कविता संग्रह
भूमिकाएँ खत्म नहीं होतीं
एक दिन में
दन्त्य ‘स’ को दाँतों का सहारा
जितने सघन होते दाँत
उतना ही साफ़ उच्चरित होगा ‘स’
दाँत छितरे हो तो सीटी बजाने लगेगा
पहले पहल
किसी सघन दाँतों वाले मुख से ही फूटा होगा ‘स’
पर ज़रूरी नहीं
उसी ने दाख़िला भी दिलवाया हो वर्णमाला में ‘स’ को
सबसे अधिक चबाने वाला
ज़रूरी नहीं, सबसे अधिक सोटने वाला भी हो
यह भी हो सकता है
असमय दन्तविहीन हो गये
या आड़े-तिरछे दाँतों वाले ने ही दिया हो वर्णमाला को ‘स’
अभाव न ही दिया हो भाव
क्या पता किसी काट ली गयी जुबान ने दिया हो ‘ल’
अचूमे होठों ने दिया हो ‘प’
प्यासे कण्ठ ने दिया हो ‘क’
क्या पता अभवों के व्योंम से ही बनी हों
सारी भाषाओं की वर्णमालाएँ
और एक दिन में ही नहीं बन होगी कोई भी वर्णमाला…
ध्वनि शुरू हो इस यात्रा में
वर्णमाला तक
आये होगें कितने पड़ाव
कितना समय लगा होगा
कितने लोग लगे होगें !
दिये होंगे कुछ शब्द जंगलों ने कुछ घाटियों ने
कुछ बहाव ने दिये होंगे कुछ बाँधों ने
कुछ भीड़ के एकान्त ने दिये होंगे
कुछ धूप में खड़े पेड़ों की छाँव ने
कुछ आये होंगे अपने ही अन्तरतम से
और कुछ सूखे कुओं की तलहटी से
कुछ पैदाइशी किलकारी ने दिये होंगे
कुछ मरणान्तक पीड़ा ने
सुनी गयी होंगी ये सारी ध्वनियाँ सारी आवाज़ें
सुनने वाला ही तो बोला करता है
पहली बार बोलने से पूर्व
जाने कितने दिनों तक
कितने लोगों को सुनता है एक बच्चा
जाने कितने लोग रहे होगें
कितने दिनों तक
शब्दों को सुनने ही से वंचित
न सुनने ने भी दिये होगें कितने-कितने शब्द
एक दिन में नहीं बन गये अक्षर
एक दिन में नहीं बन गयी वर्णमाला
एक दिन में नहीं बन गयी भाषा
एक दिन में नहीं बन गयी पुस्तक
लेकिन
एक दिन में नष्ट किया जा सकता है कोई भी पुस्तकालय
अख़बार पढ़ते हुए
ट्रक के नीचे आ गया एक आदमी
वह अपने बायें चल रहा था
एक लटका पाया गया कमरे के पंखे पर होटल में
वह कहीं बाहर से आया था
एक नहीं रहा बिजली का नंगा तार छू जाने से
एक औरत नहीं रही अपने खेत में अपने को बचाते हुए
एक नहीं रहा डकैतों से अपना घर बचाते हुए
ये कल की तारीख़ में लोगों के मारे जाने के समाचार नहीं
कल की तारीख़ में मेरे बच कर निकल जाने के समाचार हैं
पानी
देह अपना समय लेती ही है
निपटाने वाले चाहे जितनी जल्दी में हों
भीतर का पानी लड़ रहा है बाहरी आग से
घी जौ चन्दन आदि साथ दे रहे हैं आग का
पानी देह का साथ दे रहा है
यह वही पानी था जो अँजुरी में रखते ही
ख़ुद-ब-ख़ुद छिर जाता था बूँद-बूँद
यह देह की दीर्घ संगत का आन्तरिक सखा भाव था
जो देर तक लड़ रहा था देह के पक्ष में
बाहर नदियाँ हैं भीतर लहू है
लेकिन केवल ढलान की तरफ भागता हुआ नहीं
बाहर समुद्र है नमकीन
भीतर आँखें हैं
जहाँ गिरती नहीं नदियाँ, जहाँ से निकलती हैं
अलग-अलग रूपाकारों में दौड़ रहा है पानी
बाहर लाल-लाल सेब झूम रहे हैं बगीचों में
गुलाब खिले हुए हैं
कोपलों की खेपें फूटी हुई हैं
वसन्त दिख रहा है पूरमपूर
जो नहीं दिख रहा इन सबके पीछे का
जड़ से शिराओं तक फैला हुआ है भीतर ही भीतर
उसी में बह रहे हैं रंग रूप स्वाद आकार
उसके न होने का मतलब ही
पतझड़ है
रेगिस्तान है
उसी को सबसे किफ़ायती ढंग से बरतने का नाम हो सकता है
व़ुजू
बुद्ध मुस्कराये हैं
लाल इमली कहते ही इमली नहीं कौंधी दिमाग़ में
जीभ में पानी नहीं आया
‘यंग इण्डिया’ कहने पर हिन्दुस्तान का बिम्ब नहीं बना
जैसे महासागर कहने पर सागर उभरता है आँखों में
जैसे स्नेहलता में जुड़ा है स्नेह और हिमाचल में हिम
कम से कमतर होता जा रहा है ऐसा
इतने निरपेक्ष विपर्यस्त और विद्रूप कभी नहीं थे हमारे बिम्ब
कि पृथिवी पर हो सबसे संहारक पल का रिहर्सल
और कहा जाए
बुद्ध मुस्कराये हैं
बैठक का कमरा
चली आ रही हैं गर्म-गर्म चाय भीतर से
लज़ीज़ खाना चला आ रहा है भाप उठाता
धुल के चली आ रही हैं चादरें परदे
पेंण्टिग पूरी होकर चली आ रही है
सँवर के आ रही है लड़की
जा रहे हैं भीतर जूठे प्याले और बर्तन
गन्दी चादरें जा रही हैं परदे जा रहे हैं
मुँह लटकाये लड़की जा रही है
पढ़ लिया गया अख़बार भी
खिला हुआ है कमल-सा बाहर का कमरा
अपने भीतर के कमरों की क़ीमत पर ही खिलता है कोई
बैठक का कमरा
साफ़-सुथरा सम्भ्रान्त
जिसे रोना है भीतर जा के रोये
जिसे हँसने की तमीज नहीं वो भी जाए भीतर
जो आये बाहर आँसू पोंछ के आए
हँसी दबा के
अदब से
जिसे छींकना है वहीं जाए भीतर
खाँसी वहीं जुकाम वहीं
हँसी-ठट्ठा मारपीट वहीं
वहीं जलेगा भात
बूढ़ी चारपाई के पायों को पकड़ कर वहीं रोएगा पूरा घर
वहीं से आएगी गगनभेदी किलकारी और सठोरों की ख़ुशबू
अभी-अभी ये आया गेहूँ का बोरा भी सीधे जाएगा भीतर
स्कूल से लौटा ये लड़का भी भीतर ही जा कर आसमान
सिर पर उठाएगा
निष्प्राण मुस्कुराहट लिये अपनी जगह बैठा रहेगा
बाहर का कमरा
जो भी जाएगा घर से बाहर कभी, कहीं
भीतर का कमरा साथ-साथ जाएगा
ले देकर एक
कोई नहीं बच पाया इस असाध्य रोग से कहा उसने
वो नहीं बचा इलाहाबाद का और लखनऊ का वो
और वो तो दिल्ली जा कर भी नहीं बच पाया
और तो और मन्त्रीजी नहीं बच पाये लन्दन जाकर
उसने दस-बारह ऐसे और रोगियों के नाम लिये
फिर रोगी की ओर निराशा से देख कर धीमे से कहा
-बच नहीं पाएगा ये
दस-बारह क्या सैकड़ों रोगी थे उस असाध्य रोग के और
जो बच नहीं पाये थे
लेकिन पास ही खड़े उनके मित्र को याद नहीं आये वे सब
उसने कहा बनारस में हैं मेरे एक घनिष्ठ
जो पीड़ित थे इसी असाध्य रोग से
बहुत ही बुरी दशा थी उनकी
वे ठीक हो गये बिल्कुल और दस साल से ठीक-ठाक हैं
उसने रोगी की ओर देख कर कहा
-ये भी ठीक हो जाएगा
वही नहीं, जहाँ जो असाध्य रोगी मिला
उसने उससे यही बात कही कि बनारस में….
