एक चुनौती
देष की नारी सावधान हो ।
नई चुनौती आयी ह,ै
नये नियमों के ताल मेल में
एक बुझी मसाल लायी है ।
आरक्षण की चहल – पहल में
महिलाओं का नाम बढ़ा
तैतीस से षुरु होकर
पचास प्रतिषत और बढ़ा ।
देष की नारी को एक
दृढ प्रतिज्ञा लेनी है
अधिकारों की डोरी में
कर्तव्यों के मोती पिरोनेें हैं ।
कार्य क्षेत्र में अपने हर पल
कर्मों की ज्वाला जलानी है,
परिश्रम के अंगारों से अकर्मण्यता
की निषा मिटानी है ।
उँगली न उठाये कोई हम पर
कर्मों की इन राहों में,
सीने को फौलाद बना दो
व्रज बना दा बाहों को ।
निस्वार्थ कर्म के बीज हम बोंये
इस धरती मां के सीने में,
भाव के साथ दृढता को भी
साथ लेकर उत्साह दिखायें जीने में ।
हम बेटी हम बहनें है
हम संगनी हम माता है,
धरा का प्रतिरूप भी हम है
जिस पर जीवन चलता ।
दृढ प्रतिज्ञा लेकर हमको
आगे राह बनानी है,
घर बाहर की जिम्मेदारियाँ
कन्धों पर सजानी है।
ध्यान रहे हमें सदा
न कोई घर टूटे न कोई दायित्व छूटे,
देष समाज की राहों में कहीं
अपने हमसे ना रूठे ।
कडवाहट को पीना है झुंझलाहट
दूर भगानी है,
उत्साह जोष के साथ
नई ज्योति जलानी है ।
माँ तुम कंहा छिपी गयी हो
माँ तुम कंहा हो ?
मुझे नजर क्यों नहीं आती,
मुझे स्पर्ष क्यों नहीं करती
हृदय से क्यों नहीं लगाती ?
मैं नादान हूँ तुम जानती हो न
मैं तुम्हंे तारों में खोजता हूँ,
पेड़ांे की सर सराहट में ढूँढता हूँ
झाड़ियों के झुरमुट में देखता हूँ ।
तुम्हारे विना मुझे कोई पास नहीं बुलाता माँ
अपने गले से भी नहीं लगाता
मेरे बालों में कोई उंगलियां नही फेरमा
ठंडे हाथों को कोई अपने बगल में नहीं दबाता
मेरी चोट आने पर किसी के आँषू भी नहीं बहते ।
मेरी षैतानियों से कोई मुस्कराता नहीं
बाँहे फैलाये कोई अपने पास भी बुलाता नहीं
मैं किसके कन्धों पर झूल कर मस्ती क
अंधेरी रातो में डर कर किसके सीने चिपट जाऊँ माँ।
कौन मेरे बैग को कन्धे से उतारेगा
गरम-गरम खाना अपने हाथों से खिलायेगा
पानी की गरम फुहारों के साथ कौन कुहनी रगड़ेगा माँ ।
ये सब तो यमराज भी जानते हैं ना
उनकी भी तो माँ होगी उन्हें भी तो उनकी याद आती होगी
तो फिर क्यों ? वह किसी बच्चे की माँ को उनसे दूर करता है माँ ।
मां तुम कहाँ हो ?
