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समीर बरन नन्दी की रचनाएँ

पर्णकुटीर

खो गए का चित्र और
डूब गए प्रेम का घाव

आज भी घास पर लिखता रहता हूँ

मेघ की खिड़की खोल कर — कभी-कभी
वे दोनों मेरे पास आ बैठते हैं ।
हाल-चाल पूछने पर — दोनों की आँखों से
मुझे एकान्त में छोड़ जाने पर आँसू बहने लगते हैं ।

स्वप्न में… बनाने में लगा रहता हूँ उनके लिए पर्णकुटीर ।

नारी 

कलसी में ठण्डा पानी
उसी से होती है हवा में नमी
छाया भी, माया भी, मिटटी का मर्म भी ।

तुम्हे अपने घर ले चलूँगा
वातायन से दिखाऊँगा — बादल
तोते उड़ते, सप्तऋषि देखो…
माँ-बाप लिखो, मुहब्बत लिखो ।

वह सिखाती है अन्तर के शब्दों में बतियाना..

अचानक तुम मिलती हो कहीं जंगल में
ज्योति में जैसे । शहर के तालाब के ऊपर चाँद उगता है…
दिखाई देती है
शिशु की सक्रिय उँगुलियों की तरह बहती शाम की नदी ।
मै तो लाख मुसीबत में भी छू लूँ तुम्हें ।

ऐसे ही कभी मुलाक़ात हो जाए तो
काँसवन के जड़ में बादल समा आता है
जो भो हो, रहो नींद में सबसे क़रीब की घास पर ।

प्रेम स्मृति-1

मै अब वैसा बिलकुल नहीं, जब
काग़ज़ का हवाई जहाज़ बनाकर
मै अपने को उड़ा देता था — तुम्हारी ओर ।

फिर चक्कर.. चक्कर… चक्कर खा कर
चक्कर खा कर तुम्हारी छाती पर
मुँह के बल टकराकर गिर जाता था ।

और सचमुच मुझे कोई चोट नहीं लगती थी…
और अब…..

प्रेम स्मृति-5

उस दिन तुम्हारे घर जब पहुँचा
तुम दोनों पाँव सोफ़े पर रख कर
जाने क्या सोचने में लगी थीं ।

थोड़ी सी धूप, काम-लोलुप हो कर
तुमसे लिपटी हुई थी… देखा तो
वही मेरे आगे बाधा बनी हुई थी ।

दो पद्म भोर खेल रहे थे
तुम्हारे पाँव के पत्तों पर
पास ही हारमोनियम रखा था ।

मेरे खड़े होने की छाया पा कर
भड़क उठी थीं तुम, मधुमक्खी कि तरह
भगाने में लग गई थी ।

और मेरे पास मेरी पाली हुई दस मधुमक्खियाँ
तुम्हारी देह की छाया पर
मण्डराने लगी थीं ।

फिर संध्या आ गई थी, चिड़ियों की तरह
घर लौटते हुए, दो पंख ज्यों खोले
भारी हो गया था मुखमण्डल, मै नहीं था ब्राह्मण ।

उस दिन से आधे-अधूरे-अँधेरे में
सबसे सुन्दर तुम बन बैठीं, रात आने पर — थोड़ी-सी
चाँदनी, तुम्हारे मुख पर मल लिया करता हूँ मैं

आकाश में होता है चाँद
ठण्डी रात की तरह
आँखों से झरता है कुहासा…

प्रेम स्मृति-6 

छाती पर छुरी रख कर तुम जो बैठी हो…
झाँसी की रानी की तरह
तुम क्या मेरा बरबाद प्रेम नहीं हो ?
या, प्रेम की चरम-सीमा हो ।

यह तुम्हारी भूल थी, ग़लत छाती में तुमने भोंका है खंजर
अब प्रेम-देवता, लेते हैं मेरा चुम्बन ।
हज़ार बार हार कर मै हो गया हूँ हरिद्वार
धो लिया है आपना मुख गंगा में,
अपूर्ण पात्र जो भर लिया है तो,
तुम क्या-क्या छीन लेना चाहती हो ?

