देह का संगीत
मूझे चूमो
और फूल बना दो
मुझे चूमो
और फल बना दो
मुझे चूमो
और बीज बना दो
मुझे चूमो
और वृक्ष बना दो
फिर मेरी छाँह में बैठ रोम रोम जुड़ाओ ।
मुझे चूमो
हिमगिरि बना दो
मुझे चूमो
उद्गम सरोवर बना दो
मुझे चूमो
नदी बना दो
मुझे चूमो
सागर बना दो
फिर मेरे तट पर धूप में निर्वसन नहाओ ।
मुझे चूमो
खुला आकाश बना दो
मुझे चूमो
जल भरा मेघ बना दो
मुझे चूमो
शीतल पवन बना दो
मुझे चूमो
दमकता सूर्य बना दो
फिर मेरे अनंत नील को इंद्रधनुष सा लपेट कर
मुझमें विलय हो जाओ।
फसल
हल की तरह
कुदाल की तरह
या खुरपी की तरह
पकड़ भी लूँ कलम तो
फिर भी फसल काटने
मिलेगी नहीं हम को ।
हम तो ज़मीन ही तैयार कर पायेंगे
क्रांतिबीज बोने कुछ बिरले ही आयेंगे
हरा-भरा वही करेंगें मेरे श्रम को
सिलसिला मिलेगा आगे मेरे क्रम को ।
कल जो भी फसल उगेगी, लहलहाएगी
मेरे ना रहने पर भी
हवा से इठलाएगी
तब मेरी आत्मा सुनहरी धूप बन बरसेगी
जिन्होने बीज बोए थे
उन्हीं के चरण परसेगी
काटेंगे उसे जो फिर वो ही उसे बोएंगे
हम तो कहीं धरती के नीचे दबे सोयेंगे ।
अंत में
अब मैं कुछ कहना नहीं चाहता,
सुनना चाहता हूँ
एक समर्थ सच्ची आवाज़
यदि कहीं हो।
अन्यथा
इससे पूर्व कि
मेरा हर कथन
हर मंथन
हर अभिव्यक्ति
शून्य से टकराकर फिर वापस लौट आए,
उस अनंत मौन में समा जाना चाहता हूँ
जो मृत्यु है।
‘वह बिना कहे मर गया’
यह अधिक गौरवशाली है
यह कहे जाने से —
‘कि वह मरने के पहले
कुछ कह रहा था
जिसे किसी ने सुना नहीं।’
ईश्वर
बहुत बडी जेबों वाला कोट पहने
ईश्वर मेरे पास आया था,
मेरी मां, मेरे पिता,
मेरे बच्चे और मेरी पत्नी को
खिलौनों की तरह,
जेब में डालकर चला गया
और कहा गया,
बहुत बडी दुनिया है
तुम्हारे मन बहलाने के लिए।
मैंने सुना है,
उसने कहीं खोल रक्खी है
खिलौनों की दुकान,
अभागे के पास
कितनी जरा-सी पूंजी है
रोजगार चलाने के लिए।
लोहिया के न रहने पर
लो , और तेज़ हो गया
उनका रोज़गार
जो कहते आ रहे हैं
पैसे लेकर उतार देंगे पार ।
तुम्हारी घनी भौहों के बीच की
वह गहरी लकीर
अभी भी गड़ी है वहाँ बल्ली-सी
जहाँ अथाह है जल
और तेज़ है धार ।
मैं साधारण…
(इसी शब्द से तो था
तुम्हें इतना प्यार)
कहता हूँ : ओ मेरे देशवासियों
एक चिनगारी और ।
बर्फ़ में पड़ी गीली लकड़ियाँ
अपना तिल-तिल जलाकर
वह गरमाता रहा,
और जब आग पकड़ने ही वाली थी
ख़त्म हो गया उसका दौर
ओ मेरे देशवासियों
एक चिनगारी और ।
ख़ाली पेट पर
जो रखकर चिराग़
तैराते जा रहे हैं
अपने ऐश्वर्य के सरोवर में ,
बुझती आँखों के जो
बनाकर बन्दनवार
सजाते जा रहे हैं
संसद और विधानसभाओं के द्वार
उनको गया है वह समूल झकझोर
ओ मेरे देशवासियों
एक चिनगारी और ।
अब वह नहीं है ‘गया’
यही शब्द देगा
फिर अर्थ नया ।
तीन आने भी जब नहीं बचेंगे जेब में
आँख पूरी खुलेगी जब
फँसे हुए झूठ में , फरेब में
उन्हीं घनी भौंहों की तब गहरी लकीर
करकेगी जैसे आधा चुभा तीर ।
ओ मेरे देशवासियों
छूट न जाए कहीं क्रान्ति की डोर
एक चिनगारी और ।
हाँ , वह गहरी लकीर
खेतों में हल के पीछे-पीछे चली गई है,
झोपड़ियों को थामे है शहतीर-सी
हर मोड़ पर मिलेगी इंगित करती ,
मजबूत रस्से की तरह ऊँचाइयों पर चढ़ाती
गहराइयों में उतारती ।
मैं साधारण …
वैसी नहीं दीखती है
मुझे कहीं और
ओ मेरे देशवासियों
उसके नाम पर
एक चिनगारी और ।
उसने थूका था इस
सड़ी – गली व्यवस्था पर
उलटकर दिखा दिया था
कालीनों के नीचे छिपा टूटा हुआ फ़र्श ,
पहचानता था वह उन्हें
जो रँगे-चुने कूड़े के कनस्तरों से
सभा के बीच खड़े रहते थे ।
उसके पास थी एक भाषा
प्यार और सम्मान से जीने के लिए
जिसे वह मन्त्र नहीं बनाता था ।
जहाँ सब सिर झुकाते थे
वहाँ भी उसका सिर ऊँचा उठा रहता था,
जिधर राह नहीं होती थी
उधर ही वह पैर बढ़ाता था
फिर बन जाती थी एक पगडण्डी
एक राजमार्ग जिन पर दूसरों के
नामों की तख़्तियाँ लग जाती थीं ।
निहत्था अकेला वह गुज़र गया
‘चौआलीस करोड़’ लोगों के
दिल में से नहीं एक जलती सलाख-सी
दिमाग़ से ।
अपनी ख़ाली जेबों में
पाओगे पड़ा हुआ तुम उसका नाम
इतिहास करे चाहे न करे अपना काम ।
सन्तों की दूकानों के आगे
खड़ी रहेगी उसकी मचान
भेड़ों के वेश में निकलते कमीने तेन्दुओं पर
तनी रहेगी उसकी दृष्टि ।
ओ मेरे देशवासियों
बनना हो जिसे बने नए युग का सिरमौर…
अभी तो उसके नाम पर
एक चिनगारी और ।
एक चिनगारी और –
जो ख़ाक कर दे
दुर्नीत को, ढोंगी व्य्वस्था को,
कायर गति को
मूढ़ मति को,
जो मिटा दे दैन्य, शोक, व्याधि,
ओ मेरे देशवासियों
यही है उसकी समाधि ।
मैं साधारण …..
मुझे नहीं दीखती कोई राह और
जिधर वह गया है
उधर उसके नाम पर
एक चिनगारी और ।
खाली समय में
खाली समय में,
बैठ कर ब्लेड से नाखून काटें,
बढी हुई दाढी में बालों के बीच की
खाली जगह छांटे,
सर खुजलाएं, जम्हुआए,
कभी धूप में आए,
कभी छांह में जाए,
इधर-उधर लेटें,
हाथ-पैर फैलाएं,
करवटें बदलें
दाएं-बाएं,
खाली कागज पर कलम से
भोंडी नाक, गोल आंख, टेढे मुंह
की तसवीरें खींचें
बार-बार आंखें खोले
बार-बार मींचें,
खांसें, खंखारें,
थोडा बहुत गुनगुनाएं,
भोंडी आवाज में,
अखबार की खबरें गाए,
तरह-तरह की आवाज
गले से निकालें,
अपनी हथेली की रेखाएं
देखें-भालें,
गालियां दे-दे कर मक्खियां उडाएं,
आंगन के कौओं को भाषण पिलाए,
कुत्ते के पिल्ले से हाल-चाल पूछें,
चित्रों में लडकियों की बनाएं मूंछे,
धूप पर राय दें, हवा की वकालत करें,
दुमड-दुमड तकिए की जो कहिए हालत करें,
खाली समय में भी बहुत से काम है
किस्मत में भला कहां लिखा आराम है!
