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सुधा अरोड़ा की रचनाएँ

अकेली औरत का रोना

ऐसी भी सुबह होती है एक दिन
जब अकेली औरत
फूट फूट कर रोना चाहती है
रोना एक गुबार की तरह,
गले में अटक जाता है
और वह सुबह सुबह
किशोरी अमोनकर का राग भैरवी लगा देती है
उस आलाप को अपने भीतर समोते
वह रुलाई को पीछे धकेलती है

अपने लिए गैस जलाती है
कि नाश्ते में कुछ अच्छा पका ले
शायद वह खाना आँखों के रास्ते
मन को ठंडक पहुँचाए
पर खाना हलक से नीचे
उतर जाता है
और जबान को पता भी नहीं चलता
कब पेट तक पहुँच जाता है
अब रुलाई का गुबार
अँतड़ियों में यहाँ वहाँ फँसता है
और आँखों के रास्ते
बाहर निकलने की सुरंग ढूँढ़ता है

अकेली औरत
अकेले सिनेमा देखने जाती है
और किसी दृश्य पर जब हॉल में हँसी गूँजती है
वह अपने वहाँ न होने पर शर्मिंदा हो जाती है
बगल की खाली कुर्सी में अपने को ढूँढ़ती है…
जैसे पानी की बोतल रखकर भूल गई हो
और वापस अपनी कुर्सी पर सिमट जाती है

अकेली औरत
किताब का बाईसवाँ पन्ना पढ़ती है
और भूल जाती है
कि पिछले इक्कीस पन्नों पर क्या पढ़ा था…
किताब बंद कर,
बगल में रखे दिमाग को उठाकर
अपने सिर पर टिका लेती है कसकर
और दोबारा पहले पन्ने से पढ़ना शुरु करती है…

अकेली औरत
खुले मैदान में भी खुलकर
साँस नहीं ले पाती
हरियाली के बीच ऑक्सीजन ढूँढ़ती है
फेफड़ों के रास्ते तक
एक खोखल महसूस करती है
जिसमें आवाजाही करती साँस
साँस जैसी नहीं लगती
मुँह से हवा भीतर खींचती है
अपने जिंदा होने के अहसास को
छू कर देखती है…

अकेली औरत
एकाएक
रुलाई का पिटारा
अपने सामने खोल देती है
सबकुछ तरतीब से बिखर जाने देती है
देर शाम तक जी भर कर रोती है
और महसूस करती है
कि साँसें एकाएक
सम पर आ गई हैं…

…और फिर एक दिन
अकेली औरत अकेली नहीं रह जाती
वह अपनी उँगली थाम लेती है
वह अपने साथ सिनेमा देखती है
पानी की बोतल बगल की सीट पर नहीं ढूँढ़ती
किताब के बाईसवें पन्ने से आगे चलती है
लंबी साँस को चमेली की खुशबू सा सूँघती है
अपनी मुस्कान को आँखों की कोरों तक
खिंचा पाती है
अपने लिए नई परिभाषा गढ़ती है
अकेलेपन को एकांत में ढालने का
सलीका सीखती है।

अकेली औरत का हँसना

अकेली औरत
खुद से खुद को छिपाती है।
होंठों के बीच कैद पड़ी हँसी को खींचकर
जबरन हँसती है
और हँसी बीच रास्ते ही टूट जाती है…

अकेली औरत का हँसना,
नहीं सुहाता लोगों को।
कितनी बेहया है यह औरत
सिर पर मर्द के साए के बिना भी
तपता नहीं सिर इसका…

मुँह फाड़कर हँसती
अकेली औरत
किसी को अच्छी नहीं लगती
जो खुलकर लुटाने आए थे हमदर्दी,
वापस सहेज लेते हैं उसे
कहीं और काम आएगी यह धरोहर!