उसके पास ले-देकर एक उदाहरण था
जंगल में एक बछड़े का पहला दिन
आज जंगल देखने का पहला दिन है
गले में घण्टी घनघना रही है
आज चरना कम..देखना ज्यादा है
जहाँ हरापन गझिन है लपक नहीं जाना है वहीं
वहाँ मुड़ने की जगह भी है….देखना है
आज झाड़ियों से उलझ-उलझ पैने हुए हैं उपराते सींग
आज एक छिदा पत्ता चला आया है घर तक
आज खुरों ने कंकड़-पत्थरों से मिल कर पहला कोरस गाया है
आज देखी है दुनिया
आज उछल-उछल डौंरिया कर पैर हवा में तैरे हैं
और पूँछ का गुच्छ आकाश तक उठा है
आज रात…नदी की कल-कल नहीं सुनाई देगी
कुतरे गये फल
हरे सुग्गे की लाल-लाल चोंच
ज्वार की एक कलगी पर बैठा तो मस्त हो गया ज्वार
एक सेब पर मारी चोंच आत्मा तक मीठा हो गया
सुग्गे का जूठा जूठा नहीं
कैसे छाँटता है ढेर सारे फलों में से ख़ास फल कुतरने के लिए
कैसे लोकता है एक छोटे फल में कुतरने की ख़ास जगह
निर्भार हो कर कैसे बैठ जाता है हिल रहे पके फल पर
कैसे रखता है फल के भीतर की सारी रस-ख़बर
लाल चोंच की संगत में एक फल डोर रहा है
अपनी ही देह के संकीर्तन से गुजर रही हैं एक पेड़ की जड़ें
अभी संसार की सबसे नर्म रज़ाई पर तगाई का काम
चल रहा है
दुनिया की सारी दरारें भरी जा रही हैं अभी
अभी एक सुग्गा फल कुतर रहा है
स्वर्ग से उतर आओ देवताओ
अक्षत नहीं इन कुतरे फलों का नैवेद्य स्वीकारो
अप्सराओ आओ
कुतरे फलों को बिराती, ढेर लगाती
उस औरत की कुल मिठास अन्दाज़ो
मिट्ठू हमारे घर में
बाहर गये हुए हैं पड़ोसी
हफ़्ते भर से मेरे घर में है पड़ोसी का मिट्ठू
चहक उठा है घर
जो दिन भर चुप्प रहा करता था वह गाना गा रहा है उसके लिए
जो बात करने के नाम पर काटने दौड़ता था वह
सीटी सिखा रहा है
घर से निकलते वक़्त सब कहने लगे हैं
अच्छा मिट्ठू जा रहा हूँ
टूटा है पिता का लम्बा अबोल
उन्होंने आज बेटा कहा है मिट्ठू से
किसके पास कितनी मिठास बची है अभी भी
सब खोल के रख दिया है मिट्ठू ने
इधर मैंने उठायी है
वह उधर बजा रही है ढोलक
जो नहीं देख पा रहे हैं वे भी सुन रहे हैं उसकी थापऽऽऽ
काफी दिनों से पड़ी थी अनजबी यह
साफ़ किया इसे टाँड से निकाल कर
दोनों घुटनों के बीच अड़ा इसके ढीले छल्लों को कसा
कसते ही तन गयी हैं डोरियाँ
चमड़े खिल उठे हैं दोनों पूड़ों के
नहीं थी जो अभी-अभी तक वो गूँज उभर आयी है
ढोलक में
इधर मैंने उठायी है एक अधूरी कविता
पूरी करने
गन्दा पानी
थके भारी बस्ते से
कल शाम फिर बाहर कूदा आर्कमिडीज
और दोहराने लगा
अपना सिद्धान्त
आज सुबह
एक बहुत अच्छी कविता पढ़ी थी मैंने
जितने भर में छपी है कविता
क्या उतना गन्दा पानी
छँटा होगा ?
कहानी का एक पात्र
मैंने लिखी एक कहानी
उसका एक पात्र मनोहर
पात्र तो बहुत थे, मगर
सबके पास कुछ न कुछ काम थे करने को
मनोहर को कहानी भर नहीं दे पाया मैं कोई काम
भूल ही गया उसे
आप किसी को अपने रचना-संसार में लाएँ
और कोई काम न दे पाएँ
कितनी लज्जा की बात है !
मुझे दोबारा लिखनी है वह कहानी
यहाँ में कहाँ वह क़ुव्वत
यहाँ आटे की चक्की है
एक जंग लगे टिन को रगड़-रगड़
प्राइमर के ऊपर काला रंग पोत
सफ़ेद अक्षरों में लिखा गया है इसे
और टाँग दिया गया है बिजली के खम्भे के सीने पर
यहाँ आटे की चक्की है
इस इबारत के ठीक नीचे बना है एक तीर
यहाँ में कहाँ वह क़ुव्वत
कि ग्राहक को ठीक-ठाक पहुँचा सके चक्की तक
माना कि बड़ी सामर्थ्य है शब्द में
दहशत
पारे सी चमक रही है वह
मुस्कराते होठों के उस हल्के दबे कोर को तो देखो
जहाँ से रिस रही है दहशत
एक दृश्य अपने-अपने भीतर बनते हुए बंकरों का
एक ध्वनि फूलों के चटाचट टूटने सी
एक कल्पना सारे आपराधिक उपन्यासों के पात्र
जीवित हो गये हैं
बहिष्कृत स्मृतियाँ लौटी हैं फिर
एक बार फिर
रगों में दौड़ने के बजाय
ख़ून गलियों में दौड़ने लगा है
कबीर
(1)
सामने छात्रगण
गुरु पढा रहे हैं कबीर
सूखते गलों के लिए
एक काई लगे घड़े में पानी भरा है
गुरु पढ़ा रहे हैं कबीर
बीच बीच में घड़े की ओर देख रहे हैं
बीच-बीच में उनका सीना चौड़ा हुआ जा रहा है
(2)
कौन जाएगा मरने मगहर
सबको चाहिए काशी अभी भी
मगहर वाले भी यह सोचते हुए मरते हैं सन्तोष से
वे मगहर में नहीं
अपने घर में मर रहे हैं
(3)
इतनी विशालकाय वह मूर्ति
कि सौ मज़दूर भी नहीं सँभाल पाये
उसे खड़ा करना मुश्किल
पत्थर नहीं
एक पहाड़ पूजा जाएगा अब
(4)
एक नहीं
दसियों लाउडस्पीकर हैं
एक ही आवाज़ अपनी कई आवाज़ों से टकरा रही है
पखेरू भाग खड़े हुए हैं पेड़ों से
अब और भी कम सुनाई पड़ता है ईश्वर को
(5)
जब केवल पाँच प्रश्न हुआ करते थे हल करने को
अनिवार्य थे कबीर
आज अनगिनत प्रश्न हैं
एक सिरफिरे बूढ़े का बयान
उसने कहा-
जाऊंगा
इस उम्र में भी जाऊंगा सिनेमा
सीटी बजाऊंगा गानों पर उछालूंगा पैसा
‘बिग बाज़ार’ जाऊंगा माउन्ट आबू जांऊंगा
नैनीताल जाऊंगा
जब तक सामर्थ्य है
देखूंगा दुनिया की सारी चहल-पहल
इस उम्र में जब ज़्यादा ही भजने लगते हैं लोग ईश्वर को
बार-बार जाते हैं मन्दिर मस्जिद गिरजे
जाऊंगा… मैं जाऊंगा… ज़रूर जाऊंगा
पूजा अर्चना के लिए नहीं
जाऊंगा इसलिए कि देखूंगा
कैसे बनाए गए हैं ये गर्भगृह
कैसे ढले हैं कंगूरे, मीनारें और कलश
और ये मकबरें
परलोक जाने के पहले ज़रूर देखूंगा एक बार
उनकी भय बनावटें
वहाँ कहाँ दिखेंगे
मनुष्य के श्रम से बने
ऐसे स्थापत्य…
वत्सलता
आज पिन्हाई नहीं गाय
बहुतेरी कोशिश करता रहा ग्वाला
बछड़ा जो रोज़ आता था अपनी माँ के पीछे-पीछे
उससे लग-लग अलग होकर
नहीं रहा आज
देर तक कोशिश जारी रही ग्वाले की
कि थनों में उतर आये दूध
पर नहीं…
किसी की भी हों
आँखें
अदृश्यता को बखूबी जानती हैं
देने से नहीं
दूध न देने से पता चला
वत्सलता और छाती का रिश्ता!
एक बुरुन्श कहीं खिलता है
खून को अपना रंग दिया है बुरूंश ने
बुरूंश ने सिखाया है
फेफड़ों में भरपूर हवा भरकर
कैसे हंसा जाता है
कैसे लड़ा जाता है
ऊंचाई की हदों पर
ठंडे मौसम के विरूदद्य
एक बुरूंश कही खिलता है
खबर पूरे जंगल में
आग की तरह फैल जाती है
आ गया है बुरूंश
पेड़ों में अलख जगा रहा है
कोटरों में बीज बो रहा है पराक्रम के
बुरूंश आ गया है
जंगल में एक नया मौसम आ रहा है
असहमति
प्यास
काम करते-करते उसने कहा, ‘पानी’
धोती घुटने तक की
और एक बनियान
यही पहनावा बस
हल्के बदन काम जो हचक के होता है
उसने सूखे जबड़े से फिर कहा, ‘पानी’
पहले तो सटाकर अँजुरी फैलायी…
प्यास बुझी नहीं
फिर जग ही पकड़ लिया
और खाप खोलकर धार के नीचे लगा दी
सूखी धरती की तरह खुली थी खाप
बरसात की पहली झ़ी-सी गिरती रही धार
धार घटक-घटक कर चली जा रही थी
कंठ के नीचे
-सूखी गढ़ई में
गले की घटिका घटक-घटक के साथ
खिसक रही थी नीचे-ऊपर
एक आवाज़ थी और एक लय
और बनती-मिटती लहरें थीं त्वचा की
एक उपक्रम दृश्य-श्रव्य ऐसा
कि किसी की भी इच्छा हो जाए पानी पीने की
लेकिन कोई प्यास कहाँ से लाता
हर शख़्स कहाँ हो सकता है ऐसा प्यासा
हर पानी कहाँ पाता है ऐसी इज़्ज़त!