उठ मेरी बेटी सुबह हो गई
पेड़ों के झुनझुने,
बजने लगे;
लुढ़कती आ रही है
सूरज की लाल गेंद।
उठ मेरी बेटी सुबह हो गई।
तूने जो छोड़े थे,
गैस के गुब्बारे,
तारे अब दिखाई नहीं देते,
(जाने कितने ऊपर चले गए)
चांद देख, अब गिरा, अब गिरा,
उठ मेरी बेटी सुबह हो गई।
तूने थपकियां देकर,
जिन गुड्डे-गुड्डियों को सुला दिया था,
टीले, मुंहरंगे आंख मलते हुए बैठे हैं,
गुड्डे की ज़रवारी टोपी
उलटी नीचे पड़ी है, छोटी तलैया
वह देखो उड़ी जा रही है चूनर
तेरी गुड़िया की, झिलमिल नदी
उठ मेरी बेटी सुबह हो गई।
तेरे साथ थककर
सोई थी जो तेरी सहेली हवा,
जाने किस झरने में नहा के आ गई है,
गीले हाथों से छू रही है तेरी तस्वीरों की किताब,
देख तो, कितना रंग फैल गया
उठ, घंटियों की आवाज धीमी होती जा रही है
दूसरी गली में मुड़ने लग गया है बूढ़ा आसमान,
अभी भी दिखाई दे रहे हैं उसकी लाठी में बंधे
रंग बिरंगे गुब्बारे, कागज़ पन्नी की हवा चर्खियां,
लाल हरी ऐनकें, दफ्ती के रंगीन भोंपू,
उठ मेरी बेटी, आवाज दे, सुबह हो गई।
उठ देख,
बंदर तेरे बिस्कुट का डिब्बा लिए,
छत की मुंडेर पर बैठा है,
धूप आ गई।
आए महंत वसंत
मखमल के झूल पड़े हाथी-सा टीला
बैठे किंशुक छत्र लगा बाँध पाग पीला
चंवर सदृश डोल रहे सरसों के सर अनंत
आए महंत वसंत
श्रद्धानत तरुओं की अंजलि से झरे पात
कोंपल के मुँदे नयन थर-थर-थर पुलक गात
अगरु धूम लिए घूम रहे सुमन दिग-दिगंत
आए महंत वसंत
खड़ खड़ खड़ताल बजा नाच रही बिसुध हवा
डाल डाल अलि पिक के गायन का बँधा समा
तरु तरु की ध्वजा उठी जय जय का है न अंत
आए महंत वसंत
सब कुछ कह लेने के बाद
सब कुछ कह लेने के बाद
कुछ ऐसा है जो रह जाता है,
तुम उसको मत वाणी देना।
वह छाया है मेरे पावन विश्वासों की,
वह पूँजी है मेरे गूँगे अभ्यासों की,
वह सारी रचना का क्रम है,
वह जीवन का संचित श्रम है,
बस उतना ही मैं हूँ,
बस उतना ही मेरा आश्रय है,
तुम उसको मत वाणी देना।
वह पीड़ा है जो हमको, तुमको, सबको अपनाती है,
सच्चाई है-अनजानों का भी हाथ पकड़ चलना सिखलाती है,
वह यति है-हर गति को नया जन्म देती है,
आस्था है-रेती में भी नौका खेती है,
वह टूटे मन का सामर्थ है,
वह भटकी आत्मा का अर्थ है,
तुम उसको मत वाणी देना।
वह मुझसे या मेरे युग से भी ऊपर है,
वह भावी मानव की थाती है, भू पर है,
बर्बरता में भी देवत्व की कड़ी है वह,
इसीलिए ध्वंस और नाश से बड़ी है वह,
अन्तराल है वह-नया सूर्य उगा लेती है,
नये लोक, नयी सृष्टि, नये स्वप्न देती है,
वह मेरी कृति है
पर मैं उसकी अनुकृति हूँ,
तुम उसको मत वाणी देना।
लीक पर वे चलें
लीक पर वे चलें जिनके
चरण दुर्बल और हारे हैं,
हमें तो जो हमारी यात्रा से बने
ऐसे अनिर्मित पन्थ प्यारे हैं।
साक्षी हों राह रोके खड़े
पीले बाँस के झुरमुट,
कि उनमें गा रही है जो हवा
उसी से लिपटे हुए सपने हमारे हैं।
शेष जो भी हैं-
वक्ष खोले डोलती अमराइयाँ;
गर्व से आकाश थामे खड़े
ताड़ के ये पेड़,
हिलती क्षितिज की झालरें;
झूमती हर डाल पर बैठी
फलों से मारती
खिलखिलाती शोख़ अल्हड़ हवा;
गायक-मण्डली-से थिरकते आते गगन में मेघ,
वाद्य-यन्त्रों-से पड़े टीले,
नदी बनने की प्रतीक्षा में, कहीं नीचे
शुष्क नाले में नाचता एक अँजुरी जल;
सभी, बन रहा है कहीं जो विश्वास
जो संकल्प हममें
बस उसी के ही सहारें हैं।
लीक पर वें चलें जिनके
चरण दुर्बल और हारे हैं,
हमें तो जो हमारी यात्रा से बने
ऐसे अनिर्मित पन्थ प्यारे हैं ।
सुर्ख़ हथेलियाँ
.पहली बार
मैंने देखा
भौंरे को कमल में
बदलते हुए,
फिर कमल को बदलते
नीले जल में,
फिर नीले जल को
असंख्य श्वेत पक्षियों में,
फिर श्वेत पक्षियों को बदलते
सुर्ख़ आकाश में,
फिर आकाश को बदलते
तुम्हारी हथेलियों में,
और मेरी आँखें बन्द करते
इस तरह आँसुओं को
स्वप्न बनते –
पहली बार मैंने देखा ।
अक्सर एक व्यथा
अक्सर एक गन्ध
मेरे पास से गुज़र जाती है,
अक्सर एक नदी
मेरे सामने भर जाती है,
अक्सर एक नाव
आकर तट से टकराती है,
अक्सर एक लीक
दूर पार से बुलाती है ।
मैं जहाँ होता हूँ
वहीं पर बैठ जाता हूँ,
अक्सर एक प्रतिमा
धूल में बन जाती है ।
अक्सर चाँद जेब में
पड़ा हुआ मिलता है,
सूरज को गिलहरी
पेड़ पर बैठी खाती है,
अक्सर दुनिया
मटर का दाना हो जाती है,
एक हथेली पर
पूरी बस जाती है ।
मैं जहाँ होता हूँ
वहाँ से उठ जाता हूँ,
अक्सर रात चींटी-सी
रेंगती हुई आती है ।
अक्सर एक हँसी
ठंडी हवा-सी चलती है,
अक्सर एक दृष्टि
कनटोप-सा लगाती है,
अक्सर एक बात
पर्वत-सी खड़ी होती है,
अक्सर एक ख़ामोशी
मुझे कपड़े पहनाती है ।
मैं जहाँ होता हूँ
वहाँ से चल पड़ता हूँ,
अक्सर एक व्यथा
यात्रा बन जाती है ।
कितना अच्छा होता है
एक-दूसरे को बिना जाने
पास-पास होना
और उस संगीत को सुनना
जो धमनियों में बजता है,
उन रंगों में नहा जाना
जो बहुत गहरे चढ़ते-उतरते हैं ।
शब्दों की खोज शुरु होते ही
हम एक-दूसरे को खोने लगते हैं
और उनके पकड़ में आते ही
एक-दूसरे के हाथों से
मछली की तरह फिसल जाते हैं ।
हर जानकारी में बहुत गहरे
ऊब का एक पतला धागा छिपा होता है,
कुछ भी ठीक से जान लेना
खुद से दुश्मनी ठान लेना है ।
कितना अच्छा होता है
एक-दूसरे के पास बैठ खुद को टटोलना,
और अपने ही भीतर
दूसरे को पा लेना ।
अजनबी देश है यह
अजनबी देश है यह, जी यहाँ घबराता है
कोई आता है यहाँ पर न कोई जाता है
जागिए तो यहाँ मिलती नहीं आहट कोई,
नींद में जैसे कोई लौट-लौट जाता है
होश अपने का भी रहता नहीं मुझे जिस वक्त
द्वार मेरा कोई उस वक्त खटखटाता है
शोर उठता है कहीं दूर क़ाफिलों का-सा
कोई सहमी हुई आवाज़ में बुलाता है
देखिए तो वही बहकी हुई हवाएँ हैं,
फिर वही रात है, फिर-फिर वही सन्नाटा है
हम कहीं और चले जाते हैं अपनी धुन में
रास्ता है कि कहीं और चला जाता है
दिल को नासेह की ज़रूरत है न चारागर की
आप ही रोता है औ आप ही समझाता है ।
अँधेरे का मुसाफ़िर
यह सिमटती साँझ,
यह वीरान जंगल का सिरा,
यह बिखरती रात, यह चारों तरफ सहमी धरा;
उस पहाड़ी पर पहुँचकर रोशनी पथरा गयी,
आख़िरी आवाज़ पंखों की किसी के आ गयी,
रुक गयी अब तो अचानक लहर की अँगड़ाइयाँ,
ताल के खामोश जल पर सो गई परछाइयाँ।
दूर पेड़ों की कतारें एक ही में मिल गयीं,
एक धब्बा रह गया, जैसे ज़मीनें हिल गयीं,
आसमाँ तक टूटकर जैसे धरा पर गिर गया,
बस धुँए के बादलों से सामने पथ घिर गया,
यह अँधेरे की पिटारी, रास्ता यह साँप-सा,
खोलनेवाला अनाड़ी मन रहा है काँप-सा।
लड़खड़ाने लग गया मैं, डगमगाने लग गया,
देहरी का दीप तेरा याद आने लग गया;
थाम ले कोई किरन की बाँह मुझको थाम ले,
नाम ले कोई कहीं से रोशनी का नाम ले,
कोई कह दे, “दूर देखो टिमटिमाया दीप एक,
ओ अँधेरे के मुसाफिर उसके आगे घुटने टेक!”