वह अकेली औरत
कितनी खूबसूरत लगती है…
जब उसके चेहरे पर एक उजाड़ होता है

आँखें खोई खोई सी कुछ ढूँढ़ती हैं,
एक वाक्य भी जो बिना हकलाए बोल नहीं पातीं
बातें करते करते अचानक
बात का सिरा पकड़ में नहीं आता,
बार बार भूल जाती हैं – अभी अभी क्या कहा था
अकेली औरत
का चेहरा कितना भला लगता है…

जब उसके चेहरे पर ऐसा शून्य पसरा होता है
कि जो आपने कहा, उस तक पहुँचा ही नहीं।
आप उसे देखें तो लगे ही नहीं
कि साबुत खड़ी है वहाँ।
पूरी की पूरी आपके सामने खड़ी होती है
और आधी पौनी ही दिखती है।
बाकी का हिस्सा कहाँ किसे ढूँढ़ रहा है,
उसे खुद भी मालूम नहीं होता।
कितनी मासूम लगती है ऐसी औरत!
हँसी तो उसके चेहरे पर

थिगली सी चिपकी लगती है,
किसी गैरजरूरी चीज की तरह
हाथ लगाते ही चेहरे से झर जाती है…

उसका अपना आप

अकेली औरत
चेहरे पर मुस्कान की तरह
गले में पेंडेंट पहनती है
कानों में बुंदे
उँगली में अँगूठियाँ
और इन आभूषणों के साथ
अपने को लैस कर
बाहर निकलती है
जैसे अपना कवच साथ लेकर निकल रही हो

पर देखती है
कि उसके कान बुंदों में उलझ गए
उँगलियों ने अँगूठियों में अपने को
बंद कर लिया
गले ने कसकर नेकलेस को थाम लिया…

पर यह क्या…
सबसे जरूरी चीज तो वह
साथ लाना भूल ही गई
जिसे इन बुंदों, अँगूठियों और नेकलेस
से बहला नहीं पाई!
उसका अपना आप –
जिसे वह अलमारी के
किसी बंद दराज में ही छोड़ आई…

कम से कम एक दरवाजा

चाहे नक्काशीदार एंटीक दरवाजा हो
या लकड़ी के चिरे हुए फट्टों से बना
उस पर खूबसूरत हैंडल जड़ा हो
या लोहे का कुंडा

वह दरवाजा ऐसे घर का हो
जहाँ माँ बाप की रजामंदी के बगैर
अपने प्रेमी के साथ भागी हुई बेटी से
माता पिता कह सकें –
‘जानते हैं, तुमने गलत फैसला लिया
फिर भी हमारी यही दुआ है
खुश रहो उसके साथ
जिसे तुमने वरा है
यह मत भूलना
कभी यह फैसला भारी पड़े
और पाँव लौटने को मुड़ें
तो यह दरवाजा खुला है तुम्हारे लिए’

बेटियों को जब सारी दिशाएँ
बंद नजर आएँ
कम से कम एक दरवाजा हमेशा खुला रहे उनके लिए!

गिरे हुए फंदे

अलस्सुबह
अकेली औरत के कमरे में
कबूतरों और चिड़ियों
की आवाजें इधर उधर
उड़ रही हैं
आसमान से झरने लगी है रोशनी
आँख है कि खुल तो गई है
पर न खुली सी
कुछ भी देख नहीं पा रही
छत की सीलिंग पर
घूम रहा है पंखा
खुली आँखें ताक रही हैं सीलिंग
पर पंखा नहीं दिखता
उस अकेली औरत को
पंखे की उस घुमौरी की जगह
अटक कर बैठ गई हैं कुछ यादें!

पिछले सोलह सालों से
एक रूटीन हो गया है
यह दृश्य!
बेवजह लेटे ताका करती है
उन यादों को लपेट लपेट कर
उनके गोले बुनती है!
धागे बार बार उलझ जाते हैं
ओर छोर पकड़ में नहीं आता!

बार बार उठती है
पानी के घूँट हलक से
नीचे उतारती है!
सलाइयों में फंदे डालती है
और एक एक घर
करीने से बुनती है!