मुझे नजर क्यों नहीं आती ।
दोहरी भूमिका
मैं नहीं तुम नहीं
हजारों नारियों का समूह
चार दिवारी से वाहर निकली है,
किन्तु उस परिधि को लांघ कर नहीं
उसका द्वारकों खोल कर ।
खुली हवा में सुगन्ध भी है
किन्तु तुफान आने का भय भी,
नदियों की फुहारें भी है
किन्तु बाढ़ में खौफ भी
सूरज की किरणों की गरमाहट भी है
तप्ती धूप में झुलसने का डर भी ।
राहे लम्बी है गहरी खाइयाँ
पत्थरीली जमीन पर
कोमल पद से चलना सम्भव नही,
डोरियां बंधी है खूंटो से
एक नही, दो नहीं, अनेकों जिनका बंधना भी जरूरी है ।
डोर ढीली न पड़े,
जीवन का ताना-बाना बिगड़ जायेगा,
और डोरियों से बंधे हैं कई लोग
जिनके हम केन्द्र बिन्दु हैं
जिन्दगी के पैरासूट को ऊँचाईयों तक
ले जाना है अपनी उड़ान के साथ
औरों को भी बढ़ाना है ।
उड़ता हुआ ये अम्बर में सुन्दर
दिखा रहा है मन सेे हर पल
गिरने का भय भी बना है ।
षिक्षक, डॉक्टर, इन्जीनियर, यहाँ तक कि राश्ट्रपति,
न जाने कितनी उपलब्धियों से
संजोयी जायेगी हम सब,
किन्तु उन सब के मूल में बैठी होगी
एक बेटी, एक बहू, एक माँ
एक दादी, एक नानी ।
आधार बिन्दु बने हैं एक घर के लिए
दोहरी भूमिकाओं को निभाने का साहस करना है ।
कमर झुका कर नहीं सिर उठाकर चलना है ।
सम्भव है यह सब भी जब जोष, उतसाह,
कर्मठता,आषा,कर्तव्यनिश्ठता स्वस्थता
दृढता,धर्म,इमान हमारे साथी बन जायें
हमारे अस्त्र,षस्त्र बन कर ये
हमें षक्ति रूपा बना दें ।
आयेगा वो दिन सबके जीवन में
जिसकी उम्मीद संजोकर वह चलती है
गिरती है, संभलती है आगे बढ़ती है
अंधेरी रात बीतेगी
नई सुबहा आयेगी सूरज निकलेगा
ठंडी हवाओं के साथ ।
मुस्कान आयेगी हमारे चेहरे पर
मायूसी की नई कामयाबी की,
दोहरी भूमिका दुगुनी षक्ति भरेगी
जीवन में बहारे लौट आयेगी,
पायल की झनकार में विजय की ललकार होगी
चलो मायालें लेकर चले,
हमें अधिंयारा मिटाना है,
धरती मां में रोषनी के लिए
असख्यं दीपक जलाने हैं ।
गंगे सर्वतारिणी है
गर्व से कहो हम धर्म नगरी में रहते हैं
जंहा मन्दिरों की घंटियां अरुणिमा के द्वार खोलती है
जहां देव स्तुतियाँ हवा की तरंगों में उड़ती है
जहां गंगा जल से देव स्नान होता है
स्वर्ण सा प्रतीत होता है यह दृष्य ।
किन्तु दुखी कर देता है यहा, मंजर
जहां गंगा में सैकड़ो घरों का गन्दा पानी बहता है,
सारे षहर का कूड़ा गंगा में प्रवाहित होता है,
तब हम भूल जाते है यह गंगा जल मोक्ष दायीनी है
क्यों भूल जाते इससे हम पूजा अर्चना में देव स्नान कराते हैं ।
देव डोलियॉ सैकड़ो मील पैदल चलकर
गंगा स्नान के लिए आती है,
मृत्यु के द्वार पंहुचने वाले को भी
गंगाजल मोक्ष देने वाली है
विकट सघर्शों के बाद पाकिस्तान से भी
हिनदुओं के अस्थिकलश को भी गंगा जल का सानिध्य चाहिए ।
अखबरों के प्रथम पृश्ठ पर गंगा को
राश्ट्रीय नदी बनाने की खबर से हम गर्भित हुये
सरकार को धन्यवाद प्रस्ताव भी भेजा
घाटो का निर्माण भी हुआ
जब घाट बनाये गये उनकी तराई के लिए
नदी में जल नहीं था ।
घाट पर लगी सीमेन्ट दरकने लगी
लोहे की संगल पर जंक लग गया
ठेकेदार को चिन्ता अन्तिम भुगतान की है
घाट स्नान का नहीं मल विर्सजन का
स्थान बन गया कागजों में घाटों का निर्माण हुआ
खाते में सजने लगा गंगा नदी के सेवा में सर्मपण ।
पानी नही ंतो घाटों का निर्माण कयों ?
घर का विसर्जित पदार्थें के स्थान का पूजन क्यों ?