तुम्हारे साथ रहकर
तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे ऐसा महसूस हुआ है
कि दिशाएँ पास आ गयी हैं,
हर रास्ता छोटा हो गया है,
दुनिया सिमटकर
एक आँगन-सी बन गयी है
जो खचाखच भरा है,
कहीं भी एकान्त नहीं
न बाहर, न भीतर।
हर चीज़ का आकार घट गया है,
पेड़ इतने छोटे हो गये हैं
कि मैं उनके शीश पर हाथ रख
आशीष दे सकता हूँ,
आकाश छाती से टकराता है,
मैं जब चाहूँ बादलों में मुँह छिपा सकता हूँ।
तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे महसूस हुआ है
कि हर बात का एक मतलब होता है,
यहाँ तक कि घास के हिलने का भी,
हवा का खिड़की से आने का,
और धूप का दीवार पर
चढ़कर चले जाने का।
तुम्हारे साथ रहकर
अक्सर मुझे लगा है
कि हम असमर्थताओं से नहीं
सम्भावनाओं से घिरे हैं,
हर दिवार में द्वार बन सकता है
और हर द्वार से पूरा का पूरा
पहाड़ गुज़र सकता है।
शक्ति अगर सीमित है
तो हर चीज़ अशक्त भी है,
भुजाएँ अगर छोटी हैं,
तो सागर भी सिमटा हुआ है,
सामर्थ्य केवल इच्छा का दूसरा नाम है,
जीवन और मृत्यु के बीच जो भूमि है
वह नियति की नहीं मेरी है।
तुमसे अलग होकर
तुमसे अलग होकर लगता है
अचानक मेरे पंख छोटे हो गए हैं,
और मैं नीचे एक सीमाहीन सागर में
गिरता जा रहा हूँ।
अब कहीं कोई यात्रा नहीं है,
न अर्थमय, न अर्थहीन;
गिरने और उठने के बीच कोई अंतर नहीं।
तुमसे अलग होकर
हर चीज़ में कुछ खोजने का बोध
हर चीज़ में कुछ पाने की
अभिलाषा जाती रही
सारा अस्तित्व रेल की पटरी-सा बिछा है
हर क्षण धड़धड़ाता हुआ निकल जाता है।
तुमसे अलग होकर
घास की पत्तियाँ तक इतनी बड़ी लगती हैं
कि मेरा सिर उनकी जड़ों से
टकरा जाता है,
नदियाँ सूत की डोरियाँ हैं
पैर उलझ जाते हैं,
आकाश उलट गया है
चाँद-तारे नहीं दिखाई देते,
मैं धरती पर नहीं, कहीं उसके भीतर
उसका सारा बोझ सिर पर लिए रेंगता हूँ।
तुमसे अलग होकर लगता है
सिवा आकारों के कहीं कुछ नहीं है,
हर चीज़ टकराती है
और बिना चोट किये चली जाती है।
तुमसे अलग होकर लगता है
मैं इतनी तेज़ी से घूम रहा हूँ
कि हर चीज़ का आकार
और रंग खो गया है,
हर चीज़ के लिए
मैं भी अपना आकार और रंग खो चुका हूँ,
धब्बों के एक दायरे में
एक धब्बे-सा हूँ,
निरंतर हूँ
और रहूँगा
प्रतीक्षा के लिए
मृत्यु भी नहीं है।
रिश्ते
खुद कपड़े पहने
दूसरे को कपड़े पहने देखना
खुद कपड़े पहने
दूसरे को कपड़े न पहने देखना
खुद कपड़े न पहने
दूसरे को कपड़े न पहने देखना
तीन अलग- अलग रिश्ते बनाना है
इनमें से
पहले से तुम्हें मन बहलाना है
दूसरे को खोजने जाना है
तीसरे के साथ मिलकर
क्रान्ति और सृजन का परचम उठाना है।
कुमार गन्धर्व का गायन सुनते हुए
दूर-दूर तक
सोई पडी थीं पहाड़ियाँ
अचानक टीले करवट बदलने लगे
जैसे नींद में उठ चलने लगे ।
एक अदृश्य विराट हाथ बादलों-सा बढ़ा
पत्थरों को निचोड़ने लगा
निर्झर फूट पड़े
फिर घूमकर सब कुछ रेगिस्तान में
बदल गया ।
शान्त धरती से
अचानक आकाश चूमते
धूल भरे बवण्डर उठे
फिर रंगीन किरणों में बदल
धरती पर बरस कर शान्त हो गए ।
तभी किसी
बाँस के बन में आग लग गई
पीली लपटें उठने लगीं,
फिर धीरे-धीरे हरी होकर
पत्तियों से लिपट गईं ।
पूरा वन असंख्य बाँसुरियों में बज उठा,
पत्तियाँ नाच-नाचकर
पेड़ों से अलग हो
हरे तोते बन कर उड़ गईं ।
लेकिन भीतर कहीं बहुत गहरे
शाखों में फँसा
बेचैन छटपटाता रहा
एक बारहसिंहा ।
सारा जंगल काँपता हिलता रहा
लो वह मुक्त हो
चौकड़ी भरता
शून्य में विलीन हो गया
जो धमनियों से
अनन्त तक फैला हुआ है ।
मेघ आए
मेघ आए बड़े बन-ठन के, सँवर के ।
आगे-आगे नाचती-गाती बयार चली
दरवाजे-खिड़कियाँ खुलने लगीं गली-गली
पाहुन ज्यों आए हों गाँव में शहर के ।
पेड़ झुक झाँकने लगे गरदन उचकाए
आँधी चली, धूल भागी घाघरा उठाए
बाँकी चितवन उठा नदी, ठिठकी, घूँघट सरके ।
बूढ़े़ पीपल ने आगे बढ़ कर जुहार की
‘बरस बाद सुधि लीन्ही’
बोली अकुलाई लता ओट हो किवार की
हरसाया ताल लाया पानी परात भर के ।
क्षितिज अटारी गदराई दामिनि दमकी
‘क्षमा करो गाँठ खुल गई अब भरम की’
बाँध टूटा झर-झर मिलन अश्रु ढरके
मेघ आए बड़े बन-ठन के, सँवर के ।
जड़ें
जड़ें कितनी गहरीं हैं
आँकोगी कैसे ?
फूल से ?
फल से?
छाया से?