धागों के ताने बाने गूँथकर
बुना हुआ स्वेटर
अपने सामने फैलाती है!
देखती है भीगी आँखों से
आह! कुछ फंदे तो बीच रस्ते
गिर गए सलाइयों से
फिर उधेड़ डालती है!

सारे धागे उसके इर्द गिर्द
फैल जाते हैं!
चिड़ियों और कबूतरों की
आवाजों के बीच फड़फड़ाते हैं |

कल फिर से गोला बनाएगी
फिर बुनेगी
फिर उधेड़ेगी
नए सिरे से!
अकेली औरत!

जिन्हें वे सँजोकर रखना चाहती थीं

वे रह रह कर भूल जाती हैं
अभी अभी किसका फोन आया था
किसकी पढ़ी थी वह खूबसूरत सी कविता
कुछ अच्छी सी पंक्तियाँ थी
याद नहीं आ रहीं…

दस साल हो गए
अजीब सी बीमारी लगी है जान को
रोग की तरह… भूलने की
बस, कुछ भी तो याद नहीं रहता
सब भूल-भूल जाता है

वह फोन मिलाती हैं
एक क़रीबी मित्र से बात करने के लिए
और उधर से ‘हलो’ की आवाज आने तक में
भूल जाती हैं किसको फोन मिलाया था
वह शर्मिंदा होकर पूछती हैं,
‘बताएँगे, यह नंबर किसका है?’
‘पर फोन तो आपने किया है!’
सुनते ही वह घबराकर रिसीवर रख देती हैं

क्या हो गया है याददाश्त को
बार-बार बेमौके शर्मिंदा करती है!

किसी पुरानी फिल्म के गीत का मुखड़ा
इतराकर खिलते हुए फूल का नाम
नौ बजे वाले सीरियल की कहानी का
छूटा हुआ सिरा,
कुछ भी तो याद नहीं आता
और याद दिलाने की कोशिश करो
तो दिमाग की नसें टीसने लगती हैं
जैसे कहती हों, चैन से रहने दो,
मत छेड़ो, कुरेदो मत हमें!
बस, यूँ ही छोड़ दो जस का तस!
वर्ना नसों में दर्द उठ जाएगा
और फिर जीना हलकान कर देगा,
सुन्न कर देगा हर चलता फिरता अंग
साँस लेना कर देगा दूभर
याददाश्त का क्या है
वह तो अब दगाबाज दोस्त हो गई है
कूरियर में आया पत्रिका का ताजा अंक
दूधवाले से लिए खुदरा पैसे
कहाँ रख दिए, मिल नहीं रहे
चाभियाँ रखकर भूल जाती हैं
पगलाई सी ढूँढ़ती फिरती है घर भर में
एक पुरानी मित्र के प्यारे से खत का
जवाब देना था
जाने कहाँ कागजों में इधर उधर हो गया
सभी कुछ ध्वस्त है दिमाग में
जैसे रेशे रेशे तितर बितर हो गए हों…

नहीं भूलता तो सिर्फ यह कि
बीस साल पहले उस दिन
जब वह अपनी
शादी की बारहवीं सालगिरह पर
रजनीगंधा का गुलदस्ता लिए
उछाह भरी लौटी थीं
पति रात को कोरा चेहरा लिए
देर से घर आए थे
औरतें ही भला अपनी शादी की
सालगिरह क्यों नहीं भूल पातीं?

बेलौस ठहाके, छेड़छाड़, शरारत भरी चुहल,
सब बेशुमार दोस्तों के नाम,
उनके लिए तो बस बंद दराजों का साथ
और अंतहीन चुप्पी
और वे झूठ की कशीदाकारी वाली चादरें ओढ़े
करवटें बदलती रहतीं रात भर!