माँग करों तो गंगा में प्रवाहित कूड़े के,
स्थान के लिए नालियाँ केा बनाने के लिए
धार्मिक पर्वो पर ही सही, गंगा को स्वचन्द रूप में बहने के लिए ।
गंगा दर्षन से पहले व्यक्ति अपने अन्दर की आत्मा का
दर्षन करे अवलोकन करे बह क्या कर रहा है ।
अपनी श्रद्धा को कर्म रूप में समर्पित करें
स्वयं को अपषिश्ट पदार्थों को गंगा में न
विसर्जित करने की संकल्प लेकर
गंगा की लहरो से पवित्रता
का सन्देह लेकर चले
हम सभी जीवन की राहों में ।
कर्तव्य बोध
स्त्रियाँ आज भी खामेष है,
कर्तव्य बोध में,
प्रगति की राह में चल पड़ी है,
लाचारी आज है
नैनों के अष्क बहते भी हैं
किन्तु छुप – छुप के ।
जोष में कमी नहीं है
सबको जगाने का हुनर रखती है
खामोषी है, लाचारी की नहीं
कर्तव्य बोध की ।
हृदय का आक्रोष प्रज्वलित होता है,
कर्तव्य बोध की षीतलता, उसे
बुझा देती है, भावो की लहरों को
वह मन में दबा लेती है ।
मर्यादा परिवार की
मर्यादाओं में सहती है
कुंठाओं, के सागर में
आषाये संजोती है ।
अनेको कुण्ठाओं की
आषाये संजोयी है
छोटी – छोटी खुसियों से
उसकी षक्ति बनी उसकी षिक्षा,
और आत्म निर्भरता,
जिसके कारण वह खामोष है,
किन्तु अपने आत्म बल के
कायम रखकर ही बढती जाती है।
जीवन की राहों में से
कर्तव्य बोध है ।
घुटन
घुट एक मानसिक चुमन सी व्यथा की
जहर का घूंट जीवन के सफर का
ज्वार भाटा का निषा भावों के सागर में,
विडम्बना बन जाती है दायित्वों की महफिल में
निहत्था बना देती है संबन्धों को जोड़ कर,
बन्धनों को तोड़ने का दम, मुँह खोलना चाहता है
किन्तु दवाने की कोषिषे होती है घुटन बनाकर
दुविधा से द्वार बन्द हो जाते हैं
धैर्य का ताला लगा दिया जाता है
हृदय का बोझ
सह लिया जाता घुटन बना कर ।
घुटन की चादर हमारे लिए
जाल बन गई है उलझ गये हैं हम
महल बन कर,
घुटन की चुभन को हर कोई सह रहा है
नाव को फिर भी चला रहा है दायित्वों की ।
मस्तिक संन्तुलन कभी बिगड़ जायें तो
उससे पहले का घुटन की दीवार को तोड़ दे हम
सरलता सहजता से जिन्दगी डह न जायें
करीनेें से ईटें निकाली जाय घुटन की दीवार की
कि छत भी रह जाये किन्तु दीवारे भी बदल जाये ।
मौन
मौन बड़ा विचित्र षस्त्र है
सार्थकता के लिए भी निरर्थक्ता के लिए भी
किसी बात पर मौन हो जाना है
हमारा अस्तित्व मिटा देता है
प्राण युक्त होते हुये भी हम
प्राणहीन बना देता है ।
आज मौन रहने का महत्व बढ गया है
अभिव्यक्ति के कछुवे से
खरगोष बनकर आगे निकल गया है
अच्छाई का ऑचल ओड़कर
भेड़िये जैसे नानी बन गये हैं ।
मौन के प्रेमियों की संख्या बढ गयी है
स्वार्थ, डर, लालच, कर्महीनता, दुष्प्रवृतियाँ
बने इसके लिए लक्ष्मण रेखा खींचती है,
चक्षुओं से अगर देख लिया जाता है
वाणी उसे रोक देती है
जिह्वा थरा थरा कर हिलने की
कोषिषें बार-बार किया करती है
बतीस दरवान उसे पीछे ढकेल देते हैं ।
मौनता का राज कभी तो खुलेगा
अभिव्यक्ति का षासन दृढता से आयेगा
स्वछन्दता कर्तव्य निश्ठता की मसाल लिए
देष का हर व्यक्ति मौनता के अन्धकार को
मिटा देने का हुनर सीखेगा ।
अगर काया मन बन जाये
अगर काया भी मन बन जाये
दुनियां की हर खूब सूरती को देख आयें
हर कल्पना सच बन जायें