उसका पता तो इसी से चलेगा
आकाश की कितनी
ऊँचाई हमने नापी है,
धरती पर कितनी दूर तक
बाँहें पसारी हैं।
जलहीन,सूखी,पथरीली,
ज़मीन पर खड़ा रहकर भी
जो हरा है
उसी की जड़ें गहरी हैं
वही सर्वाधिक प्यार से भरा है।
मुक्ति की आकांक्षा
चिडि़या को लाख समझाओ
कि पिंजड़े के बाहर
धरती बहुत बड़ी है, निर्मम है,
वहाँ हवा में उन्हें
अपने जिस्म की गंध तक नहीं मिलेगी।
यूँ तो बाहर समुद्र है, नदी है, झरना है,
पर पानी के लिए भटकना है,
यहाँ कटोरी में भरा जल गटकना है।
बाहर दाने का टोटा है,
यहाँ चुग्गा मोटा है।
बाहर बहेलिए का डर है,
यहाँ निर्द्वंद्व कंठ-स्वर है।
फिर भी चिडि़या
मुक्ति का गाना गाएगी,
मारे जाने की आशंका से भरे होने पर भी,
पिंजरे में जितना अंग निकल सकेगा, निकालेगी,
हरसूँ ज़ोर लगाएगी
और पिंजड़ा टूट जाने या खुल जाने पर उड़ जाएगी।
शाम-एक किसान
आकाश का साफ़ा बाँधकर
सूरज की चिलम खींचता
बैठा है पहाड़,
घुटनों पर पड़ी है नही चादर-सी,
पास ही दहक रही है
पलाश के जंगल की अँगीठी
अंधकार दूर पूर्व में
सिमटा बैठा है भेड़ों के गल्ले-सा।
अचानक- बोला मोर।
जैसे किसी ने आवाज़ दी-
‘सुनते हो’।
चिलम औंधी
धुआँ उठा-
सूरज डूबा
अंधेरा छा गया।
सूरज को नही डूबने दूंगा
अब मैं सूरज को नहीं डूबने दूंगा।
देखो मैंने कंधे चौड़े कर लिये हैं
मुट्ठियाँ मजबूत कर ली हैं
और ढलान पर एड़ियाँ जमाकर
खड़ा होना मैंने सीख लिया है।
घबराओ मत
मैं क्षितिज पर जा रहा हूँ।
सूरज ठीक जब पहाडी से लुढ़कने लगेगा
मैं कंधे अड़ा दूंगा
देखना वह वहीं ठहरा होगा।
अब मैं सूरज को नही डूबने दूँगा।
मैंने सुना है उसके रथ में तुम हो
तुम्हें मैं उतार लाना चाहता हूं
तुम जो स्वाधीनता की प्रतिमा हो
तुम जो साहस की मूर्ति हो
तुम जो धरती का सुख हो
तुम जो कालातीत प्यार हो
तुम जो मेरी धमनी का प्रवाह हो
तुम जो मेरी चेतना का विस्तार हो
तुम्हें मैं उस रथ से उतार लाना चाहता हूं।
रथ के घोड़े
आग उगलते रहें
अब पहिये टस से मस नही होंगे
मैंने अपने कंधे चौड़े कर लिये है।
कौन रोकेगा तुम्हें
मैंने धरती बड़ी कर ली है
अन्न की सुनहरी बालियों से
मैं तुम्हें सजाऊँगा
मैंने सीना खोल लिया है
प्यार के गीतो में मैं तुम्हे गाऊँगा
मैंने दृष्टि बड़ी कर ली है
हर आँखों में तुम्हें सपनों सा फहराऊँगा।
सूरज जायेगा भी तो कहाँ
उसे यहीं रहना होगा
यहीं हमारी सांसों में
हमारी रगों में
हमारे संकल्पों में
हमारे रतजगों में
तुम उदास मत होओ
अब मैं किसी भी सूरज को
नही डूबने दूंगा।
पिछड़ा आदमी
जब सब बोलते थे
वह चुप रहता था,
जब सब चलते थे
वह पीछे हो जाता था,
जब सब खाने पर टूटते थे
वह अलग बैठा टूँगता रहता था,
जब सब निढाल हो सो जाते थे
वह शून्य में टकटकी लगाए रहता था
लेकिन जब गोली चली
तब सबसे पहले
वही मारा गया।
रिश्ते की खोज
मैंने तुम्हारे दुख से अपने को जोड़ा
और –
और अकेला हो गया ।
मैंने तुम्हारे सुख से
अपने को जोड़ा
और –
और छोटा हो गया ।
मैंने सुख-दुख से परे
अपने को तुम से जोड़ा
और –
और अर्थहीन हो गया ।
प्यार
इस पेड में
कल जहाँ पत्तियाँ थीं
आज वहाँ फूल हैं
जहाँ फूल थे
वहाँ फल हैं
जहाँ फल थे
वहाँ संगीत के
तमाम निर्झर झर रहे हैं
उन निर्झरों में
जहाँ शिला खंड थे
वहाँ चाँद तारे हैं
उन चाँद तारों में
जहाँ तुम थीं
वहाँ आज मैं हूँ
और मुझमें जहाँ अँधेरा था
वहाँ अनंत आलोक फैला हुआ है
लेकिन उस आलोक में
हर क्षण
उन पत्तियों को ही मैं खोज रहा हूँ
जहाँ से मैंने- तुम्हें पाना शुरु किया था!
कोई मेरे साथ चले
मैंने कब कहा
कोई मेरे साथ चले
चाहा जरुर!
अक्सर दरख्तों के लिये
जूते सिलवा लाया
और उनके पास खडा रहा
वे अपनी हरीयाली
अपने फूल फूल पर इतराते
अपनी चिडियों में उलझे रहे
मैं आगे बढ गया
अपने पैरों को
उनकी तरह
जडों में नहीं बदल पाया
यह जानते हुए भी
कि आगे बढना
निरंतर कुछ खोते जाना
और अकेले होते जाना है
मैं यहाँ तक आ गया हूँ
जहाँ दरख्तों की लंबी छायाएं
मुझे घेरे हुए हैं……
किसी साथ के
या डूबते सूरज के कारण
मुझे नहीं मालूम
मुझे
और आगे जाना है
कोई मेरे साथ चले
मैंने कब कहा
चाहा जरुर!
नए साल की शुभकामनाएं !
नए साल की शुभकामनाएँ!
खेतों की मेड़ों पर धूल भरे पाँव को
कुहरे में लिपटे उस छोटे से गाँव को
नए साल की शुभकामनाएं!
जाँते के गीतों को बैलों की चाल को
करघे को कोल्हू को मछुओं के जाल को
नए साल की शुभकामनाएँ!
इस पकती रोटी को बच्चों के शोर को
चौंके की गुनगुन को चूल्हे की भोर को
नए साल की शुभकामनाएँ!
वीराने जंगल को तारों को रात को
ठंडी दो बंदूकों में घर की बात को
नए साल की शुभकामनाएँ!
इस चलती आँधी में हर बिखरे बाल को
सिगरेट की लाशों पर फूलों से ख़याल को
नए साल की शुभकामनाएँ!
कोट के गुलाब और जूड़े के फूल को
हर नन्ही याद को हर छोटी भूल को
नए साल की शुभकामनाएँ!
उनको जिनने चुन-चुनकर ग्रीटिंग कार्ड लिखे
उनको जो अपने गमले में चुपचाप दिखे
नए साल की शुभकामनाएँ!
पाँच नगर : प्रतीक
दिल्ली
कच्चे रंगों में नफ़ीस
चित्रकारी की हुई , कागज की एक डिबिया
जिसमें नकली हीरे की अंगूठी
असली दामों के कैश्मेम्प में लिपटी हुई रखी है ।
लखनऊ
श्रृंगारदान में पड़ी
एक पुरानी खाली इत्र की शीशी
जिसमें अब महज उसकी कार्क पड़ी सड़ रही है ।
बनारस
बहुत पुराने तागे में बंधी एक ताबीज़ ,
जो एक तरफ़ से खोलकर
भांग रखने की डिबिया बना ली गयी है ।
इलाहाबाद
एक छूछी गंगाजली
जो दिन-भर दोस्तों के नाम पर
और रात में कला के नाम पर
उठायी जाती है ।
बस्ती
गाँव के मेले में किसी
पनवाड़ी की दुकान का शीशा
जिस पर अब इतनी धूल जम गई है
कि अब कोई भी अक्स दिखाई नहीं देता ।
( बस्ती सर्वेश्वर का जन्म स्थान है । )
हंजूरी
काम न मिलने पर
अपने तीन भूखे बच्चों को लेकर
कूद पड़ी हंजूरी कुएँ में
कुएँ का पानी ठंडा था।
बच्चों की लाश के साथ
निकाल ली गई हंजूरी कुएँ से
बाहर की हवा ठंडी थी।
हत्या और आत्महत्या के अभियोग में
खड़ी थी हंजूरी अदालत में
अदालत की दीवारें ठंडी थीं।
फिर जेल में पड़ी रही हंजूरी पेट पालती
जेल का आकाश ठंडा था।
लेकिन आज अब वह जेल के बाहर है
तब पता चला है
कि सब-कुछ ठंडा ही नहीं था-
सड़ा हुआ था
सड़ा हुआ है
सड़ा हुआ रहेगा
कब तक?
प्यार:एक छाता
विपदाएँ आते ही,
खुलकर तन जाता है
हटते ही
चुपचाप सिमट ढीला होता है;
वर्षा से बचकर
कोने में कहीं टिका दो,
प्यार एक छाता है
आश्रय देता है गीला होता है।
रंग तरबूजे का
रंग तरबूजे का
महक खरबूजे की !
रो-गाकर आजादी लाए
पहन लंगोटी खादी,
चार कदम भी चल नहीं पाए
इतनी चढ़ गई बादी
रंग तरबूजे का
महक खरबूजे की !
अमरीका में डांस करें
औ’ रूस में मारें कुश्ती
देखो अपने नेताओं की
यारों धींगा मुश्ती।
रंग तरबूजे का
महक खरबूजे की
रंग तरबूजे का
रंग तरबूजे का
महक खरबूजे की !
रो-गाकर आजादी लाए
पहन लंगोटी खादी,
चार कदम भी चल नहीं पाए
इतनी चढ़ गई बादी
रंग तरबूजे का
महक खरबूजे की !
अमरीका में डांस करें
औ’ रूस में मारें कुश्ती
देखो अपने नेताओं की
यारों धींगा मुश्ती।
रंग तरबूजे का
महक खरबूजे की
घन्त मन्त दुई कौड़ी पावा
घन्त मन्त दुई कौड़ी पावा
कौड़ी लै के दिल्ली आवा,
दिल्ली हम का चाकर कीन्ह
दिल दिमाग भूसा भर दीन्ह,
भूसा ले हम शेर बनावा
ओह से एक दुकान चलावा,
देख दुकान सब किहिन प्रणाम
नेता बनेन कमाएन नाम,
नाम दिहिस संसद में सीट
ओह पर बैट के कीन्हा बीट,
बीट देख छाई खुशिहाली
जनता हंसेसि बजाइस ताली,
ताली से ऐसी मति फिरी
पुरानी दीवार उठी
नई दीवार गिरी।
भेड़िए की आंखें सुर्ख हैं
भेड़िए की आंखें सुर्ख हैं।
उसे तबतक घूरो
जब तक तुम्हारी आंखें
सुर्ख न हो जाएं।
और तुम कर भी क्या सकते हो
जब वह तुम्हारे सामने हो?
