रक्त झर-झर..
बन्द होगा बन्द होगा
अभी बन्द होगा रक्त रिसना
बन्द होगा बन्द होगा
अभी बन्द होगा क़लम घिसना
…इस उम्मीद में
अभी तो टपक ही रहे हैं
टपकते ही जा रहे हैं
आत्मा के प्राचीन घाव
जो मुझे याद नहीं
समय की फ़र्राटेदार सड़क पर
किस दुर्घटना से मिले थे
टीस नहीं रहे इस क्षण
केवल टपक रहे हैं
निचुड़ रहा है रक्त
देह और आत्मा का
आ रही है कविता झर-झर…
रचनाकाल : जनवरी 1999, नई दिल्ली
डस्ट-बिन
फिर से होगी उल्टी
अभी कसर है
-ऐसा लगता है कभी-कभी
एक कविता लिखने के बाद
एक कविता और दूसरी कविता
लिखने के बीच
बड़ी उबकाऊ उपमाएँ
बड़े नीच बिम्ब
बड़े जुगुप्सक पद-अर्थ
पेट की मरोड़ या बलग़म के चक्रवात की तरह
उठते हैं
कहीं बहुत भीतर से
कविताओं का यह पुलिन्दा
सड़ांधता हुआ ‘डस्ट-बिन’ है
मेरा
और
मेरे युग का…
रचनाकाल : 1999, नई दिल्ली
जैसे चाँद पर से दिखती धरती
ऐसे दिख रही है ज़िन्दगी
कविता में
जैसे चाँद पर से
दिखती धरती
हेलीकॉप्टर से दिखती
चढ़ी हुई नदी और बाढ़
उतनी दूर नहीं
पर जितनी साफ़ उजली बेपर्द
बिल्कुल नंगी उद्विग्न
साबुत और तार-तार
घुटनों तक धँसी आत्मा
लिथड़ी है कीचड़ में
चाँद पर सुनाई पड़ रही
धरती की चीख़-पुकार…
रचनाकाल : 1999, नई दिल्ली
तुम्हारी याद
कभी फुहार
कभी बूँदाबाँदी
कभी मूसलाधार
आती ही रहती है
बिना रुके लगातार…
अथाह घाटियों से उठती घटाएँ
भिगोती रहती हैं मन की पगडंडियाँ
निकलती रहती हैं मेरे बीचोबीच
गड़गड़ाती है कौंधती है
बिजली-सी
शिरा-शिरा चौंधती है
तैरता रहता है आत्मा में अनहद नाद
हरी कोंपल की तरह
कोमल रखती है मुझे
पहाड़ी बारिश-सी तुम्हारी याद…
रचनाकाल : मार्च 1993, शिमला
समय का चेहरा
कुत्ते को घास खाते
गाय को हड्डी चबाते
देखा मैंने
आज शाम
कूड़ाघर के पास
भूख के सिर बंधेगा परिवर्तन का सेहरा
कैसा-कैसा होता जा रहा
समय का चेहरा…
रचनाकाल : 14 जून 1993, नई दिल्ली
हफ़्ता
पहला पहले ही भरा बैठा था सुस्ती से
उसने दूसरे को हुक़्म दिया
दूसरे ने टाल दिया तीसरे पर
तीसरे ने चाहा चौथे को दुखी करना
चौथा अकड़ा- मैं ही क्यों
पाँचवे पर छोड़कर निकल गया चाय पीने
पाँचवा जल्दी जाने के चक्कर में था
अँगूठा दिखा गया काम को
यूँ पूरे हुए पाँच सरकारी दिन
देश को उंगल करते हुए
केवल निजी काम निकाले लोगों ने
हफ़्ते के सातों दिन…
रचनाकाल : 1999, नई दिल्ली
घर में कई कमरे
घर में कई कमरे
कई कमरों में कई-कई अलमारियाँ
कई-कई अलमारियों में कई-कई ख़ाने
कई-कई ख़ानों में कई-कई चीज़ें (बेतरतीब)
कई-कई चीज़ों बीच कई-कई डायरियाँ (नई-पुरानी)
कई-कई डायरियों बीच कई-कई लिफ़ाफ़े (रंग-बिरंगे)
कई-कई लिफ़ाफ़ों में कई-कई छोटी डायरियाँ
कई छोटी-छोटी डायरियों में कई-कई पन्ने
किसी पन्ने के आख़िर-सी में
कोड-भाषा में लिखी एकाध डरी हुई पंक्ति
कितने गहरे गाड़कर रखते हैं लोग छुपाकर
अपनी असली ज़िन्दगी, असली बात
असली कहानी, असली कविता
ख़ुद खोजना चाहें तो भी न मिले…
रचनाकाल : 1999, नई दिल्ली
सपने : बातें
न डायरी लिखता हूँ आजकल
न पत्र मित्रों को
लिखने से डरता हूँ
कहने की फ़ुर्सत कहाँ ?
उखड़ी-उखड़ी आती है नींद
रात-भर ख़ुद से बतियाती हुई
सपनों में दूसरों से बतियाता हूँ ख़ूब
जिसको चाहे लतियाता हूँ ख़ूब
अनचाहे कभी-कभी पिट जाता हूँ
किसी बड़े बातूनी के हाथों
अनलिखी डायरियाँ
अनलिखे पत्र
हमारे सपने-
वे बातें हैं
जो हम किसी से नहीं कर पाते…
रचनाकाल : 1999, नई दिल्ली
बात
जो बात उसने कही वहाँ
काटता रहा उसे मैं तर्क की तीखी आरियों से
पूरी सभा में
वही हरी-भरी बात मैंने कही कहीं दूसरी जगह
जगह बदलकर
वह मारता रहा कुल्हाड़े रस-भरे तने पर
जगह बदलते ही बदल जाती है बात
जिसे कहते या काटते हैं हम
आरी-कुल्हाड़े चलाते
हम यानी असल में
अपने-आप पर दे रहे होते हैंज़ोर
बात पर नहीं…
रचनाकाल : 1999, नई दिल्ली
कर्ज़
किसान पर चढ़ा हो
या भारत सरकार पर
कर्ज़ कर्ज़ है
महाजन महाजन
चुपचाप चौकन्ने रहें
सक्रिय रहें हम
उतारें
इस ज़हर को…
रचनाकाल : 1999, नई दिल्ली
शक्तिशाली है जल
बहुत भारी हैं
बहुत शक्तिशाली हैं
सोई पड़ी चट्टानें
और भी शक्तिशाली है
प्रवहमान जल
इन चट्टानों को तोड़कर
धीरे-धीरे अपना रास्ता बनाता हुआ…
रचनाकाल : जून 1993, नई दिल्ली