लो प्रियतमा… छाती के पंजर में उतार दो खंजर
एक तिल डिगूँगा नहीं, मेरी आत्मा से बाहर
निकल आने दो ख़ून की जगह, तुम्हारी चाह….

फिर टिमटिमाते जुगनू की तरह
तुम्हारे प्रेम की छाया में पड़ा रहूँगा शव की तरह ।

पर, मंजू श्री चक्रवर्ती, क्या मेरा प्रेम व्यर्थ गया
या तुम प्रेम की सीमा थीं ?

प्रेम स्मृति-7 

बचपन चला जाता है —
खरगोश की तरह भाग कर ।

फिर ऊँची चोटी पर
चढ़ने के रह जाते हैं घाव ।

(पर तुम्हे तो मिलता रहता है
ह्रदय-वृत्त में चुम्बन)

सभी इस डाल पर मन-माफ़िक बैठ कर
पाते हैं अपना अपना हिस्सा ।

फिर शाखा प्रशाखाओं में चले जाते हैं
अपने-अपने गद्यों में….

इस तरह से पेड़ मनुष्य का जीवन बढ़ता रहता है
बढ़ता रहता है कविता का अनन्त जीवन…

प्रेम स्मृति-8 

थोड़े दिनों साँप-सीढ़ी के खेल की तरह
हमारे बीच कुछ चलता रहा
सब यादों की कोलाज में चलता रहता है ।

आज.. उजाड़ दोपहर पार कर
निस्संगता की शाम की ओर आ गए हैं हम लोग
बुझती हुई लौ की तरह
अचानक याद आ रही हो तुम ।

(रह गया है — बहुत कुछ
कभी न लौटने के लिए)

झूठी तसल्ली देकर चला गया है… समय…
अबोध सपने वाले अपराधी की तरह भागते-भागते
मर गया है अतीत कहने से
छाती में उठती है हूक…

इसलिए बैठा नहीं पाया जीवन में तुक…

प्रेम स्मृति-10

घमण्ड से मुख फेरे रही हो जीवन भर
आज मोनालिसा कि पेण्टिंग कैसे पूरी हो ?

टेलीफ़ोन के तार पऱ
पारुल चिड़िया गुमसुम बैठी
दिन बिता गई है ।

पेण्टिंग का ब्रश कह रहा है
मै रंग दूँगा, पूरा का पूरा रूप ।

एक दो केश ही खींच पाया हूँ अभी
प्यार बचा रहता है नहीं पाने वाले के घर ।

आज रोशनी की जब शाम हो
बादलों से रंग आया हो आकाश

संध्या मालती की सुबास छा रही हो चारों ओर
हम दोनों, सफ़ेद कासवान में
थोड़ी देर के लिए ही सही.. मिल सकते हैं ???

प्रेम स्मृति-17

विस्थापित होने की मौत के सिवा और कुछ नहीं था मेरे पास
और थोड़ा-सा तुम्हारा प्रेमबीज मेरे आईने में और
लगातार घटता रहा है आश्चर्य
मेरे अनिच्छुक जीवन में ।
क्लेश रहा, अस्पष्ट मित्रताएँ रहीं
उससे भी ज़्यादा — नोक भर पाया तो हिमालय भर गाया

हाथ में ह्रदय लुकाए रहा
रहा संकट का भान
और प्रेम घृणा ने किया खाद का काम

दुःख से अधिक विश्वास रहा…
सपने जितने मरे नहीं उससे अधिक जगे
क्वांटम थ्योरी की तुम रही यलोकेशी ।.

अब कम्प्यूटर चलाना आ गया है
बहे चले आ रहे नहर में शब्द
विस्थापन, प्रेम और घृणा पाना….

खूब हरा भरा हो गया है — कविता का कल्पतरु ।

प्रेम स्मृति-21

लो… यहाँ हाथ रखो…
छू पा रहे हो न मुझे ।
(ज़रा रुको.. मैं ज़रा करवट ले लूँ )

अब हाथ दो, अस्तित्व मिल रहा है न मेरा.. नहीं ?