जब भी
जब भी
भूख से लड़ने
कोई खड़ा हो जाता है
सुन्दर दीखने लगता है।
झपटता बाज,
फन उठाए सांप,
दो पैरों पर खड़ी
कांटों से नन्ही पत्तियां खाती बकरी,
दबे पांव झाड़ियों में चलता चीता,
डाल पर उलटा लटक
फल कुतरता तोता,
या इन सबकी जगह
आदमी होता।.
एक सूनी नाव .
एक सूनी नाव
तट पर लौट आई।
रोशनी राख-सी
जल में घुली, बह गई,
बन्द अधरों से कथा
सिमटी नदी कह गई,
रेत प्यासी
नयन भर लाई।
भींगते अवसाद से
हवा श्लथ हो गईं
हथेली की रेख काँपी
लहर-सी खो गई
मौन छाया
कहीं उतराई।
स्वर नहीं,
चित्र भी बहकर
गए लग कहीं,
स्याह पड़ते हुए जल में
रात खोयी-सी
उभर आई।
एक सूनी नाव
तट पर लौट आई।
तुम्हारे लिए
काँच की बन्द खिड़कियों के पीछे
तुम बैठी हो घुटनों में मुँह छिपाए।
क्या हुआ यदि हमारे-तुम्हारे बीच
एक भी शब्द नहीं।
मुझे जो कहना है कह जाऊँगा
यहाँ इसी तरह अदेखा खड़ा हुआ,
मेरा होना मात्र एक गन्ध की तरह
तुम्हारे भीतर-बाहर भर जाएगा।
क्योंकि तुम जब घुटनों से सिर उठाओगी
तब बाहर मेरी आकृति नहीं
यह धुंधलाती शाम
और आँच पर जगी एक हल्की-सी भाप
देख सकोगी
जिसे इस अंधेरे में
तुम्हारे लिए पिघलकर
मैं छोड़ गया होऊँगा।
रात में वर्षा
मेरी साँसों पर मेघ उतरने लगे हैं,
आकाश पलकों पर झुक आया है,
क्षितिज मेरी भुजाओं में टकराता है,
आज रात वर्षा होगी।
कहाँ हो तुम?
मैंने शीशे का एक बहुत बड़ा एक्वेरियम
बादलों के ऊपर आकाश में बनाया है,
जिसमें रंग-बिरंगी असंख्य मछलियाँ डाल दी हैं,
सारा सागर भर दिया है।
आज रात वह एक्वेरियम टूटेगा-
बौछारे की एक-एक बूँद के साथ
रंगीन छलियाँ गिरेंगी।
कहाँ हो तुम?
मैं तुम्हें बूँदों पर उड़ती
धारों पर चढ़ती-उतरती
झकोरों में दौड़ती, हाँफती,
उन असंख्य रंगीन मछलियों को दिखाना चाहता हूँ
जिन्हें मैंने अपने रोम-रोम की पुलक से आकार दिया है।
व्यंग्य मत बोलो
व्यंग्य मत बोलो।
काटता है जूता तो क्या हुआ
पैर में न सही
सिर पर रख डोलो।
व्यंग्य मत बोलो।
अंधों का साथ हो जाये तो
खुद भी आँखें बंद कर लो
जैसे सब टटोलते हैं
राह तुम भी टटोलो।
व्यंग्य मत बोलो।
क्या रखा है कुरेदने में
हर एक का चक्रव्यूह कुरेदने में
सत्य के लिए
निरस्त्र टूटा पहिया ले
लड़ने से बेहतर है
जैसी है दुनिया
उसके साथ होलो
व्यंग्य मत बोलो।
भीतर कौन देखता है
बाहर रहो चिकने
यह मत भूलो
यह बाज़ार है
सभी आए हैं बिकने
राम राम कहो
और माखन मिश्री घोलो।
व्यंग्य मत बोलो।.
विवशता
कितना चौड़ा पाट नदी का
कितनी भारी शाम
कितने खोये खोये से हम
कितना तट निष्काम
कितनी बहकी बहकी-सी
दूरागत वंशी टेर
कितनी टूटी-टूटी-सी
नभ पर विहंगो की फेर
कितनी सहमी सहमी-सी
क्षिति की सुरमई पिपासा
कितनी सिमटी सिमटी-सी
जल पर तट तरु अभिलाषा
कितनी चुप-चुप गई रोशनी
छिप-छिप आई रात
कितनी सिहर सिहर कर
अधरों से फूटी दो बात
चार नयन मुस्काये
खोये भीगे फिर पथराये
कितनी बड़ी विवशता
जीवन की कितनी कह पाए।
शुभकामनाएँ
नये साल की शुभकामनाएँ!
खेतों की भेड़ों पर धूल-भरे पाँव को,
कुहरे में लिपटे उस छोटे-से गाँव को,
नए साल की शुभकामनाएँ!
जाते के गीतों को, बैलों की चाल को,
करघे को, कोल्हू को, मछुओं के जाल को,
नए साल की शुभकामनाएँ!
इस पकती रोटी को, बच्चों के शोर को,
चौंके की गुनगुन को, चूल्हे की भोर को,
नए साल की शुभकामनाएँ!
वीराने जंगल को, तारों को, रात को,
ठण्डी दो बन्दूकों में घर की बात को,
नए साल की शुभकामनाएँ!
इस चलती आँधी में हर बिखरे बाल को,
सिगरेट की लाशों पर फूलों-से ख्याल को,
नए साल की शुभकामनाएँ!
कोट के गुलाब और जूड़े के फूल को,
हर नन्ही याद को, हर छोटी भूल को,
नये साल की शुभकामनाएँ!
उनको जिनने चुन-चुनकर ग्रीटिंग कार्ड लिखे,
उनको जो अपने गमले में चुपचाप दिखे,
नये साल की शुभकामनाएँ!
सुरों के सहारे
दूर दूर तक
सोयी पड़ी थीं पहाड़ियाँ
अचानक टीले करवट बदलने लगे
जैसे नींद में उठ चलने लगे।
एक अदृश्य विराट हाथ बादलों-सा बढ़ा
पत्थरों को निचोड़ने लगा
निर्झर फूट पड़े
फिर घूम कर सबकुछ रेगिस्तान में बदल गया
शांत धरती से
अचानक आकाश चूमते
धूल भरे बवंडर उठे
फिर रंगीन किरणों में बदल
धरती पर बरस कर शांत हो गए।
तभी किसी
बांस के वन में आग लग गई
पीली लपटें उठने लगीं
फिर धीरे-धीरे हरी होकर
पत्तियों से लिपट गईं।
पूरा वन असंख्य बाँसुरियों में बज उठा
पत्तियाँ नाच-नाच कर
पेड़ों से अलग हो
हरे तोते बन उड़ गईं।
लेकिन भीतर कहीं बहुत गहरे
शाखों में फँसा
बेचैन छटपटाता रहा
एक बारहसिंहा
सारा जंगल काँपता हिलता रहा
लो वह मुक्त हो
चौकड़ी भरता
शून्य में विलीन हो गया
जो धमनियों से
अनंत तक फैला हुआ है।
जाड़े की धूप
बहुत दिनों बाद मुझे धूप ने बुलाया
ताते जल नहा पहन श्वेत वसन आयी
खुले लान बैठ गयी दमकती लुनायी
सूरज खरगोश धवल गोद उछल आया।
बहुत दिनों बाद मुझे धूप ने बुलाया।
नभ के उद्यान-छत्र तले मेजः टीला,
पड़ा हरा फूल कढ़ा मेजपोश पीला,
वृक्ष खुली पुस्तक हर पृष्ठ फड़फड़ाया।
बहुत दिनों बाद मुझे धूप ने बुलाया।
पैरों में मखमल की जूती-सी-क्यारी,
मेघ ऊन का गोला बुनती सुकुमारी,
डोलती सलाई हिलता जल लहराया।
बहुत दिनों बाद मुझे धूप ने बुलाया।
बोली कुछ नहीं, एक कुसीर् की खाली,
हाथ बढ़ा छज्जे की साया सरकाली,
बाँह छुड़ा भागा, गिर बर्फ हुई छाया।
बहुत दिनों बाद मुझे धूप ने बुलाया।
दिवंगत पिता के प्रति
(१)
सूरज के साथ-साथ
सन्ध्या के मंत्र डूब जाते थे,