पति की जेब से निकले
प्रेमपत्रों की तो पूरी इबारतें
शब्द दर शब्द रटी पड़ी हैं उन्हें –
चश्मे के केस में रखी चाभी से
खुलती खुफिया संदूकची के ताले से निकली –
सूखी पत्तियों वाले खुरदरे रूमानी कागजों पर
मोतियों सी लिखावट में प्रेम से सराबोर
लिखी गई रसपगी शृंखला शब्दों की
जिन्हें उनके कान सुनना चाहते थे अपने लिए
और आँखें दूसरों के नाम पढ़ती रहीं जिंदगी भर!
सैंकड़ों पंक्तियाँ रस भीनी
उस ‘मीता’ के नाम
जिन्हें वह भूलना चाहती हैं
रोज सुबह झाड़ बुहार कर इत्मीनान से
कूड़ेदान में फेंक आती हैं –
पर वे हैं
कि कूड़ेदान से उचक उचक कर
फिर से उनके इर्द-गिर्द सज जाती हैं
जैसे उन्हें मुँह बिरा-बिरा कर चिढ़ा रही हों।

…और इस झाड़ बुहार में फिंक जाता है
बहुत सारा वह सब कुछ भी
याददाश्त से बाहर
जिन्हें वह सँजोकर रखना चाहती थीं,
और रख नहीं पाईं…

धूप तो कब की जा चुकी है

औरत पहचान ही नहीं पाती
अपना अकेला होना
घर का फर्श बुहारती है
खिड़की दरवाजे
झाड़न से चमकाती है
और उन दीवारों पर
लाड़ उँड़ेलती है
जिसे पकड़कर बेटे ने
पहला कदम रखना सीखा था।

औरत पहचान ही नहीं पाती
अपना अकेला होना
अरसे तक
अपने घर की
दीवारों पर लगी
खूँटियों पर टँगी रहती है।
फ्रेम में जड़ी तस्वीरें बदलती है
और निहारती है
उन बच्चों की तस्वीरों को
जो बड़े हो गए
और घर छोड़कर चले गए
और जिनके बच्चे अब
इस उम्र पर आ गए
पर औरत के जेहन में कैद
बच्चे कभी बड़े हुए ही नहीं
उसने उन्हें बड़ा होने ही नहीं दिया
अपने लिए…

औरत पहचान ही नहीं पातीं
अपना अकेला होना
सोफे और कुशन के कवर
बदरंग होने के बाद
उसे और लुभाते हैं
अच्छे दिनों की याद दिलाते हैं
घिस घिस कर फट जाते हैं
बदल देती है उन्हें
ऐसे रंगों से
जो बदरंग होने से पहले के
पुराने रंगों से मिलान खाते हों
और पहले वाला समय
उस सोफे पर पसरा बैठा हो…

औरत पहचान ही नहीं पाती
अपना अकेला होना
अब भी अचार और बड़ियाँ बनाती है
और उन पर फफूँद लगने तक
राह तकती है
परदेस जाने वाले किसी दोस्त रिश्तेदार की
जो उसके बच्चों तक उन्हें पहुँचा सके…

औरत पहचान ही नहीं पातीं
अपना अकेला होना
अब भी बाट जोहती है
टमाटर के सस्ते होने की
कि वह भर भर बोतलें सॉस बना सके
कच्ची केरी के मौसम में
मुरब्बे और चटनी जगह ढूँढ़ते हैं
बरामदे से धूप के
खिसकने के साथ साथ
मुँह पर कपड़े बँधे
मर्तबान घूमते हैं
बौराई सी
हर रोज मर्तबान का अचार हिलाती है
पर बच्चों तक पहुँचा नहीं पाती…