ये नहीं, वो नहीं.. अरे जाओ…
तुम्हारी जन्मान्ध आँखों में केवल अन्धकार है

ये क्या है.. अरे ये मेरी उँगुलियाँ है,
यह नहीं यह मेरा कण्ठनाल है.. ज़हर छान कर रखने की जगह ।
एक कवि की मिटटी का सूर्य… यह आग नहीं है..
मै हूँ.. मेरी जवानी की कहानी है ।

सुख के क़रीब सारा जीवन कटा पड़ा रहा यह कबन्ध प्रेमी
वहाँ क्या खोज रही हो, यह दुःख है
तुम्हारा प्रेम न पाकर सुखी नदी है यह
नीली होकर घास पर पड़ी हुई है

इसके ठीक दाएँ हाथ रखो… ह्रदय है यह
यहाँ रहता है प्रेम, स्मृतियाँ.. प्रेमी का सुख..

इसी छाती में प्रेम था.. स्मृति थी सब था…
केवल तुम ही नहीं रही….

गेंदतड़ी का खेल

गेंदतड़ी का खेल चल रहा है ..
पूरी तरह साध कर मारते हैं एक दूसरे को.. खींचकर..
लग गया तो वोट बढ़ गए
नहीं लगा तो…,
गेंद अब दूसरे के हाथ में ।

अब वह प्रहार करेगा ।
इस खेल में सभी दुश्मन है.. पैसा बहुत लगा है…
इसलिए मारना है और बचना है ।

अरे नेताजी, ई खेल गाँव माँ हम खूब खेले हैं…।

चारों ओर

दिन भर मणिधर सूर्य
जीभ से ब्रह्माण्ड की चिता लपट-सी सुनहरे रंग को चाट कर
एक लाल कीड़े की तरह चला गया है ।

चारों ओर —
आदमी के मुँह में जैसे रह गया है अन्धेरा ।

मेरे पूर्वज 

कर्णफुली नदी में ….
कभी-कभी लकड़ी बह कर आ जाती थी
जबकि कहीं भी जंगल नहीं था हमारे गाँव के आस-पास .

उससे ही बूढ़ा मिस्त्री बनाया करता था
हमारे पितामह, प्रपितामह का घर, दरवाज़ा, खिड़की ।

आजकल बह कर आई लकड़ियों से बना रहा है नाव ।

(बिल्ली के छौनों को उसी पर रख कर छोड़ आने की बात कर रहे है लोग।)

सबसे लम्बे और मोटे तने को प्रणाम करके
मिस्त्री ने अलग रख दिया था ।

(बेकार की लकड़ियों से बने बैट और बॉल से मुझे खेलते हुए देख कर देवता नाराज हो गए थे ).

इस साल बेहद सर्दी पड़ी
बूढ़ा मिस्त्री उसी से मर गया ।

मौत के समय उसने देखा
जंगल में पेड़ रमण कर रहे है ।

फिर देखा घुमन्तु बिल्लियाँ उसकी नाव में विचरण कर रही हैं

और …सबसे लम्बी लकड़ी जो अलग रखी थी —
उसे जलाकर पिता, पितामह, प्रपितामह
मेरा इन्तज़ार करते हुए ..आग ताप रहे है ।

आलिंगन का स्वाद 

जंगली डगर पर चल रहा हूँ अकेला
फिर भी अकेला नहीं हूँ ।

हे जीवन… हे जीवन… वादा करो
नदी पर आकर इस जंगल के आगोश में
रोज़ कुछ समय बिताओगे ।

अपने आप से मिलकर
यहीं सेमल के बीज की तरह
कुलाचे मारता है मन-यौवन ।

कैसे छोड़ सकता हूँ
इस एकांत में —
इस आलिंगन का स्वाद ।

शव-1

नीचे सिर ..पीठ ऊपर… सामने है –
जल समाधि लिए साधु शव…

वैसी ही बँधी धोती
पानी में चलते पैर ।

उसकी साधना से ठहर गया है —
आस-पास का जल ।

क्या गुनता रहता है —
बिना आशा बिना भय ।

किसी दिन में नहीं रहूँगा —
तो जीवित हो जाएगा….. शव ।

शव-2 

न अर्थी… न फूल… न दीया-बत्ती..
भीतर धरा है – शव !