घंटी बजती थी अनाथ आश्रम में
भूखे भटकते बच्चों के लौट आने की,
दूर-दूर तक फैले खेतों पर,
धुएँ में लिपटे गाँव पर,
वर्षा से भीगी कच्ची डगर पर,
जाने कैसा रहस्य भरा करुण अन्धकार फैल जाता था,
और ऐसे में आवाज़ आती थी पिता
तुम्हारे पुकारने की,
मेरा नाम उस अंधियारे में
बज उठता था, तुम्हारे स्वरों में।
मैं अब भी हूँ
अब भी है यह रोता हुआ अन्धकार चारों ओर
लेकिन कहाँ है तुम्हारी आवाज़
जो मेरा नाम भरकर
इसे अविकल स्वरों में बजा दे।
(२)
‘धक्का देकर किसी को
आगे जाना पाप है’
अत: तुम भीड़ से अलग हो गए।
‘महत्वाकांक्षा ही सब दुखों का मूल है’
इसलिए तुम जहाँ थे वहीं बैठ गए।
‘संतोष परम धन है’
मानकर तुमने सब कुछ लुट जाने दिया।
पिता! इन मूल्यों ने तो तुम्हें
अनाथ, निराश्रित और विपन्न ही बनाया,
तुमसे नहीं, मुझसे कहती है,
मृत्यु के समय तुम्हारे
निस्तेज मुख पर पड़ती यह क्रूर दारूण छाया।
(३)
‘सादगी से रहूँगा’
तुमने सोचा था
अत: हर उत्सव में तुम द्वार पर खड़े रहे।
‘झूठ नहीं बोलूँगा’
तुमने व्रत लिया था
अत:हर गोष्ठी में तुम चित्र से जड़े रहे।
तुमने जितना ही अपने को अर्थ दिया
दूसरों ने उतना ही तुम्हें अर्थहीन समझा।
कैसी विडम्बना है कि
झूठ के इस मेले में
सच्चे थे तुम
अत:वैरागी से पड़े रहे।
(४)
तुम्हारी अन्तिम यात्रा में
वे नहीं आए
जो तुम्हारी सेवाओं की सीढ़ियाँ लगाकर
शहर की ऊँची इमारतों में बैठ ग थे,
जिन्होंने तुम्हारी सादगी के सिक्कों से
भरे बाजार भड़कीली दुकानें खोल रक्खी थीं;
जो तुम्हारे सदाचार को
अपने फर्म का इश्तहार बनाकर
डुगडुगी के साथ शहर में बाँट रहे थे।
पिता! तुम्हारी अन्तिम यात्रा में वे नहीं आए
वे नहीं आए
वसंत
नरम घास पर टूट
गिरी सूखी टहनी
मैने तुम्हारी गोद में
अपना मुंह छिपा लिया
समर्पण
घास की एक पत्ती के सम्मुख
मैं झुक गया
और मैने पाया कि
मैं आकाश छू रहा हूँ
आश्रय
पेड़ों के साथ साथ
हिलता है सिर
यह मौसम अब नहीं
आये गा फिर
आज पहली बार
आज पहली बार
थकी शीतल हवा ने
शीश मेरा उठा कर
चुपचाप अपनी गोद में रक्खा,
और जलते हुए मस्तक पर
काँपता सा हाथ रख कर कहा-
“सुनो, मैं भी पराजित हूँ
सुनो, मैं भी बहुत भटकी हूँ
सुनो, मेरा भी नहीं कोई
सुनो, मैं भी कहीं अटकी हूँ
पर न जाने क्यों
पराजय नें मुझे शीतल किया
और हर भटकाव ने गति दी;
नहीं कोई था
इसी से सब हो गए मेरे
मैं स्वयं को बाँटती ही फिरी
किसी ने मुझको नहीं यति दी”
लगा मुझको उठा कर कोई खडा कर गया
और मेरे दर्द को मुझसे बड़ा कर गया।
आज पहली बार।
पोस्टमार्टम की रिपोर्ट
गोली खाकर
एक के मुँह से निकला –
‘राम’।
दूसरे के मुँह से निकला-
‘माओ’।
लेकिन तीसरे के मुंह से निकला-
‘आलू’।
पोस्टमार्टम की रिपोर्ट है
कि पहले दो के पेट
भरे हुए थे।
चमक
चित्रकार जगदीश स्वामीनाथन के प्रति स्नेह और श्रद्धा के साथ
चमक है पसीने की
कसी हुई मांसपेशियों पर,
चमक है ख़्वाबों की
तनी हुई भृकुटी पर ।
चमक सुर्ख, तपे लोहे की घन में,
चमक बहते नाले की
शांत सोये वन में ।
उसी चमक के सहारे मैं जिऊँगा
हर हादसे में आए ज़ख़्मों को सिऊँगा |
पहाड़
चित्रकार जगदीश स्वामीनाथन के प्रति स्नेह और श्रद्धा के साथ
भय से मुक्त किया तुमने
पर आशंका से नहीं ।
जाने कब पहाड़ यह,
संतुलन बिगड़े
जा अतल में समाए
या फिर महाशून्य में
विलय हो जाए –
जिसे मैं अपनी छाती पर ढो रहा हूँ |
जिसके लिए निर्मल पारदर्शी जल
हो रहा हूँ |
हरा और पीला
चित्रकार जगदीश स्वामीनाथन के प्रति स्नेह और श्रद्धा के साथ
फैले हरे पर
क्यों सिमटी पीली रेखा –
मैंने ख़ुद को
तुम्हारी आँखों में देखा |
बाल मैं नहीं हूँ
लहराते धान का खेत में
जो कलगी बन जाऊँ
दृश्य जगत का सेत-मेत में
डंठल हूँ
इधर लेटा, उधर देता हूँ,
चारा हूँ पशुओं का
मत कहो प्रणेता हूँ |
चिड़िया
चित्रकार जगदीश स्वामीनाथन के प्रति स्नेह और श्रद्धा के साथ
जितनी रंगीन चिड़ियाँ थीं मुझमें
सब उड़ गईं
जाने किन तरुओं गिरि-शिखरों से
जुड़ गईं
सूना नहीं हूँ मैं फिर भी ओ चितेरे,
राग बन कर के
सच मुझ में ही निचुड़ गईं |
चलो घूम आयें
उठो, कब तक बैठी रहोगी
इस तरह अनमनी
चलो घूम आएँ।
तुम अपनी बरसाती डाल लो
मैं छाता खोल लेता हूँ
बादल –
वह तो भीतर बरस रहे हैं
झीसियाँ पड़नी शुरु हो गई हैं
जब झमाझम बरसने लगेंगे
किसी पेड़ के नीचे खड़े हो जाएँगे
पेड़ –
उग नहीं रहा है तेज़ी से
हमारी-तुम्हारी हथेलियों के बीच
थोड़ी देर में देखना, यह एक
छतनार दरख़्त में बदल जाएगा ।
और कसकर पकड़ लो मेरा हाथ
अपने हाथों से
उठो, हथेलियों को गर्म होने दो
इस हैरत से क्या देखती हो ?
मैं भीग रहा हूँ
तुम अगर यूँ ही बैठी रहोगी
तो मैं भी भीग-भीगकर
तुम्हें भिगो दूँगा।
अच्छा छोड़ो
नहीं भीगते
तुम भीगने से डरती हो न !
उठो, देखो हवा
कितनी शीतल है
और चाँदनी कितनी झीनी, तरल, पारदर्शी,
रास्ता जैसे बाहर से मुड़कर
हमारी धमनियों के जंगल में
चला जा रहा है ।
उठो घूम आएँ
कब तक बैठी रहोगी
इस तरह अनमनी ।
इस जंगल की
एक ख़ास बात है
यहाँ चाँद की किरणें
ऊपर से छनकर
दरख़्तों के नीचे नहीं आतीं,
नीचे से छनकर ऊपर
आकाश में जाती हैं।
अपने पैरों के नाखूनों को देखो
कितने चाँद जगमगा रहे हैं।
पैर उठाते ही
शीतल हवा लिपट जाएगी
मैं चंदन हुआ जा रहा हूँ
तुम्हारी चुप्पी के पहाड़ों से
खुद को रगड़कर
तुम्हारी त्वचा पर फैल जाउंगा।
अच्छा जाने दो
त्वचा पर चंदन का
सूख जाना तुम्हें पसंद नहीं!