एक नदी सूख गयी
‘देखो यह नदी सूख गयी’
अपनी तर्जनी बस से बाहर के दृश्यों की ओर दिखाते उसने कहा
नदी सचमुच सूख गयी थी
अभी पिछले वर्ष तक पानी था इसमें
थी भी बहुत छोटी नदी यह
देश क्या प्रान्त क्या ज़िले के मानचित्र में भी
इस नाम की कोई पतली नीली लकीर नहीं थी
लेकिन थी तो ज़रूर
आगे चलकर एक बड़ी नदी की सहायक नदी से मिल जाती रही थी
वहाँ पर लग जाता रहा सौ-पचास लोगों का मेला
जैसी स्थानीय थी
इसके सूख जाने का असर भी स्थानीय है अभी
किसी बड़ी चीज़ से इसके सूखने को जोड़ेंगे तो हँसेंगे लोग अभी
अभी तो यह फूले गुब्बारे के बाहर रखी
एक सुई है
इसे अभी देख पा रहा है केवल एक पुल
जो बड़ा धोखा खा गये आदमी की तरह खड़ा है
अवाक्!
वार और धार
हमारे यहाँ नेनुआ कहते हैं इसे
तोरई काटते हुए वह बोला
क्या फ़र्क़ पड़ता है नाम से
कटना तो उसी को है
हर जगह यह कहाँ सम्भव कि
नाम बदल दिया जाए तो जान बच ही जाये
एक आदमी भरी दोपहरी में घूम-घूम कर कहता है
चाकू छुरी तेज़ करा लो…
अगर कुछ आगे तक जाओ तो
उँगली वार करने वाले पर ही नहीं
धार बेचनेवाले पर भी उठ सकती है…
अब, सीधे-सीधे किसका गल पकड़ कर कहा जाए कि तू हत्यारा है
बच्चों को अगर फाँसी की सज़ा दिये जाने का दृश्य दिखा दिया जाए
तो वे चिल्लाते हुए जल्लाद की तरफ़ दौड़ पड़ेंगे
जबकि रस्सी की तरह निर्दोष होता है वह भी
और फाँसी देने के पहले माँगी गयी उसकी अमूर्त माफ़ी
अपने समय की सबसे अन्यतम प्रार्थना होती है…
शब्द
ओर सूरदास! सँभल के
आगे गड्ढा है…
सुनते ही रुक गया सूरदास
गड्ढे में गिरने से बच गया
बच तो तब भी जाता
अगर कोई कहता
जो अन्धे रुक जाओ…आगे गड्ढा है
पर तब उसके भीतर एक बड़ा गड्ढा बन सकता था
कविताई तो दी सूरदास ने
शब्द को एक पर्याय भी दिया
कानों को अन्दरूनी मलहम दिया
सूरदास के बाद ही तो आया होगा भाषा के कोश में यह पर्यायवाची
सूर के पहले भी ले जा सकते हैं क्या इसे हम
कह सकते हैं
महाभारत चरित्र धृतराष्ट्र जन्म से सूरदास था?
शब्द की काया को
समय के खोल की ज़रूरत है क्या?
स्वाद
ये स्वाद कैसे आकार लेता है
टेढ़ी चोंच की खुरचन
या समय का ख़मीर
कौन भरता है पंछियों के कुतरे गये फलों में
स्वाद
जो न रह सका डाल पर के फल में
और न ही अँट सका पंछी की चोंच में
नीचे टपक पड़े उस अंश का स्वाद कैसा होगा
ये ज़मीन ही जाने
क्या पता ज़मीन ही हो वह अंश
जो किसी अनअँटी चांेच से गिर पड़ा हो
पकते हुए ललछौंहे सूर्य को कुतरते वक़्त
इसीलिए है यह ज़मीन इतनी प्यारी कि
छोड़ना नहीं चाहता इसे कोई ता दम
क्या इसीलिए आकर्षित करती है ये ज़मीन
कि पेड़ से टूटा फल
गिरता है उसी पर…
संसार
निःस्सार है संसार
ठहरे पानी में वृत्त की तरह फैलता है
एक बयान
बंजर ज़मीन
अपने बंजरपन पर नाज़ करने लगती है
लगभग ठीक उसी वक़्त
एक शिशु
इस पृथ्वी पर अपनी पहली किलकारी मारता है…
महराजिन बुआ
माता-पिता-पुरोहित की त्रयी ने मिलकर
नाम तो दिया ही था उसे एक
पर लोग उसे महाराजिन बुआ कहकर पुकारते हैं
मिलाई तो गयी होगी उसकी भी कुंडली कभी
कुंडली ठीक नहीं बनी होगी
या बाँची नहीं गयी होगी ठीक से
वरना उसका वैधव्य दिख जाता दूर से ही
विकट ग्रहों का शमन हो गया होता
पर सारे विश्वासों के बीच वह विधवा हुई
अब मरघट की स्वामिनी है वह
औरतें हैं कि शवों की विदाई पर
घर की चौहद्दी में पछाड़ मार-मारकर रो रही हैं
वह है कि घाट पर सारे शवों की आमद स्वीकार रही है
चिताओं के बीच ऐसे टहल रही है
जैसे खिले पताश वन में विचर रही हो
एक औरत की तरह उसके भी आँचल में दूध था
और आँखों में भरपूर पानी
अबला थी
और भी अबला हो गयी होती विधवा बनकर
चाहती तो काशी की विधवाओं में बदली जाती
या चली जाती वृन्दावन
पर वह चल पड़ी श्मशान की ओर
काँटेदार तिमूर लकड़ी की ठसक लिये घूम रही है घाट पर
हाथ से बुने मोज़ों के ऊपर कपड़े के जूते डाल रखे हैं उसने
मोटे ऊन की कनटोप है
मुँह में गिलौरी दबाये
जलती चिताओं की बग़ल से निकलती और राख हो गयी
चिताओं को लाँघती
एक से दूसरी चिता
दूसरी से तीसरी
तीसरी से चौथी
मुखाग्नि दिलवाती
कपाल क्रिया करवाती
घूम रही है वह
ख़ुद अपने मोक्ष के लिए छटपटाती एक नदी के तट को
तर्पणों का समुद्र सौंप रही है
पंडों के शहर में
मर्दों के पेशे को
मर्दों से छीनकर
जबड़ें में शिकार दबाये-सी घूम रही है वह
अभी-अभी
घाट पर भी मर्द बने एक आदमी को
उसी की गुप्तांग भाषा में लथेड़ा है उसने
ठसकवालों से ठसक से वसूल रही है दाहकर्म का मेहनताना
रिक्शा-ट्राली में लाये शवों के लिए तारनहार हो रही है
यहीं जहाँ महाराजिन के आधिपत्य वाले घाट की सीमा शुरू होती है
उसके ठीक पहले समाप्त होती है ‘साहित्यकार संसद’ की सीमा
यहीं पर चीन्हा गया होगा कभी महीयसी द्वारा
असीम और सीमा का भ््राम
यहीं उफनती नदी के सामने गाया गया होगा कभी
महाप्राण द्वारा बादल राग
यहीं कविता ने देखा होगा एक युगान्त…
तट से दूर उभर आये रेतीले टापू के एकान्त में सरपती बाड़ के पीछे
रसीली कल्पनाओं के उद्यम में सहभागी एक ट्रांजिस्टर में
मेघ मल्हार बज रहा है
महराजिन सशंकित हो ताकने लगी है आकाश
अधजली चिताएँ उसे सोने नहीं देतीं रात भर
उसकी तो पसन्द है दीपक राग
उसने अभी-अभी मुखाग्नि दिलवायी है एक विधवा की चिता को
एक विधवा, दूसरी विधवा के शव को जलवाते हुए
अतीत में दबीं अनन्त विधवाओं की
अयाचित चिताओं की चीखें सुन रही है
घाट के ढलान पर
उम्र की ढलान लिये
दिन भर सूर्य की आँखों में आँखें डाल खड़ी है
मनु की प्रपौत्री वह
असूर्यंपश्या
तीर्थराज प्रयाग को जोड़नेवाले
एक दीर्घ पुल
और परम्परा के तले…।
उनका भविष्य
वह कथ्य की चोरी के इल्ज़ाम में धर लिया गया
जबकि वह रूप पर मोहित था
बच्चा ही था
साफ़ कमरे को और भी साफ़ करते वक़्त
उसकी अनामिका मचल उठी थी
एक अँगूठी की क़ीमती झिलमिल उभर आयी थी फ़र्श पर
तेरह-चौदह
यही रही होगी उम्र
अनामिका अभी पूरा आकार लेने को थी
अँगूठी के लिए पतली थी काफ़ी
और गाँठ में मैल लिये हुए भी