सभी गली में मौन… संगी-साथी विहीन
दुख सेक कर खाता है, निथर… नीरव

मरना उसका यह है …मर गया है निजी सपनो का उगना
विचार बुझाता है – आजकल रेत चूस कर ।

कही आता-जाता नहीं, जीभ हो गई है महाधीर —
ड्राईफ्रूट की तरह नाभि, बैठ गया है फास्फोरस का अस्थि-पंजर ।

टूटे दाँत अख़बार पढ़ता बड़बड़ाता है —
ऐसे भी क्या शव पड़ा रहता है ?

शव-3 

बचपन की छाया की तरह
पड़ा रहता है शव
पहले प्यार की तरह
जागा रहता है शव ।

जैसे गुफ़ा में रहता है अँधेरा
चित्र-लिपि-सा हाड़ पर रहता है उकेरा
जैसे आदर्श से ढका रहता है
नेता का चेहरा ।

दुधमुँहे बच्चे में जैसे
रिश्तो का बीज छुपा होता है
शव के लिए देह को
बचा कर रखना होता है ।

काली रात

प्रेयसी रही है रात
निहत्था अकेला जब हुआ हूँ उसी को लगाया है गले
शरणार्थी होने से अदिगंत सब खंड-खंड हो गया है
उसी की गोद मे सर रखा, दिलासा पाया ।

रात ही थी जब कहा गया था मुझसे — तुम ब्राह्मण पात्र नहीं
रात में ही चली थी गोली |
वो रात ही थी जब पहुँचे थे भागलपुर सेंट्रल जेल
और उस रात भी जब माँ कुएँ में कूद मरी ।

वो भी रात ही थी, जब ट्रेन में लटक कर
सतहत्तर में जे.एन.यू पहुँचा,
अंत की चमक लिए कविताएँ लिखवाई है उसने मुझसे
कैसे कहूँ उसे काली रात ।

आजकल

मेरे कोठार में, दन्त में विष भरे
हमले की तैयारी में पूँछ पर उठकर लहरा रहा है
पकड़ने जाओ तो डसने के लिए फुफकारता है ।

कुछ कहना चाहूँ तो, सुना है उसे सुनाई नहीं देता ।

नींद में उसकी फुसफुसाहट सुनता हूँ
देखता हूँ — हरा-नीला वर्ण उसका चौड़ा-फन

हाथ जहाँ डालता हूँ —
काग़ज़ की तरह निकल आता है वो ।

त्रिलोचन जी का मुख 

इस साल सरसों के तेल में आधा चम्मच
पिसी हुई हल्दी की तरह है – बसंत-पंचमी

पृथ्वी भीतर से बीमार है
त्रिलोचन का मुख पीला पड़ा है ।

शाम को एक पंख हवा मे बैठकर
पहाड़ की ओर गया है ।

अस्थिर बैठा हूँ — कहीं किसी
दुर्घटना का समाचार ना आए ।

इस लोकतंत्र में

बेहुला !
सती बेहुला  !!

पुराना अँधेरा नए झंझावात में
जीवन सागर की छाती पर
केले की भेरी में एकाकीपन
की इतनी लम्बी डगर पर

हम भी —
तुम्हारी ही तरह — तप्त ।

इस युग में

जोते हुए खेत की नई दूब पर
सुबह की सुनहरी धूप में
चारो ओर असंख्य
बूँद-बूँद सोना बिछा हुआ है ।

इस वर्ष हरसिंगार के सफ़ेद-पीले फूल
मरे हुए हंसो की तरह गिरे है
देखता हूँ आँख तले-पाँव तले बिछ आया है —

मरण आतुर अनंत सुनहला जीवन ।

आज भी आकाश पर 

जितनो के सिर जितने तारे जुटते हैं
उनके उतने ही होते है पुरखे

विस्थापन में उखड़े
हम जैसों के भटक गए है पुरखे

चमकीली पोलोथिन ओढ़े
आकाश में निहुर…. निहुर …..