फिर भी उठो तो
ठंडी रेत है चारों तरफ
तलुओं को गुदगुदाएगी, चूमेगी,
तुम खिलखिला उठोगी।
कब तक बैठी रहोगी
इस तरह अनमनी।
यह रेत
मैंने चूर-चूर होकर
तुम्हारी राह में बिछाई है।
तुम जितनी दूर चाहना
इस पर चली जाना
और देखना
एक भी कण तुम्हारे
पैरों से लिपटा नहीं रहेगा
स्मृति के लिए भी नहीं।
उठो, कब तक बैठी रहोगी
इस तरह अनमनी
चलो घूम आएं।
एक छोटी सी मुलाकात
कुछ देर और बैठो –
अभी तो रोशनी की सिलवटें हैं
हमारे बीच।
शब्दों के जलते कोयलों की आँच
अभी तो तेज़ होनी शुरु हुई है
उसकी दमक
आत्मा तक तराश देनेवाली
अपनी मुस्कान पर
मुझे देख लेने दो
मैं जानता हूँ
आँच और रोशनी से
किसी को रोका नहीं जा सकता
दीवारें खड़ी करनी होती हैं
ऐसी दीवार जो किसी का घर हो जाए।
कुछ देर और बैठो –
देखो पेड़ों की परछाइयाँ तक
अभी उनमें लय नहीं हुई हैं
और एक-एक पत्ती
अलग-अलग दीख रही है।
कुछ देर और बैठो –
अपनी मुस्कान की यह तेज़ धार
रगों को चीरती हुई
मेरी आत्मा तक पहुँच जाने दो
और उसकी एक ऐसी फाँक कर आने दो
जिसे मैं अपने एकांत में
शब्दों के इन जलते कोयलों पर
लाख की तरह पिघला-पिघलाकर
नाना आकृतियाँ बनाता रहूँ
और अपने सूनेपन को
तुमसे सजाता रहूँ।
कुछ देर और बैठो –
और एकटक मेरी ओर देखो
कितनी बर्फ मुझमें गिर रही है।
इस निचाट मैदान में
हवाएँ कितनी गुर्रा रही हैं
और हर परिचित कदमों की आहट
कितनी अपरिचित और हमलावर होती जा रही है।
कुछ देर और बैठो –
इतनी देर तो ज़रूर ही
कि जब तुम घर पहुँचकर
अपने कपड़े उतारो
तो एक परछाईं दीवार से सटी देख सको
और उसे पहचान भी सको।
कुछ देर और बैठो
अभी तो रोशनी की सिलवटें हैं
हमारे बीच।
उन्हें हट तो जाने दो –
शब्दों के इन जलते कोयलों पर
गिरने तो दो
समिधा की तरह
मेरी एकांत
समर्पित
खामोशी!
हँसा ज़ोर से जब
हँसा ज़ोर से जब, तब दुनिया
बोली इसका पेट भरा है
और फूट कर रोया जब
तब बोली नाटक है नखरा है
जब गुमसुम रह गया, लगाई
तब उसने तोहमत घमंड की
कभी नहीं वह समझी इसके
भीतर कितना दर्द भरा है
दोस्त कठिन है यहाँ किसी को भी
अपनी पीड़ा समझाना
दर्द उठे तो, सूने पथ पर
पाँव बढ़ाना, चलते जाना
चींटियाँ अंडे उठाकर जा रही हैं,
और चिड़ियाँ नीड़ को चारा दबाए,
धान पर बछड़ा रंभाने लग गया है,
टकटकी सूने विजन पथ पर लगाए,
थाम आँचल,थका बालक रो उठा है,
है खड़ी माँ शीश का गट्ठर गिराए,
बाँह दो चमकारती–सी बढ़ रही है,
साँझ से कह दो बुझे दीपक जलाये।
शोर डैनों में छिपाने के लिए अब,
शोर माँ की गोद जाने के लिए अब,
शोर घर-घर नींद रानी के लिए अब,
शोर परियों की कहानी के लिए अब,
एक मैं ही हूँ कि मेरी सांझ चुप है,
एक मेरे दीप में ही बल नहीं है,
एक मेरी खाट का विस्तार नभ सा,
क्योंकि मेरे शीश पर आँचल नहीं है।
पाठशाला खुला दो महाराज
पाठशाला खुला दो महाराज
मोर जिया पढ़ने को चाहे!
आम का पेड़ ये
ठूंठे का ठूंठा
काला हो गया
हमरा अंगूठा
यह कालिख हटा दो महाराज
मोर जिया लिखने को चाहे
पाठशाला खुला दो महाराज
मोर जिया पढ़ने को चाहे!
’ज’ से जमींदार
’क’ से कारिन्दा
दोनों खा रहे
हमको जिन्दा
कोई राह दिखा दो महाराज
मोर जिया बढ़ने को चाहे
पाठशाला खुला दो महाराज
मोर जिया पढ़ने को चाहे!
अगुनी भी यहाँ
ज्ञान बघारे
पोथी बांचे
मन्तर उचारे
उनसे पिण्ड छुड़ा दो महाराज
मोर जिया उड़ने को चाहे
पाठशाला खुला दो महाराज
मोर जिया पढ़ने को चाहे!
जब-जब सिर उठाया
जब-जब सिर उठाया
जब-जब सिर उठाया
अपनी चौखट से टकराया।
मस्तक पर लगी चोट,
मन में उठी कचोट,
अपनी ही भूल पर मैं,
बार-बार पछताया।
जब-जब सिर उठाया
अपनी चौखट से टकराया।
दरवाजे घट गए या
मैं ही बडा हो गया,
दर्द के क्षणों मेंकुछ
समझ नहीं पाया।
जब-जब सिर उठाया
अपनी चौखट से टकराया।
‘शीश झुका आओ बोला
बाहर का आसमान,
‘शीश झुका आओ बोली
भीतर की दीवारें,
दोनों ने ही मुझे
छोटा करना चाहा,
बुरा किया मैंने जो
यह घर बनाया।
जब-जब सिर उठाया
अपनी चौखट से टकराया।
देश कागज पर बना नक्शा नहीं होता
यदि तुम्हारे घर के
एक कमरे में आग लगी हो
तो क्या तुम
दूसरे कमरे में सो सकते हो?
यदि तुम्हारे घर के एक कमरे में
लाशें सड़ रहीं हों
तो क्या तुम
दूसरे कमरे में प्रार्थना कर सकते हो?
यदि हाँ
तो मुझे तुम से
कुछ नहीं कहना है।
देश कागज पर बना
नक्शा नहीं होता
कि एक हिस्से के फट जाने पर
बाकी हिस्से उसी तरह साबुत बने रहें
और नदियां, पर्वत, शहर, गांव
वैसे ही अपनी-अपनी जगह दिखें
अनमने रहें।
यदि तुम यह नहीं मानते
तो मुझे तुम्हारे साथ
नहीं रहना है।
इस दुनिया में आदमी की जान से बड़ा
कुछ भी नहीं है
न ईश्वर
न ज्ञान
न चुनाव
कागज पर लिखी कोई भी इबारत
फाड़ी जा सकती है
और जमीन की सात परतों के भीतर
गाड़ी जा सकती है।
जो विवेक
खड़ा हो लाशों को टेक
वह अंधा है
जो शासन
चल रहा हो बंदूक की नली से
हत्यारों का धंधा है
यदि तुम यह नहीं मानते
तो मुझे
अब एक क्षण भी
तुम्हें नहीं सहना है।
याद रखो
एक बच्चे की हत्या
एक औरत की मौत
एक आदमी का
गोलियों से चिथड़ा तन
किसी शासन का ही नहीं
सम्पूर्ण राष्ट्र का है पतन।
ऐसा खून बहकर
धरती में जज्ब नहीं होता
आकाश में फहराते झंडों को
काला करता है।
जिस धरती पर
फौजी बूटों के निशान हों
और उन पर
लाशें गिर रही हों
वह धरती
यदि तुम्हारे खून में
आग बन कर नहीं दौड़ती
तो समझ लो
तुम बंजर हो गये हो-
तुम्हें यहां सांस लेने तक का नहीं है अधिकार
तुम्हारे लिए नहीं रहा अब यह संसार।
आखिरी बात
बिल्कुल साफ
किसी हत्यारे को
कभी मत करो माफ
चाहे हो वह तुम्हारा यार
धर्म का ठेकेदार,
चाहे लोकतंत्र का
स्वनामधन्य पहरेदार।
कूद पड़ी हंजूरी कुएँ में
काम न मिलने पर
अपने तीन भूखे बच्चों को लेकर
कूद पड़ी हंजूरी कुएँ में
कुएँ का पानी ठंडा था।
बच्चों की लाश के साथ
निकाल ली गई हंजूरी कुएँ से
बाहर की हवा ठंडी थी।
हत्या और आत्महत्या के अभियोग में
खड़ी थी हंजूरी अदालत में
अदालत की दीवारें ठंडी थीं।
फिर जेल में पड़ी रही
हंजूरी पेट पालती
जेल का आकाश ठंडा था।
लेकिन आज अब वह जेल के बाहर है
तब पता चला है
कि सब-कुछ ठंडा ही नहीं था-
सड़ा हुआ था
सड़ा हुआ है
सड़ा हुआ रहेगा
जारी है-जारी है
अभी लड़ाई जारी है।
लड़ाई जारी है
यह जो छापा तिलक लगाए और जनेऊंधारी है
यह जो जात पांत पूजक है यह जो भ्रष्टाचारी है
यह जो भूपति कहलाता है जिसकी साहूकारी है
उसे मिटाने और बदलने की करनी तैयारी है।
यह जो तिलक मांगता है, लडके की धौंस जमाता है
कम दहेज पाकर लड़की का जीवन नरक बनाता है
पैसे के बल पर यह जो अनमोल ब्याह रचाता है
यह जो अन्यायी है सब कुछ ताकत से हथियाता है
उसे मिटाने और बदलने की करनी तैयारी है।
यह जो काला धन फैला है, यह जो चोरबाजारी हैं
सत्ता पाँव चूमती जिसके यह जो सरमाएदारी है
यह जो यम-सा नेता है, मतदाता की लाचारी है
उसे मिटाने और बदलने की करनी तैयारी है।
जारी है-जारी है
अभी लड़ाई जारी है।
बाल कविताएँ
मेले में लल्ला.