आखिर मुस्कान को काँख में दबाए
पड़ोसियों में अचार बाँट आती है
और अपने कद से डेढ़ इंच
ऊपर उठ जाती है!
अपनी पीठ पर
देख नहीं पाती
कि पड़ोसी उस पर तरस खाते से
सॉस की बोतल और
मुरब्बे अचार के नमूने
घर के किसी कोने में रख लेते हैं
कितना बड़ा अहसान करते हैं
उस पर कि वह अचार छोड़ जाए
और अपने अकेले न होने के
भरम की पोटली
बगल में दबा कर साथ ले जाए
फिर एक दिन जब
हाथ पाँव नहीं चलते
मुँह से बुदबुदाहटें बाहर आती हैं
ध्यान से सुनो
तो यही कह रही होती है
अरी रुक तो! जरा सुन!
धूप उस ओर सरक गई है
जरा मर्तबान का मुँह धूप की ओर तो करना
नहीं जानती
कि धूप तो कब की जा चुकी है
अब तो दूज का चाँद भी ढलने को है…

भरवाँ भिंडी और करेले

अकेली औरत
पीछे लौटती है
बीसियों साल पहले के मौसम में
जब वह अकेली नही थी
सुबह से फिरकनी की तरह
घर में घूमने लगती थी
इसके लिए जूस
उसके लिए शहद नीबू
पलँग पर पड़ी बीमार सास
तिपाई पर रखी उसकी दवाइयाँ
साहब के कपड़े
बच्चों के यूनीफॉर्म
उसके चेहरे पर जितनी भी शिकन आए
साहब और बच्चों के कपड़ों पर
कोई शिकन नहीं रहनी चाहिए

हर पल रहती चाक चौबंद
दोपहर का सेहतमंद खाना
सबको समय पर
इसके लिए भरवाँ भिंडी
उसके लिए बैगन का भुरता
एक दाल सादी सी…
पराँठे के साथ खुश्क चपाती भी
घर क्या किसी होटल से कम है
जितने सदस्य
उतनी तरह का खाना…
और वह खुशी से फूल उठती
उसका घर है कि खुशियों का खजाना

लेकिन समय तो समय है
हर दिन बदलता है
इनसान ठहरा रह जाए
समय कहाँ ठहरता है…

बीमार सास अपना चोला उतार गई
अपनी मंजी खाली कर गईं
साहब का ओहदा बढ़ा
नौकरी पर लगे बच्चे
उसके लिए रह गईं
बस वे दीवारें
जिनके पलस्तर थे कच्चे

और दीवारों पर टंगे कैलेंडर
कैलेंडर पर बैठी तारीखें
तारीखों के बीच जमी बैठी वह!
दस को आएँगे साहब
कल ही तो गए हैं…
अब नौ दिन रह गए
अब आठ
अब सात
अब दो दिन
अब एक…
साहब के लौटने की तैयारी में
घर ‘घर’ जैसा हो जाता
खूबसूरत गुलदस्तों में…
फूल महकने लगते
तहाकर रखा गया गलीचा
फर्श पर बिछकर निखर आता
कागज करीने से रखे जाते
लाल गोले से घिरी तारीख को
अँधेरे में एक रोशनी की तरह
पास आते देखते
दस दिन जैसे तैसे कट जाते…

एक दिन लौटे साहब
किया ऐलान
अब उनके साथ है –
एक बीस साल छोटी औरत
अब जाकर उन्हें
‘कंपैटिबिलिटी’ की हुई पहचान!
वह फटी आँखों से ताकती रह गई
तो वह फट पड़े –
उन्हें ‘साथ’ चाहिए था
एक जोड़ी हाथ नहीं
जो बस सारा समय
शर्ट और टाई समेटे
बनाए भरवाँ भिंडी और करेले
वह कैसे मुकाबला करती

इस बीस साल छोटे नए मेहमान का
अब उसने समझा और जाना
आखिर इतने साल बाद
अपने को अब पहचाना!
जिसे अपनी जिंदगी भर की कमाई
अपनी धरोहर समझती आई थी
वह तो कब की
हाथ से फिसल चुकी थी
उसकी जान तो अब तक
करेले और भिंडी में ही बसती थी
जो अब फ्रिज के निचले शेल्फ में
पड़े पड़े सूख जाती हैं
और आखिर डस्टबिन के काम आती हैं
इस बीच बीते कई साल
वह सब्जियों को आते
और सूखते देखती रही
सब्जियाँ अड़ियल थीं या वह
पर हलक से नीचे उतरने से
सब्जियाँ इनकार करती रहीं

अब वह औरत
आधी सदी पहले के मौसम में
और पीछे लौटती है
जब वह अकेली थी
पर उसके साथ थे
छोटे और बड़े कैनवस
रंग और कूची!