सारी रात सारा आकाश
धरती पर हमें पुकार लगाता है ।

प्रवास से

सिरहाने जल, दवाई बगल
छाती पर उल्टी धरी जीवनानन्द दास की ‘रूपसी-बांग्ला’ ।
दीवार पर मकड़ियो के जाले में अटकी शाम ।
झरे पत्तों के ढेर पर
डूबते सूर्य का सुनहला पथ ।

रात, भोर, भरी दुपहरिया
एक डाली करती है हवा
बार-बार आगे बढ़ कर —
सिरहाने फेरती है हाथ —
चिंता न करो …चिंता न करो ।
मैं तो हूँ….

प्रलाप करता हूँ उससे
दीदी ! घर जाऊँगा मैं ।

नींद 

जाने क्यों काली-काली कोयलों को
आजकल नींद नहीं आती —
आधी-आधी रात कर्कश स्वर में
समूह में चिल्लाती हैं
एक बस्ती से दूसरी बस्ती !

जैसे उनके बाप के पेड़ कट गए हो
पंचम स्वर बासी पड़ गया है
या एक-आध बिखरे पेड़ डराने लगे है
या हमारे दौर में चाँद सर पीट रहा है ।

सो नहीं पातीं दिन भर कलह में
अतृप्त चाह छिपकर रहने की जददोजहद
प्रतिशोध भरा कंठ हो गया है
जाने क्यों मुझे भी नींद नहीं आती ।

किसी सत्ता को क्या पता 

क्या वह बुभुक्षा है ?
या बुबोध इषा !
चित्र एक तानता या निधिध्यासन, जो कहो
वह, अमृतमयी ही नहीं, द्रव्यमयी भी है !

जो सोचता है, संशय करता है
समझता-स्वीकारता है
अस्वीकार और संकल्प करता है
वर्णन-कल्पना-स्पर्श करता है
वह निरुद्ध नहीं होता –
शांति देती है, वही भावना –
आवेग मुक्त चिंता से भरा रहता है, जो-
वह ज्ञान से ज्ञानतर-धारा प्रवाह –
परिणामशालिनी है — हमारा मनोभाव
निश्चयात्मक है उसका अनुभव ।

किसी सत्ता को क्या पता ?

जो ऊपर जा रहे हैं

याज्ञवल्क्य पैंट-कमीज़ पहनकर
ऊँचे आसन पर जा रहे है ।

जटिल समस्याएँ
प्रखर चिन्तक

उदीग्न रहता है
मेखा – मुख ।

फ़न की तरह हाथ उठाकर
जिज्ञासु को कर देते है शांत ।

कुश-वाणी
आरी सा धार ।

लाल आँखों से
देखते हैं —

हिंदी के कवि को….
तो हँस-हँस पड़ते हैं ।

मातम से बचा

निकल आए हैं —
केंचुआ, घोंघा, बेग-मेंढक
कमरे के कोने में भरा पड़ा बीटल
झींगुर, दीवार पर छिपकली ।

रेंग रहे हैं चारो ओर
पाँवहीन पंखहीन
जंतु-अजंतु ।

उन्ही में न रहते हुए
दरवाज़े के बाहर-भीतर
हो रहा हूँ —

चारों ओर उदारीकरण के मातम से बचा हुआ हूँ ।

जब निराशा मौत नहीं लगती

कुछ दिन रात होते है – उदासी
बार- बार हाथ आती है – पूरी तरह ।

कुछ रातें होती है, देखती है आँखें –
कोर से धार गुपचुप ।

डर होता है क़दम उठाने से पहले की कही
तेरा अन्जाम वो न हो, मानकर ।

बैठ जाते है अपने ही भीतर पत्थर की तरह
फिर दिन के भीतर नशे का धुआँ भरता रहता हूँ ।

