले गढ़े, वादा समझ बैठे थे हम
इश्क़ में पीतल को भी सोना समझ बैठे थे हम

बेख़ुदी में आपको क्या क्या समझ बैठे थे हम
यूँ समझिए धूप को साया समझ बैठे थे हम

जब भी देखा, ताज़गी और दिलकशी बढ़ती गई
आइने को आपका चेहरा समझ बैठे थे हम

आपसे होकर जुदा कैसे कटेगी ज़िन्दगी
आपको इस रूह का हिस्सा समझ बैठे थे हम

दायरे में दिल के अपने क़ैद थे इक उम्र से
इस दरो-दीवार को दुनिया समझ बैठे थे हम

वो तरस खाकर हमारे ज़ख़्म सहलाते रहे
बदगुमानी में इसे रुतबा समझ बैठे थे हम

याद है अबतक हमें उस रात की जादूगरी
नींद में भोपाल को पटना समझ बैठे थे हम

शरारत है, शिकायत है, नज़ाक़त है, क़यामत है

शरारत है, शिकायत है, नज़ाक़त है, क़यामत है
ज़ुबां ख़ामोश है लेकिन निगाहों में मुहब्बत है

हवाओं में, फ़िज़ाओं में, बहारों में, नजारों में
वही खुशबू, वही जादू, वही रौनक़ सलामत है

हया भी है, अदाएँ भी, कज़ा भी है, दुआएँ भी
हरेक अंदाज़ कहता है, ये चाहत है, ये चाहत है

वो रहबर है, वही मंज़िल, वो दरिया है, वही साहिल
वो दर्दे-दिल, वही मरहम, ख़ुदा भी है, इबादत है

ज़माना गर कहे मुझको दीवाना, ग़म नहीं ‘परिमल’
जो समझो तो शराफ़त है, न समझो तो बग़ावत है

किसी की सरफ़रोशी चीख़ती है

किसी की सरफ़रोशी चीख़ती है
वतन की आज मिट्टी चीख़ती है

हक़ीक़त से तो मैं नज़रें चुरा लूँ
मगर ख़्वाबों में दिल्ली चीख़ती है

हुकूमत कबतलक ग़ाफ़िल रहेगी
कोई गुमनाम बस्ती चीख़ती है

ग़रीबी आज भी भूखी ही सोई
मेरी थाली में रोटी चीख़ती है

बहारों ने चमन लूटा है ऐसे
मेरे आँगन में तितली चीख़ती है

भुला पाती नहीं लख़्ते-जिगर को
कि रातों में भी अम्मी चीख़ती है

फ़क़त अल्फ़ाज़ मत समझो इन्हें तुम
हरेक पन्ने पे स्याही चीख़ती है

रहूँ ख़ामोश तो रोता है ये दिल
ग़ज़ल कहने वे बीवी चीख़ती है

जिसे तू ढूँढने निकला है ‘परिमल’
तेरे सीने में बैठी चीख़ती है

प्यार देकर भी मिले प्यार, ज़रूरी तो नहीं

प्यार देकर भी मिले प्यार, ज़रूरी तो नहीं
हर दफ़ा हम हों ख़तावार, ज़रूरी तो नहीं

ख़ून रिश्तों का बहाने को ज़ुबाँ काफ़ी है
आपके हाथ में तलवार ज़रूरी तो नहीं

आपके हुस्न के साए में जवानी गुज़रे
मेरे मालिक, मेरे सरकार, ज़रूरी तो नहीं

एक मंज़िल है मगर राहें जुदा हैं सबकी
एक जैसी रहे रफ़्तार, ज़रूरी तो नहीं

दीनो-ईमां की ज़रुरत है आज दुनिया में
सर पे हो मज़हबी दस्तार ज़रूरी तो नहीं

एक दिन आग में बदलेगी यही चिंगारी,
ज़ुल्म सहते रहें हर बार, ज़रूरी तो नहीं

देखता हूँ मैं हवाओं का जो आँधी होना

देखता हूँ मैं हवाओं का जो आँधी होना
याद आता है सिकंदर का भी मिट्टी होना

काश महसूस कभी आप भी करते साहिब
दर्द देता है बहुत ग़ैरज़रूरी होना

आरज़ू चाँद को छूने की ज़मीं से मत कर
अपनी बस्ती को मयस्सर नहीं दिल्ली होना

ग़म सुलगते हैं तो दरिया में बदल जाते हैं
तुमने देखा ही कहाँ आग का पानी होना

बदगुमानी है तेरी, ख़ुद ही ख़ुदा बन बैठा
तेरी तक़दीर में है ज़ख़्म की मक्खी होना

दर्द समझेंगे क्या बेदर्द ज़माने वाले
कितना मुश्किल है क़लमकार की बीवी होना

कौन करता है यकीं तेरी ज़ुबाँ पर ‘परिमल’
ग़ैरमुमकिन है तेरे इश्क़ में राजी होना

क़ब्र पर इंसानियत की आशियाने हो गए

क़ब्र पर इंसानियत की आशियाने हो गए
लोग छोटे हो गए, ऊँचे घराने हो गए

मर चुके थे यूँ तो हम इक बेरुख़ी से आपकी
ज़लज़ले, सैलाब और तूफ़ां बहाने हो गए

चल झटक दे जह्न से अब शायरी का ये जुनूँ
देख दिलवाले भी अब कितने सयाने हो गए

मुद्दतों पहले लगाया था इसे दीवार पर
आईना वो ही रहा पर हम पुराने हो गए

आसमां मुट्ठी में बस आने ही वाला था मगर
चंद अपनों की सियासत के निशाने हो गए

राहे-वफ़ा में जब भी चले, इस क़दर चले

राहे-वफ़ा में जब भी चले, इस क़दर चले
दुनिया के हर रिवाज से हम बेख़बर चले

मुमकिन कहाँ कि साथ कोई मोतबर चले
बस ज़िंदगी की राह में अपना हुनर चले

सहरा में अश्क़ कौन बहाए मेरे लिए
पैरों के आबलों से ही अपनी गुज़र चले

चल हम भी ढूंढ लें कोई छोटा सा आशियाँ
अब रात ढल चुकी है, सितारे भी घर चले

अपना ख़याल है न ज़माने से वास्ता
तेरा ही ज़िक्र दिलरुबा शामो-सहर चले

पड़ने लगीं हैं आज कल रिश्तों में सलवटें
‘परिमल’ का देखते हैं कहाँ तक सफ़र चले

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