तो भी मचल उठी
जेब में डालने को नहीं, हाथ में डालने की कोशिश कर रहा था
उसकी नीयत में बदनीयती का रंग चढ़ाकर
रँगे हाथों पकड़ लिया गया
और वहाँ पहुँचा दिया गया
जहाँ रँगे हाथों वाली एक बगिया ही चहक रही थी
हमउम्रों की जमात देख एक बार
खिल उठा उसका बुझा चेहरा
उन सबके कंठों में एक स्वाँग रच दिया था समय ने
जैसे उनके कंठों में आवाज़ का भरा जाना
ठेके पर दिया गया कोई काम था
अभी वे उस पूल-आवाज़ के मालिक थे
जो न पहले थी
न आगे रहेगी
उनका मन कभी ज्वार के पूर्व के भीतरी समुद्र-सा हो रहा था
कभी झड़ी के बाद का आकाश-सा
वे फुटकर में रो रहे थे
अगर वे एक साथ रोते होते तो धँस सकती थी ज़मीन
वे थोक में हँस रहे थे
जैसे कमल दल खिल उठता है
वे सब एक ही ताल की तलहटी से आये थे
संगीता के हिसाब से उनका रोना हँसना
दोनों बेसुरे थे
उन्हें सुधारने की आकांक्षा में जो ईश प्रार्थनाएँ गवाई जा रही थीं
वे भी लय के बाहर जा रही थीं
पर उनकी आवाज़
उनकी भींगती मसें और ढेर सारे अधपकेपन मिलकर
एक परती खेत को
नये हल-बछड़ों से जुतने-सा ऑकेस्ट्रा दे रहे थे
लेकिन वे केवल अपने अवगुणें से वाक़िफ़ थे
उन्हें उनका भविष्य समझाने
कुछ विशिष्ट अतिथि पहुँच रहे हैं सफ़ेदी से तर-ब-तर
उँगलियों में झिलमिल अँगूठियाँ पहने
कुछ बड़े अपराध
उन हाथों से होकर मुक्त होना चाह रहे हैं।
दृश्यों से लबालब इस दुनिया में
समुद्र ने जो बुलाया
तो गये उसके पास
अभिराम देखते रहे उसे
जल ही जल
अपारावार जल
थककर उबने लगीं आँखें
ज़मीन के लिए मचलने लगीं
पहाड़ों ने बुलाया गये
पहाड़ दर पहाड़
गगनचुम्बी पहाड़ शृंखलाबद्ध
देखते-देखते ऊबने लगीं आँखें
उतरने को कहने लगीं नीचे
औरतों के हुजूम में
उन्हें देखती रहीं आँखें देर तक
औरतें-ही-औरतें दूर तक
आँखें थोड़ी ही देर में ढूँढ़ने लगीं
कोई मर्द चेहरा
और मर्दों के हुजूम में
थोड़ी ही देर में
औरतों को खोजने लगीं आँखें
इन आँखों की फ़िरत का क्या कहूँ
कि ऊब जाती हैं एकरस दृश्य से
कितना ही सुन्दर हो दृश्य
हर हमेशा चाहती है दृश्यान्तर
कि इन आँखों के परदों में आते-जाते रहें दृश्य
केवल समुद्र ही समुद्र
केवल पहाड़ ही पहाड़
केवल औरतें ही औरतें
केवल मर्द ही मर्द
केवल खजूर ही खजूर
केवल पीपल ही पीपल
कि विकल्पहीन हो जाए दृष्टि
कितने टोटे में है वह आँख
जो केवल एक-से ही दृश्य देखना चाहती है
दृश्यों से लबालब इस दुनिया में…
यह एक तथ्य था
उसभग्न महल के प्रवेश-द्वार का
एक ही स्तम्भ बचा था अब
शीर्ष पर सिंहमुख लिये,
हमने दिवंगत जुड़वा की तरह
दूसरे सिंहमुखी स्तम्भ की कल्पना कर ली
जगह-जगह टूटी थी चहारदीवारी की लय
कहीं भूमिस्थ कहीं धचकी
हमने महल को घेरती
एक विशाल चहारदीवारी की कल्पना कर ली
भीतर बदरंग प्रांगण था
जहाँ कहीं-कहीं उखड़े नाखूनों की तरह थी ज़मीन
और फिर सीढ़ियाँ थीं दो-चार
हमने पूरी सीढ़ी की कल्पना कर ली बिछी कालीनों के साथ
और फिर उस राजगद्दी की, जहाँ तक पहुँचाता था
सीढ़ियों का आरोह
हमने एक छत की कल्पना की
और फिर दायें हाथ से झलते बायीं ओर खड़े
और बायें हाथ से झलते दायीं ओर खड़े
चँवर डुलाते भृत्यों की
हमने भरे-पूरे दरबार की कल्पना की
अमात्यों द्वारपालों ओर विदूषकों की
और उन कवियों की जो दरबार की शोभा थे
जो मधुर कंठ से लय में त्रुटिहीन छन्दों में गाते थे विरुद
भीतर और भीतर हमने अन्तःपुर की कल्पना की
राजा और महिषी के आधिकारिक प्रेम और
रानियों की ईर्ष्या की
महल के पिछवाड़े एक सूखे गड्ढे पर निगाह गयी हमारी
बताया गया यहाँ एक सरोवर था कभी
हमने उसमें जल की और जल में खिले कमलदलों की
कल्पना की ली
और कमलों को कुम्हलाती उन पिंडलियों की
जो उतरती थीं हौले-हौले पानी में अडूबी-डूबी सीढ़ियाँ
और फिर घंटों अभिसारिकाओं के साथ
आवक्ष जलराशि में खेली गयी केलि की
घूमते-घूमते कुछ अस्थि-पंजरों से टकराये हमारे पाँव
जो पशु-पक्षियों के नहीं थे यक़ीनन
हमने एक ऐसे तहख़ाने की कल्पना कर ली
जिसका ताला कभी बाहर आने के लिए खुला ही नहीं
हमने एक कातर फ़रियादी की कल्पना की
उसके मलिन अधोवस्त्रों के साथ
और प्रार्थना में जुड़ी उसकी काँपती हथेलियों की
फरियाद जो
की गयी होगी कोई कर वसूलते कर्मचारी के विरुद्ध
या किसी बाहुबली के
या पड़ोसी के
या फिर राजपुत्र, श्यालक
या अमात्यों के विरूद्ध
हमने एक विशाल फ़रियादी घंटे की कल्पना की
फ़रियाद सुनने के बाद हुए विमर्श में
राजा के न्याय की कल्पना की
अन्याय के विरुद्ध
हाँ, कभी राजा नहीं कर पाया होगा न्याय
कभी अन्याय को ही न्याय मानता रहा होगा
राजा के असफल न्याय या अन्याय की हद की
कल्पना भी कर ले गये हम
लेकिन…
ऐसे राजा के विरुद्ध क्या किया जाय
इसकी कल्पना करना आसान नहीं था
होने को तो व्यवस्था यह भी थी कि
प्रजा को ऐसे राजा को उसी तरह त्याग देना चाहिए
जैसे छिद्रयुक्त नाव को यात्री त्यागते हैं
या फिर रोक देना चाहिए राजा का छठा भाग
या फिर कर देना चाहिए उसे अपदस्थ
लेकिन ऐसी कल्पना की अब कोई गुंजाइश नहीं थी
क्योंकि यह एक तथ्य था
कि राजा को प्रजा ने नहीं
एक दूसरे राजा ने ही अपदस्थ किया था…
असहमति (कविता)
अगर कहूँगा शून्य
तो ढूँढ़ने लग जाएँगे बहुत-से लोग बहुत कुछ
इसलिए कहता हूँ ख़ालीपन
जैसे बामियान में बुद्ध प्रतिमा टूटने के बाद का
जैसे अयोध्या में मस्जिद ढहने के बाद का
ढहा-तोड़ दिए गये दोनों
ये मेरे सामने-सामने की बात है
मेरे सामने बने नहीं थे ये
किसी के सामने बने होंगे
मैं बनाने का मंज़र नहीं देख पाया
वह ढहाने का
इन्हें तोड़ने में कुछ ही घंटे लगे
बनाने में महीनों लगे होंगे या फिर वर्षों
पर इन्हें बचाये रखा गया सदियों-सदियों तक
लोग जानते हैं इन्हें तोड़नेवालों के नाम जो गिनती में थे
लोग जानते हैं इन्हें बनानेवालों के नाम जो कुछ ही थे
पर इन्हें बचाये रखनेवालों को नाम से कोई नहीं जानता
असंख्या-असंख्य थे जो
पूर्ण सहमति तो एक अपवाद पद है
असहमति के आदर के सिवा भला कौन बचा सकता है किसी को
इतने लम्बे समय तक!