ऐसा उन चोरो से हमने पाया है
जो जाति ओर पार्टी का नाम लेकर
छा जाते हैं सामंत के दरबार में नचनियो की तरह
निराशा हमको निगलती रहती है ।

बिना धुएँ – जली रस्सी की ऐंठन के भीतर
जैसे आग छुपी रहती है ।
कुछ ऐसे भी दिन होते है –
जब निराशा मौत नहीं लगती ।

मुनिया की शताब्दी 

खुल जाते है दरवाज़े ।
एक सीढ़ी साँप की तरह चल पड़ी है
एक पत्थर कारखाने में बदल गया है
एक तिनका, चिड़िया बन आकाश में उड़ रहा है ।

एक ओर दौड़ पड़ी हैं दूब की कतारें
रोटी से भर रहे है – ताल-तलैया
गाँव का कटा हाथ काम पर लग गया है
चल पड़ा है – कंकाल ।

चौड़े हो रहे हैं नौज़वानों के कन्धे
चाल में तलवार की चमकार
आखिरी ज़ंजीर कोई टूट गई है |

मुँह बा रही है दुनिया –
स्कूल जा रही है – मुनिया ।

नजरुल स्मृति

तीस वर्षो तक गूँजती रही – अग्निवीणा ।
न तुम गा पाए ।
गाया और सुना केवल पक्षघात ने ।

अग्निवीणा बजाते रहे तुम ।
प्रिय ! मौत धीरे-धीरे
बैठ गई तुममे पक्षाघात बन ।

अचानक तुम चुप हो गए ।
सब नहीं, पर विद्रोही बनते लोग
आज भी गाते हैं – तुम्हारी अग्निवीणा ।

तो..

बोरी खोल
उतर जाता हूँ
पाण्डुलिपियों के जंगल में ।

लपक – लपक उठाता हूँ
कभी चटगाँव कभी दिल्ली वाली,
कभी चुपके बलिया वाली,
जिसमें बैठी है काली बिल्ली
या कभी नई वाली
जिसमें पहाड़ रो रहे है ।

मीनारे नज़र से बगैर पढ़े
उन पंक्तियों से बतियाता हूँ
जिनके शब्द और शक्ल एक है
फलक के तारों की तरह उन्हें छूता हूँ

कभी उम्र को खरगोश की तरह
पकड़ना हो तो बोरी खोलता हूँ
और पाण्डुलिपियों के जंगल में उतर जाता हूँ ।

सात रंग 

सात रंगों की गलबहियाँ
आकाश का श्रृंगार कर रही हैं ।

एक गुरुत्त्वाकर्षनीय निराकार –
आँखों में भर रहा हूँ, मुँह फिराने से कहीं खो न जाए ।

रों रहा है मन, एक दाग याद आता है
कि दाग पर दाग उग आता है ।

इन्द्रधनुष बनता है लुप्त होता है
एक कण धरकर नहीं रख पाता ।

जिसके अन्तर मे पैठ गया है दाग
वहीं बाँधता है जीवन को – जादू से ।

वहीँ खोजता है – पथ, सारी बाधाएँ ।
तुच्छ समझ, सपनों की खेता है नाव ।

हमारा विश्वास तैयार होता है इन सात रसायनों से
जो पार करता है सुदीर्घ जीवन ।

अजगर

मैंने उसे पहले पहल वर्णमाला के पहले अक्षर में
‘अ’ के पास भयानक अंदाज़ में बैठे देखा था ।

कुछ को उसे खिलौना बनाकर खेलते देखा
उमस की रात, कुछ जने उसे पेड़ से फँसाकर
चिडिया घर ले आए,
साधुओ के गले पड़े-पड़े मैंने उसे भीख माँगते देखा ।