कलकत्ते में खो गए लल्ला
कहीं अगाड़ी, कहीं पुछल्ला।
घर में बैठे वे चुपचाप
करते रामनाम का जाप।
भागे सुन मेले का हल्ला
कहीं अगाड़ी कहीं पुछल्ला।
कलकत्ते में खो गए लल्ला ।।
मेले में हाथी-घोड़े
थोड़े जोड़े, शेष निगोड़े।
इतनी भीड़ की अल्ला-अल्ला
कहीं अगाड़ी कहीं पुछल्ला।
कलकत्ते में खो गए लल्ला ।।
इधर तमाशा उधर रमाशा
रंग-बिरंगा शी-शी-शा-शा।
बहु बाज़ार औ’ आगरतल्ला
कहीं अगाड़ी कहीं पुछल्ला।
कलकत्ते में खो गए लल्ला ।।
चौरंगी पर खा नारंगी
चले बोलकर जय बजरंगी
हक्के-बक्के साथ न संगी
भूल गए मानिक तल्ला
कहीं अगाड़ी कहीं पुछल्ला।
कलकत्ते में खो गए लल्ला ।।
बाल-कवि योगेन्द्र कुमार लल्ला के लिए, जो बाल-पत्रिका ’मेला’ के सम्पादक थे।
बतूता का जूता
जब सब बोलते थे
वह चुप रहता था
जब सब चलते थे
वह पीछे हो जाता था
जब सब खाने पर टूटते थे
वह अलग बैठा टूँगता रहता था
जब सब निढाल हो सो जाते थे
वह शून्य में टकटकी लगाए रहता था
लेकिन जब गोली चली
तब सबसे पहले
वही मारा गया
इब्नबतूता पहन के जूता
निकल पड़े तूफान में
थोड़ी हवा नाक में घुस गई
घुस गई थोड़ी कान में
कभी नाक को, कभी कान को
मलते इब्नबतूता
इसी बीच में निकल पड़ा
उनके पैरों का जूता
उड़ते उड़ते जूता उनका
जा पहुँचा जापान में
इब्नबतूता खड़े रह गये
मोची की दुकान में
किताबों में बिल्ली ने बच्चे दिए हैं
किताबों मे बिल्ली ने बच्चे दिए हैं,
ये बच्चे बड़े हो के अफ़सर बनेंगे ।
दरोगा बनेंगे किसी गाँव के ये,
किसी शहर के ये कलक्टर बनेंगे ।
न चूहों की इनको ज़रूरत रहेगी ,
बड़े होटलों के मैनेजर बनेंगे ।
ये नेता बनेंगे औ’ भाषण करेंगे ,
किसी दिन विधायक, मिनिस्टर बनेंगे ।
वकालत करेंगे सताए हुओं की,
बनेंगे ये जज औ’ बैरिस्टर बनेंगे ।
दलिद्दर कटेंगे हमारे – तुम्हारे,
किसी कम्पनी के डिरेक्टर बनेंगे ।
खिलाऊँगा इनको मैं दूध और मलाई
मेरे भाग्य के ये रजिस्टर बनेंगे ।
पकौड़ी की कहानी
दौड़ी-दौड़ी
आई पकौड़ी
छुन-छुन छुन-छुन
तेल में नाची,
प्लेट में आ
शरमाई पकौड़ी।
दौड़ी-दौड़ी
आई पकौड़ी।
हाथ से उछली
मुह में पहुँची,
पेट में जा
घबराई पकौड़ी।
दौड़ी-दौड़ी
आई पकौड़ी।
मेरे मन को
भाई पकौड़ी।
नानी का गुलकंद
मुझे तुम्हारी नानीजी ने,
डब्बा-भर गुलकंद दिया।
और तुम्हारे नानीजी ने
कविता दी औ’ छंद दिया।।
दोनों लेकर निकला ही था,
बटमारों ने घेर लिया।
छीनछान गुलकंद खा गए
कविता सुन मुँह फेर लिया।।
पर कुछ समझदार भी थे,
जो कविता सुनकर गले लगे।
अपना दे गुलकंद उन्होंने
खाली डब्बा बंद किया।।
अब नानी को लिख देना,
उनका गुलकंद सलामत है।
और हमें बतलाना कविता
के बारे में क्या मत है।।
घोड़ा
अगर कहीं मैं घोड़ा होता, वह भी लंबा-चौड़ा होता।
तुम्हें पीठ पर बैठा करके, बहुत तेज मैं दोड़ा होता।।
पलक झपकते ही ले जाता, दूर पहाड़ों की वादी में।
बातें करता हुआ हवा से, बियाबान में, आबादी में।।
किसी झोंपड़े के आगे रुक, तुम्हें छाछ औ’ दूध पिलाता।
तरह-तरह के भोले-भाले इनसानों से तुम्हें मिलाता।।
उनके संग जंगलों में जाकर मीठे-मीठे फल खाते।
रंग-बिरंगी चिड़ियों से अपनी अच्छी पहचान बनाते।।
झाड़ी में दुबके तुमको प्यारे-प्यारे खरगोश दिखाता।
और उछलते हुए मेमनों के संग तुमको खेल खिलाता।।
रात ढमाढम ढोल, झमाझम झाँझ, नाच-गाने में कटती।
हरे-भरे जंगल में तुम्हें दिखाता, कैसे मस्ती बँटती।।
सुबह नदी में नहा, दिखाता तुमको कैसे सूरज उगता।
कैसे तीतर दौड़ लगाता, कैसे पिंडुक दाना चुगता।।
बगुले कैसे ध्यान लगाते, मछली शांत डोलती कैसे।
और टिटहरी आसमान में, चक्कर काट बोलती कैसे।।
कैसे आते हिरन झुंड के झुंड नदी में पानी पीते।
कैसे छोड़ निशान पैर के जाते हैं जंगल में चीते।।
हम भी वहाँ निशान छोड़कर अपना, फिर वापस आ जाते।
शायद कभी खोजते उसको और बहुत-से बच्चे आते।।
तब मैं अपने पैर पटक, हिन-हिन करता, तुम भी खुश होते।
‘कितनी नकली दुनिया यह अपनी’ तुम सोते में भी कहते।।
लेकिन अपने मुँह में नहीं लगाम डालने देता तुमको।
प्यार उमड़ने पर वैसे छू लेने देता अपनी दुम को।।
नहीं दुलत्ती तुम्हें झाड़ता, क्योंकि उसे खाकर तुम रोते।
लेकिन सच तो यह है बच्चो, तब तुम ही मेरी दुम होते।।
महँगू की टाई
महँगू ने महँगाई में
पैसे फूँके टाई में,
फिर भी मिली न नौकरी
औंधे पड़े चटाई में!
गिट-पिट करके हार गए
टाई ले बाजार गए,
दस रुपये की टाई उनकी
बिकी नहीं दो पाई में।
मच्छर और हाथी
सूँड उठाकर हाथी बैठा
पक्का गाना गाने,
मच्छर एक घुस गया कान में,
लगा कान खुजलाने।
फट-फट फट-फट तबले जैसा
हाथी कान बजाता,
बड़े मौज से भीतर बैठा
मच्छर गाना गाता!
नेता और गद
नेता के दो टोपी
औ’ गदहे के दो कान,
टोपी अदल-बदलकर पहनें
गदहा था हैरान।
एक रोज गदहे ने उनको
तंग गली में छेंका,
कई दुलत्ती झाड़ीं उन पर
और जोर से रेंका।
नेता उड़ गए, टोपी उड़ गई
उड़ गए उनके कान,
बीच सभा में खड़ा हो गया
गदहा सीना तान!
अक्की-बक्की
अक्की-बक्की करें तरक्की,
गेहूँ छोड़ के बोएँ मक्की।
मक्की लेकर भागें चक्की,
देखे बुढ़िया हक्की-बक्की
नक्की-झक्की पूरी शक्की!
नेपालीमा अनूदित रचना
रित्तो नाऊ
एउटा रित्तो नाऊ
किनारमा फर्की आयो ।
उज्यालो खरानीझैँ
पानीमा मिसियो, बग्यो,
खुम्चिएको नदीले
बन्द ओठले कथा सुनायो,
तिर्खाएको बालुवाले
गह भिजायो ।
भिजेको अवसादले
बतास झोक्रायो
हत्केलाका रेखा कामे
र लहरझैँ हराए
मौन छाया
कतै झरेर बिलायो ।
स्वर छैन,
चित्र पनि
बगेर कतै गए
अँध्यारो हुँदै गरेको पानीमा
रात
टोलाउँदै निस्कियो ।
एउटा रित्तो नाउ
किनारमा फर्की आयो ।