अगर काया मन बन जाये ।
दुख के घेरे से उड़कर कहीं
खुषियों की वादियों में घूम आये
कभी बुग्यालों में कभी फूलों की घाटियों में
से ऐवरेस्ट की बर्फिली चोटियों को
प्यार से चूम आयें
काष ये काया मन बन जाये ।
मस्त पवन झोंके को लेकर
धरती की हरियाली के साये में
सागर की लहरों पर होके सवार
अम्बर के कोने को छू जाये
अगर ये काया मन बन जाये ।
जिन्दगी में न रुकने का डर हो
दुर्बलता को न सहने का गम हो
चॉद चांदनी के संग करक,े
बसेरा तारों से भरी थाल देख आये,
अगर ये काया मन जैसी बन जाये ।
उत्साह साथी वन जाये
उमंग सभी मन में बस जाये
खुषियों भरकर के जीवन
ये काया मन वन जाये ।
मजदूरों का दर्द
विष्व, राश्ट,प्रान्त, षहर, ग्राम,
प्रगति की राह पर बढ़ चले है,
विकास का नारा जोर से
गूंज रहा है धरा में अम्बर में
जिसके हकदार पूरे देष के साथ
एक मजदूर है
जो चट्टानों को चूर-चूर कर
कठिन राह बनाते है ।
इमारतों को सजा-सजा के
खुद आसमान तले सोते है ।
कारतूसों के विस्फोटक को
हर पल सहकर
दृढता का जीवन जीते हैं
उनके लिए विकास क्या ? विनास क्या
सम भाव में सहते हैं
जीवन के हर कर्म में
उन्हें तो धरती अम्बर का ही सहारा है ।
बच्चे जन्म लेते पत्थरों में
रेत की ढेर में खेलते है सोते हैं
न कीटाणु का डर, न बिमारी का भय,
उनका न बीमा है मौत के वाद में की सुरक्षा
न मौम के पहले की सुरक्षा है ।
न सरकार से गिला है उन्हें न उम्मीद
तपती धूप हो या कंम्पकपाती षर्दी ।
कभी दफन हो जाते हैं खण्डहरों के बीच में
षरीर मिट्टी में मिल जाता है पंच तत्व बनकर
बजट का हर सत्र गुजर जाता है
उनके लिए एक रुपय भी नजर नहीं आती है
उनकी न कोई सरकार है न सरकार से पहचान
देष के विकास में षमिल अनजान बनकर ।
न जाने किस पत्थर पर मौत का फरमान हो
कोन सा मिट्टी का ढेर कब्र बन जाय
केवल खबर बन जायेगी मजदूर पहाड़ो में
दब कर मर गये खबर भी दफन हो जायेगी बेजान बनकर ।
सड़क से गुजरते हुये उनके चेहरों को झांक लो
जो हर पल मुस्कराते हैं बेजान बनकर
उड़ती धूल में धुमिल चेहरों पर
केवल चमक होती हे कर्मषीलता ही की ।
औरते भी पीठ पर बच्चे को बॉध कर
घन चला रही है मां बनने वाली छप्पले उठा रही हैं
उसको भी मातृत्व अवकाष दिला कर
हर वर्ग की नारी को समान करा दे
सरकार के करखानों के मालिक के द्वारा
बिमा कम्पिनियों के द्वारा
उनके लिए भी कोई पॉलिसी बनजाये
मौत से पहले मौत के बाद भी वो इन्सा कहलाये ।
कफन के लिए उसके परिवार वाले न तड़फे
बिमारी में वह काफी तलाष न करे
कुछ दिनों की छुट्टी उसे भी मिल जाये
इस घरा पर कुछ एक रुपता बन जाये
मजदूर भी प्रगति के युग में इन्सान बन जाये
हर इन्सान उनके लिए भी भगवान बन जाये ।
षायर
आज दुनियॉ की महफिले जो षख्स सजाते हैं
नजरों को जमी पे नहीं आसमा उठाते हैं
कोई बिजली गर कहीं कड़क जाती है
तो वही दुम दबा के कयों भगा जाते हैं ।
जिन्दगी का सफर आषां हम समझ बैठे थे
दुनियां में हम नाजुक अपने को कर बैठे थे
हमें क्या खबर कि पत्थरों से टकराना है मुझे
हम तो अपने को सुराई बनाये बैठे थे ।
कुछ लोग रावण बन गये हैं
चोला बनावटी पहन कर थक गये हैं
तार-तार कर दिया नकली चोले को अपने