कंक्रीट के जंगल में
जैसे बाईपास लेन आ मिलती है —
एक और लेन में, लेन फिर मुख्य लेन में —
उसी तरह सफ़ेद चिकना-चितकबरा
हरा-काला माँसल
उसकी जीभ जैसे करंट के दो नंगे तार
चुप पूँछ, भोली आँख
प्रखर नाक
और हर वक़्त उसका अधभरा पेट …
और उसने, मेरे घर में खोह बना ली है ।

बीते दिन उसका इतना
सीढ़ी चढ़ आना — मैंने अपनी आँखों से देखा है…।

ओवरकोट

लो, घी से खाली कटोरा-से हाथ —
यह ओवरकोट लो,
जब खेतो की पहरेदारी करना
इसे पहनना —
इसमे तुम्हारा दुबलाना छुप जाएगा ।

हो सकता है तुम्हे अपने हट्टे-कट्टे दिन याद आ जाएँ
और निश्चय ही
कोट के सामने के भाग को मिलाते हुए
तुम्हें अपने होठो पर
कोई मुस्की याद आ जाए
बेचने वाली ने इसके रंग की
तारीफ़ की थी —
कहा था टिकाऊ होगा
मै सोच रहा था — इसमें तुम्हारी आँखो से टपका
पानी टिक नहीं सकता
यह मेड इन यूएसए है ।
(रिपोर्ट है इससे सस्ता कोट इस देश में नहीं मिलता )

मै जानता हूँ पिता
तुम्हारी आभावग्रस्त उम्र का हाड़ काँप रहा होगा
और ऐसा ही कोट आजकल लोग पहन रहे है
वहाँ की उतरन से
ढक रहे है देश के आम लोग कम्पन ।
ये दिल्ली बाज़ार की उपलब्धि है ।
इसकी जेबे बड़ी हैं ।
हो सकता है पिता
इसमे तुम्हारे खाली हाथ छुप जाए….।

मैं जानता हूँ पिता 

तुम्हारी अभावग्रस्त उम्र का हाड़ काँप रह होगा
और ऐसा ही कोट आजकल लोग पहन रहे हैं
वहाँ की उतरन से
ढक रहे हैं देश के आम लोग कम्पन
यह दिल्ली बाजार की उपलब्धि है.
इसकी जेबें बड़ी हैं
हो सकता है पिता
इसमें तुम्हारे खाली हाथ छुप जाएँ

बांग्ला देश मुक्ति-युद्ध पर दिल्ली में फ़िल्म ? और तसलीमा

जलावतन, अकेली दर-बदर जी रही हो !
हिम्मत नहीं होती तुमसे पूछूँ कैसी हो तुम ।
खूँखार लोकप्रियता पानी थी तुम्हें
जो दो-दो धर्मो के जबड़े मे आ गई तुम ?
पर तुम यहाँ क्यों आ गई
सब विधि-विधान, धर्म, देश, और भाषा मे उठ गया बवंडर
( मातृभूमि ने तो सर क़लम दे ही दिया था )
भूखे शेर ने भी चला दिया तुम पर चप्पल ।
( हिन्दी मे भावुकता का निषेध है )
पर तुम न्याय किससे माँग रही हो
कविता की क़सम, जब सभ्यता आएगी
दक्षिण एशिया वाले बहुत रोवेंगे ।
हम उस परिभाषा मे आ गए है—
जब राजा नही रह जाता हे— तो न्याय भी नही रह जाता है ।

सभ्यता के लॉकर मे जब वोट रखे जाने हैं
तो खरे सोने के लिए जगह कहाँ बचती है ?
कोलकाता को भी क्यों याद करती है तू
वहाँ भी सबने कहा— तुम कितनी सुंदर हो ?
फिर वे बोले— बाबा रे बाबा तुमि सांघातिक !
बड़े-बड़े महारथी, धीर-गंभीर
पैंट वाले-कुर्ता वाले अँग्रेज़ी वाले, हिन्दी वाले
जिन्हे कुछ नहीं सूझता
उन्हे भी सूँघ गया तुम्हारे नाम का साँप ।