पुताईवाला
एक दीवार के बाद दूसरी
दूसरी के बाद तीसरी
इमारत के बाद इमारत…
दीवारों के काँधों पर हो सकते हैं गुम्बद मीनारें
दीवारों के भीतर हो सकते हैं गर्भगृह
हाथ छोटे हैं तो क्या
सीढ़ियाँ छोटी नहीं
जालों में अटकी प्रार्थनाएँ
दरारों में छुपी मन्त्रणाएँ
ऊपर का गर्दों गु़बार
नीचे का कीचड़
सब साफ़ होना है
हाथ कूची फेरें
और दिमाग़ ख़ाली बैठा रहे
ऐसा तो नहीं
समय के अलग-अलग फाँक तो नहीं
कूची फेरना
और सोचना
एक ऊँचे स्थापत्य के शिखर पर दूसरा कोट करते वक़्त
सोचा उसने नीचे झाँकते हुए
क्या नहीं छू सकती उसकी कूची
नींव…
सारी इमारतों के अपने-अपने स्थापत्य हैं
सारे स्थापत्य होकर गुज़रे हैं उसकी कूची से
सबसे मज़बूत, समतल-चौरस
और सब इमारतों में यकसा पाये जानेवाला आधार ही
उसकी पहुँच के बाहर है…
ये भीड़ किधर जाएगी
देहें सभी की उल्टी लटकी थीं
रक्त सभी के चू रहा था नीचे थाल में
जीभें लटकीं और आँखें पथराई सभी की थीं
रानें सभी की डोल रही थीं हवा में
गोश्त की दुकान और ख़रीदारों की भीड़
किसे माना जाय उल्टे लटके अपने समकालीनों में सबसे
बेहतर
किसी की आँखें बड़ी हैं किसी की रानें
और किसी के शुक्र कोष
ये भीड़ किधर जाएगी?
किसान और आत्महत्या
उन्हें धर्मगुरुओं ने बताया था प्रवचनों में
आत्महत्या करने वाला सीधे नर्क जाता है
तब भी उन्होंने आत्महत्या की
क्या नर्क से भी बदतर हो गई थी उनकी खेती
वे क्यों करते आत्महत्या
जीवन उनके लिए उसी तरह काम्य था
जिस तरह मुमुक्षुओं के लिए मोक्ष
लोकाचार उनमें सदानीरा नदियों की तरह
प्रवहमान थे
उन्हीं के हलों के फाल से संस्कृति की लकीरें
खिंची चली आई थीं
उनका आत्म तो कपास की तरह उजार था
वे क्यों करते आत्महत्या
वे तो आत्मा को ही शरीर पर वसन की तरह
बरतते थे
वे कड़ें थे फुनगियाँ नहीं
अन्नदाता थे, बिचौलिये नहीं
उनके नंगे पैरों के तलुवों को धरती अपनी संरक्षित
ऊर्जा से थपथपाती थी
उनके खेतों के नाक-नक्श उनके बच्चों की तरह थे
वो पितरों का ऋण तारने के लिए
भाषा-भूगोल के प्रायद्वीप नाप डालते हैं
अपने ही ऋणों के दलदल में धँस गए
वो आरुणि के शरीर को ही मेंड़ बना लेते थे
मिट्टी का
जीवन-द्रव्य बचाने
स्वयं खेत हो गए
कितना आसान है हत्या को आत्महत्या कहना
और दुर्नीति को नीति।
चींटियाँ-1
गुलाब के तने से होते हुए पंखुड़ियों में टहल कर वे लौट भी आयीं
और पेड़ को पता तक नहीं चला
वे ऐसे ही टहलती हैं
सम्भावना कहाँ-कहाँ नहीं ले जाती है
ठीक जहाँ से चटकती है कली
ठीक जहाँ फूटते हैं पुंकेसर
ठीक जहाँ टिकते हैं फूल बौर और फल
मीठे की सम्भावना है वहाँ-वहाँ उन जोड़ों में
बिना मिठास के जुड़ भी नहीं सकता कोई किसी से
मीठा-सा कुछ हो कहीं
चीटियों को जाना ही है वहाँ
रस्ते में ख़ाली हाथ लौटती चींटियों को देख लौट नहीं आना है
न होने को अपनी आँखों से देखना है
और होने को तो चख़ना ही है
एक दिन पायी गयीं कुछ चींटियाँ मृत शहद से दूर पाँव रहित
शहर में ही छूट गये थे उसके पाँव
चीन्हें मीठे ने नहीं
अचीन्हे चिपचिपेपन ने ले ली उनकी जान
चींटियाँ-2
लम्बी कूच पर निकली हैं ये
छोटे बच्चों ने कहा,
नहीं-प्रभात फेरी पर निकली हैं
लड़कों ने कहा,
वहाँ बिलों के भीतर लटके हैं। कई-कई पदक
बड़े-बूढ़ों ने कहा-
इसे कहते हैं अनुशासन
घर चलाना हो या मुल्क
ये बहुत जरूरी है
चींटियों ने मिलकर घसीटा एक तिलचट्टे को
शोधार्थियों ने कहा,
संगठनों का अभ्युदय यहीं से होता है
फुर्सत निकाल कर गृहणियों ने भी देख चींटियों को
और कहने लगीं,
-हमसे ज्यादा भला क्या खो गया होगा इनका…
अभिनय-अभिनय
(सीजनबाई को समर्पित)
उठा दुःशासन
दोनों पुतलियों ने भीतर ही भीतर मन्त्रणा की
कि उन्हें ठेठ नग्नता चाहिए
दर्शकों ने मन-ही-मन कसकर बाँध ली साड़ी
वो प्रमाद वो अट्टहास वो विषयकता
खींची जा रही है साड़ी बलिष्ठ कलाइयों की संयुक्तता में
बन-बिगड़ रही है शिखर घाटियाँ भावों की
अनावृत्तता का एक अपूर्व महोत्सव है
तालियों की गड़गड़ाहट है प्रेक्षागृह में
घर तीजन नहीं है ख़ुश
अभिनय में कलाकार को कभी-कभी भीतर से पूरी मदद नहीं मिलती है
फिर उठा भीम
पास की बेसब्र खुले लहराते केशों ने कहा,
उनकी मुक्ति तो बन्धन में है
वो गह्वर गर्जन वो हुंकार वो प्रतिशोध
उठा हवा में दुःशासन को
चीर डालीं टाँगें बली भीम ने
व्रत पूर्ण हुआ छाती शीतल
फिर गूँज है तालियों की प्रेक्षागृह में
गद्गद है तीजनबाई भी
अभिनय में कलाकार को कभी-कभी भीतर से पूऽऽरी मदद मिलती है
ख़बर
24 मार्च 2001 की यह ख़बर हांगकांग की है
-एक पत्नी ने
अपने पति को सैंडिलों से पीटा
दुनिया के सारे अख़बारों में है यह ख़बर आज
जो नयी है वही तो है ख़बर
जो रोज़-रोज़ घटती है ख़बर नहीं होती
मोड़ और लड़की
अभी-अभी घर से निकली है लड़की
गेट के खुले पल्ले खुले ही हैं अभी तिरछे
माँ खड़ी है इसी आधे आदमी भर जगह में दोनों पल्ले थामे
कलाई की चूड़ियाँ कुहनी तक फिसल आयी हैं
देखती रहेगी लड़की को वह कस्बाई आँख से
मोड़ आने तक
मुड़ने के पहले लड़की भी देखेगी पीछे एक बार
यह सबसे बड़ा संवाद-पल है अभी
मुड़ते ही लड़की के, माँ भी लौट पड़ी है भीतर
चूड़ियाँ कलाई में लौट आयी हैं
माँ इस तरह जुट गयी है फिर से काम में
जैसे वह मोड़ आखि़री मोड़ था।
ये पहाड़ियाँ
(इलाहाबाद से बाँदा जाते समय छोटी-छोटी पहाड़ियों में हो रहे खदान को देखकर)
एक तो यह उद्यम
कि निर्वसन होने से बचा ले जाएँ अपने को
जिसे अन्ततः हार गयीं ये पहाड़ियाँ
और खड़ी हैं नग्न
वसन पूरा अस्तित्व तो नहीं
निर्वसनता के बाद भी तो बचाना होता है बहुत कुछ
ये लदे-फदे मगन लौटते ट्रक वही ले जा रहे हैं क्या
अपने पीछे धूल उड़ाते…
ये उनका अपना तरीक़ा है
दो हमउम्र औरतें
साथ-साथ चलतीं बातें करतीं जाड़ों की धूप में
एक की गोद में बच्चा है
जिसकी गोद में बच्चा है, वही माँ हो उस बच्चे की
ज़रूरी नहीं
चलतेचलते बातें करते-करते
भार बाँट लिया जाये
और किसी को पता भी न चले
एक-दूसरे की निर्भार किये जाने का
ये उनका अपना तरीका है।
छम्मो
यह एक चितकबरी बिल्ली का नाम है
पेट ऊर काली है यह
पेट नीचे सफे़द
छम्मो गुज़रती है
खिले गुलाब के पौधे की बग़ल से
रंग दो से चार हो जाते हैं
ज़मीन का रंग इन सबमें
साड़ी की ज़मीन का काम करता है
एक विशाल नीले
चँदोबे के तले चल रही है छम्मो
एक गेहुआँ आदमी देख रहा है
छम्मो को मटकते जाते
छम्मो का क्या भरोसा
कहाँ चली जाय। कूदते-फाँदते-मटकते
भूमध्य से धु्रवों तक
कहाँ से कह दे, ‘म्याऊँ’
जो जाएगी भूमध्य की ओर
तो काला हो जाएगा पीछा करता गेहुआँ आदमी
और जो सुदूर उत्तर-दक्खिन गयी
गोरा हो जाएगा
छम्मो एक साथ लिये है दोनों रंग
उसे सभ्य कहूँ
या असभ्य?