हया के लिए आखों को अपने हाथों से ही है ।
दुनियां की तारीफों में मसगूल जी होने
जो षख्स तालियॉ बजाया करते थे तारीफो पर हमारी
वक्त विगड़ जाने पर वही से आ पत्थर भी मारा करते हैं ।
हमने जीवन के हर क्षण को उनके नाम कर दिया
बदले में उन्होने सारे जहॉ में हमे ही बदनाम कर दिया ।
हमारी हॅसी को सबने देखा
हमसे जीने का सबब सीखा है
गमो से मेरे पदी उठ गया तो
उनकी आषायें निराषा में जायेगी
इस लिए मैं खामोष रहा करते है ।
गुस्ताखियों को उन की मेहर वासियों से
सहती करती हूं ।
गढदेष
जिसमें सौंधी खुषबू है
मिट्टी के लिपे ऑगन की
चुल्हे पर बने गढवाली खाने की ।
खूब सूरत है वर्फ से ढकी पहाड़ियों की
मखमली बुग्याल की बुरॉस के फूलों की
वन में गाये बाजूबन्दों की षीतलता है ।
बॉझ के जड़ो के पानी की
सॉझ पड़े चलने वाली हवाओं की
षोरगुल सहित वातावरण की
परिश्रम से बहने वाले पसीने की
जोष और सम्पर्ण है
गढवीरों, का, विरांगनाओं का, श्रीदेव सुमन
चन्द्र सिंह गढवाली का गौरा देवी का माधों सिंह भण्डारी का ।
आज आवाष्यक्ता है
आग बढे हुये सपूतों की एक दृश्ठी की
गढ़वाल जन के जागरण की
प्राकृतिक धरोहर को संजोने की
आने वाली पीढ़ी के लिए सौगात की ।
मदिरा का दल-दल
मदिरा दल-दल बन गया है
समाज के लिए
डूब गये हैं जिसमें
घर बार सुख षान्ति ।
जो मंजर दिखाते हैं
विलखते बच्चों का
खनकते बर्तनों का
डूबती मान मर्यादओं का
पत्नी की लाचारी का
माता की खामोषी का ।
नश्ट कर देती है वो
बच्चों का बचपन
युवाओं की क्षमतायें
बुर्जुगों का अनुभव ।
बाकी रह जाती है
लड़खड़ाता बदन
झागड़ता परिवार
उखड़ता समाज
जूझता बचपन
दुर्घटनाओें का नजारा
विधवाओं के ऑचल
माँ की सूनी गोद
बाप के साये से रहित बचपन
षराब की दुकाने सरकार की रकम ।
मिटा सकता हैं इसको
नारियों का सामूहिक संघर्श
समाज द्वारा लगायें प्रतिबन्ध, मुन की दृढता
परिवार के प्रति कर्तव्यों की समझ
विवेक की लगाम लगाकर हृदय की षक्ति को जगाओं
इस बुराई को ही समाज से भगायें ।
इमारतों के बीच में भावो का खण्डर
इमारतों के बीच सीढियों के अन्तिम कतार में
बन्द कमरे में एक बूढी मां हर पल कोषिष करती
हवा में सांस लेने की कभी खिड़कियां खोलती है
नीचे जमीन में गाड़ियों की कतार देख कर मायूस हो जाती है
रिमोे उठाकर टीवि चैनल बदलती है प्यास बुझती नहीं है ।
दो बोल बोलने की, सुनने की मुख मिटती नहीं है हृदय के भावों की
लम्बे दिनरात के क्रम में घंटी बजती है । भावों के ज्वार के साथ
द्वार खुलता है ।
घर लौटता है कन्धों पर भारी बोझ लिए नन्हां बचपन नये जोष की
एक किरण घर में आती है स्थिर हो जाती है फिर विडियों गेम में चारों
ओर चक्कर काटती दादी दो बोल बोलने की चाह रखती है किन्तु
हुं हां की ध्वनि वापस कानों में आ जाती है ।
समय का पल बढता है द्वार खुलते है फिर से
घर की दुनियां से बेखबर सूने हृदय की आह की गूंज से अनविज्ञ
सूनापन मुस्कान रहित निराष भरे चेहरे
चाय के कप के साथ टी0वी0 को अपना बनाते हैं
प्यास दबा दी जाती है आंचल में षाम का षाया सुबह की धूप आती है
किन्तु बन्द कमरे में रहती है पुरानी यादे भविश्य की चिन्ताएं
निराषा हताषा सपने आते हैं आंगने में खेलते बचपन के