दक्षिण एशिया में सरकारों का इरादा है
सांप्रदायिकता की समस्या को चमकाना है ओर कमाना है
और उनके बीच आ गई तुम….
मैं एक फ़िका हुआ फेन का टुकड़ा
साथियों में, अख़बारों में, बहसों में कंडक्टर तक
भीष्म के स्वर मे बोला था— इसका कुछ करो
समय इतना कायर कभी नहीं रहा—
गाँधीजी होते तो तुम्हारे साथ क्या बर्ताव करते
आज मंत्रणा वाले क्या कहते हैं
कहीं कोई हलचल नहीं सभी जैसे भाग गए हैं
जैसे दुर्योधन की सभा मे द्रौपदी आ गई हो ।

हाँ, माँ जननी !
जो हिलसा खाते है
उनका क़िस्सा तो यही है
वे नहीं डूबते— उनका घर डूब जाता है
वहाँ का पानी ही सबसे अधिक तपता है
इस लिए तुम्हारी करुणा दमकती है .
तुम्हारी कविता ‘डाल्फिन’ मैंने पढ़ी—
जिसमे तुम योरोप की नदियों से होकर
सागरों को पार कर अपनी माँ से मछ्ली की तरह
ढाका मिलने आती हो
मुझे पता था तुम बंगालन, मछलियों की सहेली रही होगी
संग खेली होगी, बतियाई होगी, दुलारी होगी
तुम्हारे मन ने भी मछलियों की तरह जीना सीख लिया होगा
इसलिए उनके साथ ही किसी जल के भीतर
किसी डंठल के साए में वोटखोरन की बस्ती से दूर
छाँव खोज लो तुम ।
या—
सागर में मोती वापस नहीं जा पाता
वो सजता है दुनिया के गले में ।

खेल मे भारत-रत्न पुरस्कार की घोषणा पर…

लाल-काली जर्सी पहने खिलाड़ी उतरे हें मैदान में
हज़ारों हाथ हिल रहे हें हज़ार तरह के रुमाल उछल रहे हें
पूरा स्टेडियम पपीते की आधी फाँक की तरह रंगीन था

खेलो-खेलो…पेले की तरह खेलो
अनाथ बच्चों जीत के लिए हज़ारहवें गोल से आगे ।
सही समय पर.. मधुमखी के डंक.. अली की मार की तरह.. मारो ।
दौड़ो-दौड़ो आबेबा विकला की तरह दौड़ो—
नंगे पाँव मैराथन जीत की तरह
खेलो.. बिना फाऊल किए ध्यानचंद की तरह
सचिन की ईमान की तरह ।

हम सबको जेसी ओवेंस की तरह ।
हमेशा हिटलर के मैदान में.. हिटलर की आँख मे खटकना है…।

केवल 

प्रेम में मगन रहना चाहता हूँ
फिर भी चिथड़ा ही रहता हूँ ।

नव जलद के सर पर हाथ फेर कर
प्यास मिटाता हूँ ।

उग नहीं रही आत्मा की
मिट्टी में कोई फ़सल

केवल टूटी हुई सुई
ढूँढ़ता रहता हूँ ।

जाने क्या एक कोमल चीज़ 

पूरब-पश्चिम
जिधर देखो सूरज वलय
गोल ही रहता है

उसकी लालिमा
मुझे भाती है
उत्तर रहूँ या दक्षिण

घर रहूँ या बाहर
जाने क्या एक कोमल चीज़ है मेरे पास
जो उससे लुकाता फिरता हूँ

कुछ उजाले भी है
मेरे पास उसके लिए
नहीं जानता वह सुबह है या शाम

सभी, सब कुछ नहीं दे सकते
तुम कविता में—
उजास दो !

अन्त पर 

श्रावण की दूसरी रात, हस्पताल के पीछे
पानी की हौद और पीले लेम्पपोस्ट के नीचे
मोरचरी
के पास
हिरण आकर
स्तब्ध
सूँघ रहे है—

मोरचरी में मेरा नहीं—
जैसे हिरण का शव हो ।

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