अनाम
उस दिन वह आग कल्छुल में आयी थी पड़ोस के घ्ज्ञर से
फूँकते-फूँकते अंगारों को न बुझते देते हुए
कभी-कभी
बुझ ही जाती है घर की सहेजी आग
दाता इतराया नहीं
और इसे पुण्य समझना भी पाप था
रखें तो कहाँ रखें इस भान को
पुण्य और पुण्य से परे भी है कुछ अनाम
जैसे
दिवंगता माँ के नवजात को मिल ही जाती है
कोई दूसरी भरी छाती…
आम और पत्तियाँ
दो पत्तियों के पीछे छुपा है आम
अनुज है पत्तियों का
पत्तियों के सामने-सामने ही तो आये थे बौर
कुछ झड़े रुके कुछ
देखते-देखते बड़े हुए
हरे से पीले हुए
खट्टे से मीठे
अब इन्हीं पत्तियों को पिछवाता
बाहर निकल आया है आम
देशान्तर बिकने को तैयार आम बतियाते हैं आपस में
हवा-हवा के खेल में कैसे हार जाती थीं हमसे पत्तियाँ
ओलों से तार-तार हो कैसे बचाती थीं हमें
कैसे छूती थीं हमारी ठुड्ढियाँ बार-बार
ये रस ये मिठास और कहाँ से पाया हमने
बिकना है जल्दी-से-जल्दी इन आमों को
झटके में टूट आयी है पत्तियाँ भी
इन्हें बिकना नहीं है
पर ख़रीदार की आँखों को ताज़गी दे रही हैं पत्तियाँ
आमों को और भी क़ीमती बना रही हैं पत्तियाँ
ट्रेन में
वह चलती ट्रेन में चढ़ा था
हम पहले से ही चार में पाँच बैठे थे
वह धच्च से हमारे बीच बैठ गया
बग़लवाला सकपका गया
मैं उसकी तमीज़ देखता रह गया
पर वो कहीं और देखता रहा अनजान
सिर के दोनों ओर ढुलके उसके बाल
दससों उँगलियों में कंघी के दाँतों सा घुसा-घुसा व्यवस्थित करता
कमीज़ का एक बटन छोड़ सारे खोले
बाँहें मुड़ीं एक कम एक अधिक
और टाँगे पसारे भरपूर दायें-बायें
यानी मेरा अचाहत का भरपूर सामान
अब मेरे चाहने न चाहने से क्या…समय कैसा है
गले से एक ताबीज झाँक रहा है उसके
दायें-बायें हिलोरे मारता उसके सीने में
दिल को ठकठकाता
क्या पता इकलौता हो अपने माँ-बाप का
हर नज़र हर बला से बचे ये मन्नत की हो
क्या पता बाँह में बँधा हो गंडा
करधनी में हो कोई टोटका
जितना मैं नहीं चाहता, उतना ही चाहा गया हो उसे
हमारी नफ़रत के बरअक्स
कितना ज़रूरी और प्यारा है वह किसी के लिए
वह जो आउटर पर ही उतर गया है।
एक सेकिंड सर
टण्णऽ ऽ ऽ
ये कॉलबेल पर अँगूठे का दबाव है
और अँगूठेवाले की आँखें दरवाजे़ पर हैं
पर कोई नहीं आता बाहर
मई-जून की दोपहर
जब मर्द लेाग बाहर रहते हैं
अगर घर पर हैं तो अलसाये रहते हैं
टण्णऽ ऽ फिर कॉलबेल बजती है
क्या पता बड़े घर में बड़ी तबीयत के लोग न हों
इसलिए अब गेट बज उठता है भड़भड़ाकर
भीतर से सिटकनी खोल अलसाये मुँह झाँकता है कोई
और झुँझलाता है भरपूर…(ये नींद के…)
झुँझलाहट पूरी होने के पहले ही
टेप-सा बज उठता है कोई बाहर
सर… ये मेडीकेटेड मोजे़
देखिए सर, पहले ऐसे नहीं देखे होंगे आपने
रिसर्च के बाद अभी-अभी उतारे गये हैं बाज़ार में सर
सर, दुकान से लेंगे तो फ़िफ्टी के पड़ेंगे
हम थर्टी में दे रहे हैं
दो जोड़े लेने पर एक जोड़ा फ्री
यानी सिक्सटी में तीन जोड़े सर
गारंटी है सर…
नहीं… कुछ नहीं चाहिए
भीतर जाते जान छुड़ाते कहा जाता है
…पीछे मुड़कर देखना फँसना है जी
सर… सर… एक सेकिंड पर…
शर्ट-टाई
रे बैन चश्मा
जूतों में पॉलिश
और इन सबमें पड़ी धूल की कई-कई परतें
सथ मकें एक लड़की
सिर पर कैप
बग़ल में बैग
सर… सर
एक सेकिंड सर
बात तो सुनें सर…
कोई बात नहीं सर
थैंक्यू सर…
और फिर अगला गेट…
तीन पग तीन लोक से ज़्यादा
हाँ, इसी बीच पोंछ लेना है पसीना
टाई थोड़ी ढीली कर लेनी है
कैप से हवा ले लेनी है
…टण्णऽ ऽ ऽ
इस बार एक औरत निकली है झुँझलाती
इस बार मैडम-मैडम की तर्ज पर गाया गया चिरन्तन राग
आप कहाँ जाएँगी मैडम मार्केट-वार्केट
इस पैंतालिस डिग्री के भभके में
देखिये हम सब यहीं ले आये हैं
नाऽजी नहीं लेना
हर किसी से नहीं लेना
दुकान से लेंगी तो ख़राब सामान बदल भी जाएगा
आपको कहाँ-कहाँ ढूँढेंगे
ना जी नाऽ ऽ
नहीं मैडम ऐसा नहीं…
एक सेकिंड मैडम
मैडम, मैडम
पर डूब गयीं आवाजें़ गेट बन्द होने की आवाज़ में…
एक छोटे से पार्क में दो प्राणी सुस्ता रहे हैं अब
पेड़ की छाँह तले
एक कुत्ता हाँफरहा है जीभ निकाले वहाँ
उसे मालूम है ज़मीन यहाँ अपेक्षाकृत नम है
जूते खोल पैर फैला दोनों हाथों को पीछे टेक
किसी बात पर हँस पड़े हैं दोनों प्राणी
भीतर उछल पड़ी हैं अँतड़ियाँ
एक पब्लिक नल से नाराज़ हो
चल पड़े हैं दोनों ढाबे की ओर…
‘दो प्लेट समोसा’
‘छोला मिलाकर’
‘चटनी भी’
दो प्राणी टूट पड़े हैं प्लेटों पर
एक पर्त का छिलका एक दाना नहीं गिर रहा नीचे
गटागट पानी पी
फिर हल्के मज़ाक का आक्सीजन ले रहे हैं
ढीली पैंट कस कर
टाई को सेंटर कर
रे बैन पोंछ
कैप फटका कर
फिर चल पड़े हैं
कॉलबेल दबाने
गेट खटखटाने
सर! सर!
मैडम! मैडम!
एक सेकिंड सर
मैडम एक सेकिंड
सरऽ सरऽ
थैंक्यू सर…
लाइफ़ सर्टिफिकेट
आज उन्हें जीवित होने का प्रमाण-पत्र लेना है
आज बाबूजी पेंशन दफ़्तर जाएँगे
परख रहे हैं अभी
अपने हाथों का ज़ोर और पैरों की टेक
जैसे कभी अखाड़े में उतरने से पहले परखा करते थे
पुरानी पेंट के बने झोले में रख लिये हैं उन्होंने पेंशन के काग़ज़ात
अब सोच रहे हैं क्या-क्या भूल गये हैं
नहीं, वहाँ नहीं दिखानी है उन्हें अपनी जर्जर किडनी
दिल के दौरे की रिपोर्ट भी नहीं
न शुगर की रिपोर्ट न बी.पी. की
बस दिखाना है कि हम जीवित हैं
पोते को साथ ले
एक रिक्शे से चल पड़े हैं बाबूजी…
उतरिए बाबूजी उतरिए
आ गया पेंशन दफ़्तर
सँभल के उतरिये झटका न लगे
कहीं कूल्हे की हड्डी दुबारा न उतर जाये
उनकी छड़ी ने छू ली है धरती
छड़ी का कम्पन ही शरीर का कम्पन है
क्या पता प्राणों का कम्पन भी शामिल हो इसमें
सिर तक पूरा शरीर कह रहा है
ना ना ना
क्या कहा उत्तर नहीं पाएँगे आप?
बाँह गह कर भी नहीं?