रचती थी वह –
चहचहाते पक्षी
उगता और ढलता सूरज
हरे भरे पेड़ पौधे और फूल गुलाबी
हरहराता समंदर और
पछाड़ खातीं लहरें
नीला आसमान और चमकते तारे
इन पचास सालों में
सारे के सारे
कहीं खो गए थे बेचारे!

सूख कर अकड़ गए थे
कूची के रेशे
और कैनवास का
कपड़ा गया था तड़क!

उसने हार नहीं मानी
अपनी उँगलियों को फिर से
थमाई कूची
पर उँगलियाँ नहीं आँक पाईं
हरे भरे पेड़ पौधे और फूल गुलाबी
हरहराता समंदर और
पछाड़ खातीं लहरें
नीला आसमान और चमकते तारे
अब उँगलियों ने
कैनवस पर आँके
दिमाग में उठते
अंधड़ के रेले
उतने ही प्यार से
जितने प्यार से बनाती थीं वे
भरवाँ भिंडी और करेले!

उन आड़ी तिरछी लकीरों को
उस अंधड़ को
सिर में उठते बवंडर को
अपनी कैद से आजाद कर
पहले कैनवास पर बिखेरा…
फिर गैलरी की दीवारों पर
घेर ली उसने आधी दुनिया
और पूरा आसमान
उसकी उँगलियों की करामात
पहुँची पेरिस, पहुँची जापान!
सराहना से अँटे अखबार
लद फँद गई मेडल और ट्रॉफियों से
कमरे के रैक में भर गए
पुरस्कार और सम्मान

दिन में टी वी चैनलों को
इंटरव्यू देती वह अकेली औरत …
सफलताओं के छपे सतरंगी टुकड़ों के साथ
अपने को अकेला छोड़कर
चुपचाप उठती है…
रात को अब भी आहिस्ता से
फ्रिज खोलती है और
अपनी आँख बचाकर
सूखते भिंडी और करेलों को
हसरत से ताकती है…

यहीं कहीं था घर

ज्यादातर घर
ईंट गारे से बनी दीवारों के मकान होते हैं
घर नहीं होते…

जड़ों समेत उखड़कर
अपना घर छोड़कर आती है लड़की
रोपती है अपने पाँव
एक दूसरे आँगन की खुरदुरी मिट्टी में
खुद ही देती है उसे हवा-पानी, खाद-खुराक
कि पाँव जमे रहें मिट्टी पर
जहाँ रचने-बसने के लिए
टोरा गया था उसे!

एक दिन
वहाँ से भी फेंक दी जाती है
कारण की जरूरत नहीं होती
किसी बहाने की भी नहीं
कोई नहीं उठाता सवाल
कोई हाथ दो बित्ता आगे नहीं बढ़ता
उसे थामने के लिए…

वह लौटती है पुराने घर
जहाँ से उखड़कर आई थी
देखती है – उखड़ी हुई जगह भर दी गई है
कहीं कोई निशान नहीं बचा
उसके उखड़ने का…
फिर से लौटती है वहीं
जहाँ से निकाल दी गई थी बेवजह
ढूँढ़ नहीं पाती वह जगह,
वह मिट्टी, वह नमी, वह खाद खुराक!

ताउम्र ढूँढ़ती फिरती है
ईंट गारे की दीवारों के बीच
यहीं कहीं था घर…

राखी बाँधकर लौटती हुई बहन

रेलगाड़ी के चलते ही
फूल बूटे वाले सुनहरे पारदर्शी
पेपर में लिपटा तोहफा
खोलती है मायके से लौटती बहन
अंदर है जरी की पट्टीदार रेशमी साड़ी
जिस पर अपनी कमजोर उँगलियाँ फिराते हुए
इतरा रही है
साड़ी की फीरोजी रंगत
नम आँखों में तिर रही है
राखी बाँधकर बहन
दिल्ली से लौट रही है
अपने शहर सहारनपुर!

