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महात्मा गांधी

कैसा संत हमारा
गांधी
कैसा संत हमारा!

दुनिया गो थी दुश्मन उसकी दुश्मन था जग सारा ।
आख़िर में जब देखा साधो वह जीता जग हारा ।।

कैसा संत हमारा
गांधी
कैसा संत हमारा!

सच्चाई के नूर से उस के मन में था उजियारा ।
बातिन में शक्ती ही शक्ती ज़ाहर में बेचारा ।।

कैसा संत हमारा
गांधी
कैसा संत हमारा!

बूढ़ा था या नए जनम में बंसी का मतवारा ।
मोहन नाम सही था पर साधो रूप वही था सारा ।।

कैसा संत हमारा
गांधी
कैसा संत हमारा!

भारत के आकाश पे वो है एक चमकता तारा ।
सचमुच ज्ञानी, सचमुच मोहन सचमुच प्यारा-प्यारा ।।

कैसा संत हमारा
गांधी
कैसा संत हमारा!

अहद

जब तिलाई रंग सिक्कों को
जब मेरी गै़रत को दौलत से लड़ाया जाएगा,
जब रंगे इफ़लास को मेरी दबाया जाएगा,
ऐ वतन! उस वक़्त भी मैं तेरे नग़्मे गाऊंगा।
और अपने पांव से अंबारे-ज़र ठुकराऊंगा!

जब मुझे पेड़ों से उरियां करके बांधा जाएगा,
गर्म आहन से मेरे होठों को दाग़ा जाएगा,
जब दहकती आग पर मुझको लिटाया जाएगा,
ऐ वतन! उस वक़्त भी मैं तेरे नग़्मे गाऊंगा।
तेरे नग़्मे गाऊंगा और आग पर सो जाऊंगा!

ऐ वतन! जब तुझ पे दुश्मन गोलियां बरसाएंगे,
सुखऱ् बादल जब फ़ज़ाओं पे तेरी छा जाएंगे,
जब समंदर आग के बुर्जों से टक्कर खाएंगे,
ऐ वतन! उस वक़्त भी मैं तेरे नग़्मे गाऊंगा।
तेग़ की झंकार बनकर मिस्ले तूफ़ां आऊंगा!

गोलियां चारों तरफ़ से घेर लेंगी जब मुझे,
और तनहा छोड़ देगा जब मेरा मरकब मुझे,
और संगीनों पे चाहेंगे उठाना सब मुझे,
ऐ वतन! उस वक़्त भी मैं तेरे नग़्मे गाऊंगा।
मरते-मरते इक तमाशा-ए-वफ़ा बन जाऊंगा!

खून से रंगीन हो जाएगी जब तेरी बहार,
सामने होंगी मेरे जब सर्द लाशें बेशुमार,
जब मेरे बाजू पे सर आकर गिरेंगे बार-बार,
ऐ वतन! उस वक़्त भी मैं तेरे नग़्मे गाऊंगा।
और दुश्मन की सफ़ों पर बिजलियां बरसाऊंगा!

जब दरे-जिंदां खुलेगा बरमला मेरे लिए,
इंतक़ामी जब सज़ा होगी रवा मेरे लिए,
हर नफ़स जब होगा पैग़ामे क़ज़ा मेरे लिए,
ऐ वतन! उस वक़्त भी मैं तेरे नग़्मे गाऊंगा।
बादाकश हूं, ज़हर की तल्ख़ी से क्या घबराऊंगा!

हुक्म आखि़र क़त्लगह में जब सुनाया जाएगा,
जब मुझे फांसी के तख़्ते पर चढ़ाया जाएगा,
जब यकायक तख़्ता-ए-ख़ूनी हटाया जाएगा।
ऐ वतन! उस वक़्त भी मैं तेरे नग़्मे गाऊंगा।
अहद करता हूं कि मैं तुझ पर फ़िदा हो जाऊंगा!