बाबूजी ने अपनी गरदन ही घुमा ली है…
अच्छा रुकिए
यहीं बुलाकर लाते हैं पेंशन अधिकारी को
दिखाते हैं कि आप जीवित हैं…
…हाँ यही हैं पेंशनर दिव्यदर्शन
देखिए इनकी आँखें कह रही हैं कपास की ओट से
-मैं ही हूँ दिव्यदर्शन
देखिए इनके होठ तस्दीक करने जा रहे हैं नाम
पर ये क्या
ग्रह नक्षत्र दिशा घड़ी देख
सहóों में से छाँटकर रखे गये एक सुन्दर से नाम के
ये कैसे अव्याकरणीय हिज्ज़े हो गये हैं
थाती में मिली जाति तालू से चिपक कर रह गयी है
बाबू दि.द. बड़े ग़ौर से देख रहे हैं
उनके होठों ने अपनी शक्तियाँ डेलीगेट कर दी हैं उनकी आँखों को
पहचाने जाने वाली आँखें देख रही हैं पहचानने वाली आँखों को
-कल तक हम भी थे तुम जैसे ही
-हम भी होंगे कल तुम जैसे ही
अनन्त है दो जोड़ी आँखों का यह परिसंवाद…
उधर पास में गठरी-सी एक विधवा उपस्थिति कह रही है
हम भी जीवित हैं
हमें भी चाहिए एक प्रमाण-पत्र
उसकी गुड़ीमुड़ी असहजता में
इसके पहले यहाँ कभी न आना शामिल है
हाँ, कोई चला गया अँगूठा दिखाकर उसे
वह बढ़ा रही है अँगूठा अपना
और काग़ज़ पर अँगूठे की छाप पड़ रही है
उसके अँगूठे की छाप में
कितनी रेखाएँ रह गयी हैं अभी तक अघिसी
देखना है।
थर्मस
बाहर मौसम दरोगा-सा
कभी आँधियाँ कभी बौछारें
कभी शीत की मार कभी ताप की
अपनी शर्तों पर सभी कुछ
सभी कुछ झेल रही हैं बाहर की दीवारें
कुछ भी पता नहीं है भीतर की दीवारों को
भीतर काँच की सतह पर गर्म दूध
हिलोरे ले रहा है
एक दिव्यलोक जहाँ
ऊष्मा बाँट ली जाती है भीतर-ही-भीतर
बाहर का हाहाकार नहीं पहुँच पाता भीतर
भीतर का सुकून बाहर नहीं झाँकता
एक छत के नीचे की दो दीवारें हैं ये
जिनके बीच रचा गया है एक वैकुअम
बहुत बड़े वैकुअम का अंश है यह
संवाद के बीच पड़ी एक फाँक है
इंकार का एक टुकड़ा है।
पैदल चलता आदमी
वृन्तों से पूछा उसने
जड़ों का हाल
फूलों से पूछी
फलों की उम्मीद
टूटी एक उपशाख को
ठुड्डी की तरह उठाया ऊपर
कहा काँटों से
अभी तुम फूल जैसे कोमल हो
कुछ और तपो तुर्शी के लिए…
ये उसके हाथ हिलते हैं कि बतियाते हैं आसपास से
किस लय-संगत में हिल रहा यह सिर
बड़बड़ा रहा कि किसी प्रश्न का उत्तर दे रहा
पागल कह सकते हैं उसे आप
पर फूल कहते हैं
हम बतियाएँगे सबसे पहले उससे
काँटे कहते हैं हम
फूलों में भी रंग कहते हैं हम बतियाएँगे पहले
खु़शबू कहती है हमऽ ऽ हम
कितना अपना होता है पैदल चलता आदमी।
उसके भाग से
वह ख़ाली तसला लिये खड़ी थी सड़क किनारे
ये भैसों का उधर से गुज़रने का समय था
इस समय जब राजधानी में एक ग्लोबल टेंडर खुलते ही वाला है
उसे समेटना है ताज़ा गोबर
हालाँकि ताजे़ से उसका उतना लेना-देना नहीं
जितना इस आशंका से कि इस बीच कोई दूसरा न आ जाये
और फिर छोकरे तो झुंड-के-झुंड घूमते रहते हैं
भैंसों के पीछे-पीछे
एक आवाज़ आयी
और चैतन्य हुई वह
भरपूर गिरा था उसके भाग से
वह दौड़ने को हुई
या फिर एक आती कार को देख ठिठक गयी
उसे गुज़र जाने देने के लिए…
उसने फिर दायें-दायें देखा, कोई छोकरा आ तो नहीं रहा दौड़ते
उसने फिर देखा
गोबर के ठीक ऊपर से गुज़र गया है कार का पहिया
एकदम नयी डिज़ायन बनाता…
प्रजातन्त्र
शीशे का एक जार टूटा है
एक हाथ छूटा है कोमलतम गाल पर अभी
चंचलता का काँचपन टूटा है
घर तो एक प्रजातन्त्र का नाम था
बार-बार कहा गया था कि
जनता राज्य में ऐसे विचरे
जैसे पिता के घर में पुत्र
प्रजातन्त्र टूटा
एक मिथक की तरह…
कार्य ही पूजा है
यह एक नीतिवाक्य है
कारख़ाने के बाहर गेट के ऐन बग़ल में टँगा है यह
ये काम लेनेवालों की ओर से काम करनेवालों के लिए है
गो कि कहीं नहीं है दर्ज कारख़ाने की बैलेंसशीट में
पर एक सम्पत्ति की तरह लटका है यह
कामगारों के लिए
उनके सिर पर लगातार पड़ता एक भारी हथौड़ा है यह
भीतर तो भीतर
गेट के बाहर निकलने के बाद भी उनकी पीठों पर
दूर तक बेताल प्रश्न-सा चिपका रहता है यह
गेट के भीतर समय बदल रहा है पारियों में
अयस्कों के लिए तापमान बदले जा रहे हैं
चीजे़ं आकार बदल रही हैं
मशीनें धरती की छाती को हिला रही हैं
ब्लेड चिंगारियों के फूल खिला रहे हैं
छोटे दाँतों की दुनिया पाँच बार घूमती है तो
एक बड़ा दाँता खिसकता है
बड़े दाँते के पेट में जाम होकर रह गये छोटे दाँते
ब्लेडों की चिंगारियाँ थम गयीं अचानक
फ़ायदे के लिए खुला एक कारख़ाना
बन्द होने में फ़ायदा देखने लगा
नीतिवाक्य की बग़ल में लटक गया एक बड़ा ताला
इस बीच उदारता विश्वव्यापी हो गयी थी
और स्थानीयता आत्महत्या करने लगी थी
नीतिवाक्य लटका था बाहर जस का तस
जबकि भीतर सम्पत्तियाँ निकस गयी थीं सारी
ऐसे में ही एक कामगार के लड़के ने
जो भरपेट पानी पिये हुए था
उखाड़ लिया वह नीतिवाक्य
और हवा में उछाल दिया यथाशक्ति…
एक पेड़ से जा टकराया वह नीतिवाक्य
और अपने वेग को खो गिर पड़ा
एक उठती दीवार के ताजे़ सीमेंट पर
अच्छी ख़ासी चहल-पहल थी दीवार की दोनों ओर
एक ओर से उठ रही थी अज़ान की आवाज़
दूसरी ओर धुआँधार कीर्तन चल रहा था
दोनों ओर से दौड़कर आये थे लोग
दैवीय करिश्मा समझ
‘कार्य ही पूजा है’
देखा उन्होंने
‘ये किसी की साज़िश है’
कहा उन्होंने।
नाम
चूँकि झाड़ी की ओट में नहीं छुपाई जा सकती थी आवाज़
एक किलकारी उसका वहाँ होना बता ही गई
झाड़ी न होती तो कोई नाला होता या ताल
मिल ही जाता है ऎसे नवजातों को अपना कोई लहरतारा
क्रंदन करते
टुकुर-टुकुर ताकते
और कभी निष्पंद…
कयास ही लगाए जा सकते हैं ऎसे में केवल
जैसे लगाए जते रहे हैं समय अनंत से
अवैध आवेग की देन होगा
कुँवारे मातॄत्व का फूल
किसी अमावस पल में रख गया होगा कोई चुपचाप यहाँ
होगा… होगा… होगा…
जो होता कोई बड़ा तो पूछ लिया जाता
कौन बिरादर हो भाई
कौन गाँव जवार के
कैसे पड़े हो यहाँ असहाय
बता देती उसकी बोली-बानी कुछ
कुछ केश बता देते कुछ पहनावा
होने को तो त्वचा तक में मिल जाती है पहचान
अब इस अबोध
लुकमान!