कितना मान सम्मान देते हैं उसे
कह रहे थे रुकने को
नहीं रुकी
इतने बरसों बाद
जाने क्यों पैबंद सा लगता है अपना आप वहाँ!
इसी आलीशान कोठी में बीता है बचपन
साँप सीढ़ी के खेल में हारती थी वह
हर बार जीतता था भाई
और भाई को फुदकते देख
अपनी हार पर भी जश्न मनाती
उसके गालों पर चिकोटियाँ काटती
रूठने का अभिनय करती!

इसी कोठी की देहरी से
अपने माल असबाब के साथ
विदा हुई एक दिन
भाई बिलख बिलख कर रोया

इसी कोठी के सबसे बड़े कमरे में
पिता को अचानक दिल का दौरा पड़ा
और माँ बेचारी सी
अपने लहीम शहीम पति को जाते देखती रही

पिता नहीं लिख पाए अपनी वसीयत
नहीं देख पाए
कि दामाद भी उसी साल हादसे का शिकार हो गया
और बेटी अकेली रह गई

इसी भाई ने की दौड़ धूप
बैठाए वकील
दिलाई एक छत
जहाँ काट सके अपने बचे खुचे दिन
पर छत के नीचे रहने वाले का पेट भी होता है
यह न भाई को याद रहा न उसे खुद

माँ ने कहा –
इस कोठी में एक हिस्सा तेरा भी है
तू उस हिस्से में रह लेना
भाई ने आँखें तरेरीं
भाभी ने मुँह सिकोड़ लिया

वकील ने इधर नोटिस के कागज तैयार किए
और खबर उधर तैरती जा पहुँची
बस, उस एक साल भाई ने
न अपनी बेटी की शादी पर बुलाया
न राखी पर आने की इजाजत दी

उसने न माँ की सुनीं
न वकील की!
साँप सीढ़ी का खेल
नहीं खेलना उसे भाई के साथ
और नोटिस के चार टुकड़े
पानी में बहा दिए
तब से वहीं है
अपने शहर सहारनपुर!
उसने कहा – नहीं चाहिए मुझे खैरात
मैं जहाँ हूँ, वहीं भली!
अपने रोटी पानी के जुगाड़ में
बच्चों के स्कूल में अपने पैर जमा लिए!

अब तो वह अपना एक कमरा भी कोठी सा लगता है
बच्चे खिलखिलाते आते-जाते हैं
कॉपी किताबें छोड़ जाते हैं
जिन्हें सहेजने में दिन निकल जाता है

भाई ने अगले साल राखी पर आने का न्यौता दिया
बच्चे याद करते है बुआ को
और अब हर साल बड़े चाव से जाती है
उसके बच्चों के लिए
अपनी औकात भर उपहार लेकर
जितना ले जाती है
उससे कहीं ज्यादा वे उसकी झोली में भर देते हैं!

अब यह सिल्क की साड़ी ही
तीन चार हजार से कम तो क्या होगी
वह एहतियात से तह लगा देती है
अपनी दूसरी भतीजी की शादी में यही पहनेगी

कितना अच्छा है राखी का त्यौहार
कोठी के एक हिस्से से क्या वह सुख मिलता
जो मिलता है भाई की कलाई पर राखी बाँधकर?
मायके का दरवाजा खुला रहने का अर्थ
क्या होता है यह बात सिर्फ वह बहन जानती है
जो उम्र के इस पड़ाव पर भी इतनी भोली है
कि चुका कर इसकी बहुत बड़ी
कीमत अपने को बड़ा मानती है!