हम आँखों से भी अर्ज़-ए-तमन्ना नहीं करते

हम आँखों से भी अर्ज़-ए-तमन्ना नहीं करते ।
मुबहम-सा इशारा भी गवारा नहीं करते ।

हासिल है जिन्हें दौलत-ए-सद-आबला पाई,
वो शिकवा-ए-बे-रंगी-ए-सहरा नहीं करते ।

सद-शुक्र कि दिल में अभी इक क़तरा-ए-ख़ूँ है
हम शिकवा-ए-बे-रंगी-ए-दुनिया नहीं करते ।

मक़्सूद इबादत है फ़क़त दीद नहीं है,
हम पूजते हैं आपको देखा नहीं करते ।

काफ़ी है तिरा नक़्श-ए-क़दम चाहे जहाँ हो,
हम पैरवी-ए-दैर-ओ-कलीसा नहीं करते ।

सज्दा भी है मिनजुमला-ए-अस्बाब-ए-नुमाइश,
जो ख़ुद से गुज़र जाते हैं सज्दा नहीं करते ।

जिन को है तेरी ज़ात से यक-गूना त‍अल्लुक़,
वो तेरे तगाफ़ुल की भी परवा नहीं करते ।

ये लम्हा-ए-हाज़िर तो है कोनैन का हासिल,
हम हाल को नज़्र-ए-ग़म-ए-फ़र्दा नहीं करते ।

हर आग को पहलू में छुपा लेते हैं ’साग़र’
हम तुन्दि-ए-सहबा से भी पिघला नहीं करते ।

नग़्मे हवा ने छेड़े फ़ितरत की बाँसुरी में

नग़्मे हवा ने छेड़े फ़ितरत की बाँसुरी में,
पैदा हुईं ज़बानें जंगल की ख़ामुशी में ।

उस वक़्त की उदासी है देखने के क़ाबिल,
जब कोई रो रहा हो अफ़्सुर्दा चाँदनी में ।

कुछ तो लतीफ़ होतीं घड़ियाँ मुसीबतों की,
तुम एक दिन तो मिलते दो दिन की ज़िन्दगी में ।

हंगामा-ए-तबस्सुम है मेरी हर ख़मोशी,
तुम मुस्कुरा रहे हो दिल की शगुफ़्तगी में ।

ख़ाली पड़े हुए हैं फूलों के सब सहीफ़े,
राज़-ए-चमन निहाँ है कलियों की ख़ामुशी में ।

गेसू को तिरे रुख़ से बहम होने न देंगे

 गेसू को तिरे रुख़ से बहम होने न देंगे ।
हम रात को ख़ुर्शीद में ज़म होने न देंगे ।

ये दर्द तो आराम-ए-दो-आलम से सिवा है,
ऐ दोस्त तिरे दर्द को कम होने न देंगे ।

मफ़्हूम बदल जाएगा तस्लीम-ओ-रज़ा का,
अब हम सर-ए-तस्लीम को ख़म होने ने देंगे ।

सरसर को सिखाएँगे लताफ़त का क़रीना,
फूलों पर हवाओं के सितम होने न देंगे ।

ऐ कातिब-ए-तक़दीर हमारी भी रज़ा पूछ,
यँ नाला-ए-तक़दीर रक़म होने न देंगे ।

जब तक है दिल-ए-ज़ार में इक क़तरा-ए-ख़ूँ भी,
कम-मर्तबा-ए-लौह-ओ-क़लम होने न देंगे ।

जो ज़िन्दा ओ हस्सास बुतों की है अमानत,
उस सज्दे को हम नज़्र-ए-हरम होने न देंगे ।

उठ जाएँगे जूँ बाद-ए-सबा बज़्म से तेरी,
तुझ को भी ख़बर तेरी क़सम होने न देंगे ।

लाखों का सहारा है यही जाम-ए-सिफ़ाली,
साग़र को कभी साग़र-ए-जम होने न देंगे।

रातों का तसव्वुर है उनका और चुपके-चुपके रोना है

रातों का तसव्वुर है उनका और चुपके-चुपके रोना है ।
ऐ सुब्‍ह के तारे तू ही बता अन्जाम मिरा क्या होना है ।

इन नौ-रस आँखों वालों का क्या हँसना है, क्या रोना है,
बरसे हुए सच्चे मोती हैं बहता हुआ ख़ालिस सोना है ।

दिल को खोया ख़ुद भी खोए, दुनिया खोई, दीन भी खोया,
ये गुम-शुदगी है तो इक दिन ऐ दोस्त तुझे भी खोना है ।

तमईज़-ए-कमाल-ओ-नक्स उठा ये तो रौशन है दुनिया पर,
मैं चन्दन हूँ तू कुन्दन है मैं मिट्टी हूँ तू सोना है ।

तू ये न समझ लिल्लाह कि है तस्कीन तिरे दीवानों को,
वहशत में हमारा हँस पड़ना दर-अस्ल हमारा रोना है ।