चाची बडी की गूंज की खुले आसमा में टिमटिमाते तारों की
हंसते हुये युवा त्योहारों की बहते हुये भावों के उस अपनत्व की ।
जो मिल सकता है अपनों से यन्त्रो को अपने बनाये बिना ही
कहीं भी कभी भी अपनों के द्वारा ही एक छोटे एहसास के साथ ।
मां का उपहार बेटी के लिए
उपहार देना है मां ने अपनी बेटी को,
जीवन की राह में चलने के लिए ।
क्योंकि
समय के साथ बहारे बदल गई है,
किन्तु राह आज भी वही है,
कठिनाईयां भरी ।
वृक्ष जैसा रूप बदलता है
फूल पत्तो से ।
जड़ को तो जमी में ही रहना है,
नदियां राह बदलती है,
दूरी तो वही है,
उदगम से सागर तक की ।
उसमें समझ पैदा करें,
दायित्वों को नि भाने की ।
अपने अस्तित्व बचाने की,
नई प्रेरणाओं के साथ
सोच जगानी है देना है उपहार,
आर्कशण का नहीं,
प्रभाव पूर्व अस्तित्व का
दायित्वों से हटने का नही,ं
कर्तव्य निश्ठ होने का ।
आज साथ है उसके षिक्षा,
कुछ करने का हुनर,
उसे नाजुकता,
अर्मयदाओं से दूर रखना है ।
जाना उसे भी वहीं है,
जहां से मां आयी है ।
उसे राह से भटकना नहीं है,
रखनी है परख उचित अनुचित की ।
सावधानी से मार्गदर्षिका बनना है,
एक बेटी के लिए माँ
को ममता को छांव बनकर ।।
ममता की प्रतिमूर्ति मां
जननी जन्म दात्री पालक-पोशक,
ममता की प्रतिमूर्ति ।
वात्सल्य रस छलकाने वाली,
मां की भूमिका इस धरा पर,
सबसे अनोखी ।
स्व रक्त से जो सिंचित करके,
नव अंकुर का प्रस्फूटन करती।
तन-मन की हर वेदना को,
खुषी-खुषी सहन कर जाती ।
सापनों की चादर में भी,
बच्चों के ही सपने चुनती ।
पल-पल अपने सर्म्पित करके,
गृहस्थ नैया को चलाती ।
कौड़ी-कौड़ी जोड़ के,
भूख-प्यास को भुलाकर ।
संसार के थपेड़ो से बचाकर,
अपने को आगे बढाती ।
अवला बनी अपनी भूमिका के लिए,
जीवन के जहर को सहज ही पी जाती ।
कभी चण्डिका कभी षेरनी,
अपने पाल्यों के लिए ही बन जाती।
बाल पन की बाल क्रियायें,
जननी के तन-मन को हरती ।
जीवन की षत-षत खुषियां,
अपनों पर न्योछावर करती ।
स्पर्ष भी सुखकर,
दृश्टी प्यार बरसाने वाली ।
गोद में अमृत का सागर,
हाथों में चन्दन की षीतलता ।
धरा के हर रिषले न्यारे,
मां का नाता सबसे प्यारा ।
निस्वार्थ भाव से हर कश्ट उठाती,
मां आंचल से प्यार बरसाती ।
मां से कभी दूर न जाओ
मां ने सब को अपनाया
हम सब भी मां को अपनायें ।
माँ का स्नेह
स्नेह अनमोल है माँ का,
सींचती है वह ।
खून के बूँदों से,
ममता के सागर से ।
पोशण करती है,
कश्टों को सहकर ।
जीवन की कठिन राह में,
अडिग रह कर ।
मिटा सका नहीं,
उम्र को कोई भी पड़ाव ।
माँ के वात्सल्य को,
जीवन की कोई आँधी ।
उड़ा नहीं पायी उसके,
आँचल की छाँव को ।
ममता की गागर में,
अमृत की धारा है माँ।
वह बनी षेरनी चण्डिका,
अपनी ममता के लिए ।
पषु पक्षी भी माँ के,
फर्ज को दर्षाते हैं ।
सड़कों के किनारे बैठकर,
अपने बच्चों को
सीने से लगाते हैं ।
दाना खिलाकर,
दूध पिला कर ।
दुनियांॅ के हर रिष्तों से,
सबसे अनोखी ही मां,
प्यारी है मॉं सबसे न्यारी है मॉं।
दुनियाँ के बच्चों,
अपने हृदय को छू लो ।
मां के उपकारों को,
कभी न भूलों ।
जीवन की ऊचाइयों,
में जाने से पहले,
प्यार से माँ कदमों के छू लो।