शतरंज के मोहरे

सबसे सफल
वह अकेली औरत है
जो अकेली कभी हुई ही नहीं
फिर भी अकेली कहलाती है…

अकेले होने के छत्र तले
पनप रही है
नई सदी में यह नई जमात –
जो सन्नाटे का संगीत नहीं सुनती
सलाइयों में यादों के फंदे नहीं बुनती
करेले और भिंडी में नहीं उलझती
अपने को बंद दराज में नहीं छोड़ती
अपने सारे चेहरे साथ लिए चलती है
कौन जाने, कब किसकी जरूरत पड़ जाए

अकेलेपन की ढाल थामे
इठलाती इतराती
टेढ़ी मुस्कान बिखेरती चलती है
अपनी शतरंज पर
पिटे हुए मोहरों से खेलती है
एक एक का शिकार करती
उठापटक करती
उन्हें ध्वस्त होते देखती है

उसकी शतरंज का खेल है न्यारा
राजा धुना जाता है
और जीतता है प्यादा
उसकी उँगलियों पर धागे बँधे हैं
हर उँगली पर है एक चेहरा
एक से एक नायाब
एक से एक शानदार!
उसके इंगित पर मोहित है –
वह पूरी की पूरी जमात
जिसने
अपने अपने घर की औरत की
छीनी थी कायनात

उन सारे महापुरुषों को
अपने ठेंगे पर रखती
एक विजेता की मुस्कान के साथ
सड़क के दोनों किनारों पर
फेंकती चलती है वह औरत
यह अहसास करवाए बिना
कि वे फेंके जा रहे हैं
उन्हें बिलबिलाते रिरियाते
देखती है
और बाईं भ्रू को तिरछा कर
आगे बढ़ लेती है
और वे ही उसे सिर माथे बिठाते हैं
जिन्हें वह कुचलती चलती है

इक्कीसवीं सदी की यह औरत
हाड़ मांस की नहीं रह जाती
इस्पात में ढल जाती है
और समाज का
सदियों पुराना
शोषण का इतिहास बदल डालती है

रौंदती है उन्हें
जिनकी बपौती थी इस खेल पर
उन्हें लट्टू सा हथेली पर घुमाती है
और जमीन पर चक्कर खाता छोड़
बंद होंठों से तिरछा मुस्काती है

तुर्रा यह कि फिर भी
अकेली औरत की कलगी
अपने सिर माथे सजाए
अकेले होने का
अपना ओहदा
बरकरार रखती है

बाजार के साथ
बाजार बनती
यह सबसे सफल औरत है!

सन्नाटे का संगीत

अकेली औरत
नींद को पुचकारती है
दुलारती है
पास बुलाती है
पर नींद है कि रूठे बच्चे की तरह
उसे मुँह बिराती हुई
उससे दूर भागती है

अपने को फुसलाती है
सन्नाटे को निहोरती है
देख तो –
कितना खुशनुमा सन्नाटा है
कम से कम
खर्राटों की आवाज से तो बेहतर है

लेकिन नहीं…
जब खर्राटे थे
तो चुप्पी की चाहत थी
अब सन्नाटा कानों को
खर्राटों से ज्यादा खलता है |
सन्नाटे में
सन्नाटे का संगीत सुनना चाहती है
अकेली औरत
पर आलाप को
कुछ ज्यादा ही लंबा खिंचते देख
उसकी अनझपी पलकें
खिड़की से बाहर
आसमान तक की दूरी तय करती हैं
और सितारों के मंडल में
अपने लिए एक सवाल खोज लेती है
जिसका जवाब ढूँढ़ते ढूँढ़ते
चाँद ढलान पर चला जाता है

सुबह का सूरज जब
आसमान के कोने से झाँकने की
कोशिश कर रहा होता है
अकेली औरत की बोझिल पलकें
आसमान पर लाली बिखरने से पहले
मुँदने लगती हैं

रोज की तरह
वह देर सुबह उठेगी
रोज की तरह
अपने को कोसेगी
कि आज भी उगता सूरज देख नहीं पाई…

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