मातम है मेरी आवाज़ शिकस्त-ए-साज-ए-दिल-ए-सद-पारा का
’सागर’ मेरा नग़्मा भी दीपक के सुरों में रोना है ।

दश्त में क़ैस नहीं कोह पे फ़रहाद नहीं

दश्त में क़ैस नहीं कोह पे फ़रहाद नहीं
है वही इश्क़ की दुनिया मगर आबाद नहीं

ढूँडने को तुझे ओ मेरे न मिलने वाले
वो चला है जिसे अपना भी पता याद नहीं

हुस्न से चूक हुई इस की है तारीख़ गवाह
इश्क़ से भूल हुई है ये मुझे याद नहीं

रूह-ए-बुलबुल ने ख़िज़ाँ बन के उजाड़ा गुलशन
फूल कहते रहे हम फूल हैं सय्याद नहीं

बर्बत-ए-माह पे मिज़राब-ए-फ़ुग़ाँ रख दी थी
मैं ने इक नग़्मा सुनाया था तुम्हें याद नहीं

लाओ इक सज्दा करूँ आलम-ए-मदहोशी में
लोग कहते हैं कि साग़र को ख़ुदा याद नहीं

सदियों की शब-ए-ग़म को सहर हम ने बनाया

सदियों की शब-ए-ग़म को सहर हम ने बनाया
ज़र्रात को ख़ुर्शीद ओ क़मर हम ने बनाया

तख़्लीक़ अंधेरों से किए हम ने उजाले
हर शब को इक ऐवान-ए-सहर हम ने बनाया

बरफ़ाब के सीने में किया हम ने चराग़ाँ
हर मौजा-ए-दरिया को शरर हम ने बनाया

शबनम से नहीं, रंग दिया दिल के लहू से
हर ख़ार को बर्ग-ए-गुल-ए-तर हम ने बनाया

हर ख़ार के सीने में चमन हम ने खिलाए
हर फूल को फ़िरदौस-ए-नज़र हम ने बनाया

हर रुख़ से तिरे हुस्न की ज़ौ फूट रही है
क्या ज़ाविया-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र हम ने बनाया

रफ़्तार को खिलते हुए ग़ुंचों की सदा दी
हर गाम को इक ख़ुल्द-ए-नज़र हम ने बनाया

अश्कों को शफ़क़-रंग किया ख़ून-ए-जिगर से
क्या ग़ाज़ा-ए-रुख़सार-ए-सहर हम ने बनाया

ढलते हैं जहाँ बादा-ए-तज्दीद के साग़र
वो मय-कदा-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र हम ने बनाया

 यूँ न रह रह के हमें तरसाइए

यूँ न रह रह के हमें तरसाइए ।
आइए, आ जाइए, आ जाइए ।

फिर वही दानिश्ता[1] ठोकर खाइए,
फिर मिरे आग़ोश में गिर जाइए ।

मेरी दुनिया मुन्तज़िर है आपकी,
अपनी दुनिया छोड़ कर आ जाइए ।

ये हवा, ‘साग़र’ ये हल्की चाँदनी,
जी में आता है यहीं मर जाइए ।

शब्दार्थ
ऊपर जायें↑ जान-बूझकर

हैरत से तक रहा है जहान-ए-वफ़ा मुझे

हैरत से तक रहा है जहान-ए-वफ़ा मुझे ।
तुम ने बना दिया है मुहब्बत में क्या मुझे ।

हर मंज़िल-ए-हयात से गुम कर गया मुझे ।
मुड़-मुड़ के राह में वो तेरा देखना मुझे ।

कैफ़-ए-ख़ुदी ने मौज को कश्ती बना दिया,
होश-ए-ख़ुदा है अब ना ग़म-ए-नाख़ुदा मुझे ।

साक़ी बने हुए हैं वो `साग़र’ शब-ए-विसाल,
इस वक़्त कोई मेरी क़सम देखता मुझे ।

हादसे क्या-क्या तुम्हारी बेरुख़ी से हो गए

हादसे क्या क्या तुम्हारी बेरुख़ी से हो गए ।
सारी दुनिया के लिए हम अजनबी से हो गए ।

गर्दिशे दौरां[1], ज़माने की नज़र, आँखों की नींद,
कितने दुश्मन एक रस्म-ए-दोस्ती से हो गए ।

कुछ तुम्हारे गेसुओं[2] की बरहमीं[3] ने कर दिया
कुछ अन्धेरे मेरे घर में रोशनी से हो गए ।