बचा लो यह चीख़…
एक गोद में एक फल आ गिरा है
एक गिरा फूल एक सूखी टहनी से जा लगा है।
०००
चार-पाँच घंटे एक शिशु को
दूध देने से पहले दे दिया गया है एक नाम
नाम- जैसे कोई उर्वर बीज
एक बीज को नम ज़मीन मिल गई है
धँस रहा है वह
अंकुरा रहा है वह
इस नाम को सुनते-सुनते वह समझ जाएगा यह मेरे लिए है
इस नाम को सुनते ही वह मुड़ पड़ेगा उधर
जिधर से आवाज़ आ रही है
अपने नाम के साथ एक बच्चा सयाना हो रहा है
और सयाना होगा और समझदार
इतना कि वह नफ़रत कर सकेगा दूसरे नामों से
नाम को सुनकर
आज उसने कई घर जलाए हैं
नाम को सुनकर आज उसने कई घर छोड़ दिए हैं
धुआँ है नाम
वह आग तक पहुँच रहा है
कोई है
जो नाम के पीछे चौबीसों घंटे पगलाए इस आदमी को
झाड़ी के पीछे के
अनाम-अगोत्र पाँच घंटों की याद दिला दे…
कैमरामैन देखो
हवा चल रही है
पत्ते हिल रहे हैं
जिन पेड़ों पर पत्ते नहीं
उनमें बैठे कबूतर हिल रहे हैं
सूखी साड़ी की तरह हिल रही है
झील की ऊपरी सतह
बच्चों की नावें हिल रही हैं
कैमरामैन! देखो-देखो
एक ही फल पर दृष्टि गड़ाये
दो पक्षियों के सम्बन्ध हिल रहे हैं…
ईश्वर
उसकी आँखें खुली समझ
उसके लिए एक नारियल फोड़ दो
एक बकरा काट दो
दिन में शीश नवा लो कई-कई बार
उसकी आँखें बन्द समझ
बिना यात्रा किये यात्रा बिल बना लो
डंडी मार लो बलात्कार कर लो
या गला रेत दो आदमी का
एक बड़ी सुविधा है ईश्वर
चिड़ियाँ की आँखों में
चिड़िया चहक रही है
हमारे चहकने की सहóाब्दियाँ गूँज उठी हैं
चिड़िया की चोंच में एक तिनका है
हमें अपना पहला बसेरा जुगाड़ता आदमी
दिखाई दे रहा है
चिड़िया फुदक रही है
डाल पर दीवार पर आँगन में
चिड़िया पर फैलाये फुर्र-से ओझल हो गयी है…
एक यान आकाश नापने के बाद
लौटता दिख रहा है
जैसे चिड़िया लौट रही हो
आदमी किसने बनाया आदिम को
यह इतिहास
चिड़िया की आँखों में पढ़ा जा सकता है
अपनी रचना प्रक्रिया तो बताओ
अंकुर फूट रहे हैं जहाँ-तहाँ
हरी पत्तियों से पाटा जा रहा है शून्य
फल देने को बौराये हुए हो
पेड़! जरा अपनी रचना-प्रक्रिया तो बताओ
नहीं बताओगे?
चुप रहागे यों ही क्या?
अरे भई, इतना कुछ रच रहे हो
बताओगे कुछ नहीं?
कितने बसन्त बीते
पतझड़ बीते कितने
कभी कुछ नहीं बताया तुमने…
और अब बूढ़े हो चले हो
अब गिरते वक़्त तो बता दो भाई…
लो, आखिर गिर गये तुम ज़मीन पर
बिना कुछ बताये
देखो
तुम्हारी कुछ शाखों के दरवाजे़ बन रहे हैं अब
कुछ की मेज-कुर्सियाँ
और उपशाखों की जलावन
कुछ लोग तो तुम्हारी सूखी छाल निकाल रहे हैं
कहते हैं ये औषधि है
और तुम्हारी उखड़ी जड़ ने तो बना दिया है
एक ऊँचा टीला
बच्चे चढ़ रहे हैं उस पर
बड़े दाँतों तले उँगली दबा रहे हैं
अपने प्रश्न का उत्तर पा गये हैं
शायद।
मनुष्य होने पर ही
कि मनुष्येतर भी है संसार
मनुष्य होने पर ही जाना हमने
बैल होने पर हम केवल जुतना जानते, खूँटा जानते अपना
अपने सहजुते बैल को चाट लेते कभी
कभी सींग मार लेते
चींटियाँ होने पर मिठास जान लेते शायद
पेड़ होने पर धूप, हवा और मिट्टी जान लेते
कोयलहोने पर कौए से राजनीति कर लेते
लेकिन उसमें न पश्चाताप होता न अपराध-बोध
व्याकरण नहीं रचते अगर मनुष्येतर होते हम
न विचार-मन्थन करते न आविष्कार
कोई धरोहर न होती हमारे पास
सारा सब कुछ सोचा हमने मनुष्य होकर ही समग्रता में
इस सम्भावना के साथ कि बहुत कुछ दबा है अभी जानने को
अपने जाने हुए में भी संशोधन किये हमने कई-कई बार
अणु के यथार्थ को पहचाना तो विराट की फन्तासी भी की
शायद बहुत पहले हमने मनुष्य होकर भी नहीं जाना
कि मनुष्य हैं हम
जब हमने जाना कि हम मनुष्य हैं
तब हमने यह भी जाना कि
हमारा जानना जानना नहीं ‘अवद्यिा’ है
मनुष्य कुछ नहीं है मनुष्य होकर भी हमने सोचा
और यह कि सच है अगर तो कुछ और है, मनुष्येतर
नहीं सोचा तो हमने केवल यह नहीं सोचा
कि मनुष्य ही सच नहीं है अगर
तो वह सच कैसे है
जो सोचता है यह मनुष्य, मनुष्येतर
तमीज़
जेब से निकली वह क्रीजदार रूमाल
बार-बार मुँह का जूठा पोंछ रही है
मगर गन्दी नहीं हो पा रही है
दिखने लायक जूठा कहीं था भी नहीं
बचा-बचा बीन-बीनकर खा रहा था इतने सलीके से वह
कि जूठा होना ही नहीं था
चेहरा भी उसका दर्पण रहा
उसी में देखा मैंने
जूठा मेरे चेहरे पर लगा थाकृ
ऑपरेशन के बाद
बाहर अटूट देखते रहने के बाद भी
नहीं भरा हिया
परस भी चाहिए उसे परस
आँखें दिपदिपाता खरगोश का ये बच्चा हरी घास में
रूठ कर दहाड़ मरती दो दाँतोंवाली ये बच्ची
ये हुमक-हुमक कर दूध पीता बछड़ा
ये सिर उचकाते फूलों के पुंकेसर…
गोकि हाथ काँप रहे हैं अशक्त
लेकिन छूकर ही मिलना है तोष
…मौत को अभी-अभी उसने
अपनी बच्चेदानी देकर लौटाया है।
अधैर्य
प्रश्न हल कर लिये जाने के बाद
और उत्तर मिलान के पूर्व
…जवाब नहीं इस संशयातुर विकल मध्य-पल का
थूक लगी उँगलियों ने
पलक झपकने के पहले ही
उत्तरमाला के पन्ने पलटवार रख दिये हैं
अपने को ही परखने का ऐसा अधैर्य
और कहाँ
सिवा छोटी कक्षाओं के…
प्लेटफॉर्म
कोई नाम पूछता है तो लगता है
भीतरी जेब का अस्तर काट रहा है
अभी पूछेगा जाना कहाँ है?
भूख है,नहीं खाता सामने ही तली जारही गर्म-गर्म पूड़ियाँ
प्यास होने पर पानी नहीं पीता, चाय नहीं पीता ठंड लगने पर
उकताहट होने पर मैगज़ीनें नहीं पलटता
सबकुछ उपलब्ध है जबकि यहाँ प्लेटफॉर्म पर कोई
जंजीर की दुकान है कि नहीं
ये सच है कि सारी जंज़ीरें ख़रीद कर भी नहीं बाँध सकता मैं
यहाँ की सन्दिग्धता
न ही खींच पाऊँगा
अपने समय से बाहर चलती रेलगाड़ियों को
बस निगाहों से बँधी अटैची को सीट पर बाँध लूँगा
किडनी पर का दबाव हल्का कर लूँगा
मेरा आँगन
बच्चे
दिन भर
ऊधम मचाते हैं
बच्चों ने
आँगन को
क्रिकेट का मैदान बना दिया है
माँ ने
कुछ फूलों के पौधे
रोप दिये हैं
आँगन की दाहिनी ओर
माँ ने
आँगन को
उपवन बना दिया है
भाई ने
बायीं ओर जगह देख
कुछ बीज बो दिये हैं
लौकी के
सेम के
कद्दू के
भाई ने
आँगन को
खेत बना दिया है
मेरे घर का हर सदस्य
आँगन को
अपने तरीके़ का बनाना चाहता है
मेरा आँगन आँगन नहीं
हिन्दुस्तान हो गया है।
मुक्ति
वह पुर्ज़ा चलता रहा ढीला होकर भी
कुछ देर तक कुछ दूर तक
अपने ढीलेपन को बज-बजकर बताता भी रहा
पर गाड़ी की भारी भरकम गौं-गौं में दब गया
ढीलेपन की शुरुआत होती ही ऐसी है
कि शुरू में सबकुछ ठीक-ठाक-सा लग रहा होता है
पर पुर्ज़ा जानता है हाथ से सरकती जाती अपनी सामर्थ्य
डाल से टूट गये हरे पत्ते-सा पड़ा है बोल्ट सड़क पर
किसी मिस्त्री की तेज़ निगाह की दरकार है उसे
या फिर ऐसी आदत की जो किसी भी चीज़ को
कभी बेकार नहीं समझती
मुक्ति नहीं है यों एकान्त में पड़े रहना
भीतरी चूड़ियों के कसाव की संगत में ही है मुक्ति…
बुढ़ापे के लिए नहीं
गाय अपने बछड़े को चाट रही है
रह-रहकर चाट डाला है उसने पूरा बदन
कान के भीतर जाती सुरंग को भी दूर तक
कुछ जमा है वहाँ अवांछित
एक चिड़िया भी रह-रहकर चोंच छुआ रही है वहीं
थनों की तरफ़ हुमक रहा है बछड़ा बार-बार
पर मुँह में जाली बँधी है
मालिक कूटनीति के तहत जाली लगावाये है मर्द बच्चे के मुँह पर
चिड़िया भी अपने स्वार्थ के लिए चोंच मार रही है
पर गाय के लिए ऐसा नहीं कहा जा सकता
गाय अपने बुढ़ापे के लिए भी नहीं चाट रही है।