यूँ तो हम आगाह[4] थे सैयाद[5] की तदबीर[6] से,
हम असीर[7]-ए-दामे-गुल अपनी खुदी[8] से हो गए ।

हर क़दम ‘सागर’ नज़र आने लगी हैं मंज़िलें
मरहले[9] तय मेरी कुछ आवारगी[10] से हो गए ।

शब्दार्थ
ऊपर जायें↑ समय का उतार-चढ़ाव
ऊपर जायें↑ केश
ऊपर जायें↑ बिखराव
ऊपर जायें↑ अवगत होना
ऊपर जायें↑ शिकारी
ऊपर जायें↑ योजना
ऊपर जायें↑ बंदी
ऊपर जायें↑ अहं
ऊपर जायें↑ मंज़िलें
ऊपर जायें↑ बिना मकसद के घूमना

काफ़िर गेसू वालों की रात बसर यूँ होती है

काफ़िर गेसू वालों की रात बसर यूँ होती है।
हुस्न हिफाज़त करता है और जवानी सोती है।

मुझ में तुझ में फ़र्क नहीं, तुझमे मुझमे फ़र्क है ये,
तू दुनिया पर हँसता है दुनिया मुझ पर हँसती है।

सब्रो-सुकूं दो दरिया हैं भरते-भरते भरते हैं,
तस्कीं दिल की बारिश है होते-होते होती है।

जीने में क्या राहत थी, मरने में तकलीफ़ है क्या,
तब दुनिया क्यों हँसती थी, अब दुनिया क्यों रोती है।

दिल को तो तशखीश हुई चारागरों से पूछूँगा,
दिल जब धक-धक करता है वो हालत क्या होती है।

रात के आँसू ऐ ‘सागर’ फूलों से भर जाते हैं,
सुबहे चमन इस पानी से कलियों का मुँह धोती है।

अंगड़ाई भी वो लेने न पाए उठाके हाथ

अंगड़ाई भी वो लेने न पाए उठाके हाथ,
देखा जो मुझको तो छोड़ दिए मुस्करा के हाथ।

कासिद तेरे बयाँ से दिल ऐसा ठहर गया,
गोया किसी ने रख दिया सीने पे आके हाथ।

देना वो उसका सागर-ए-मय याद है निज़ाम,
मुँह फेर कर उधर को, इधर को बढ़ा के हाथ।

ओ दूर जाने वाले वादा न भूल जाना

ओ दूर जाने वाले वादा न भूल जाना ।
रातें हुई अन्धेरी तुम चान्द बनके आना ।

अपने हुए पराए दुश्मन हुआ ज़माना ।
तुम भी अगर न आए मेरा कहाँ ठिकाना ।

आजा किसी की आँखें रो-रो के कह रही हैं,
ऐसा न हो कि हमको करदे जुदा ज़माना ।

अब तो तमाम शहर में चर्चा है आपका

अब तो तमाम शहर में चर्चा है आपका ।
फिर किसलिए हुज़ूर ये परदा है आपका ।

हम आपके हुए तो नई बात क्या हुई,
कहते हैं लोग सारा ज़माना है आपका ।

होता है हर मुकाम पे अहसास अब यही,
जैसे हमारे साथ में साया है आपका ।

अब जाके शहकार हुई है मेरी ग़ज़ल,
बरसों ख़याल में तराशा है आपका ।

अल्लाह ख़ता क्या है ग़रीबों की बता दे

अल्लाह ख़ता क्या है ग़रीबों की बता दे,
क़िस्मत के अन्धेरे में नई शमा जला दे।

क्यूँ तूने दिया था मेरी कश्ती को सहारा,
फिर आ गया तूफ़ाँ जो नज़र आया किनारा,
क्या खोल है तेरी करनी का बता दे।

भूके जो नहीं उनपे करम है तेरा,
भूकों के लिए भूख ही इनकाम है तेरा,
दाता है तो भूखों की भी तक़दीर जगा दे।

महरूम है रहमत से तेरी भूक के मारे,
हर साँस पे लेते हैं ये फाकों के सहारे,
मौला यही दुनिया है तो दुनिया को मिटा दे।

मिलती न हो मेहनत के नतीजे में जो रोटी,
जिस खेत से बहका हो मुयस्सर न हो रोज़ी,
उस खेत के हर कोसाए गन्दुम को जला दे।

 

 

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